Bk sudhesh didi germany anubhavgatha

बी के सुदेश दीदी – अनुभवगाथा

जर्मनी की ब्रह्माकुमारी ‘सुदेश बहन’ जी अपने अनुभव इस प्रकार सुनाती हैं कि मेरे लौकिक पिता जी इंजीनियर थे। हम दिल्ली में रहते थे। सन् 1957 में राजौरी गार्डेन सेन्टर से ज्ञान प्राप्त किया। उस समय मैं बी.ए. की पढ़ाई कर रही थी। मेरी आयु 16 साल थी। मुझे समाज सेवा का बहुत शौक था। कॉलेज के रास्ते में हरिजनों की बस्ती थी। उनका रहन-सहन देखकर मुझे लगता था कि ग़रीबों की सेवा करनी चाहिए। मैं जानती थी कि इनको पैसा दिया तो शराब, बीड़ी पीकर बर्बाद करेंगे, गरम कपड़े आदि दिये तो बेच देंगे तो कैसे इनकी सेवा करें;  मैं यही सोचती थी। 

सर्व को सन्तुष्ट करने वाले बाबा

एक दिन घर पर मेरी मौसी आयी। जब हम दोनों टहलने गये तो मैंने उनके सामने अपने मन की इच्छा रखी कि मैं समाज सेवा करना चाहती हूँ। उन्होंने कहा कि सिर्फ ग़रीब ही दुःखी नहीं हैं, अमीर भी दुःखी हैं। किसी को पैसे देने से ये सुधरते नहीं हैं और दुःखी सुखी नहीं होते। उनकी ऐसी सेवा करो जो उनके मन की दुःख-अशान्ति मिटे और वे सुख-चैन पायें। अगर तुम्हें सच्ची समाज सेवा करनी है तो मेरे घर पर आओ, वहाँ नज़दीक चानना मार्केट में ब्रह्माकुमारी आश्रम है, वहाँ जाकर सीखो। मैं देखती हूँ कि लोग उनके पास रोते हुए जाते हैं और मुस्कराते हुए लौटते हैं। उनके जीवन में परिवर्तन आ जाता है। अगर तुमको समाज सेवा करनी है तो उन जैसी सेवा करो जो किसी के दुःख मिट जायें और वह सुखी बन जाये तथा दूसरों का भी जीवन बना दे। मैं बचपन से ही बहुत भक्ति करती थी, रोज़ शाम को सात आरती गाती थी। नौ साल की उम्र से ही सत्संग करने जाती थी।

