सिस्टर सिरोना का जन्म इजरायल के ज्यूईश परिवार में हुआ। बचपन से ही आपको घूमने का बहुत शौक था। सन् 1983 में जब आप फ्रांस में थीं उस समय ब्रह्माकुमारियों के सम्पर्क में आयीं और कोर्स लिया। आपने विश्वविद्यालय से डिग्री प्राप्त की है। अमेरिका के बोस्टन शहर में आप ईश्वरीय सेवा के लिए 15 साल रहीं। बोस्टन विश्वविद्यालय में प्राध्यापिका की नौकरी भी की। उसके बाद सन् 1980 से सेवार्थ इजरायल में रहती हैं।
बाबा की बात सुनकर मैं भी हँसी और बाक़ी लोग भी हँस पड़े
मेरा जन्म अमेरिका में हुआ। मेरे माता-पिता ज्यूईश थे परन्तु धर्म की कट्टरता से दूर थे। माता-पिता हमें स्वतन्त्र रूप से अपने पाँव पर खड़े होने के लिए प्रेरित करते थे। जब 17 साल की थी, तब मैंने घर छोड़ा विश्व भ्रमण के लिए। शिक्षा में मैंने यूनिवर्सिटी डिग्री पास की। ब्रह्माकुमारी बनने के बाद जब मुझे बोस्टन भेजा गया था तब ईश्वरीय सेवा के साथ-साथ मैंने बोस्टन युनिवर्सिटी में एज्युकेशन विषय पढ़ाना शुरू किया।
सत्तर के दशक में फ्राँस में मैं राजकीय संगठनों के साथ काम कर रही थी, लोगों को आणविक अस्त्रों के दुष्परिणामों के बारे में जानकारी देती थी। उसके बाद अस्सी के दशक में मैं फ्रांस से भारत आयी, यहाँ की कुछ युनिवर्सिटिज में आणविक अस्त्रों के दुष्परिणाम के बारे में जानकारी देने। जब मैं भारतवासियों की आँखें देखती थी तो वे मुझे न सिर्फ आकर्षित करती थीं परन्तु मुझे एक तरह का निमन्त्रण देती थीं। वो क्या था, क्यों था उस समय मुझे समझ में नहीं आया था। अभी मालूम पड़ा कि उन आँखों में जो आध्यात्मिकता थी, वो मुझे आमन्त्रित कर रही थी।
बचपन से ही मैं खुशी की तलाश में थी। जब में भारत में भ्रमण कर रही थी तब मुझे यह अनुभव हुआ कि मुझे जो खुशी चाहिए, वो यहाँ मिल सकती है। उस मेरे प्रवचन प्रवास में यह जानने के लिए समय नहीं था कि इन आँखों के पीछे क्या है। मैंने सोचा था कि इस प्रवचन टूअर के बाद फिर से मैं अकेली इंडिया आऊँगी और आँखों के राज़ की तलाश करूंगी। जब में फ्रांस में थी, तब भी मुझे विचार आया था कि भारत के लोगों की सेवा करूं।
प्रवचन प्रवास पूरा करके जब मैं फ्रांस लौट आयी तो मेरे घर के पास ही ब्रह्माकुमारियों का एक पोस्टर लगा हुआ था। उसमें से फोन नंबर लेकर मैंने फोन किया और कोर्स लिया। कोर्स लेना मेरे लिए बहुत विचित्र अनुभव था। कोर्स लेते-लेते मुझे बहुत खुशी हुई। तीन महीनों तक वहाँ ईश्वरीय ज्ञान का अध्ययन करने के बाद में इंग्लैण्ड गयी एक सप्ताह की भट्ठी के लिए। वहां मुझे बहुत शक्तिशाली अनुभव हुए।योग भट्ठी में जो सिस्टर मुझे दृष्टि दे रही थी वह बहुत पॉवरफुल थी। मुझे यह अनुभव हुआ कि उस बहन की भृकुटि से दो हाथ निकले और मेरी भृकुटि से मुझ आत्मा को उठाकर ऊपर खड़ा कर दिया। मेरे प्रेम तथा आनन्द के आँसू बह रहे थे। मैं लाल रंग की दुनिया में बाबा के प्यार में लवलीन हो गयी थी। एक बहन आकर मुझे जगाने लगी कि उठो, उठो, सब चले गये, आप भी चलो। जब मैंने होश में आकर देखा तो वहाँ कोई नहीं था, सब चले गये थे। इसके बाद यह मुझे पक्का हो गया कि मैं जो चाहती हूँ वह यही है और मुझे जिस मार्ग पर चलना है वह यही है।
मुझे अच्छी नौकरी मिली थी, अच्छे दोस्तों का संगठन था, मुझे किसी चीज़ की कमी नहीं थी, फिर भी मैं दुःखी थी, खुश नहीं थी। सच्ची खुशी की तलाश में थी। ईश्वरीय ज्ञान ने मुझे बहुत-बहुत खुशी दी। रिट्रीट के बाद दादी जानकी ने मेरे से कहा कि आप फ्रांस वापिस जाओ और अपने सारे काम पूरे करके लन्दन आ जाओ। उसके बाद आपको क्या करना है, सोचेंगे। बाद में दादी ने मुझे अमेरिका के बोस्टन में भेजा।
प्रश्नः पहली बार जब आप आप बापदादा से मिलीं, उस समय का क्या अनुभव था?
