ब्रह्माकुमारी मीरा बहन जी, ईश्वरीय विश्व विद्यालय की वरिष्ठ राजयोग शिक्षिकाओं में से एक हैं। वर्तमान समय वे मलेशिया में सेवारत हैं। ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के दक्षिणोत्तर एशिया के शाखाकेन्द्रों जैसे कि मलेशिया, सिंगापुर, थाइलैण्ड, इंडोनेशिया, श्रीलंका, बर्मा आदि देशों की निमित्त निर्देशिका है। इन्होंने ईश्वरीय सेवार्थ विश्व के अनेक देशों की यात्रायें की हैं। मीरा बहन ‘स्व-विकास की कुशलता’, ‘मूल्याधारित शिक्षा’, ‘समय तथा जीवन पर प्रभुत्व’ तथा ‘राजयोग मेडिटेशन’ विषयों पर विशेष प्रवचन करती हैं।
दीदी जी के अनुसार; सन् 1968 में पहले मेरे लौकिक पिताजी ईश्वरीय ज्ञान में आये और छह मास के बाद मैं ज्ञान में आयी। पिता जी भक्तिमार्ग में भगवान को बहुत ढूंढ़ते थे। वे जहाँ-जहाँ जाते ये वहाँ-वहाँ मुझे और मेरे दो लौकिक भाइयों को ले जाते थे। पिताजी भक्ति से सन्तुष्ट नहीं थे। जब वे ज्ञानमार्ग में आये तो हमने देखा कि उनके जीवन में काफी परिवर्तन आया है। वे अच्छे भक्त तो थे लेकिन साथ-साथ उनमें देह-अहंकार और क्रोध बहुत था, इस कारण घर में क्रोध का बहुत ज़बर्दस्त वातावरण रहता था। जब वे ज्ञान में चलने लगे तो क्रोध कम होता गया। घर में हम सब को मालूम हो रहा था कि पिताजी में परिवर्तन आ रहा है। मैं सोचती थी कि यह कैसे हुआ? उन्होंने हमें नहीं बताया था कि वे कहाँ जा रहे हैं और क्या कर रहे हैं? हमें अहसास हो रहा था कि ये कहीं तो जा रहे हैं और कुछ सीख रहे हैं। उनके चेहरे पर मुस्कराहट, शान्ति दिखाई पड़ने लगी थी और घर के वातावरण में मधुरता आ गयी थी।
एक दिन उन्होंने खुद बताया कि वे कहाँ जाते हैं और क्या सीख रहे हैं। उस समय उन की बातों पर खास मेरा ध्यान नहीं गया। वे रोज़ कोई न कोई पुस्तक या चित्र लेकर घर आते थे ताकि हम सब बच्चों का ध्यान उन की तरफ़ जाये। उस समय मैं मैसूर में बी.एस.सी. के अन्तिम वर्ष में पढ़ रही थी इसलिए मैंने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। मैं परीक्षा की तैयारी में थी। उन्हीं दिनों, एक बार पिताजी प्रवचन कराने के लिए ब्रह्माकुमार करुणा भाई को घर लेकर आये। हमें प्रवचन सुनने में कोई रुचि नहीं थी लेकिन घर पर मेहमान आये हैं, वे कुछ सुना रहे हैं तो उनको सम्मान देने के भाव से उन के सामने बैठे थे लेकिन बुद्धि में उस प्रवचन का एक शब्द भी बैठा नहीं। दोबारा उन्हें बुलाने के लिए पिताजी ने पूछा तो घर वालों ने मना कर दिया कि हमें उस ज्ञान की कोई ज़रूरत नहीं है।
उसके बाद मेरी फाइनल परीक्षा पूरी हो गयी। छुट्टी के दिन चल रहे थे। परीक्षा परिणाम आया नहीं था तो पिताजी ने कहा, ‘बच्ची, अभी तो तुम्हारी छुट्टियां हैं, इन दिनों तुम टाईपिंग आदि सीख लो, समय भी सफल हो जायेगा और एक कला भी तुम्हारे पास रहेगी।’ मैंने ‘हाँ’ कह दी। पिताजी मुझे उस टाईपिंग इन्स्टीट्यूट में ले गये जो सेन्टर के सामने ही था। वहाँ शुल्क आदि भरकर प्रवेश ले लिया। उसके बाद पिताजी ने कहा, ‘बच्ची, यहीं सामने ही आश्रम है, चलो पाँव तो रख आयें। पिता जी को खुश करने के लिए मैंने सोचा, चलो, पिताजी की यह बात भी मान लेते हैं।