ऐसा अनुभव हो रहा था कि चन्द्रमा की बहुत शक्तिशाली किरणें मेरे आसपास हैं

सन् 1957 में बाबा दिल्ली में आये थे, उस समय मुझे पहचान नहीं थी कि बाबा कौन हैं। सत्संग के नाम से मेरी मौसी और कॉलेज की सहेली ने निमंत्रण दिया था। बाबा दिल्ली होकर शायद पंजाब टूअर पर जा रहे थे। सितम्बर महीने की शाम का समय था। सत्संग में रुचि होने के कारण मैं वहाँ पहुंची परन्तु एक टीचर बहन ने कहा कि यह सत्संग नयों के लिए नहीं है, जो रोज़ आते हैं उनके लिए है। मैंने उनसे कहा कि मैं तो बचपन से ही सत्संग करती आयी हूँ, मैं समझ जाऊँगी। फिर भी वे मानी नहीं। हमारे साथ जो मेरी सहेली थी उसने कहा कि कोई बात नहीं बहन जी, इसको अगर कुछ समझ में नहीं आयेगा तो हम समझा देंगे। वैसे तो इसने कुछ-कुछ समझा है, इसकी मौसी घर में इसको ज्ञान सुनाती रहती है, फिर भी हम इसको प्वाइंट क्लीयर कर देंगे। सब इकट्ठे हो गये। मैं जाकर क्लास के दरवाज़े के पास ही बैठ गयी ताकि समझ में यदि न आये और बहन जी कहे कि तुम चली जाओ तो मैं सहज ही बाहर जा सकूँ। मैं वहाँ आँखें बन्द करके लौकिक रीति से ध्यान में बैठ गयी। मैंने यह समझा था कि जब महात्मा जी आयेंगे तो सब नारा लगायेंगे ‘महात्मा जी की जय हो’ अथवा ‘जय महाराज जी जय हो’, तब मैं आँखें खोल लूँगी। सब योग में बैठे थे। बाबा शान्ति से आकर संदली पर बैठ गये। मुझे पता ही नहीं चला था। अचानक मैंने आँखें खोली तो बाबा सामने बैठे हुए थे। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये महात्मा जी कब आकर बैठ गये! जैसे ही मेरी दृष्टि बाबा पर पड़ी तो बाबा लाइट ही लाइट दिखायी पड़े। मैंने समझा कि शायद यह सूर्य का प्रतिबिंब होगा। मेरे से आगे थोड़ी जगह खाली पड़ी थी, मैं वहाँ जाकर बैठ गयी। वहाँ भी वही दृश्य, बाबा के चारों तरफ़ लाइट ही लाइट दिखायी पड़ी। उस समय मुझे यह मालूम नहीं था कि यह बाबा का फ़रिश्ता स्वरूप है। लेकिन वह प्रकाश का रूप बहुत सुन्दर था, मनभावन था। वह इतना आकर्षक था जो मन करता था कि उसको देखते ही रहें। मुझे ऐसा लगने लगा कि कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ। फिर मैंने अपने हाथ को चुटकी काट करके देखा तो पाया कि मैं जाग्रत अवस्था में थी। उस समय प्रश्न भी उठ रहे थे और आनन्द भी आ रहा था। मैंने आँखें बन्द कर ली। मुझे अनुभव हो रहा था कि चन्द्रमा की बहुत शक्तिशाली किरणें मेरे आसपास हैं, वे मेरे अन्दर जा रही हैं और मेरे से बाहर भी आ रही हैं। वे बहुत आनन्ददायक शीतल किरणें थीं। पहले बाबा का जो प्रकाश रूप देखा वह बहुत आकर्षित करने वाला था और ये किरणें आनन्द देने वाली, चन्द्रमा की शीतल किरणों जैसी थीं। मैं आनन्द का अनुभव कर रही थी, फिर भी मन के एक कोने में यह भी संशय आ रहा था कि यह कोई जादू तो नहीं है! मैंने अपनी माता जी की तरफ़ देखा तो वह मस्त होकर बाबा की वाणी सुन रही थी। वह बहुत समय से आश्रम पर जाती थी। मगन होकर सुन रही माँ को देखकर मैंने भी सोचा कि चलो मैं भी सुन लूँ कि महात्मा जी क्या सुना रहे हैं।

यद् भावं तद् भवति-जिसको जो चाहिए वो मिल गया

बाबा लाइट के बारे में ही बोल रहे थे। क्या सुना रहे हैं, यह मुझे पूरा समझ में नहीं आता था लेकिन कुछ शब्द तो समझ में आते थे। फिर मैं सोचने लगी कि अजीब बात है, ये महात्मा जी बोलते भी लाइट हैं और इनकी बॉडी भी लाइट है! शायद खाते भी लाइट होंगे। ये पैदा ही शायद ऐसे हुए होंगे। इस प्रकार मन में प्रश्नों का एक प्रवाह ही चल रहा था। बाबा की मुरली से मुझे कुछ समझ में नहीं आया सिवाय लाइट शब्द के। जब बाबा की मुरली पूरी हुई तो सब उठे। वे उठे थे शायद बाबा से टोली लेने के लिए। लेकिन मैं समझी सत्संग पूरा हो गया तो मैं बाहर निकल गयी। घर जाते समय रास्ते में मैंने माँ को अपना अनुभव सुनाया। उन्हें आश्चर्य हुआ और कहा कि मुझे तो कोई लाइट नहीं दिखायी पड़ी। यह तो अच्छा है। फिर माँ ने अपना अनुभव सुनाया कि यह ज्ञान बहुत सुन्दर है, मुझे सब सवालों का जवाब मिल गया, सब समस्याओं का हल मिल गया। यह बहुत श्रेष्ठ ज्ञान है। गीता का ज्ञान मुझे स्पष्ट हो गया। मेरे मन में जितने भी संशय थे उन सबका निवारण हो गया। यही सच्चा ज्ञान है। अब देखिये, हम दोनों एक स्थान पर बैठे थे और एक को ही देख रहे थे और एक से ही सुन रहे थे परन्तु उनकी थी ज्ञान की अनुभूति और मेरी थी लाइट की अनुभूति। फिर भी मेरे मन में यह प्रश्न रह गया कि बाबा में इतनी लाइट कहाँ से आ गयी। 

