भरूच, गुजरात से ब्रह्माकुमारी प्रभा बहन जी अपने अनुभव सुनाती हैं कि सन् 1965 में मुझे मथुरा में ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुआ। इस ज्ञान में हमारा पूरा ही परिवार चलता है, सबसे पहले मेरे लौकिक पिताजी ज्ञान में आये, उसके बाद सारा परिवार आया। हम सबके ज्ञान में आने के पीछे एक कारण निमित्त बना। मेरे लौकिक पिताजी सिगरेट बहुत पीते थे जिसके कारण उन्हें और मेरी माताजी के बीच बहुत झगड़ा चलता था। माताजी सिगरेट छोड़ने के लिए कहती थीं लेकिन पिताजी छोड़ते नहीं थे। परिवार बहुत धार्मिक भावना वाला था जिसके कारण बचपन से पूजा-पाठ करने के संस्कार हम भाई-बहनों में थे। पिताजी को जिस दिन ज्ञान मिला उसके दूसरे दिन से ही उन्होंने सिगरेट पीना छोड़ दिया। यह देखकर हम सब घर वालों को बहुत आश्चर्य हुआ। जिसको छोड़ने के लिए माँ कई वर्षों से कह रही थी, रोज़ झगड़ा भी करती थी वो एक दिन में छूट गयी! अवश्य ही इस संस्था में ज़रूर कुछ है, वहाँ ज़रूर कोई दैवी शक्ति है। मेरी माताजी, पिताजी से कहने लगी कि आप जहाँ जाते हो वहाँ मुझे भी ले चलो।
माँ सेन्टर पर गयी तो उनको भी ज्ञान बहुत अच्छा लगा। फिर हम बच्चे भी माता-पिता के साथ सेन्टर पर जाने लगे। जब मैं ज्ञान में आयी तब मेरी उम्र 13 साल की थी। उस दिन शिव जयन्ती थी। मुझे सिनेमा देखने की बहुत इच्छा होती थी। क्योंकि स्कूल में सहेलियाँ कहती थीं कि आज हम फलाना सिनेमा देखने गयी थीं, जो बहुत अच्छा है। मैं पिताजी से कहती थी तो वे कहते थे, ठीक है मैं ले जाऊँगा लेकिन तुम्हारी माँ भी चलनी चाहिए। माताजी बहुत धार्मिक भावना वाली होने के कारण न खुद सिनेमा देखने जाती थीं और न हम बच्चों को जाने देती थी।
शिव जयन्ती के दिन पिताजी हमारे पास आये और कहने लगे, चलो आज तुम सबको सिनेमा दिखाने ले चलूँगा। हम सबको बहुत खुशी हुई क्योंकि कई सालों से हम कहते थे लेकिन पिता जी नहीं ले जाते थे, आज उन्होंने ही कहा तो बहुत खुशी हुई। उस दिन मेरा शिवरात्रि का व्रत भी था। पिताजी एक बड़े हॉल में ले गये। वहाँ स्टेज पर सफ़ेद वस्त्रों वाली दो बहनें बैठी थीं। जैसे ही मैं उस हॉल में गयी और उन बहनों को देखा तो मुझे इतना आकर्षण हुआ कि मैंने यह निश्चय किया कि इन जैसी ही बनना है। मुझे इन जैसा ही जीवन बनाना है। उन्होंने शिव जयन्ती के बारे में भाषण किया और प्रोजेक्टर शो (जिसको मेरे पिताजी ने सिनेमा कहा था) भी दिखाया गया। उसी दिन से मुझे निश्चय हो गया कि यह परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान है। परमात्मा इस धरती पर आया हुआ है। उसके बाद हम सब रोज़ क्लास में जाने लगे। मुझे बचपन से ही सफ़ेद वस्त्र बहुत प्रिय थे। मेरी स्कूल की यूनिफार्म भी सफ़ेद ही थी। हम सब रोज़ क्लास में जाते रहे, दो महीने के बाद बाबा से हमें मधुबन आने का निमंत्रण मिला तो हम मधुबन गये।