उन दिनों मैसूर आश्रम पर दादी हृदयपुष्पा जी रहती थीं लेकिन जब मैं वहाँ गयी तो वे मधुबन गयी हुई थीं। हृदयपुष्पा दादी जी के मधुबन से आने के बाद उन से मिलाने के लिए पिताजी मुझे फिर से सेन्टर पर ले गये। दादी जी को कन्नड़ भाषा नहीं आती थी, मुझे हिन्दी नहीं आती थी। मैं तो कन्नड़ और अंग्रेज़ी ही जानती थी। जब हम सेन्टर पर गये तो दादी जी अपने रूम में थीं। उन्होंने हमें वहीं पर बुलाया। मैंने तो कभी ब्रह्माकुमारियों को देखा ही नहीं था। मैं दादी जी के सामने गयी। मैंने उनके साथ कुछ बात नहीं की और उन्होंने भी मेरे से कुछ नहीं कहा लेकिन मेरी आँखों में आँखे डालकर देखा और मैंने भी उनकी आँखों में आँखे डालकर देखा। मुझे यह भी नहीं पता था कि यहाँ पर एक-दूसरे की दृष्टि लेनी होती है। उस समय मेरा साप्ताहिक कोर्स भी नहीं हुआ था। आश्चर्य की बात यह है कि उसी दृष्टि ने मेरे जीवन को मोड़ दिया। पता नहीं, बाबा ने क्या कमाल की कि दादी जी की दृष्टि लेते ही मुझे पवित्रता, शान्ति और आनन्द के प्रकम्पनों का अनुभव होने लगा। उसी समय मन में मुझे शक्तिशाली संकल्प आया कि मुझे भी इन जैसा बनना है। मुझे यह भी पता नहीं था कि यह दादी कौन हैं, इनका लक्ष्य क्या है, ये क्या करती हैं? यह सब बाबा की ही कमाल थी। पहला संकल्प तो मन में यह उठा कि मुझे भी इनके जैसे बनना है और दूसरा संकल्प यह उठा कि इन जैसा बनना है तो इनके साथ रहना है। फिर मैंने लौकिक पिता से कहा कि पापा, मैं इन जैसा बनना चाहती हूँ और इनके साथ रहना चाहती हूँ। पिताजी एकदम खुश हो गये क्योंकि वे छह मास से चिन्तन में थे कि इसको कैसे भी करके ज्ञान में ले आयें। उसी रात पिताजी मुझे हृदयपुष्पा दादी जी के पास ले गये। उसी दिन पिताजी ने दो जोड़ी सफ़ेद कपड़े खरीद कर दिये और उसके बाद मैं लौकिक घर वापिस गयी ही नहीं। दादी और मैं एक-दूसरे की भाषा नहीं जानते थे लेकिन एक-दूसरे की बातों को, एक-दूसरे के भाव से समझ लेते थे और वह सही भी होता था। पन्द्रह दिन दादी के साथ सेन्टर पर रही, ये दिन मेरे जीवन के बहुत यादगार दिन थे।
पहले दिन से ही बाबा ने मुझे ईश्वरीय सेवा में लगा दिया। जिज्ञासुओं को कोर्स कराते-कराते मेरा कोर्स भी पूरा हुआ। मेरा अलग से ईश्वरीय साप्ताहिक कोर्स नहीं हुआ क्योंकि उन दिनों वहाँ पर खास बहनें नहीं थीं, एक-दो ही बहनें थीं। कन्नड़ और अंग्रेज़ी में अच्छी पकड़ होने के कारण मुझे ही ज़्यादा ज्ञान सुनाना, कोर्स कराना पड़ता था। लौकिक जीवन में, भगवद्गीता मेरी बहुत पढ़ी हुई थी। इसलिए दादी कहती थीं कि पहले तुम जाकर उनको गीता सुनाओ, बाद में मैं आकर ज्ञान सुनाऊँगी। मैं गीता के श्लोक सुनाकर उनका अर्थ बताती थी। फिर जब दादी प्रवचन करती थी तब उसके कन्नड़ या अंग्रेज़ी भाषानुवाद के लिए मुझे कहती थी। मुझे हिन्दी नहीं आती थी लेकिन ‘ना’ कैसे कहें? लौकिक जीवन में भी बड़े कोई बात कहते थे तो मैं कभी ‘ना’ नहीं कहती थी। बड़ों की हर बात को ‘हाँ जी’ कहकर उसकी पालना करती थी। यहाँ भी उसी संस्कार के अनुसार दादी जी की बात मानकर उनके वायब्रेशन्स द्वारा जितना कैच कर सकूँ, उतना अनुवाद कर बताती थी। मुरली पढ़ते-पढ़ते और दादी जी के साथ बातें करते-करते ही मैंने हिन्दी भाषा सीखी।