अगले दिन कॉलेज में मैंने अपनी सहेली से कहा कि मुझे ऐसा ऐसा अनुभव हुआ। उसने कहा, तुम बहुत सेन्सीटिव होंगी, तुमने वायब्रेशन्स कैच किये होंगे। क्या तुमको पता है कि उस शरीर में भगवान आते हैं, उस समय भगवान प्रवेश कर ज्ञान सुना रहे थे। मैंने कहा, भगवान आते हैं तो उस समय कोई बिजली तो चमकी नहीं, कोई गजगोर हुआ नहीं, कोई आकाशवाणी हुई नहीं। उसने कहा कि अगर भगवान बिजली चमका कर वाणी सुनायेंगे तो वह किसको सुनायी पड़ेगी? हम बच्चों को समझाने के लिए भगवान हमारी भाषा में ही बात करते हैं। उस समय उसकी बात मेरी समझ में नहीं आयी। यह प्रश्न तो दिमाग में रह गया कि सर्वशक्तिवान भगवान उस शरीर में इतने साधारण रूप से कैसे आते हैं? फिर उसने एक रूमाल का उदाहरण देकर बताया कि एक रूमाल उठाने के लिए हमें पूरी ताक़त इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं है, जब भारी चीज़ उठानी है तो ताक़त इस्तेमाल करेंगे। सर्वशक्तिवान परमात्मा अपनी शक्ति मनुष्य को ज़िन्दा करने के लिए, गजगोर करने के लिए प्रयोग नहीं करते। मनुष्यात्माओं के पाप भस्म करते हैं ज्ञान और राजयोग सिखाकर।इस बात ने मेरे मन में उत्सुकता पैदा की कि परमात्मा शरीर में कैसे प्रवेश करते हैं और कैसे ज्ञान सुनाते हैं! अगले दिन मैं कॉलेज से सीधा राजौरी गार्डेन सेन्टर पर गयी। पढ़ते-पढ़ते मुझे मुरली अच्छी समझ में आने लगी। उस समय मुझे एक किताब मिली थी ‘मनुष्य मत और ईश्वरीय मत में अन्तर’, उसमें लाल अक्षरों में लिखा हुआ था कि ईश्वर क्या कहते हैं और काले अक्षरों में या नीले अक्षरों में छपा हुआ था कि मनुष्य क्या कहते हैं। उस पुस्तक को और मुरलियों को पढ़ने से मुझे यह बिल्कुल समझ में आ गया कि परमात्मा निराकार ज्योति स्वरूप हैं और ब्रह्मा-विष्णु-शंकर द्वारा दिव्य कर्त्तव्य कर रहे हैं। इस प्रकार, रोज़ कॉलेज से दोपहर के समय सेन्टर पर आकर मुरली का अध्ययन करती थी और नोट्स तैयार करके ले जाती थी। घर में आकर शाम को उन नोट्स को पढ़ती थी।

बाबा, आप परमधाम से ब्रह्मा-तन में आ चुके हैं, क्या मेरे लिए आप कमरे से नीचे नहीं आ सकते?

