बरेली के ब्रह्माकुमार राजकृष्ण भाई कहते हैं; ब्रह्माकुमारी आश्रम में आने से पहले मैं गीता, हनुमान चालीसा, आदि पढ़ता था और महात्माओं के सत्संग में जाया करता था। एक दिन एक महात्मा के पास जा रहा था तो एक भाई ने रास्ते चलते आत्मा की चर्चा शुरू कर दी। चर्चा करते-करते हम दोनों महात्मा के पास पहुँच गये। महात्मा जी का प्रवचन सुनने के बाद मैं वापस आ रहा था तो वही भाई मेरे साथ पुनः ज्ञान चर्चा करने लगा और कहा, अगर ज्ञान को अच्छी तरह से समझना चाहते हो तो यहाँ गुरुद्वारे के पास मेरठ से कुछ देवियाँ आयी हैं जो परमात्मा का ज्ञान सुनाती हैं, उनके पास चलो। आप रविवार को दो बजे मिलना, मैं आपको साथ ले जाऊँगा। रविवार के दिन उस भाई के साथ आश्रम पर गया।
वहाँ के शान्त वातावरण ने मुझे बहुत आकर्षित किया। बाद में बहनों ने शिव परमात्मा का परिचय दिया और एक छोटी-सी पुस्तक दी। उसको मैंने पढ़ा। पढ़ने के बाद मन आनन्द से भर गया। दूसरे दिन गया तो शिवरात्रि का दिन था। बहनों ने रात को अखण्ड योग का कार्यक्रम रखा था। मुझे कहा कि रात्रि को योग करने आना। मैं भी रात्रि को योग करने पहुँच गया। योग में बैठे तो मेरी चोटी को एक लकड़ी से बाँध दिया और कहा कि अगर झुटका आया तो सारा झाड़ हिल जायेगा। इसलिए एक की लगन में जाग्रत होकर बैठना। मैं सारी रात योग में बैठा रहा। सुबह पाँच बजे प्रकाश इन्द्रा दीदी आयी और योग की दृष्टि देकर योग कराया। उस समय मैं एकदम हल्का हो गहन शान्ति में खो गया। उसके बाद नित्य क्लास में जाने लगा और सिन्धी मुरली पढ़ने लगा। मेरी लगन मुरली के प्रति इतनी बढ़ गयी कि बहनों से सन् 1948 तक की मुरलियाँ लेकर पढ़ने लगा। भगवान से मिलने की तीव्र इच्छा जाग्रत हो गयी कि मैं सम्मुख जाकर उनसे मिलूँ। मई 1956 में मधुबन पार्टी जा रही थी। मुझे नौकरी से छुट्टी नहीं मिली लेकिन लगन बहुत थी तो मैंने बहनों से कहा कि मैं ज़रूर आऊँगा। मैंने बाबा को बहुत याद किया। दूसरे दिन छुट्टी मिल गयी।
मैं अकेले ही गाड़ी में बैठ आबू रोड स्टेशन पर पहुँच गया। विश्वकिशोर दादा दूसरी पार्टी को लेने आये थे तो मैं भी उनके साथ मधुबन पहुँच गया। स्नान आदि करके हम मम्मा-बाबा से मिलने गये। बाबा की मेरे पर दृष्टि पड़ते ही मैं बाबा की गोदी में चला गया। बाबा बोले, “बच्चे, जीते जी मरने के लिए आये हो?” एकदम मुझे समझ में आया कि भृगु ऋषि ने मेरी जन्मपत्री पढ़ ली। ऐसा ही महसूस हुआ कि मेरे असली माँ-बाप यही हैं। एक दिन मैंने बाबा को अपने दिल की बात कही कि मेरी सगाई हो चुकी है, क्या करूँ? तो बाबा ने कहा, बच्चे, हमारा प्रवृत्तिमार्ग है इसलिए उसको भी ज्ञान दो। जब मधुबन से वापस आया तो घर पर गुरु आये थे। माता-पिता ने कहा, गुरु कर लो। मैंने कहा, मुझे तो सतगुरु मिल गया है तो गुरु की क्या दरकार है? फिर माता-पिता को भी यह ज्ञान सुनाया। उनको भी बहुत अच्छा लगा और ज्ञान में चलने लगे।