सेन्टर में रहना शुरू करते ही साकार बाबा के साथ पत्र द्वारा मेरा सम्पर्क शुरू हो गया। पन्द्रह-बीस दिन के बाद एक पार्टी बाबा से मिलने मधुबन जा रही थी। उस में सुन्दरी बहन थी और मेरे लौकिक पिताजी भी थे। पिताजी अपने साथ मधुबन चलने के लिए मुझे फोर्स (उत्साहित) कर रहे थे। मुझे इच्छा नहीं थी लेकिन पिताजी भी जा रहे थे तो उनको खुश करने के लिए न चाहते हुए भी मुझे मधुबन जाना पड़ा, साथ में मेरा लौकिक भाई भी था। हम तीन दिन और तीन रात सफ़र करके आबू रोड पहुंचे। मैं यह नहीं जानती थी कि हम भगवान से मिलने जा रहे हैं, समझा था कि बाबा जी से मिलने जा रहे हैं। फिर भी जाने में बहुत खुशी थी, एक तरह का अजीब-सा उमंग था। जैसे-जैसे ट्रेन आबू रोड के नज़दीक पहुँचती गयी, वैसे-वैसे मेरे मन में खुशी बढ़ती गयी कि हम एक महान् हस्ती से मिलने जा रहे हैं। यह पता नहीं था कि वह व्यक्ति कौन है, कैसा है लेकिन अन्दर से यह आभास ज़रूर होता था कि वह मेरा अति प्रिय है, अति समीप का है।
जब हम आबू रोड आये, तो हमें बस में बिठाकर ऊपर भेज दिया गया। बस ने हमें बस स्टैण्ड पर उतार दिया। उस समय सामान एक बैलगाड़ी ले जाती थी और हम पैदल पाण्डव भवन तक गये। जब हम पैदल निकले और पाण्डव भवन के पीछे की ओर पहुंचे तो वहाँ से पाण्डव भवन की तरफ़ नज़र घुमायी और देखा कि ऊपर मरगोल पर बाबा खड़े हुए थे। बाबा को दूर से देखते ही हम सब को इतनी खुशी हुई कि मन करता था कि हम उड़कर वहाँ पहुँचे। पीछे के द्वार से हम पाण्डव भवन में गये। बाबा ऊपर से उतरकर आ रहे थे। उन दिनों बाबा डायरेक्ट किसी से मिलते नहीं थे। जाते ही पहले स्नान-पानी करके, रिफ्रेश होकर शाम को बाबा से मिलते थे।
शाम को हम सब परिवार वाले बाबा से मिलने बाबा के कमरे में गये। लौकिक पिताजी को यह देखने की इच्छा बहुत थी कि निराकार परमात्मा साकार तन में कैसे प्रवेश करते हैं। बाबा कमरे में खटिया पर बैठे थे। आगे पिताजी थे, उनके पीछे मैं थी और मेरे पीछे भाई था। पिताजी बाबा के कमरे के दरवाज़े पर गये और बाबा की तरफ़ देखा तो वहीं से ही ‘बाबा’ कहते, एक बड़ी छलाँग मारकर बाबा की गोद में चले गये; बाबा से आलिंगन किया। उनको साकार बाबा नहीं दिखायी पड़ रहे थे, एक ज्योति दिखायी पड़ रही थी। बाबा तो समझ चुके थे। बाबा उसको गले लगाकर कहते रहे, अच्छा बच्चे, अच्छा बच्चे। दो मिनट के बाद पिताजी को पता पड़ा कि वे बाबा की गोद में हैं तो उनको लज्जा आयी कि मैं इतना बड़ा, इस बूढ़े बाबा की गोद में बैठा हूँ। बाबा ने कहा, ‘बच्चे, कोई हर्ज़ा नहीं, कोई बात नहीं। बाप के पास आये हो, बाप के घर में आये हो।’ दो मिनट बाबा ने पिताजी को अपनी गोद में बिठाया, फिर बाबा ने हम तीनों को अपने सामने बिठाया। पिताजी का यह संकल्प था कि बच्ची, भले सेन्टर पर रहे लेकिन नौकरी ज़रूर करे। इसलिए उन्होंने इस बारे में बाबा से पूछा। उन दिनों भारत में यह मान्यता अधिकतर लोगों में थी कि किसी धर्मसंस्थान या आश्रम के पैसे से अपना जीवन नहीं बिताना चाहिए, अपनी आजीविका खुद ही चलानी चाहिए। इसलिए पिताजी का यह विचार था कि बच्ची भले आश्रम की सेवा करे लेकिन अपने उपार्जन से पेट पाले। बाबा ने भी छुट्टी दी कि भले, सुबह 10 बजे तक सेन्टर पर सेवा करे और 10 बजे से शाम 5 बजे तक नौकरी करे, उसके बाद सेन्टर में सेवा करे। पिताजी को बहुत खुशी हुई कि बाबा ने छुट्टी दे दी। मैंने भी बाबा से कुछ नहीं बोला और बाबा ने भी मुझ से कुछ नहीं कहा। जब बड़े आपस में बात कर रहे हैं तो मुझे भी हिम्मत नहीं हुई कुछ बोलने की। मैं चुप थी। उस समय हम सात दिन मधुबन में रहे।
जब पहली बार मैंने बाबा को कमरे में देखा तो मुझे लगा कि यह तो मेरा सच्चा पिता है जिससे मैं बहुत समय से अलग हो गयी थी। बाबा ने हमें बहुत शक्तिशाली प्रेमभरी दृष्टि दी और बहुत-से महावाक्यों से हमारी झोली भर दी। परन्तु अफ़सोस की बात यह थी कि बाबा ने जो कहा वह हमें पता नहीं पड़ा क्योंकि उसका भाषानुवाद करने वाले वहाँ कोई नहीं थे। केवल बाबा की दृष्टि और वायब्रेशन्स से ही हम अनुभव करते थे कि बाबा ने यह-यह कहा होगा। भले ही मुझे यह पता नहीं था कि भगवान ही ब्रह्मा बाबा द्वारा हमें मिल रहा है लेकिन बाबा के भाव और भावना से हमें महसूस होता था कि हमने बहुत समय से खोये हुए कोई अपने को पाया है।
सात दिन तक हम बाबा के साथ ही रहे। सारा दिन हम बाबा के साथ ही घूमते थे। उस समय मधुबन में ज़्यादा लोग नहीं होते थे। भोजन पर बाबा के साथ, बगीचे में बाबा के साथ, घूमने में बाबा के साथ रहते थे। जहाँ-जहाँ बाबा जाते थे, हम भी उनके साथ जाते थे। मधुबन देखकर मुझे यह अनुभव हुआ कि मैं यहाँ अनेक बार आयी हूँ, बहुत समय तक यहाँ रही है। मधुबनवासी हमारे से जो बोलते थे, वह हमें समझ में नहीं आता था लेकिन हमें यह ज़रूर आभास होता था कि मूलतः हम यहाँ के रहवासी थे, बहुत दिनों से यहाँ से कहीं चले गये थे। बाबा मुरली के समय हम कन्याओं को सामने ही बिठा देते थे । रोज़ मुरली भी सुनती थी लेकिन समझ नहीं पाती थी, फिर भी सुनकर बहुत खुशी होती थी। फिर हम मैसूर चले गये। जब वहाँ पहुंचे तो परीक्षा का परिणाम निकला हुआ था। लौकिक पिताजी ने कहा कि अभी तुम नौकरी करो, बाबा ने भी छुट्टी दी हुई है। परन्तु मन में आया कि नौकरी नहीं करनी है। उस समय मुझे बहुत अफ़सोस हुआ कि मैंने बाबा को क्यों नहीं बताया कि मुझे नौकरी नहीं करनी है। फिर मैंने बाबा को चिट्ठी लिखी कि बाबा, मुझे नौकरी नहीं करनी है, मुझे पूर्ण रूप से ईश्वरीय सेवा करनी है। लौकिक में मुझे कोई बन्धन नहीं था। जिस दिन हृदयपुष्पा दादी जी की दृष्टि मुझ पर पड़ी, उस दिन से ही मेरे लौकिक रिश्ते-नाते खत्म हो गये, न मुझे लौकिक सम्बन्ध की कशिश हुई और न मेरे पिताजी को मेरे से मोह रहा। सिर्फ़ नौकरी के कारण ही पिताजी से थोड़ी खिटपिट हुई क्योंकि उनका विचार या कि बच्ची, स्वतन्त्र रूप से अपना जीवन बिताये।