उत्तरः जब बापदादा को देखा, मैंने अपने कल्प-कल्पान्तर के बाप को पहचान लिया। ईश्वरीय परिवार को देखा तो यही अनुभव हुआ कि यही मेरा सच्चा परिवार है। मैं बहुत खुश थी। मैंने बाबा से बहुत मीठी दृष्टि पायी। बाबा से कई बार मिलना हुआ क्योंकि बाबा उन दिनों हर दो दिन में आते थे। बापदादा आने से एक दिन पहले हमने एक ड्रामा किया था। उस ड्रामा में मेरा पार्ट था कहानी सुनाना और बाकी सब उसके अनुसार एक्टिंग करते थे। दो दिन बाद बापदादा आये। मैं तो बापदादा के बहुत नज़दीक ही बैठी थी। मैं बाबा को देख रही थी, बाबा को समझने की कोशिश कर रही थी, बाबा से अतीन्द्रिय सुख का अनुभव भी कर रही थी। मुरली पूरी हुई और बाबा सबसे मिलने लगे। उन दिनों ऐसा या कि विदेश के भाई-बहनें बाबा के सामने गा सकते थे, नाच सकते थे, मोनो ऐक्टिंग कर सकते थे। बाबा हम लोगों के लिए ड्राई फ्रूट फेंकते थे, मुट्ठी भरके टोली देते थे। सारे कार्यक्रम पूरे होने के बाद बाबा विदाई लेने वाले थे, गीत भी बजना शुरू हो गया था। उतने में बाबा ने कहा, परसों जिस मित्र मंडली ने ड्रामा किया था, उनको बुलाओ। हम तो अवाक् रह गये। आश्चर्य तथा खुशी से हम विभोर हो गये। हम आठ लोग स्टेज पर बाबा के पास गये। बाबा ने हम सबको टोली खिलायी। मुझे टोली देते समय बाबा ने मुझसे बहुत समय तक बात की। बाबा का वह रूप बहुत ही मीठा तथा प्यार था।
फिर जब अगले दो दिन के बाद बाबा आये उस समय भी मैं बाबा के नज़दीक ही बैठी थी। उस समय भी बाबा मेरे से पर्सनल मिले। बाबा ने मेरे से पूछा क्या आप इससे पहले भी बाबा से मिली थी? मैंने कहा नहीं बाबा। मैं पहली बार मधुबन आयी हूँ। बाबा ने मुस्कराया और बहुत प्यार से बोला, क्या आप 5000 वर्ष पहले नहीं मिली थी? बाबा की बात सुनकर मैं भी हंसी और बाकी लोग भी हंस पड़े।
मधुबन आने से पहले मुझे यह पक्का निश्चय या कि मैं आत्मा हूँ, परमात्मा का अवतरण हुआ है, यह कल्प 5000 वर्षों का है। लेकिन मैं बाबा को टेस्ट करना चाहती थी इसलिए मधुबन आते समय रास्ते में मैंने बाबा से कहा कि बाबा, आप मुझे एक विशेष अनुभव कराओ या विशेष संकेत दो कि आप मेरे पिता हैं। जब में बाबा के सामने बैठी थी तो बाबा मुझे बहुत मीठे तथा प्यारे लग रहे थे। उतने में बाबा सबको दृष्टि देते-देते मेरे को दृष्टि दी। उस दृष्टि में मैंने पढ़ा कि बाबा मुझे कह रहे हैं कि आप कौन हैं, हमारा क्या रिश्ता है, वह आपसे ज़्यादा स्पष्ट रूप से मैं जानता हूँ।
मुरली में बाबा ने कहा कि दुनिया में बच्चे इतना सहन कर रहे हैं, बापदादा उसको देख नहीं सकते। सुनने के लिए तो यह एक साधारण वाक्य था लेकिन मेरे लिए बहुत महत्व का था। क्योंकि ये शब्द मेरे थे, मैं भी जीवन पर्यन्त इन्हीं शब्दों का प्रयोग करती थी। सन् 1979 से 82 तक मैंने न किसी को हैप्पी न्यू ईयर कहा, न हैप्पी बर्थ डे कहा। मैं उनको कहती थी कि संसार को देखो, लोग कितने दुःखी हैं! ऐसी स्थिति में हम कैसे कह सकते हैं कि हैप्पी न्यू ईयर! मैं कहती थी कि संसार से दुःख और गरीबी मिटाने के लिए हमें कुछ करना चाहिए। मैं लोगों का दुःख देख नहीं पाती थी, सहन नहीं कर पाती थी। जब मैं छोटी थी, उस समय एक हवाई जहाज की टक्कर हुई थी। उसमें बहुत लोग मर गये थे। उस समय कई दिनों तक मैं सो नहीं पायी थी।