कुछ दिनों के बाद पंजाब का टूअर पूरा करके आबू वापस जाते समय बाबा फिर दिल्ली, राजौरी गार्डेन में आये। रोज़ की तरह मैं दोपहर में सेन्टर पर मुरली पढ़ रही थी। उतने में दो बहनें आयीं और मेरे से पूछा कि क्या आप बाबा से मिलने आयी हैं? मुझे मालूम नहीं था कि बाबा यहाँ आये हैं। मैंने आश्चर्यचकित होकर पूछा, बाबा यहाँ हैं क्या? उन्होंने कहा कि हाँ, हम बाबा से मिलने के लिए आयी हैं। ऐसे कहकर वे अन्दर चली गयी। मैंने जाकर बहन जी से कहा कि मुझे भी बाबा से मिलना है। उन्होंने कहा कि यह बाबा से मिलने का समय नहीं है, आप कल सुबह क्लास में आना। मैं फंक रह गयी। फिर मैं मुरली पूरी करके रोज़ की तरह योग करने लगी। उस योग में मैं ऐसे ही बाबा से बात कर रही थी जैसे सम्मुख बात करते हैं। मुझे निश्चय हो चुका था कि परमात्मा ब्रह्मा तन में प्रवेश हो चुके हैं और ईश्वरीय ज्ञान सुनाते हैं। मैं योग में बाबा से बात करने लगी, “शिव बाबा, आप परमधाम से यहाँ साकार में आ चुके हैं, वो भी यहीं ऊपर आये हैं कमरे में। क्या आप कमरे से नीचे नहीं आ सकते हो मुझसे मिलने के लिए? दीदी कहती है कि अभी बाबा से नहीं मिल सकती हो, कल सुबह आओ। सुबह-सुबह मुझे घर से कौन आने देगा?” ऐसी रूहरिहान करके मैं मुरली रखकर बाहर जा ही रही थी कि बिल्डिंग के पीछे की तरफ़, बाबा को कमरे से उतरते देखा। शायद बाबा भोजन करके थोड़ा टहलने के लिए निकले होंगे। बाबा को देखते ही ख़ुशी के मारे मेरे मुँह से निकला, “बाबा”! नोट्स वहीं छोड़कर, दौड़कर गयी और छोटी बच्ची की तरह बाबा से लिपट गयी। बाबा भी उतने ही प्यार से बच्ची, बच्ची कहते मेरे सिर पर हाथ फेरने लगे। बहुत समय से बिछुड़े हुए बाप और बच्ची का वो मिलन था। दोनों तरफ़ से प्यार का पारावार न था। थोड़े समय के बाद बाबा ने कहा, “बच्ची, तुम कल सुबह आ सकती हो। कोई तुमको रोकेगा नहीं। सुबह बाबा से मिलना।” मैं सोच में पड़ गयी कि मैंने तो यह बात योग में कही थी, बाबा को मेरी पुकार सुनायी पड़ी, उसका उत्तर बाबा ने मुझे अभी साकार में सुना दिया। मुझे बहुत खुशी हो गयी कि बाबा ने मेरा सुना और स्वीकार कर लिया। मुझे निश्चय हो गया कि भगवान ने कहा है कि तुम कल सुबह आ जाना, तुम्हें कोई रोकेगा नहीं। मैं खुशी-खुशी से निश्चिन्त होकर घर गयी। 

रात को मैंने मम्मी से कहा, कल सुबह मुझे सेन्टर पर जाना है। उन्होंने कहा, सुबह-सुबह तुम्हारे पापा कैसे जाने देंगे? मैंने कहा, आप बताना कि जैसे उस युनिवर्सिटी में पढ़ने जाती है वैसे इस युनिवर्सिटी में पढ़ने गयी है। मैं सुबह घर से निकल गयी बाबा से मिलने। लेकिन जब मैं सेन्टर पहुंची तब तक बाबा की मुरली पूरी हो चुकी थी। दीदी बाबा से रूहरिहान कर रही थी। इस बीच में बाबा के साथ मेरा ऐसा सम्बन्ध जुट गया था कि अनुभव हो रहा था कि यह मेरा मरजीवा जन्म है, यही मेरा सच्चा पिता है। बाबा ने कहा, “बच्ची, मैं तुम्हारे पिता को एक चिट्ठी लिखकर दूँगा कि आपकी बेटी हमारे पास आती है।” तुरन्त मैंने उत्तर दिया, “बाबा आप ही मेरे पिता हैं, क्या आपको पता नहीं है कि मैं यहाँ आती हूँ।” बाबा मेरो चेहरा देखने लगे और बोले, यह तो बड़ी मज़बूत है। फिर बाबा मधुबन लौट गये ।

रक्षा बन्धन का समय था। मैंने बाबा को राखी भेजी। रिटर्न में बाबा ने एक रूमाल और उसमें पैसे बाँधकर भेजे। उसमें एक चिट्ठी भी रखी थी जिसमें बाबा ने लिखा था, “बच्ची, जब बाबा के साथ बच्चे का सम्बन्ध जुट जाता है तब बच्चे का पाई पैसे का जीवन हीरे जैसा बन जाता है।” बाबा के पत्र के आधार पर ही मेरा पुरुषार्थ चलता था। बाबा के साथ मेरा पत्र-व्यवहार बहुत अच्छा था।

