फिरोजपुर सिटी, पंजाब से ब्रह्माकुमारी तृप्ता बहन जी साकार बाबा के साथ के अनुभव इस प्रकार सुनाती हैं कि मैं बचपन से ही श्रीकृष्ण की भक्ति करती थी। श्रीकृष्ण जी के साक्षात्कार प्रतिदिन होते थे और उनसे सन्मुख बातचीत भी होती रहती थी। मुझे एकान्त बहुत प्रिय था। एक दिन एकान्त में श्रीकृष्ण जी को याद कर रही थी, मुझे अचानक सफ़ेद पोशधारी का साक्षात्कार हुआ। फिर मेरे सन्मुख आकर बोले- बच्ची, ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य।’ फिर कहा कि सर्व को छोड़ मुझे याद करो। इतने में बहुत सुन्दर सुनहरी सफ़ेद लाइट दिखायी दी तथा साथ में श्रीकृष्ण जी का भी साक्षात्कार हुआ। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह सफ़ेद पोशधारी मेरे सामने कौन आया मैंने तो कभी इन्हें देखा ही नहीं।
मैं रोज़ शाम को ठीक 4 बजे तपस्या में बैठ जाती थी कि अभी श्रीकृष्ण जी आयेंगे परन्तु श्रीकृष्ण जी की जगह सफ़ेद पोशधारी सामने आया और साक्षात्कार में मुझ से पहले पूछा, बच्ची आप कौन हो? मैं चुप रही। बाबा बोले, आप शरीर नहीं हो, आप एक शुद्ध आत्मा हो, आत्मा अमर-अविनाशी है। इस प्रकार बाबा मुझे घण्टा भर पढ़ाते थे, फिर मैं उठकर कॉपी में नोट कर लेती थी। ऐसा लगता था कि यह पढ़ाई कभी पढ़ी हुई है। जैसे मुझे मेरा खोया भाग्य मिल रहा है।
जैसे टीचर रोज़ पढ़ाने आते हैं, उसी प्रकार मैं समय पर जाकर आँखें बन्द करके बैठ जाती थी। फिर दूसरे दिन बाबा ने पूछा- बच्ची, आप का बाप कौन है ? मुझे दूसरा लेसन (lesson) दिया। इस प्रकार बाबा मुझे रोज़ पढ़ाने आते थे। जब तपस्या से उठी तो मेरी छोटी बहन शर्मिष्ठा ने पूछा कि आप क्या आत्मा- परमात्मा शब्द बोलती थी? क्योंकि वह मेरे पास बैठकर सुन रही थी मगर छोटी थी तो कुछ समझ में नहीं आता था। बाबा जो पढ़ाते थे वह मैं अपनी डायरी में लिख लेती थी। पूरा एक सप्ताह बाबा ने मुझे पढ़ाया। बाबा जो पढ़ाते थे उसी के आधार से मैं गीत बना लेती थी। जब अन्तिम पाठ में बाबा ने कहा, बच्ची योग करने से सर्व सिद्धियाँ मिलती हैं तो मैंने गीत बनाया –
‘योग करें सभी देवी-देवा, योग बिना नहीं पावत मेवा।’
रोज़ अमृतवेले बाबा ने आकर वाणी सुनाना शुरू किया। रात्रि 2 बजे बाबा मुझे उठा देते थे और वाणी सुनाकर चले जाते थे। दिन-रात सितारों की लाइट दिखायी देती थी। मैं सारा दिन खुदाई मस्ती में रहती थी। परिवार वाले भी मुझे देवी समझकर फूल आदि चढ़ाकर पूजा करते थे। परन्तु हमारे घर में सख्ती इतनी थी कि कहीं भी बाहर जाने नहीं देते थे। मुझे प्रजापिता बह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय का कुछ भी पता नहीं था। श्रीहरगोविन्दपुर में दीदी चन्द्रमणि जी आयी थी। सबने कहा कि एक देवी आयी है, जो ब्रह्माकुमारी नाम से प्रसिद्ध है। मैंने सुना तो मेरा दिल भी उस देवी से