बाबा को देखते ही बाबा से स्नेह की वर्षा मेरे ऊपर होने लगी। ऐसा लगा कि स्नेह के सागर ने ही मुझे अपने में समा लिया है। बाबा का रूप इतना आकर्षक या कि मैं अपने आपको भूल गयी। मैंने बाबा से कहा, ‘बाबा, मुझे अभी यहाँ ही रहना है, कहीं नहीं जाना है, मुझे सेवा करनी है। मुझे पढ़ना भी नहीं है।’ उस समय मैं नौवीं क्लास में पढ़ती थी। बाबा ने कहा, ‘बच्ची, अभी तुम छोटी हो, पढ़ाई पूरी करना, बाद में तुम सेन्टर पर रहकर सेवा करना।’ जब बाबा ने ऐसा कहा तो मुझे धुन लग गयी कि कैसे भी करके पढ़ाई पूरी करनी है, दो साल ही तो हैं, उनको जल्दी-जल्दी पूरा करके सेवा में लगना है। नौवीं और दसवीं पूरी करके मैं बाबा से मिलने मधुबन गयी। जाते ही मैंने बाबा से कहा, बाबा, आपके कहे अनुसार मैंने पढ़ाई पूरी की, अभी मुझे यहाँ ही रहना है और सेवा करनी है। उसी समय बाबा ने मेरे से पूछा, ‘बच्ची, तुमको बाबा की ही सेवा करनी है तो क्या तुमको खाना बनाना आता है?’ मैंने कहा, ‘बाबा, मुझे खाना बनाना नहीं आता।’ तो बाबा ने कहा, ‘बच्ची, अगर तुमको खाना बनाना नहीं आता और सेन्टर पर रहोगी तो क्या भोग बनाओगी और क्या बाबा को और जिज्ञासुओं को खिलाओगी?’ मैंने कहा, ‘ठीक है बाबा, मैं खाना बनाना सीख लूँगी।’ फिर बाबा ने कहा, ‘बच्ची, तुम आज से बाबा के रथ के लिए खाना बनाना।’ वहीं लच्छु दादी थी, उनको बुलाकर कहा, ‘बच्ची, आज से यह बच्ची बाबा के लिए खाना बनायेगी, तुम उसको खाना बनाना सिखाना।’ उसी दिन से मैंने बाबा के लिए खाना बनाना शुरू किया। तीन मास तक मैं मधुबन में रहकर बाबा का खाना बनाती रही।
बाबा का भोजन बहुत साधारण था। बाबा सादी रोटी, मूंग की दाल खाते थे। बाबा ज़्यादातर उबली हुई सब्जियाँ और उबला हुआ करेला खाते थे। सींगी (सहजन की फली) को भी बाबा बहुत प्यार से खाते थे। बाबा का भोजन बनाते- बनाते ही मैं भोजन बनाना सीखी। मुझे लौकिक घर में खाना बनाना नहीं आता था। एक दिन जब मैं भण्डारे में खाना बना रही थी तो बाबा वहाँ आये। भण्डारे का दरवाज़ा छोटा था, बाबा की लम्बाई बहुत थी तो बाबा ने दरवाज़े के अन्दर झुक कर मुझसे पूछा, ‘बच्ची, किसका खाना बना रही हो?’ मैंने कहा, ‘बाबा आपका।’ फिर बाबा ने कहा, ‘नहीं बच्ची, तुम शिव बाबा के रथ के लिए खाना बना रही हो।’
इस प्रकार बाबा हर बात में शिक्षा देते थे और शिव बाबा की तरफ़ हमारी बुद्धि को ले जाते थे। बाबा भोजन को बहुत प्यार से स्वीकार करते थे। खाते-खाते बाबा कहते थे कि बच्ची, तुमने बहुत अच्छा खाना बनाया, खाना बहुत अच्छा है। ऐसे महिमा करते-करते बाबा ने मुझे खाना बनाना सिखाया। समझो बाबा ने मुझे यह खाना बनाने का वरदान ही दिया। जब बाबा खाना खाते थे और मैं बाबा को परोसने जाती थी तो बाबा मुझे भी रोज़ एक गिट्टी ज़रूर खिलाते थे।
तीन महीने के बाद मैं बाबा से छुट्टी लेकर मथुरा सेवाकेन्द्र पर गयी। एक विशेष बात मुझे याद आती है कि मुझे लौकिक माँ-बाप से बहुत मोह था। इतना मोह था कि उनको छोड़कर एक दिन भी नहीं रह सकती थी। जब मैं संसार की बातें सुनती थी कि एक दिन लड़की को माँ-बाप को छोड़कर ससुराल जाना पड़ता है तो मुझे बहुत दुःख होता था। मैं सोचती थी कि क्या लड़की को शादी करना, ससुराल जाना ज़रूरी है? मैं माँ से कहती थी कि मैं आप लोगों को छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी। संसार का यह क्या नियम है जो लड़कियाँ माँ-बाप को छोड़ दूसरों को माँ-बाप बनायें और लड़के अपने माँ-बाप के पास रहें? मैं तो कभी भी आपको छोड़कर नहीं जाऊँगी।