जब मैंने बाबा को पत्र लिखा तो बाबा ने उस पत्र का जवाब दिया कि जब तुमको निश्चय है कि बेहद का बाप आया हुआ है, तो तुमको बकरी की तरह क्यों रहना है, शेरनी की तरह गजगोर करो। बाबा के इन महावाक्यों ने मेरे में बहुत शक्ति भर दी और मुझे निर्भय होकर आगे बढ़ने में मदद की। मुझे एक और बहाना भी मिल गया था कि मैं तो अपने आप ज्ञान में नहीं आयी हैं, लौकिक पिताजी ले आये हैं। मैं पिताजी से कहती थी कि आप मुझे कुछ नहीं कहना क्योंकि आप ही मुझे ज्ञान में ले आये हैं, अब मुझे नौकरी नहीं करनी है, सेन्टर पर ही रहकर ईश्वरीय सेवा करनी है। कुछ दिनों तक उन्होंने परीक्षा ली लेकिन बाबा के पत्र ने मुझ में इतनी शक्ति भर दी थी कि मैं टस से मस नहीं हुई। फिर पिताजी ने समझ लिया कि इसका निश्चय दृढ़ है, जैसे चाहे वैसे रहे।
शुरुआत के 7-8 साल मैं दादी हृदयपुष्पा जी के साथ बेंगलूर में रही। हृदयपुष्पा दादी को बाबा से बहुत प्यार था, वो हमें रात-रात बैठकर बाबा और मम्मा के बारे में सुनाती थीं। उस समय हम चार-पाँच कन्यायें उनके पास थीं। वे ऐसे सुनाती थीं कि हमें लगता था, हम भी उस समय उनके साथ थे। हमें ऐसा लगता था कि वह अनुभव सिर्फ़ उनका नहीं है, हमारा भी है। इस तरह से, दादी हृदयपुष्पा जी ने हमारे रग-रग में बाबा-मम्मा की बातें भर दी। अलौकिक जन्म होते ही बाबा ने मुझे सेवा और ज़िम्मेवारियाँ दे दी जैसे कि कोर्स कराना, भाषण करना, दादी के भाषणों का अनुवाद करना, सेन्टर पर रहकर काम-काज संभालना, अलग-अलग स्थानों पर सेवार्थ जाना, इत्यादि।
मैंने मुरली सुनकर तथा पढ़कर ही हिन्दी समझना और बोलना सीखा। पहले मुरली सुनती थी, बाद में पढ़ती थी, उसके बाद उसका कन्नड़ में अनुवाद करती थी। उसकी कार्बन कॉपी करके पढ़ने के लिए दूसरों को देती थी। इस प्रकार, बाबा ने मुझे मुरली द्वारा ही हिन्दी भाषा सिखायी। यह मेरे लिए बाबा की अपार कृपा कहिये कि बाबा ने मुझे कम समय में ही हिन्दी सिखायी, इससे बेंगलूर और दक्षिण भारत के अन्य स्थानों पर बहुत सेवा हुई क्योंकि उन दिनों वहाँ हिन्दी से कन्नड़ और अंग्रेज़ी में अनुवाद करने वाले भाई-बहनें बहुत कम थे।
सन् 1968 से 1977 तक मैं दादी हृदयपुष्पा जी के साथ बेंगलूर में रही। जब मैं ज्ञान में आयी थी, उस समय मेरी आयु 19 वर्ष की थी और साकार बाबा के पास जब मधुबन आयी थी उस समय मैं 20 वर्ष की थी। सन् 1969 में जब बाबा अव्यक्त हुए, तब हृदयपुष्पा दादी जी मुझे सेन्टर पर छोड़कर मधुबन चली गयी क्योंकि उस समय वहाँ मैं ही बड़ी थी। मधुबन में बाबा को श्रद्धांजली देने भाई-बहनें कैसे गये थे, कैसे बाबा के पार्थिव शरीर का श्रृंगार किया गया था, शोभायात्रा कैसे निकली थी, ये सब दृश्य बाबा मुझे सेन्टर पर दिखा रहे थे। इससे मुझे अफ़सोस नहीं हुआ कि मैं अन्तिम क्रिया में गयी नहीं। ज्ञान में आते ही कुछ समय तक मेरा ट्रान्स का पार्ट चला था। इसलिए मधुबन के उस कार्यक्रम को मैंने प्रैक्टिकल देखा।
उसी साल ही, सन् 1969 में मधुबन में कन्याओं के लिए दो मास की भट्ठी और ट्रेनिंग रखी गयी थी। मैं दो मास पूरे नहीं रह सकी, एक मास की ट्रेनिंग ली। वह बहुत सुन्दर और महत्त्वपूर्ण ट्रेनिंग रही। उस में सब-कुछ सिखाया गया था। दादी चन्द्रमणि जी, दादी जानकी जी और सुदेश बहन आदि ट्रेनिंग देने वाली हमारी टीचर थीं। उन दिनों अव्यक्त बापदादा रोज़ आते थे। लम्बी-लम्बी मुरली चलाते थे, बच्चों से चिटचैट करते थे। बच्चों को ढेर सारे वरदान देते थे।
प्रश्नः क्या आप पहले भक्ति करती थीं?