मिलने के लिए तड़पने लगा। एक दिन अपनी सखियों के साथ छिपकर चन्द्रमणि दीदी से मिलने पहुँच गयी। दीदी एक छोटे से कमरे में बैठी थीं। वहाँ त्रिमूर्ति का बड़ा चित्र लगा हुआ था। मैंने जाते ही दीदी से पूछ लिया कि यह (बाबा) कौन है? दीदी ने कहा- आप क्यों पूछ रही हो ? मैंने कहा कि यह तो रोज़ाना मुझे पढ़ाने आते हैं। दीदी ने मुझे चित्र पर समझाया कि यह ब्रह्मा है, यह विष्णु है और यह शंकर है जिनके ये-ये कर्तव्य हैं। मैंने कहा, दीदी जी, मैं रोज़ इनका साक्षात्कार करती हूँ। दीदी जी ने यह सुनकर मुझे बहुत प्यार किया, टोली खिलायी। फिर दीदी ने मेरे से पूछा बताओ तो सही वह कैसे आते हैं? मैंने कहा – मुझे रोज़ मुरली सुनाते हैं और वे मुरलियाँ मैं रोज़ लिख लेती हूँ। दीदी ने कहा, अच्छा, जो मुरली आप लिखती हो, वह हमें भेजना। अब बाबा जो मुरली सुनाते थे, वह मैं लिखकर आश्रम पर दीदी के पास भेज देती थी। उन मुरलियों को देख दीदी ने कहा, यह बहुत पक्की और सतोप्रधान आत्मा है। अब मेरी लगन भी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। यह देख लौकिक घर वालों ने मेरी पूजा आदि करना छोड़ दिया। उन्हें यही चिन्ता लग गयी कि कहीं बह्माकुमारी न बन जाये।
अब घर वालों ने मुझे भक्ति करने से भी मना करना शुरू किया, ध्यान में नहीं बैठने देते थे। लेकिन मेरी लगन दिन-प्रतिदिन बढ़ रही थी। मैं सदा सन्तुष्ट और प्रसन्न रहती थी क्योंकि मैं सारे नियमों का पूर्ण पालन करती थी। मैं घर में सत्गुरुवार को बाबा को भोग भी लगाती थी। सेन्टर पर भोग लगाने वालों को वतन में जो अनुभव होता था, वही अनुभव मुझे भी होता था। मैं प्रभु-प्यार में झूमती रहती थी।
यह सब देख लौकिक भाइयों ने और माता-पिता ने बाज़ार की मिठाई और प्याज खिलाने का भरसक प्रयास किया। लेकिन मैं धारणा की पक्की थी। आश्रम से सम्बन्ध न रहे उसके लिए भाइयों ने काफी प्रयास किया। लेकिन मैंने उनकी एक न मानी। अगले दिन जो परिस्थिति आने वाली होती थी, पिछली रात्रि को बाबा मुझे समझा देते थे कि बच्ची, आपको यह उत्तर देना है। ये सब काग़ज़ के शेर हैं। तुम तो शेरनी शक्ति हो, ये तुमको सिर्फ डराते हैं लेकिन तुम्हें डरना नहीं है। दूसरे दिन लौकिक माताजी को मुझसे देवी का साक्षात्कार हुआ और माताजी ने कहा कि सचमुच यह देवी है। उन्होंने मुझे कहा कि मुझे माफ़ कर दो, मैं अब कुछ नहीं कहूँगी परन्तु आश्रम पर नहीं जाना।
एक बार श्रीहरगोविन्दपुर में दीदी चन्द्रमणि के साथ कानपुर के वकीलों की पार्टी आयी हुई थी। मुझे मालूम पड़ा तो मैं जाने के लिए सोचने लगी। घर वालों का चारों तरफ पहरा था और मेन गेट के अन्दर माताजी बैठी थी। पिताजी किसी से बातचीत करने में व्यस्त थे। अचानक माताजी की आँख लग गयी। मैं चुपके से ऊपर से उतर कर सेन्टर पर पहुँच गयी। दीदी से और सारी पार्टी से मिलकर वापस आ गयी। घर में सभी ने पूछा, तुम आश्रम पर तो नहीं गयी थी? मैंने कहा, आप जाने ही नहीं देते, मैं तो बाजू में अपनी सखी से मिलने गयी थी।