माँ-बाप पर मेरा इतना मोह था कि उनको छोड़कर मैं रह नहीं सकती थी। ड्रामा इतना विचित्र है कि जब मैं पहली बार बाबा से मिली तो उसी क्षण से मेरा लौकिक माँ-बाप से मोह नष्ट हो गया। बाबा ने अपनी दृष्टि से इतना स्नेह और शक्ति दी कि मेरा सब कुछ बाबा ही हो गया। लौकिक मोह-ममता सब समाप्त हो गये। बाबा से मिलने से पहले मैं बहनों से कहती थी कि मैं ईश्वरीय सेवा करूँगी लेकिन सेन्टर पर रहकर नहीं, अपने माँ-बाप के साथ घर में रहकर। जब बाबा से मिली तो मुझे मन में यह पक्का हो गया कि अब मुझे बाबा से अलग नहीं होना है, बाबा को छोड़कर कहीं नहीं जाना है। तुरन्त मैंने बाबा से कहा कि बाबा, मैं वापस घर नहीं जाऊँगी, मैं यहीं आपके पास रहूंगी। इस तरह बाबा ने मुझे पहली नज़र में ही माँ-बाप का सम्पूर्ण स्नेह और सम्बन्ध दिया जो लौकिक सम्बन्ध का मोह टूट गया। साकार बाबा से मैं कुल तीन बार मिली हूँ। पढ़ाई पूरी होने से पहले दो बार और पूरी होने के बाद एक बार जो अन्तिम मिलन था।
तीसरी बार जब मिली थी तब सन् 1968 का सितम्बर महीना था। उस समय बाबा की अवस्था बहुत ऊँच थी। मैंने देखा कि उन दिनों बाबा का रूप बहुत स्नेहमय और ज्योतिर्मय था। चेहरे पर प्यार झलकता था। बाबा बहुत उपराम दिखायी पड़ते थे। फ़रिश्ते का रूप दिखायी पड़ता था। बहुत कम बोलते थे। सितम्बर, 1968 से 26 दिसम्बर तक में मधुबन में रही। उस समय मैं बाबा को छोड़कर कहीं जाने के लिए तैयार नहीं थी। बृजमोहन भाईजी और उनकी लौकिक माँ जिनको चाची कहते थे, वे मुझे ज़बरदस्ती ले गये क्योंकि उस समय सेन्टर पर मेरी ज़रूरत थी। उस समय मैं बहुत रोयी तो बाबा ने बृजमोहन भाई से कहा कि जाने के लिए बच्ची की दिल नहीं है ना, उसको मत ले जाओ। लेकिन उन्होंने माना नहीं और बाबा से कहा, बाबा हमें हैण्ड्स की बहुत ज़रूरत है, सेवा के लिए चाहिए, हम इसको ले जायेंगे। उस समय मुझे अन्दर से महसूस हो रहा था कि मैं दोबारा शायद ही बाबा से मिल पाऊँगी। जाने के दिन मुझे बहुत रोना आया था, जाने के लिए बिल्कुल दिल ही नहीं हो रही थी। फिर भी ड्रामा ही कहें कि मुझे नांगल जाना ही पड़ा। उसके बाद 18 जनवरी के दिन बाबा अव्यक्त हुए।
सन् 1965 में मैं ज्ञान में आयी थी लेकिन तब तक मम्मा अव्यक्त हो गयी थी। मुझे मन में यह भी संकल्प चलता था कि मैं मम्मा को नहीं देख पायी। उसके बाद बाबा अव्यक्त हुए, मुझे अन्तिम संस्कार पर जाने का भाग्य भी नहीं मिला। यह बात मन में बहुत दुःख देती थी। जब बाबा ने शरीर छोड़ा था उस समय में नांगल सेवाकेन्द्र में थी। उस समय बृजमोहन भाई और चाची मुझे छोड़कर मधुबन में बाबा के अन्तिम संस्कार में भाग लेने आ गये। उस समय मुझे बहुत दुःख हुआ क्योंकि मैं पहले ही बाबा को छोड़कर इनके साथ आने के लिए तैयार नहीं थी और जब अभी बाबा ने शरीर छोड़ा है तो अन्तिम यात्रा में भी मुझे छोड़कर चले गये। मुझे बहुत फीलिंग आयी। बाबा कहते थे कि अन्त समय जिसका योग अच्छा रहेगा, जिसका बाबा से अटूट प्यार रहेगा वे बाबा के पास पहुंच जायेंगे। तो मैंने समझा कि शायद मेरा योग नहीं होगा, बाबा से मेरा प्यार नहीं होगा इसलिए मैं बाबा के अन्तिम समय पर नहीं जा सकी।
