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Bk purnima didi nadiad anubhavgatha

बी के पूर्णिमा दीदी – अनुभवगाथा

नड़ियाद (गुजरात) से ब्रह्माकुमारी पूर्णिमा बहन जी कहती हैं कि बाबा के साथ बीते हुए बचपन के पल अनमोल और स्मरणीय हैं। वे कुछ दिन दुर्लभ हैं और कुछ ही घटनायें हैं जो आज कई वर्षों के बाद भी मुझे याद आ रही हैं। बचपन की ईश्वरीय अलौकिक खुशियाँ कुछ और ही थीं। साकार बाबा के साथ बीता बचपन याद करते ही मन नाच उठता है और दिल गाने लगता है। बाबा के संग मधुबन में रहना जीवन की बसन्त ही समझो। इस बसन्त में खिला हुआ खुशबूदार फूल-राजा कहो अथवा रूहे गुलाब कहो वह था, साकार बाबा।

अजीब तरीक़ा और अनोखा दृश्य

छह फुट से भी ज़्यादा ऊँचे कद वाले बाबा के मन की ऊँचाई को तो नापना भी कठिन था। आकाश की ऊँचाई को छू कर उसके भी पार परमधाम निवासी शिव पिता के पास पहुँच कर रूहरिहान करना और धरती पर पाँव रखकर बच्चों से बात करना, यह अजीब तरीक़ा था और अनोखा दृश्य था । बाबा मधुबन में बच्चों के आकर्षण का बिन्दु था। यह भी महसूस होता था कि शिव बाबा को भी साकार बाबा के प्रति और साकार बाबा को शिव बाबा के प्रति अति दिव्य आकर्षण था। शिव बाबा बार-बार साकार ब्रह्मा-तन में आते रहते। शिवबाबा की प्रवेशता साकार बाबा की पवित्रता, सौन्दर्य और दिव्यता की चरम सीमा थी। ऐसे बाप-दादा का साक्षात् दर्शन विनाशी शब्दों और दृष्टान्तों द्वारा कराना असम्भव है। परमपिता और महापिता के सान्निध्य के सुख, शान्ति, समृद्धि, शीतलता एवं पवित्र जीवन की महसूसता और दिव्य आनन्द के अनुभव के आगे स्वर्गिक सुख-समृद्धि भी नीरस और फीकी भासती थी। उस समय के वो महान पल देवताओं के लिए भी दुर्लभ थे।

बाबा के संग रहकर अनाज सफ़ाई करना, खाना बनाना और फिर बाबा के साथ ही ब्रह्मा भोजन करना भी तो देवताओं के लिए दुर्लभ है। बाबा साकार में होते हुए, बच्चों के साथ रहते हुए, बच्चों से मिलते हुए भी उपराम दिखायी देते थे। कमाल यह थी कि बाबा कभी बाप के रूप का, तो कभी जिगरी दोस्त के रूप का, तो कभी साजन के रूप का अनुभव कराते थे। बाबा द्वारा बच्चों का स्वागत करना, पालना करना, शिक्षा देना, खेल-पाल करना और विदाई देना, ये सभी पल अलौकिक और देखने लायक होते थे।

मैंने अनुभव किया कि मधुबन में पाँव रखते ही मुख्य द्वार पर खड़े बाबा द्वारा शीतल दृष्टि देना, मधुर शब्द बोलना, पिस्ता, बादाम, शक्कर की टोली का मुख में डालना और बच्चे का बाबा की बाँहों में समा जाना, इन सबसे जन्म-जन्म की थकावट दूर हो जाती। बाबा की छत्रछाया में ज्ञान-खुराक मिलती, ज्ञानामृत से आत्माओं में अखुट शक्ति भरती थी। वह क्षण सम्पूर्ण दिव्यता का एहसास कराता था।