उत्तरः ऐसे श्रद्धात्मक भक्ति नहीं करती थी लेकिन स्नान करते समय विष्णु के सहस्र नाम का पठन करती थी, उसके बाद गीता का एक अध्याय पढ़ा करती थी। उसके बाद ही मुझे घर में पीने के लिए कॉफी मिलती थी। बाक़ी पारम्परिक भक्ति आदि नहीं करती थी। मैं रोमन कैथोलिक स्कूल में पढ़ती थी, संग क्रिश्चियन्स का था तो भक्ति में उतनी रुचि नहीं थी लेकिन हमारा अविभक्त कुटुम्ब था। परिवार बहुत बड़ा था, दादा, दादी, चाचा, चाची और उनके बच्चे। बहुत बड़ा धार्मिक परिवार होने के कारण, स्कूल से घर में आकर भक्तिमार्ग की परम्पराओं की पालना करती थी।
प्रश्नः लौकिक में आपका क्या लक्ष्य था?
उत्तरः मुझे समाज सेवा करने की बहुत इच्छा थी। मैं डॉक्टर बनना चाहती थी इसलिए स्नातक में मैंने ऐसे ही विषयों को चुना था कि उसके बाद डॉक्टरी कर सकूँ लेकिन परीक्षा परिणाम निकलने से पहले ही जीवन की दिशा बदल गयी, मुझे ईश्वर मिल गया, ईश्वरीय ज्ञान मिल गया। इससे मैं बेहद खुश हो गयी कि चार-पाँच साल पढ़ने के बाद भी मैं डॉक्टर बन सकती थी या नहीं, क्या पता? अगर डॉक्टर बन भी जाती तो भी समाज सेवा कर सकती थी या नहीं, इसका क्या भरोसा? लेकिन बाबा की बनने के तुरन्त बाद ही बाबा ने मुझे समाज सेवा में लगा दिया। डॉक्टर न बनने का मुझे कोई अफ़सोस नहीं है क्योंकि उससे भी बेहतर सेवा करने का मौका मुझे मिला है इसलिए मैं बेहद खुश हूँ, सन्तुष्ट हूँ।
प्रश्नः आप विदेश सेवा में कब गईं? उस समय के कुछ अनुभव सुनाइये।
उत्तरः सन् 1977 में मैं विदेश सेवा में गयी। जब मैं ट्रिनिडाड में थी, उस समय वहाँ दादी जी और रमेश भाई आये थे। वहाँ सेन्टर नहीं था। मैं किसी एक परिवार के साथ रहती थी। आठ-नौ साल भारत के सेन्टर पर समर्पित रूप में रहकर, फिर भारत के बाहर रहना और किसी परिवार के पास अकेले रहना, यह मेरे लिए पहला अनुभव था। ट्रिनिडाड में हिन्दू बहुत हैं। जब वहाँ दादी जी और रमेश भाई आये, तो बहुत अच्छी सेवा हुई, बहुत कार्यक्रम हुए। उसके बाद वहाँ के अच्छे-अच्छे गणमान्य व्यक्ति, शिक्षामंत्री आदि भी अच्छे सम्पर्क में आये। सेवा बहुत बढ़ती गयी।
सन् 1978 में एक दिन हम शिक्षामंत्री से मिलने गये थे। उन्हीं दिनों हिन्दू महासभा वाले अपना रजत महोत्सव मना रहे थे। उसमें शिक्षामंत्री को निमंत्रण था। शिक्षामंत्री की युगल बाबा की पक्की बच्ची थी। जब हम उनसे मिलने गये थे तो उन्होंने मेरे से पूछा कि मैं कार्यक्रम में जा रहा हूँ, उसमें क्या भाषण करना है, मुझे लिखकर दीजिये। उस समय मेरे पास एक पुस्तक थी ‘वर्ल्ड पीस एण्ड पीस ऑफ़ माइण्ड‘ (विश्वशान्ति और मनःशान्ति), वह मैंने दे दी। उस सभा में उन्होंने उसी पुस्तक में से पढ़कर सुना दिया और कहा कि हमारे पास ब्रह्माकुमारी बहनें आयी थीं, उन्होंने बहुत अच्छी-अच्छी बातें सुनायीं।