बाबा ने मुझे विविध वर्ग वालों की सेवा करना सिखाया

सन् 1959 में मेरा मधुबन में आना हुआ। उस समय यह ट्रेनिंग सेन्टर, विशाल भवन आदि बने नहीं थे। अब जहाँ बाबा की झोपड़ी है वहाँ पार्टी वालों के लिए टेंट लगे रहते थे। कोई बड़ा व्यक्ति आता था या बहुत बुजुर्ग आते थे तो उनके लिए बाहर नज़दीक के मकान किराये पर लेते थे और उनमें ठहराते थे। अभी निर्वैर भाई का जो ऑफ़िस है वहाँ एक कमरा था, वहाँ विज़िटर्स को बिठाना, फार्म भरवाना, उनको कोर्स कराना आदि होता था। उस समय बाबा मुझे आगन्तुकों को समझाने के लिए कहते थे। बाद में बाबा मुझसे पूछते थे कि बच्ची, तुमने उनको क्या समझाया। सुनने के बाद बाबा बताते थे कि किसको कैसे समझाना है। बाबा ने हमें यह ट्रेनिंग दी कि कैसे नब्ज़ को जाना जाता है, विद्यार्थी को कैसे समझायें, ऑफ़िसर्स को कैसे समझायें। कभी-कभी बाबा बाहर खड़े होकर सुनते थे कि बच्चे कैसे समझा रहे हैं, फिर अगले दिन करेक्शन भी बता देते और अच्छा सुनाया होता तो महिमा करते थे। इस प्रकार बाबा ने बाप बनकर मेरी परीक्षा ली कि इसको बाप पर निश्चय है या नहीं और टीचर बनकर दूसरों को कैसे शिक्षा दी जाती है, यह भी सिखाया।

बाबा हर बच्चे की हर आश को पूरी करते थे

पहली बार जब मैं मधुबन आयी थी तो सुबह और शाम को गुड मार्निंग और गुड नाइट करने बाबा के कमरे में जाती थी। एक रात को लच्छु दादी टार्च लेकर, सबको मच्छरदानी, बिस्तर आदि ठीक मिले हैं या नहीं, यह देखने कमरों में जा रही थी। उस समय मैं भी उनके साथ थी। यह कार्य पूरा होने के बाद फिर मैं बाबा के पास गयी। बाबा ने समझ लिया कि यह दोबारा आयी है माना कुछ बात है। बाबा ने पूछा कि बच्ची, क्या तुम्हें कोई आश है? मैंने कहा, हाँ बाबा, मेरी एक आश है। बाबा ने पूछा, क्या? मैंने कहा, बाबा, मैं ध्यान में जाना चाहती हूँ। मैं ध्यान में क्यों जाना चाहती थी इसका भी कारण है। जब राजौरी गार्डेन में गुरुवार के दिन भोग लगता था तो गुलज़ार दादी भोग लगाने आती थी। मैं उनके सामने ही बैठती थी। जब भोग के गीत बजते थे तब मुझे भी अनुभव होता था कि मैं भी जा रही हूँ। गुलज़ार दादी को उस समय झटका लगता था तो वे चली जाती थी। झटका मुझे लगता था लेकिन मैं नहीं जाती थी। वह वतन में जाकर भगवान से कैसे मिलन मनाती है, मैं वह देखना चाहती थी, अनुभव करना चाहती थी। इसलिए मैंने बाबा से कहा, बाबा मैं ध्यान में जाना चाहती हूँ, बाबा से मिलन मनाना चाहती हूँ। बाबा ने कहा, अच्छा बच्ची, सुबह पाँच बजे आ जाना। ख़ुशी के मारे मैं रात भर सोयी नहीं। सुबह ठीक पाँच बजे नहा-धोकर, नये कपड़े पहनकर तैयार होकर मैं बाबा के पास गयी। बाबा अपने सामने बिठाकर दृष्टि देने लगे। जब बाबा दृष्टि दे रहे थे तब सारे कमरे में लाल सुनहरी प्रकाश फैल गया। बाबा की आँखों से नूर निकल रहा था। वह इतना सुन्दर, मीठा और आकर्षक था कि मुझे उसका वर्णन करना नहीं आ रहा है। बाबा का वो चेहरा, वो नयन, वो रोशनी मन को मुदित करने वाले थे। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था कि मैं सागर में समा गयी हूँ। यह अनुभव करते-करते मुझे यह महसूस हुआ कि अभी शिव बाबा ब्रह्मा तन में हैं। मैं अपने आप में कहने लगी कि जिनसे मुझे मिलने जाना था वो तो यहाँ आ गये। मैं वहाँ जाना नहीं चाहती। मन ही मन कहने लगी कि बाबा मुझे ध्यान में नहीं जाना है, मुझे ध्यान में नहीं जाना है। मुझे बाबा से मिलने का अनुभव करना था, वह तो अभी यहीं हो रहा है, बाबा, मुझे यह छोड़कर वहाँ नहीं जाना है। फिर बाबा ने मीठी दृष्टि देते हुए कहा, बच्ची, तुमको वतन में जाने की ज़रूरत नहीं, वतन ही तुम्हारे पास आ जायेगा। बाबा ने यह भी कहा कि तुम्हारी दृष्टि से सामने वाली आत्माओं को बाबा की दृष्टि का अनुभव होगा। बाबा के ये महावाक्य मेरे लिए ज़िन्दगी में वरदान बन गये। जब बाबा को भोग लगता है तब आज भी मुझे अनुभव होता है कि मैं वतन में हूँ, हालाँकि मैं वतन में नहीं जाती हूँ परन्तु मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मैं वतन में बैठी हूँ, बाबा से मिल रही हूँ। साकार वतन में होते हुए भी साकार का कोई आकर्षण, प्रभाव नहीं है ऐसा अनुभव होता है। ध्यान में न जाते हुए भी ध्यान में जाने की अनुभूति, सन्देश जानने की अनुभूति होती है।