एक बार हमारे शहर में एक युवती की हत्या हुई थी। उस समाचार को सुनकर भी में कई दिनों तक नहीं सोयी। कई बार मध्यरात्रि में माता-पिता को उठाकर कहती थी कि दुनिया के इन दुःख-दर्द को मैं सहन नहीं कर सकती। ऐसी घटनायें मुझे दुःखी कर देती थी। जब बाबा ने मेरे ही शब्दों का प्रयोग किया तो मुझे लगा कि बाप ही बच्चों के मन की हर बात को जानता है। बाबा ने मेरी पर्सनल बातों को ही अपने मुख से कहा, यह मेरा सच्चा पिता है, यह निश्चय हो गया। इसके बाद मैं पुराने जीवन से मर गयी अर्थात् पुराने शरीर में ही मेरा नया जन्म हो गया। मैं परमात्मा की सेना में भर्ती हो गयी। परमात्मा ही मेरा फादर, गाइड, फ्रेण्ड तथा कमाण्डर इन चीफ़ बन गया।
प्रश्नः परमात्मा के साथ आपका अति प्रिय सम्बन्ध कौन-सा है?
उत्तरः प्रियतम। लौकिक में मेरा मानना था कि जीवन ही प्रेम के लिए है। शायद मैं लौकिक में इसीलिए दुःखी थी क्योंकि मुझे सच्चा प्रेम मिला नहीं था। जब बाबा को पाया, उनसे मिली तो उनसे मैंने शक्ति, शान्ति तथा सच्चा प्रेम पाया। मेरे लिए प्यार बहुत विशेष था, वह सच्चा प्यार मैंने बाबा की दृष्टि से, बाबा की बातों से पाया। परमात्मा का प्यार कितना श्रेष्ठ तथा शक्तिशाली होता है यह मुझे मधुबन में अनुभव हुआ।
प्रश्नः आप पुरुषार्थ कैसे करती हैं?
उत्तरः मैं अमृतवेले तीन बजे उठती हूँ। बाबा के साथ परमधाम में उनके नज़दीक रहने का अनुभव करती हूँ। कभी सूक्ष्म वतन में बापदादा के साथ, मैं भी सूक्ष्म शरीरधारी बन रहती हूं, बाबा से वार्तालाप करती हूं। कभी स्थूल वतन में, स्थूल शरीर में रहकर भी परमधाम निवासी बाबा से पवित्रता की शक्ति को प्राप्त कर उसको अपने में समाती हूं। जब घूमने जाती हूं या कर्मणा सेवा करने बैठती हूँ तो ज्ञान के गहन बिन्दुओं का चिन्तन-मनन करती हूँ। पैदल चलते समय मैं ऐसे अनुभव करती हूं कि मैं और बापदादा कम्बाइण्ड होकर चल रहे हैं, कर्मणा सेवा कर रहे हैं। यह अनुभव बहुत गहरा होता है, अनुभव भी बहुत सुन्दर होता है। पुराने संस्कारों को मिटाने के लिए योग रूपी आग चाहिए। आग जलने के लिए दो वस्तुयें चाहिए। एक है लकड़ी, दूसरी है हवा। वैसे ही योग की आग प्रज्वलित होने के लिए ज्ञान रूपी लकड़ी और परमात्मा के साथ के सम्बन्ध रूपी हवा चाहिए। मैं अपने नित्य जीवन में बाबा को ही देखने का, बाबा से ही सुनने का, बाबा के बारे में ही सोचने का पुरुषार्य करती हूँ।
प्रश्नः आपने ईश्वरीय सेवा किस तरह के करना आरम्भ किया?