मुझे पता चला कि मधुबन पार्टी जाने वाली है। मैंने लौकिक माताजी से कहा – मुझे मधुबन जाना है। माताजी बोली कि तुम्हारे पिताजी तो यहाँ के शहर के सेन्टर पर भी नहीं जाने देते हैं, मधुबन जाने की छुट्टी कैसे देंगे? तुम मधुबन कैसे जायेंगी? मैंने सारी रात योग किया। बाबा ने अमृतवेले कहा- बच्ची, तुम अपनी तैयारी करके रखना, तुम अवश्य मधुबन जाओगी। माँ द्वारा ही पेपर आये हैं- तो माँ ही तुम्हारी सहयोगी बनेगी।
सुबह मैं शान्ति में बैठी थी, माताजी ने कहा उदास क्यों हो? अमृतसर सम्बन्धी के पास जाने के लिए मैं तुम्हारे पिताजी से तुम्हारी छुट्टी ले लूँगी। माताजी ने छुट्टी ली, मुझे मधुबन जाने का किराया भी दिया और कहा कि खुश रहना। मैं सारी बात सम्भाल लूँगी। मैं अमृतसर गयी और चन्द्रमणि दीदी से जाकर कहा, मैं भी मधुबन चलूँगी। दीदी को बड़ा आश्चर्य हुआ और कहा, तुमको छुट्टी कैसे मिल गयी?
मैं चन्द्रमणि दीदी के साथ मधुबन पहुँच गयी। यहाँ पहुँचते ही मुझे ऐसे लगा जैसेकि भगवान मेरे लिए ही आये हैं। जब पार्टी के साथ बाबा से मेरा मिलने का टर्न आया और मैं बाबा के पास गयी तो मुझे लाइट ही लाइट दिखायी दी, मेरे में जैसे करेन्ट (शक्ति) आ गयी हो और मैं बाबा की गोद में चली गयी। फिर बाबा ने कहा, बच्ची, तुम सूर्यवंशी कुल में श्रीकृष्ण के बहुत नज़दीक वाली आत्मा हो। बच्ची, तुमको टीचर बनना है। चन्द्रमणि दीदी ने कहा- बाबा, इसको बहुत बन्धन है। बाबा बोले- बच्ची, तुम गुप्त तृप्ता हो। अब तुम्हारे सारे बन्धन समाप्त हो जायेंगे। तुम एक आदर्श टीचर बनकर बाप का नाम बाला करोगी। फिर बाबा ने मेरा हाथ पकड़कर पाण्डव भवन दिखाया और बगीचे में ले गये। फिर कहा- बच्ची, अंगूर की बेलों के नीचे और कोई पौधा नहीं होता क्योंकि अंगूर बहुत शक्ति खींचते हैं। आपका साथी स्वयं भगवान है। आपका कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता। आपके बन्धन सब समाप्त हुए कि हुए।
कमाल बाबा की थी कि जो मैं मधुबन से घर गयी तो मुझे किसी ने कुछ भी नहीं कहा। जो भाई मुझे बहुत डाँटता था, उसने भी कुछ नहीं बोला। मैंने मधुबन की सौगात (कम्बल) और टोली (प्रसाद) भाई को दीं। फिर मैंने मधुबन भूमि का वर्णन किया कि मैं साक्षात् भगवान की कर्मभूमि देखकर आयी हूँ और साक्षात् भगवान से मिलकर आयी हूँ, मैं बहुत सौभाग्यशाली हूँ। किसी ने कुछ भी नहीं कहा। धीरे-धीरे मेरे बन्धन भी खलास होते गये और फिर मैं कभी 15 दिन, कभी दो मास आश्रम पर रहने लगी। फिर एक दिन तो मैं पूरा बन्धनमुक्त हो गयी। ऐसे जानी-जाननहार बाबा के महावाक्य सिद्ध हो गये।
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