बाबा ने मुझे ‘ज्ञान-बुलबुल’ का टाइटिल दिया

यह सन् 1967 की बात है। मैं दिल्ली से मधुबन आयी थी। रात को हिस्ट्री हॉल में अनुभव सुनाने लगी तो मुझे खड़ाऊँ की आवाज़ सुनायी पड़ी। मैंने समझा कि बाबा आ गये, तो मैं चुप हो गयी। बाबा आये नहीं तो मैंने समझा यह मेरा भ्रम होगा। फिर सुनाना शुरू किया। थोड़े समय के बाद बाबा अन्दर आये और मेरे से कहने लगे कि ‘ज्ञान-बुलबुल’ क्या गीत गा रही थी? बहुत अच्छा गीत गा रही थी। बाबा के ये महावाक्य भी मेरे लिए वरदान बन गये। बाबा के इन महावाक्यों ने मुझे यह प्रेरणा दी कि ज्ञान को गीत की तरह ही गाना है। तब से मुझे जो प्वाइंट्स अच्छी लगती थीं उनको पहले अन्दर में गुनगुनाती थी और बाद में गीत की तरह सुनाती थी। इस तरह मुझ में ज्ञान का रस भर गया। बाबा के इस वरदान से मुझे ऐसे लगने लगा कि मैं ज्ञान को गुनगुना रही हूँ और गीत के रूप में दूसरों को सुना रही हूँ। बाबा ने मुझे ‘ज्ञान-बुलबुल’ अथवा ‘ज्ञान-नाइटिंगेल’ का टाइटिल दिया।

सबसे पहले जयपुर में म्यूज़ियम बना था। बाबा ने बहुत शौक से वह म्यूज़ियम बनवाया था। बाबा ने मुझे टेलिग्राम किया कि बच्ची, तुम जयपुर जाओ। मैं दिल्ली से जयपुर जाकर वहाँ सेवा करने लगी। वहाँ से मैं खास बाबा की मुरली सुनने के लिए बीच-बीच में मधुबन आती थी। एक बार मैं सवेरे की ट्रेन से आयी और आकर क्लास में पीछे बैठ गयी। बाबा ने मुझे देखकर, “आओ मेरी महारथी बच्ची, आओ मेरी रूहे गुलाब बच्ची” कहकर, आगे बुलाया। मैं जाकर बाबा के सामने बैठी। बाबा ने कहा, “नहीं बच्ची, यहाँ बैठो” कहकर छोटे हॉल में जिस संदली पर मम्मा बैठती थी मुझे वहाँ बिठाया और क्लास में कहा कि यह मेरी देश-विदेश में बाबा का सन्देश देने वाली बच्ची है, वारिस बच्चे निकालने वाली बच्ची है। उस समय मुझे विदेश क्या है, यह उतना पता नहीं था, सिर्फ अमेरिका और इंग्लैण्ड का नाम सुना था। मुझे आज महसूस हो रहा है कि बाबा में कितनी दूरदर्शिता थी, बाबा के बोल में कितनी शक्ति थी! बाबा के वो बोल मेरे लिए वरदान बनकर आज भी ईश्वरीय जीवन और सेवा में मुझे आगे बढ़ा रहे हैं।