उत्तरः ज्ञान मैंने फ्राँस में लिया। अलौकिक अनुभव मैंने इंग्लैण्ड में किया। सेवा मैंने अमेरिका (बोस्टन) में शुरू की। बोस्टन विश्वविद्यालय में मुझे एज्युकेशन पढ़ाने की नौकरी मिल गयी। उस युनिवर्सिटी में मुक्त क्लासेस भी होते हैं। अगर विद्यार्थी रुचि रखते हैं तो वहाँ हम ऐच्छिक विषय भी पढ़ सकते थे। सेमिस्टर प्रारम्भ होने से पहले कोई भी प्राध्यापक जनरल सब्जेक्ट पढ़ा सकता है। प्राध्यापक एक टेबल-कुर्सी लेकर अपने कुछ चित्रों का प्रदर्शन करते हुए एक स्थान पर बैठ जाता है और जो स्टूडेण्टस आते हैं पढ़ने के लिए उनको पढ़ाता है। वह विद्यार्थियों के लिए वैकल्पिक विषय होता है।
मैंने भी ऐसा हो किया और राजयोग मेडिटेशन के लिए निमन्त्रण दिया। लगभग दस विद्यार्थी आने के लिए तैयार हो गये। उनको मेडिटेशन कोर्स कराया तो वे बाबा के बच्चे बन गये। इस तरह मेरे अलौकिक कार्यक्रम ज़्यादातर बोस्टन युनिवर्सिटी में ही होते थे। सन् 1985 में बोस्टन सेन्टर के उद्घाटन के लिए दादी गुलज़ार आईं। युनिवर्सिटी में दादी जी का कार्यक्रम रखा गया था। वो दिन मेरे लिए यादगार दिन हैं। बाबा का सेन्टर बोस्टन युनिवर्सिटी के पास ही है। दिन में युनिवर्सिटी में पढ़ाने जाती हूं और शाम को सेन्टर पर बाबा की पढ़ाई पढ़ाती हूँ।
प्रश्नः क्या आप ब्रह्माकुमारी जीवन से सन्तुष्ट हैं?
उत्तरः हाँ, पूर्णतः। इस जीवन में मेरे पास सब कुछ है, और किसी चीज़ की अपेक्षा नहीं है। राजयोग मेडिटेशन से, परमात्मा के साथ सर्व सम्बन्धों को जोड़ने से आत्मा बहुत-बहुत ही आनन्द में मग्न रहती है, सन्तुष्टता तथा भरपूरता में डूबी रहती है। मुझे और कोई आशा नहीं रहती लेकिन एक आशा ज़रूर है कि ज़्यादा से ज़्यादा आत्माओं की सेवा करें, दुःखी आत्माओं को सुखी बनायें, परमात्म-प्यार से वंचित आत्माओं का परमात्मा से मिलन करायें।
प्रश्नः ईश्वरीय ज्ञान को समझने में और अपनाने में कोई तकलीफ हुई?
उत्तरः नहीं। क्योंकि जैसे-जैसे मैं कोर्स लेती गयी, वैसे-वैसे मुझे अनुभव होता गया। बुद्धिजीवी होने के कारण ज्ञान स्पष्ट रूप से समझ में आता गया। लौकिक में मुझे जीवन के लक्ष्य के बारे में पता नहीं था कि आध्यात्मिकता क्या होती है, उससे क्या लाभ होते हैं। खासकर जब मैं इंग्लैण्ड गयी भट्ठी करने, वहाँ मुझे सारा पता पड़ा कि ब्रह्माकुमारी जीवन क्या है, कितना श्रेष्ठ है, इस जीवन के क्या-क्या नियम मर्यादायें हैं। उस भट्ठी में मुझे बहुत अच्छे-अच्छे अलौकिक अनुभव हुए, जीवन धन्य महसूस हुआ।
प्रश्नः भारत के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है?