यह बच्ची आपकी नहीं, भगवान की है

हमारा पूरा परिवार भक्तिमय था। परिवार में शिव जी की पूजा, गायत्री मंत्र और अम्बे माता की नित्य आरती होती थी। बचपन से ही मुझ में प्रभु की प्राप्ति की तीव्र इच्छा थी। प्रभु-प्राप्ति के लिए घर छोड़कर जंगल में जाने का संकल्प भी कभी-कभी तीव्र हो जाता था। इसी बीच अनायस ही घर में प्रभु-प्राप्ति का अनुभव हुआ। ईश्वरीय सन्देश देने के लिए ब्रह्माकुमारी बहनों ने सन् 1966 में, हमारे घर में गीता पाठशाला शुरू करने का संकल्प किया और अचानक ही दादी जानकी जी का घर आना हुआ। वे गीता पाठशाला के लिए लौकिक पिता जी से मिलने आयी थी। उसी समय दादीजी के सामने मैं बैठी थी। देखते ही दादीजी ने कहा कि “यह बच्ची आपकी नहीं, भगवान की है। आप इस बच्ची को भगवान को सौंप दो।” कुछ समय के बाद पिता जी मधुबन गये। बाबा ने मुझे देखा भी नहीं था और पिताजी से कहा कि जनक बच्ची बता रही थी कि आपकी लौकिक बच्ची आपकी नहीं, बाबा के यज्ञ की है। यज्ञ की सेवा में इसे लगाना है। दादीजी का संकल्प, बाबा का कहना और तीसरी बात यह हुई कि जब मम्मा अव्यक्त रूप में आयी थी तो मम्मा ने भी पिता जी से मेरे जीवन को यज्ञ में न्यौछावर करने के लिए कहा। यह भी जीवन का सौभाग्य है कि मैं खुद ईश्वर माता-पिता और महारथियों की पसन्द हूँ।

महापिता और परमपिता दोनों के प्यार की वर्षा इकट्ठी बरसती थी

आखिर प्रभु-मिलन का वह दिन आया जिसका मैं भक्ति में इन्तज़ार कर रही थी। हम सात कन्याओं को दमयन्ती बहन सन् 1966 में मधुबन बापदादा के पास ले गयी। मधुबन के आँगन में जाते ही खुद बाबा ने हमारा स्वागत किया। बाबा की प्यार भरी दृष्टि और प्रभावशाली व्यक्तित्व ने हमें उसी क्षण चुम्बक की तरह खींच लिया था। बाबा ने ‘आओ मेरे मीठे बच्चे’ कहकर पुकारा और कहा ‘बच्चे, थके तो नहीं हो ना? अच्छा, स्नान, चाय, नाश्ता करके तैयार होकर आना, बाबा आपसे फिर मिलेंगे।’ बाबा से पहली ही मुलाक़ात का अलौकिक और अद्भुत क्षण आज भी चित्त पर अङ्कित है। बाबा से उसी शाम को मिलना हुआ। बाबा ने हम सबका परिचय लिया। उस क्षण हम महसूस कर रहे थे कि जैसे बरसों से खोये हुए माँ-बाप को पा लिया। मैं महसूस कर रही थी कि मैं पहली बार नहीं, कई बार यहाँ आयी हूँ। बाबा बच्ची, बच्ची कह पुकारते, बातें करते तो ऐसे लगता था जैसे साकार बाबा के तन में शिव बाबा भी आकर बातें करते हैं। उसी क्षण यह एहसास भी मुझे होता था कि बाबा के बोल भी जैसेकि बदल रहे हैं। बाबा के तन में जब शिव बाबा प्रवेश कर बातें करते थे तो उसी समय बाबा का मस्तक तेजोमय सूर्य जैसा दिखायी देता था और दृष्टि से शक्ति तथा स्नेह की किरणें हमारे में भर रही हों, ऐसा अनुभव होता था।

दूसरे दिन सुबह के क्लास में, बाबा के आने के बाद हम पहुँचे। हिस्ट्री हॉल में हम सात कन्यायें पीछे बैठी थीं। नज़र हमारे पर पड़ी और बाबा ने कहा, पीछे से आगे आ जाओ। फिर कहा, देखो, आज सात कन्यायें आयी हैं। एक कन्या 100 ब्राह्मणों के बराबर। आज तो मधुबन के क्लास में 700 ब्राह्मण बैठे हुए हैं। इस तरह बाबा हम कन्याओं की बहुत महिमा करते रहे और कहा कि ये सात शीतलायें हैं।