उन दिनों, रेडियो में भी बाबा का कार्यक्रम चलता था। विदेश में मैंने यह देखा कि बाबा के बच्चों में बाबा और बाबा के महावाक्यों के प्रति अटूट निश्चय और आदर रहता है। कितनी भी रुकावटें, परीक्षायें आ जायें, वे हलचल में नहीं आते। ट्रिनिडाड के बाद मैं कैनेडा गयी। सन् 1981 में ग्याना के बाबा के सेन्टर में आग लग गयी थी। मुझे कैनेडा से ग्याना भेजा गया। मकान पूरी तरह से जल गया था। ऐसी संकट की स्थिति में भी वहाँ के भाई-बहनें अचल, अडोल और साक्षी स्थिति में थे। ग्याना के आंटी और अंकल सब भाई-बहनों को अपने घर ले गये और सब ने मिलकर योग किया, बाबा को भोग लगाया।
जब मैं वहाँ गयी तो बाबा के सब बच्चों ने मिलकर उसी स्थान पर, उतना ही मकान तीन महीने के अन्दर तैयार कर दिया। स्थानीय लोग यह देखकर आश्चर्य चकित हुए कि तीन महीने के अन्दर इतना बड़ा मकान कैसे तैयार हो गया! उस मकान के उद्घाटन पर वहाँ के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि आये। हमने अनुभव किया है और आज भी कर रहे हैं कि विदेशों में सेवा करते समय बाबा की बहुत ही मदद होती है, कैसी-कैसी विकट परिस्थितियों में बाबा, बच्चों की रक्षा करता है, कैसे डायरेक्शन देता है, यह बहुत विचित्र अनुभव होता है।
ट्रिनिडाड, ग्याना, मोरीशियस जैसे देशों में बाबा की सेवा करना सहज है क्योंकि वहाँ हिन्दू हैं, वे हिन्दू दर्शन को जानते हैं, विश्वास करते हैं लेकिन जब मैं मुस्लिम और क्रिश्चियन देशों में गयी तो वहाँ आरम्भ में थोड़ी कठिनाई हुई। जब मैं बारबडोस और सूरीनाम में गयी थी तब वहाँ कोई सेन्टर नहीं था। हमें होटलों में रहकर सेवा करनी पड़ती थी। लोगों के पास जाकर खुद ही अपना परिचय देते थे, रेडियो में, अखबारों में भेंटवार्ता देते थे और कार्यक्रमों का आयोजन कराते थे। कई बार, जहाँ हम रहते थे, उसी होटल में उनको बुलाकर ज्ञान और योग सिखाना पड़ता था। साउथ ईस्ट एशिया में जब मैं सेवा करने गयी तो वहाँ मुझे बहुत सीखने को मिला क्योंकि वहाँ मुस्लिम हैं, बौद्धि हैं, हिन्दू भी हैं, किसको कैसे समझायें यह सीखने को मिला। हमने यह समझ लिया कि हरेक को ब्राह्मण नहीं बना सकते लेकिन जो व्यक्ति, जिन मान्यताओं को मानता है, उन्हीं के अनुसार ज्ञान सुनायें तो कम से कम वह बाबा का सन्देश तो पाता है, सम्बन्ध सम्पर्क में आता है और बाबा के कार्य में किसी न किसी रूप में सहयोगी बनता है। भारत में जैसे साप्ताहिक कोर्स कराते हैं, वैसे वहाँ नहीं करा सकते हैं। वहाँ सात दिनों से ज़्यादा, कई बार महीनों तक उनका कोर्स चलता है क्योंकि वहाँ, यहाँ के जैसे क्रमबद्ध रूप में चक्र, सीढ़ी, कल्पवृक्ष आदि के बारे में नहीं बता सकते। उनको उनके ही विश्वास और मान्यताओं के आधार पर ज्ञान देना पड़ता है।
प्रश्नः इस ज्ञान में आपको विशेष क्या अच्छा लगा?