बाबा के रूप का प्रत्यक्ष अनुभव

एक बार मैं मधुबन आयी थी। उस समय यहाँ गायें थीं। जो भी बच्चे आते थे उनको बाबा स्टोर, मकान आदि दिखाने ले चलते थे। बाबा ऐसे हमारी उंगली पकड़कर ले जाते थे जैसेकि छोटे बच्चों को घुमाया जाता है, घर दिखाया जाता है। बाबा बहुत फास्ट चलते थे। उनके साथ चलने में बहुत मज़ा आता था। बाबा ने मुझे दो गायें दिखायीं, उनमें से एक बैठी थी और एक खड़ी थी। बाबा ने एक बच्चे को कहा, “बच्चे, यह गाय बीमार पड़ी है, इसको खाने में फलानी चीज़ मिलाकर दो।” मैंने बाबा से पूछा, बाबा, आप पशुओं के भी डॉक्टर हैं? बाबा मुस्कराये। दूसरे दिन बाबा ने क्लास में बताया कि देखो बच्चे, रोज़ तुमको बाबा ज्ञान-घास देता है। अगर तुम उसको चबायेंगे नहीं, उगारेंगे नहीं तो बीमार हो जायेंगे। पशु को भी अक्ल है, घास चबाकर अपना खाना हज़म करता है। तुम भी विचार सागर मंथन करके ज्ञान को हज़म करो तो तन्दुरुस्त रहेंगे। इस प्रकार लौकिक को अलौकिक बनाकर बाबा बच्चों को शिक्षा देते थे !

बाबा फेमिलीयर भी थे और ऑफिसियल भी थे

एक बार शाम को दूध फट गया था। भोली दादी बाबा के पास आयी और कहा, बाबा रात को पीने के लिए जो दूध बाँटना था वह फट गया, सिर्फ़ दही जमाने वाला दूध बचा है। अभी दूध क्या बाँटे और दही क्या जमायें? उस समय मैं बाबा से गुड नाइट करने गयी थी। भोली दादी ने कहा, “बाबा, या तो पीने के लिए दूध देना बन्द करना पड़ेगा या दही जमाना।” बाबा ने कहा, “नहीं बच्ची, पीने के लिए दूध देना बन्द नहीं करना। चलो, आज बाबा दूध बाँटेगा।” अभी रतन मोहिनी दादी का जो आफ़िस और डायनिंग कमरा है, वहाँ उन दिनों किचन होता था। ज़मीन पर चौकी थी उस पर ही बाबा बैठ गये और सबको दूध देना शुरू कर दिया। जो सोये हुए थे वो भी दूध लेने आये क्योंकि बाबा दूध बाँट रहे थे। बाबा ने सबको दूध बाँटा, सब यज्ञवत्सों ने दूध लिया फिर भी दूध बच गया। तब बाबा ने भोली दादी से कहा, लो बच्ची, इसकी दही जमा दो। यहाँ प्रश्न उठता है कि दही के लिए रखा हुआ थोड़ा-सा दूध सबको बाँटने पर बचा कैसे? अगर वही दूध भोली दादी ने बाँटा होता तो सब भाई-बहनें गिलास भरकर दूध माँगते परन्तु बाबा ने सबको आधा-आधा गिलास दिया। बाबा द्वारा बाँटे गये दूध को बहुत प्यार से लिया और थोड़े में ही सब सन्तुष्ट हुए। इस प्रकार बाबा समय अनुसार युक्ति से कार्य करते थे और सर्व को सन्तुष्ट करते थे। ऐसे थे राजू रम्ज़बाज़ हमारे बाबा! बाबा फेमिलीयर भी थे और ऑफिसियल भी थे।

अन्तिम समय के क्षण

बाबा के साथ की लास्ट अनुभूति बहुत अनोखी थी। नवम्बर 1968 का बाबा से मेरा अन्तिम मिलन था। मैं उस समय जयपुर में रहती थी। बाबा से मिलने आयी थी। बाबा हमें पहाड़ी पर ले गये थे। पहाड़ी चढ़ते समय ऊपर चढ़ने के लिए बाबा ने मेरा हाथ पकड़ा तो मुझे यह अनुभव हुआ कि बाबा का हाथ इतना नरम और हल्का था कि जैसे उसमें माँस हड्डी है ही नहीं। शरीर एकदम लाइट-लाइट दिखायी पड़ता था। वायब्रेशन्स इतने पॉवरफुल थे कि बाबा अव्यक्त फ़रिश्ता अनुभव होते थे। ऐसा लग रहा था कि मैं फ़रिश्ते के साथ चल रही हूँ। इस अनुभव को लेकर मैं 22 नवंबर, 1968 को जयपुर वापस गयी। कुछ दिनों बाद मैं दिल्ली गयी तो वहाँ मैंने क्लास में अनुभव सुनाया कि सब कहते हैं कि अव्यक्त बाबा सूक्ष्मवतन में हैं लेकिन इस बार मुझे अनुभव हुआ कि अव्यक्त बाबा अभी साकार में है। इस प्रकार मैंने आदि में सन् 1957 में भी बाबा को लाइट के रूप में अर्थात् फ़रिश्ते के रूप में देखा था और अन्त में सन् 1968 में भी मैंने बाबा का अव्यक्त रूप देखा तथा अनुभव किया।