बच्ची, तुम पूर्ण-माँ हो

क्लास के बाद हम बाबा से कन्याओं का व्यक्तिगत मिलना हुआ तो बाबा ने मुझे कहा, ‘बच्ची, पढ़ाई पढ़कर क्या करेगी? पढ़ाई छोड़कर बाबा की सेवा में लग जाना है।’ बाक़ी कन्याओं को लौकिक पढ़ाई करने को कहा। स्वाभाविक था कि कन्याओं को प्रश्न उठा कि बाबा ने हमें ऐसा क्यों कहा! एक पढ़ाई छोड़े और बाक़ी नहीं। बाबा ने कहा कि बाबा तो हर एक बच्चे की जन्मपत्री जानता है। पूर्णिमा बच्ची का पढ़ाई छोड़ने में और बाक़ी तुम सभी का पढ़ाई में लगे रहने में ही कल्याण है। फिर बाबा ने मुझे कहा, बच्ची, तुमको यहाँ से जाकर सीधा सेन्टर पर ही ठहरना है। जाने से पहले बाबा से छुट्टी लेकर जाना। बाक़ी कन्याओं की दिल थी, कुछ दिन मधुबन में ठहरने की, तो बाबा ने उन्हें ठहरने के लिए छुट्टी दी और मुझे कहा, बच्ची, तुमको रुकना नहीं है। बादल सागर के पास भरने आते हैं तो तुमको अभी जाकर ज्ञान बरसात करनी है। फिर खाली हो तो बादल बन के सागर के पास भरपूर होने आ जाना। बाबा के पास जब मैं अहमदाबाद जाने के लिए छुट्टी लेने गयी तब बाबा अपने कमरे में कुर्सी पर बैठे थे। मैंने बाबा को कहा, ‘बाबा, मैं दमयन्ती बहन के साथ जा रही हूँ, आपसे छुट्टी लेने आयी हूँ।’ बाबा ने मेरा हाथ पकड़ा, फिर सिर पर हाथ घुमाकर प्यार भरी दृष्टि देते हुए कहा, बच्ची, नाम क्या है? मैंने कहा, पूर्णिमा। बाबा ने कहा, बच्ची, तुम ‘पूर्ण-माँ’ हो। तुम छोटी कन्या नहीं हो, तुम तो जगत् माता हो। तुम्हें सभी की माँ बनकर सभी का कल्याण करना है इसलिए अब तुम्हें बाबा की सेवा में ही लगे रहना है। मैंने कहा, ‘जी बाबा।’ फिर बाबा ने पूछा, ‘बच्ची, दाल-रोटी बनाना आता है?’ मैंने कहा, ‘नहीं बाबा।’ बाबा ने कहा, ‘अच्छा बच्ची, दाल-रोटी बनाना सीखकर जाना।’

विचित्र बड़ी माँ की विचित्र ममता

फिर बाबा ने पूछा, ‘बच्ची, और कुछ चाहिए क्या? पहनने के लिए दो जोड़ी कपड़े और खाने के लिए दाल-रोटी चाहिए। बाबा के घर में तो ये मिल जायेंगे। और क्या चाहिए?’ मैंने कहा, ‘बाबा, जिनको पाने के लिए भक्ति की, उसकी ही गोद में बैठी हूँ तो उससे ज़्यादा मेरा कौन-सा सौभाग्य हो सकता है! मैं कितनी भाग्यशाली हूँ जो माँ-बाप के रूप में स्वयं भगवान को पाया है।’ उस समय मैं अनुभव कर रही थी कि मुझे बरसों से खोयी हुई अमूल्य वस्तु मिल गयी है। फिर बाबा ने लच्छु बहन को बुलाकर कहा, आज बाबा इस बच्ची को अपने ही हाथों से रोटी-मक्खन खिलायेंगे। तुम गरम-गरम फुलका बनाकर दो। उस समय लच्छु बहन ने गरम-गरम फुलके बनाकर उन पर शहद और मक्खन लगाकर बाबा के हाथों में दिये। बाबा ने अपने ही हाथों से मुझे रोटी खिलायी। बाबा जब खिला रहे थे तो बाबा का रूप वात्सल्यमयी माँ का था। ऐसा प्यार लौकिक माँ-बाप से भी नहीं पाया। इतनी अलौकिक और निःस्वार्थ पालना बाबा से मिली। वरदान के रूप में बाबा ने कहा, ‘बच्ची, जहाँ भी पाँव रखेगी वहाँ सफलता तुम्हारे चरणों में ही होगी।’ बाबा ने वरदान के बाद बादाम, मिश्री, ईलायची देते ‘गो सून, कम सून’ (Go soon, Come soon) कहते ऐसे गले लगाया जैसेकि माँ-बाप बच्ची को ससुराल के लिए विदाई देते हैं। आँखों में आँसू बहते थे। दिल नहीं चाहता था कि बाबा को छोड़कर जायें लेकिन बाबा सेवा पर भेज रहे थे तो फिर मैं अहमदाबाद सेवास्थान पर पहुंची, जहाँ जानकी दादी, दमयन्ती बहन और वनीता बहन भी थीं। बाबा से मिलने के बाद अलौकिक मस्ती में दिन बिता रही थी। बाबा से मिला प्यार और दुलार याद करते हुए, मैं बाबा के यज्ञ से जो भी सेवा मिलती थी उसे दिल लगाकर करती रहती थी। सेवाकेन्द्र पर रहने के लिए जब मैंने लौकिक परिवार और घर छोड़ा तब मेरी आयु केवल 16 वर्ष की थी।