यह याद आते ही मुझे और दुःख होता था और साथ में मैं सेन्टर पर अकेली भी थी। बार-बार बाबा से पूछती थी कि बाबा, क्या आपसे मेरा प्यार नहीं है? इसीलिए आपने मुझे नहीं बुलाया? रात हुई, मैं पलंग पर लेटी हुई थी। नींद भी नहीं आयी थी, जाग रही थी। उतने में मेरे सिर के पास खड़े होकर बाबा बोलने लगे, ‘बच्ची, मैं तो तुम्हारे पास हूँ, मैं कहाँ गया हूँ। देखो, मैं तुम्हारे पास ही हूँ।’ यह कोई भावना या कल्पना नहीं थी। मैं आँखों से देख रही थी और अनुभव कर रही थी कि बाबा ने मेरे सिर पर हाथ रखा है, बगल में खड़े हुए हैं और मेरे से कह रहे हैं। आज तक भी मुझे एहसास होता है कि बाबा मेरे साथ हैं। कभी भी मुझे यह अनुभव नहीं होता कि बाबा नहीं है। बाबा सदा मेरे साथ हैं यही मुझे बार-बार अनुभव होता है। बाबा के अव्यक्त होने के बाद कुछ महीने में नांगल में रही, उसके बाद मधुबन आयी। मधुबन में दो साल रही। मुझे बड़ी दीदी ने बहुत पालना दी। उसके बाद मुझे सेवा के लिए छह मास नेपाल भेजा गया और फिर मधुबन आयी। उसके बाद मैं मुंबई गयी। मुंबई में कोलाबा, गामदेवी, उसके बाद तीन साल कांदिवली में रही; डेढ़ साल अन्धेरी में भी रही। कुल पाँच साल मैं मुंबई में रही। उस समय सूरत में कोई नहीं थे तो दादी जी ने मुझे मुंबई से सूरत भेजा। वहाँ छह महीने रहकर फिर सन् 1975 में मैं भरूच आयी। तब से लेकर आज तक भरूच में बाबा की सेवा में हूँ।
मेरा लौकिक नाम चन्द्रप्रभा था। जब बाबा ने मेरा नाम सुना तो कहा, बच्ची, तुम थोड़े ही चन्द्रवंश में आने वाली चन्द्रप्रभा हो? तुम तो सूर्यवंश में आने वाली प्रभा हो ‘सूर्यप्रभा’। बाबा ने मुझे कभी चन्द्रप्रभा कहकर नहीं बुलाया, हमेशा मुझे ‘प्रभा’ ही कहते थे। इस प्रकार मेरा नाम ‘प्रभा’ पड़ा। जब मुझे बृज मोहन भाई और चाची के साथ नांगल जाना था तो बाबा ने ही खुद अपने हस्तों से मेरा समर्पण पत्र लिखकर, उस पर अपने हस्ताक्षर किये थे। अभी मेरे हाथ में जो अंगूठी है इसको भी 40 साल पहले बाबा ने ही मुझे पहनायी थी।
बाबा ने किसी बच्चे से कहकर सेवा नहीं करायी। खुद करके दूसरों से करवाते थे। एक बार दोपहर में एक ट्रक सब्ज़ी भरकर आया। उसको खाली करना था। सब भोजन करके विश्राम करने जा रहे थे, कुछ भाई-बहनें जा भी चुके थे। उस समय भूरी दादी आयी और बाबा से कहने लगी, ‘बाबा, सब्ज़ी उतारनी है और सारी सब्ज़ी अलग भी करनी है।’ बाबा ने कहा, ‘ठीक है बच्ची, बाबा खुद आ जायेगा।’ बाबा खुद ट्रक से सब्ज़ी उतारने लगे तो वत्सों को एक-दूसरे से पता पड़ा कि बाबा खुद गाड़ी से सब्ज़ी उतार रहे हैं तो सब भाई-बहनें आये, सारी सब्ज़ी भी उतारी और अलग-अलग भी की। बाबा ने यह नहीं कहा कि अच्छा बच्ची, सबको बुलाओ अथवा घंटी बजाओ, सभी आ जायेंगे। परन्तु बाबा साधारण से साधारण सेवा खुद करते थे और बच्चों को यज्ञसेवा का महत्त्व समझाते थे। ऐसे थे मेरे साकार बाबा ।
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