सन् 1957 में बाबा से मिलने मधुबन गया तब काफ़ी समय वहाँ रहकर यज्ञ की भिन्न-भिन्न सेवा करता रहा। हमारे सामने मम्मा-बाबा त्याग, तपस्या और सेवा के सैम्पल थे। बाबा मुझे ‘स्वराज्य कृष्ण’ के नाम से ही बुलाते थे और कहते थे कि बच्चे, अपना फैसला कर लो। तो यहाँ से सीधा अम्बाला गया और सभी रिश्तेदारों को बुलाकर झाड़, त्रिमूर्ति पर पूरा ज्ञान समझाया और कहा, मैंने शिव बाबा से आजीवन ब्रह्मचर्य में रहने का वायदा किया है। यदि आपको मंज़ूर है तो मैं शादी करके भी आजीवन ब्रह्मचर्य में रहूँगा। उन्होंने मना कर दिया। फिर मैंने सारा समाचार मम्मा-बाबा को लिख दिया।
सन् 1958 में मम्मा-बाबा दिल्ली राजौरी गार्डन में आये। मैं मम्मा-बाबा से मिलने गया। उस दिन ब्रह्मा भोजन रखा था। वहाँ काफ़ी भाई-बहनें आये हुए थे। मैं जैसे ही भोजन पर बैठा, कुंज दादी आयी और कहा, आपको बाबा बुला रहे हैं। मैंने सोचा, इतने भाइयों में से मुझे ही क्यों बुलाया, ज़रूर मेरे से कोई भूल हुई होगी। मैं थाली छोड़कर तुरन्त बाबा के पास गया। बाबा ने बड़े प्यार से अपने पास बिठाया, दूसरी तरफ़ मम्मा बैठी। मुझे बीच में बिठा लिया। उसके बाद बाबा ने एक कन्या का लिखा हुआ निश्चय-पत्र दिखाया जिस पर उस कन्या का फोटो लगा था। बाबा ने कहा कि बच्चे, इस बच्ची को बन्धनों से छुड़ाना है। मैंने कहा, बाबा, अभी तो आपने मुझे स्वतन्त्र पंछी बनाया है। मैं अब शादी के चक्र में नहीं आऊँगा। मम्मा ने मुझ से कहा, कहो, बाबा आप जैसे कहेंगे। तो बाबा बोले कि शिव बाबा जैसे कहे। उसी समय सन्तरी दादी को ध्यान में भेजा। थोड़ी देर में सन्देशी वापस आयी और सन्देश सुनाया कि शिव बाबा ने कहा है कि बच्चे को दिव्य (गंधर्व) विवाह कर बच्ची को बन्धन से मुक्त करना है। मैंने कहा, जो आज्ञा। उसके बाद शादी करके हम बाबा के पास पहुँच गये। बाबा ने हम दोनों को बड़े प्यार से गोद में लिया और कहा कि ये दोनों बच्चे बाबा को कमाल करके दिखायेंगे। उसके बाद उस कन्या को बाबा ने दिल्ली सेन्टर पर भेज दिया और मैं लौकिक सर्विस पर सहारनपुर चला गया। वहाँ बाबा को निमन्त्रण दिया तो बाबा ने कहा, “ज़रूर आऊँगा, आप तैयारी करो क्योंकि बच्चों ने बाप का हुक्म माना है, बाप भी बच्चों का हुक्म मानेंगे।” बाबा-मम्मा सहारनपुर आये तो मेरी खुशी का पारावार न रहा। कुछ दिन मम्मा-बाबा सहारनपुर में रहकर मुंबई गये। फिर मुझे भी सेवा के लिए वहाँ बुलाया।
सन् 1968 में जब बाबा से मिलने मधुबन गया तो बाबा एकदम न्यारे और प्यारे लगते थे। चलते-फिरते फ़रिश्ता स्वरूप देखने में आता था। जब बाबा से मिलते थे तो मात-पिता दोनों का अनुभव होता था। लेकिन मुझे यह मालूम नहीं था कि बाबा से मैं अन्तिम बार मिल रहा हूँ। ऐसे थे मेरे निराले बाबा!
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