उत्तरः विशेष रूप से मुझे दो चीजें अच्छी लगीं, एक, अमृतवेले का योग और दूसरा, बाबा की मुरली। ये मेरी अति पसन्दीदा खुराक हैं। मैं कहीं भी हूँ, किसी स्थिति में भी हूँ, प्लेन में हूँ, ट्रेन में हूँ, बस में हूँ, सेन्टर पर हूँ या होटल में हूँ इन दोनों को कभी मिस नहीं करती क्योंकि अमृतवेले का समय बाबा ने बच्चों के लिए रखा हुआ है। उस समय हमें सारे दिन के लिए बाबा से प्रोग्राम मिलते हैं, आदेश-निर्देश और वरदान मिलते हैं। उस समय बाबा से जो शक्ति मिलती है, वो सारे दिन काम आती है, हमारी रक्षा करती है, सही दिशा निर्देशन करती है। इसलिए हमेशा मैं अमृतवेले के इन्तज़ार में रहती हूँ।
बाबा की मुरली मुझे इसलिए अति प्रिय है कि वह बहुत ही अमोघ और अगाध वस्तु है। बाबा की मुरली दिल को बहलाने वाली है, मन को रिझाने वाली है। बाबा की मुरली में रोज़ कोई न कोई नया गूढ़ रहस्य रहता है और हमेशा आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी प्रेरणायें रहती हैं। मुरली से ज्ञान बढ़ता जाता है। इसलिए किसी भी कारणवश मैं इन दोनों को छोड़ने का समझौता नहीं करती।
प्रश्नः सारे दिन आप व्यक्तिगत रूप से अपने ही लिए क्या पुरुषार्थ करती हैं?
उत्तरः बाबा कहते हैं ना कि बीच-बीच में ड्रिल करो, शरीर से अलग होने का अभ्यास करो। मैं दिन में कम से कम आठ बार इसका अभ्यास करती हूँ। कितना भी व्यस्त रहूँ लेकिन ट्रैफिक कण्ट्रोल मैं ज़रूर करती हूँ, तीन मिनट नहीं सही लेकिन दो मिनट तो अवश्य करती हूँ। मैं अपना अनुशासन नहीं तोड़ती। ब्राह्मण जीवन की विशेषता मैं यही मानती हूँ कि बाबा ने हमें जो अनुशासन, नियम-मर्यादायें दी हैं, उनको किसी भी हालत में तोड़ना नहीं चाहिए, किसी भी कीमत पर उनके साथ समझौता नहीं करना है, उन पर अडिग और अटल रहना है। बाबा मुरलियों में जो भी डायरेक्शन देते हैं, उनको पहले मैं अपने पर लेती हूँ, पहले मैं करती हूँ, बाद में स्टूडेण्ट्स को कहती हूँ।
प्रश्नः बाबा के नये-नये बच्चों के लिए आप क्या कहना चाहती हैं?
उत्तरः अगर आप कोई बड़ी सेवा न भी कर सकें तो कोई हर्जा नहीं लेकिन ब्राह्मण जीवन के जो नियम-मर्यादायें हैं, उनको निरन्तर निभाते जायें। यही सबसे अच्छा, विशेष और महान् पुरुषार्थ है। ज्ञान में आते ही बहुत नशा रहता है, सब नियमों का पालन करते हैं, आगे चलते-चलते नियमों में ढीले हो जाते हैं। अगर जीवनपर्यन्त ब्राह्मण जीवन के इन नियमों (अमृतवेले का योग, मुरली क्लास, पवित्रता, सत्संग, आदि) को निरन्तर अपने जीवन में पूरे उमंग-उत्साह से पालन करते रहेंगे तो आप कभी इस जीवन में न रुकेंगे, न पीछे हटेंगे, आगे बढ़ते ही रहेंगे, उन्नति पाते ही रहेंगे। इन नियमों में अगर थोड़ी-सी भी कमी आ गयी तो पुरुषार्थी जीवन की पटरी से आप उतर जाते हैं, फिर चलने के लिए, उस रफ़्तार को पकड़ने के लिए शुरू से मेहनत करनी पड़ेगी, इसमें समय, शक्ति और श्रम अधिक लगाना पड़ता है। इसलिए यह पूर्ण पुरुषार्थ करें कि कम से कम इन चार नियमों का उल्लंघन कभी न करें।
अपने दिन को बेहतर और तनाव मुक्त बनाने के लिए धारण करें सकारात्मक विचारों की अपनी दैनिक खुराक, सुंदर विचार और आत्म शक्ति का जवाब है आत्मा सशक्तिकरण ।
ज्वाइन पर क्लिक करने के बाद, आपको नियमित मेसेजिस प्राप्त करने के लिए व्हाट्सएप कम्युनिटी में शामिल किया जाएगा। कम्युनिटी के नियम के तहत किसी भी सदस्य को कम्युनिटी में शामिल हुए किसी अन्य सदस्य के बारे में पता नहीं चलेगा।