उत्तरः भले ही मेरे में पश्चिमी संस्कार हैं, फिर भी मुझे भारतवासी, भारतवासियों की आँखें बहुत अच्छी लगती हैं। भारत मुझे बहुत अच्छा लगता है, भारत की सभ्यता मुझे अच्छी लगती है। जाने-अनजाने यह सभ्यता सूक्ष्म रूप में मेरे में बसी हुई है। मैं इस बात के लिए भारतवासियों की ऋणी हूँ क्योंकि संसार की सनातन सभ्यता के कुछ अंश को, सूक्ष्म रूप में भी सही तरीके से बचाके रखा है। भारत की सभ्यता बहुत ही प्रमुख तथा महान सभ्यता है क्योंकि अन्य सभ्यताओं से यह सभ्यता सत्यता तथा कला के अधिक समीप है। कला बहुत सूक्ष्म होती है। उसमें भी भारतीय शास्त्रीय नृत्यकला बहुत सूक्ष्म होती है। मैं लौकिक में ही भारतीय शास्त्रीय नृत्य कला की दीवानी थी। भारतीय शास्त्रीय नृत्य में आध्यात्मिक प्रकम्पन रहते हैं, भक्तिभाव छलकता रहता है लेकिन पश्चिमी नृत्य में देहाभिमान तथा देहाभिमान को जागृत करने वाले प्रकम्पन होते हैं। यहां की सभ्यता में, पारिवारिक सम्बन्धों में, सामाजिक सम्बन्धों में सूक्ष्मता तथा देवत्व समाये हुए हैं। मुझे भारत में रहना बहुत अच्छा लगता है।
प्रश्नः भारतवासियों के लिए आपका क्या सन्देश है?
उत्तरः भारतीय सभ्यता में भक्ति, पूजा, व्रत आदि जो हैं, बहुत अच्छे हैं लेकिन इनको करने वाले व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि भक्ति करने वाला मैं कौन हूँ, किस लिए ये व्रत-नियम कर रहा हूँ। मैं जानती हूँ कि भारतवासी बहुत बुद्धिजीवी हैं, धर्मात्मा हैं। उनसे मेरी एक विनती है कि जब भी आपकी अन्तरात्मा से आवाज़ आती है, उसको सुनें और उसके अनुसार करें। क्योंकि मैं देख रही हूं कि बुद्धिजीवी कहलाने वाले, पढ़े-लिखे कहलाने वाले भारतवासी धर्म के बारे में मूंझ रहे हैं, भ्रम में आ रहे हैं या धर्म तथा आध्यात्मिकता के बारे में जानने के लिए संकोच कर रहे हैं।
आने वाले दिन बहुत भयंकर हैं, उनका सामना करने के लिए हर व्यक्ति को आत्मिक शक्ति चाहिए। आत्मिक शक्ति आध्यात्मिक ज्ञान तथा साधना से ही आयेगी। इसलिए भारतवासी भाई-बहनों से मेरा यही नम्र निवेदन है कि वे आध्यात्मिक ज्ञान को समझें तथा जीवन में लायें। समाज में अगर कोई व्यक्ति सही रास्ते से खिसक जाता है तो उसके लिए मुख्यतः तीन कारण हैं। पहला है, दूसरों में त्रुटियाँ देखना, दूसरा है, कटु आलोचना करना और तीसरा है, स्वार्थवश वस्तुओं का संग्रह करना। यह संसार परमात्मा का बहुत सुन्दर तथा सुखदायी परिवार है। हम सब मनुष्यात्मायें उस परमात्मा की अनोखी रचनायें हैं, आपस में भाई-भाई हैं। एक-दूसरे के प्रति श्रेष्ठ भावना, सहयोग की भावना, कल्याण की भावना रखेंगे तो संसार स्वर्ग बनने में कोई संशय नहीं।
प्रश्नः क्या आप मानती हैं कि इस सृष्टि पर स्वर्ग आयेगा?
उत्तरः निःसन्देह। समस्त मानव-कुल का प्रेम तथा सद्भावना से मिलकर रहना ही स्वर्ग या स्वर्णिम युग है। सम्बन्धों में सम्पूर्ण प्रेम, सम्पूर्ण एकता तथा सामंजस्य से रहना ही स्वर्ग की विशेषता है। इन बातों को हम बी.के. भाई-बहनों में देख रहे हैं। क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान तथा राजयोग का मुख्य लक्ष्य ही है मानव को देवमानव बनाना। देवमानव तो स्वर्ग में ही रहते हैं। हर बी.के. का ध्येय भी यही है ना, स्व परिवर्तन से विश्व परिवर्तन; स्वयं पवित्र बन सारी दुनिया को पवित्र बनाना। इसलिए इस सृष्टि पर निश्चित ही स्वर्ग आयेगा, विश्व एक कुटुम्ब के रूप में रहेगा। वहाँ सम्पूर्ण सुख, शान्ति तथा पवित्रता सम्पन्न नर-नारी होंगे।
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