बाबा, बाप-टीचर-धर्मराज के रूप में

मैं जब मधुबन दोबारा बाबा से मिलने सरला दीदी के साथ आयी तो उसी समय अपने जीवन में एक नया अनुभव पाया। पहली मुलाक़ात में बाबा से माँ-बाप के रूप में प्यार मिला था। जब दूसरी मुलाक़ात हुई तो बाबा बाप के साथ-साथ टीचर, सतगुरु और धर्मराज भी है यह भी अनुभव हुआ। सुबह की क्लास में बाबा की मुरली धर्मराज की शिक्षाओं से भरी थी। बाबा ने कहा कि यह इन्द्र की सभा है जहाँ परियाँ अर्थात् पवित्र आत्मायें ही बाबा के सामने बैठ सकती हैं। कोई भी अपवित्र आत्मा का इस सभा में स्थान नहीं है। अगर कोई आत्मा आती है तो उसको सज़ा मिल जाती है। इस बात पर मुझे उस समय की एक घटना याद आती है। क्लास के बाद हम नाश्ता कर अपने कमरे में गये तो मेरा छोटा भाई, भाइयों के कमरे की ओर से दौड़कर आ रहा था। उसने दीदी से कहा कि अपने साथ आया हुआ एक भाई खटिया पर लेटा हुआ है और हाथ-पाँव पटक-पटक कर चिल्ला रहा है और कह रहा है कि बाबा मुझे माफ़ करो, मेरे से सहन नहीं हो रहा है। हम अपने कमरे से बाहर आते ही विश्वकिशोर भाऊ से मिले, उनको लेकर उस भाई के कमरे में गये। सज़ा भोग रहे भाई ने बोला, बाबा को बुलाओ। जब हम सभी बाबा के पास गये तो बाबा कुछ भाई-बहनों के साथ बैठे थे। बाबा को जब समाचार सुनाया तो उन्होंने कहा कि बच्चे, उस पर पानी छिड़क दो और एक गिलास पानी पिला दो। भाऊ ने बाबा के दिये हुए पानी को उस भाई पर छिड़का और पिलाया। वह शान्त हो गया। 

दूसरे दिन सबके साथ मिलते हुए बाबा ने उस भाई को कहा कि बच्चे, धर्मराज को किये हुए सारे पाप लिखकर दो तो बाप आधा माफ़ कर सकता है। शुरू-शुरू में मधुबन में धर्मराज की कचहरी होती थी। बाबा रात को कचहरी में, जिसने भूलें की हों, उसे सभा में सुनाने का आदेश देते थे और सभा में ही सबके सामने माफ़ी मँगवाते थे। उस समय बाबा का धर्मराज का रूप भी मैंने देखा था।

बच्चों के साथ बच्चा बनकर लीला दिखाने वाला ‘लीलाधर बाबा’

बाबा बच्चों के साथ खेल-पाल भी करते थे। बच्चों के साथ बच्चा, युवा के साथ युवा और बूढ़ों के साथ बूढ़ा बनकर रहता यह बाबा की अनोखी विशेषता थी। एक बार हम सब बच्चे बाबा के कमरे में गुड नाइट करने गये तो बाबा ने सब बच्चों को अपने पास बुलाया। हम सब छोटे-बड़े बाबा के पास बैठे। बाबा ने मेरे छोटे भाई को एक छोटा-सा डिब्बा दिया। बाबा ने कहा, बच्चे, इसमें ढेर सारी चाकलेट हैं, सभी को बाँटना। जैसे ही डिब्बा खोला तो उसके अन्दर से एक साँप उछलकर निकला। घबराहट में सभी बड़े बाहर निकल गये। जो छोटे थे उनमें से कइयों ने उस साँप का मुँह पकड़ा, कई उसकी पूंछ पकड़कर बाबा की गोद में बैठ हँसते-हँसते खेल रहे थे। बड़ों को आश्चर्य हुआ कि कमरे में बाबा और बच्चे खेल रहे हैं। बाबा ने कहा, बड़े बच्चे डर गये। देखो, छोटे बच्चे कितने निडर हैं क्योंकि निर्दोष हैं। वह साँप असली नहीं बल्कि नकली था। यह खेल देख सब बहुत हँस रहे थे। बाबा ने कहा, “खुशी जैसी खुराक नहीं।” बाबा ने यह भी बताया कि भविष्य में भयानक विनाश के दृश्य देखने में आयेंगे इसलिए अपनी अवस्था ऐसी पक्की बनाओ कि भयभीत न हों।