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

अनुभवगाथा

Bk uttara didi chandigarh anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी उत्तरा बहन जी की पहली मुलाकात साकार बाबा से 1965 में हुई। बाबा से मिलने के लिए उनके मन में अपार खुशी और तड़प थी। पहली बार बाबा को देखने पर उन्हें ऐसा अनुभव हुआ जैसे वे ध्यान में

Read More »
Bk puri bhai bangluru anubhavgatha

पुरी भाई, बेंगलूरु से, 1958 में पहली बार ब्रह्माकुमारी ज्ञान में आए। उन्हें शिव बाबा के दिव्य अनुभव का साक्षात्कार हुआ, जिसने उनकी जीवनशैली बदल दी। शुरुआत में परिवार के विरोध के बावजूद, उनकी पत्नी भी इस ज्ञान में आई।

Read More »
Bk amirchand bhaiji

चण्डीगढ़ से ब्रह्माकुमार अमीर चन्द जी लिखते हैं कि उनकी पहली मुलाकात साकार बह्या बाबा से जून 1959 में पाण्डव भवन, मधुबन में हुई। करनाल में 1958 के अंत में ब्रह्माकुमारी विद्यालय से जुड़कर उन्होंने शिक्षा को अपनाया। बाबा का

Read More »
Bk vidhyasagar bhai delhi anubhavgatha

ब्रह्माकुमार विद्यासागर भाई जी, दिल्ली से, अपने प्रथम मिलन का अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि 1964 में माउण्ट आबू में साकार बाबा से मिलना उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। बाबा की गोद में जाते ही उन्होंने

Read More »
Dadi manohar indra ji

पहले दिल्ली फिर पंजाब में अपनी सेवायें दी, करनाल में रहकर अनेक विघ्नों को पार करते हुए एक बल एक भरोसे के आधार पर आपने अनेक सेवाकेन्द्रों की स्थापना की। अनेक कन्यायें आपकी पालना से आज कई सेवाकेन्द्र संभाल रही

Read More »
Bk radha didi ajmer - anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी राधा बहन जी, अजमेर से, अपने साकार बाबा के साथ अनुभव साझा करती हैं। 11 अक्टूबर, 1965 को साप्ताहिक कोर्स शुरू करने के बाद बाबा से पत्राचार हुआ, जिसमें बाबा ने उन्हें ‘अनुराधा’ कहकर संबोधित किया। 6 दिसम्बर, 1965

Read More »
Bk damyanti didi junagadh anubhavgatha

दमयन्ती बहन जी, जूनागढ़, गुजरात से, 40 साल पहले साकार बाबा से पहली बार मिलीं। उस मुलाकात में बाबा की नज़रों ने उनके दिल को छू लिया और उन्हें आत्मिक सुख का अनुभव कराया। बाबा की मधुर मुस्कान और उनकी

Read More »
Bk pushpa didi nagpur anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी पुष्पा बहन जी, नागपुर, महाराष्ट्र से, अपने अनुभव साझा करती हैं कि 1956 में करनाल में सेवा आरम्भ हुई। बाबा से मिलने के पहले उन्होंने समर्पित सेवा की इच्छा व्यक्त की। देहली में बाबा से मिलने पर बाबा ने

Read More »
Bk kamlesh didi bhatinda anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी कमलेश बहन जी, भटिण्डा, पंजाब से, अपने साकार बाबा के साथ के अनमोल अनुभव साझा करती हैं। 1954 में पहली बार बाबा से मिलने पर उन्होंने बाबा की रूहानी शक्ति का अनुभव किया, जिससे उनका जीवन हमेशा के लिए

Read More »
Bk rajni didi - japan anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी रजनी बहन का आध्यात्मिक सफर, स्व-परिवर्तन की अद्भुत कहानी है। दिल्ली में शुरू हुई यात्रा ने उन्हें जापान और न्यूयॉर्क में सेवा के कई अवसर दिए। कोबे भूकंप के कठिन समय में बाबा की याद से मिली शक्ति का

Read More »