बाबा रस्सी खींच तथा बैडमिंटन जैसे खेल भी खेलते थे। बाबा जीतकर कहते थे, ‘देखो बच्चे, शिव बाबा मेरे साथ है तो मैं जीत गया।’ कभी बाबा कहते, ‘बच्चे किसके साथ खेल रहे हो?’ बच्चे कहते, ‘बाबा, आपके साथ।’ तो बाबा कहते, ‘बच्चे फेल हो गये। आपको तो शिव बाबा दिखायी देना चाहिए।’ इस प्रकार, बाबा का प्यार भरा रमणीक रूप भी देखने को मिलता था।

इंजिन और डिब्बे का खेल

बाबा की विदाई देने की विधि भी अलग ही थी। बाबा बादाम, मिश्री देकर लाइन में खड़े रखते थे। बाबा खुद आगे रहते फिर एक के बाद एक बच्चे और लास्ट में ब्राह्मणी (टीचर), इस तरह एक ट्रेन बना देते। बाबा कहते, ‘बच्चे, डबल इंजिन (शिव बाबा और ब्रह्मा बाबा) आगे हैं, आप सभी डिब्बे हो, मेरे पीछे आते रहना।’ बाबा मधुबन के पीछे के गेट तक आते थे फिर बाबा खुद निकल अलग होकर खड़े-खड़े रूमाल हिलाते और बच्चे बाबा को देख-देखकर आगे चलते रहते थे, जब तक कि बाबा दिखायी पड़ता और बाबा भी जब तक बच्चे दिखायी पड़ते वहाँ ही खड़े रहते। उस समय मन कहता था इतना प्यार करेगा कौन!

बाबा ने मुझे अपने हाथों से गरम रोटी खिलायी थी। अजीब बात है कि आज भी मुझे मधुबन सेवा में या अन्य स्थान पर रोटी डिपार्टमेण्ट ही मिलता है। यह भी मेरा सौभाग्य है। शुरू-शुरू में मैं जिस भी सेवास्थान पर गयी वहाँ दाल-रोटी और दो जोड़ी कपड़ों से ही जीवन चलाया। यह भी बेगरी पार्ट का अनुभव बाबा के संग किया। कभी भी किसी तरह का संकल्प नहीं चला। बाबा के साथ का अनुभव करती रही। आज भी बाबा का हाथ सिर पर है और बाबा की छत्रछाया में पल रही हूँ, यह अनुभव मुझे सदा होता है।

बाबा ने मुझे अन्तिम यात्रा का पूरा दृश्य दिखाया

सरला दीदी ने मुझे सेवा के लिए दिसंबर 1968 में आनंद भेजा था। वहाँ से पहली जनवरी, 1969 को बड़ौदा भेजा जहाँ बहुत बड़ी प्रदर्शनी लगी थी। बाबा ने कुमारका दादी (दादी प्रकाशमणि जी) को भेजा था। दमयन्ती बहन ने दादी के साथ बाबा को पत्र भेजा कि यहाँ गुजराती बहन की ज़रूरत है। बाबा ने पत्र का उत्तर दिया, ‘बच्ची, पूर्णिमा बच्ची तुम्हारे साथ रहेगी, जो सयानी और समझू भी है। सेवा में भी बहुत अच्छी मदद करेगी। बड़ौदा में तुम्हारे पास ही रहेगी।’ बाबा के आदेश-पत्र के बाद मैं बड़ौदा ही रही। पत्र के बाद चार-पाँच दिन में ही बाबा ने शरीर त्यागा। अठारह जनवरी, 1969 में बाबा के शरीर छोड़ने का समाचार मिलते ही मुझे सेन्टर पर छोड़ सब बाबा की अन्तिम यात्रा के लिए मधुबन आ गये। मुझे संकल्प चला कि यह कैसा भाग्य है जो मैं अन्तिम समय बाप से मिल भी नहीं सकी! हमने तीन दिन अखण्ड योग रखा। आश्चर्य की बात है कि बाबा ने मुझे अन्तिम यात्रा का पूरा दृश्य दिखाया और अनुभव कराया कि बाबा का इतना सुन्दर रथ भी पाँच तत्वों में मिल गया तो हमारा शरीर तो कुछ भी नहीं है। यह शिक्षा और प्रेरणा मिली कि शरीर से मोह निकाल बाबा की तरह ही अव्यक्त कर्मातीत फ़रिश्ता बनने का हमें पुरुषार्थ करना है। मुझे लक्ष्य रहता है कि बाबा ने हमें जितनी प्यार से पालना दी है उसके रिटर्न में हमें भी यज्ञ में हड्डी-हड्डी सेवा करनी है और निर्विघ्न बन सबको सन्तुष्ट करना है।

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