नयना बहन को सन् 1977 में ईश्वरीय ज्ञान लन्दन से प्राप्त हुआ। आपकी माता जी ही आपको ज्ञान में ले आयीं। आप लन्दन के ग्लोबल हाउस में ट्रैवलिंग एवं ट्रान्सपोर्ट विभाग को संभालती हैं। ट्रान्सपोर्ट विभाग के साथ-साथ अन्य सभी प्रकार की सेवायें आप करती हैं।
आप विविध प्रकार के भोज्य पदार्थ बनाने में प्रवीण हैं। “आहार तथा आत्मा” इस विषय पर आपने एक पुस्तक भी लिखी है। लेख लिखना, अनुवाद करना, तरह-तरह की टोली बनाना आपका शौक है।
बाबा ने वरदान दिया कि आप ऑलराउण्ड पार्टधारी हो
मेरा जन्म युगाण्डा (अफ्रीका) में हुआ। बचपन से ही मैं श्रीकृष्ण जी की भक्तिन थी। रोज़ श्रीकृष्ण जी की मूर्ति पर दूध और चीनी चढ़ाती थी। उस समय मूर्ति तक मेरा हाथ नहीं पहुँचता था तो मैं कुर्सी खींचकर ले जाती थी और उस पर खड़ी होकर मूर्ति पर फूल चढ़ाती थी। उस समय मेरी आयु 6-7 वर्ष की थी। श्रीकृष्ण की मूर्ति देखते-देखते मैं खो जाती थी, मन में मस्ती चढ़ जाती थी। ऐसा लगता था कि मैं उसके साथ खेल रही हूँ। थोड़ी बड़ी होने के बाद माला जपने लगी और कॉपी में हज़ार बार श्रीकृष्ण का नाम लिखने लगी। उसके बाद सन् 1969 में अफ्रीका से हम यू.के. स्थानान्तरित हो गये ।
अफ्रीका में मैं राजकुमारी जैसी थी। पिता जी ने हमें सब सुविधायें दी थीं। लौकिक में हम पाँच बहनें हैं और एक भाई है। भाई अभी इंग्लैण्ड के चर्च में मिनिस्टर है। जब हम इंग्लैण्ड आये तब हमारा जीवन बहुत कठिनाई में गुज़रने लगा। अफ्रीका से हम कुछ भी धन ला नहीं सके, सब जायदाद आदि वहीं छोड़कर आना पड़ा था। यहाँ आकर घर के सारे काम मुझे ही करने पड़े। घर में मैं ही सबसे बड़ी थी। वहाँ बहुत सर्दी होती थी, बहुत बर्फ गिरती थी। हमारे पास गरम कपड़े भी नहीं थे क्योंकि हम तो गरम देश से गये थे। ख़रीदने के लिए पैसे भी नहीं थे। जब मैं 14 साल की हो गयी तो धीरे-धीरे मेरी भक्तिभावना कम हो गयी। एक दिन श्रीकृष्ण के चित्र के सामने जाकर रोते-रोते उससे पूछा कि आप सर्वव्यापी हो तो हमें मदद क्यों नहीं करते? मन में प्रश्न आते थे कि परमात्मा कौन है, सत्य क्या है? कुछ समय के बाद मैंने चर्च में जाना शुरू किया। फिर जो भी धार्मिक स्थान थे, उन सब में जाने लगी कि कहीं भगवान मिल जाये लेकिन कहीं मुझे सन्तुष्टता नहीं मिली।
हम इंग्लैण्ड के एक गाँव में रहते थे लेकिन जब मैं 15 साल की थी तब घर छोड़कर लन्दन शहर चली गयी। लन्दन में मैं अपने मामा-मामी के साथ रहती थी। लन्दन में उनका घर सेन्टर की एरिया में ही था। ग्लोबल हाउस के पास एक स्कूल है, वहाँ मैं पढ़ने जाती थी। हर शनिवार तथा रविवार मैं पार्ट टाइम नौकरी करने जाती थी। नौकरी करने का मेरा स्थान उस एरिया में था जहाँ टेनिसन रोड वाला (लन्दन का सबसे पहला) सेन्टर था। नौकरी करने जाते-आते मैं सेन्टर के बाहर लगाये हुए श्रीकृष्ण के बड़े चित्र को देखती थी। उसमें लिखा था कि विनाश आने वाला है (डिस्ट्रक्शन इज़ कमिंग) लेकिन पढ़ते हुए भी मुझे वह समझ में नहीं आता था। श्रीकृष्ण का वो चित्र मुझे बहुत अच्छा लगता था। वहाँ एक गाड़ी आती थी, उसमें से कुछ बहनें उतरती थीं और अन्दर जाती थीं। उनको देख मुझे अच्छा लगता था। यह बात है सन् 1975 की। मैं सेन्टर के आस-पास ही घूमती थी लेकिन अन्दर नहीं जाती थी।
मेरी कॉलेज की पढ़ाई पूरी हो गयी। मेरे पास कोई विशेष पढ़ाई का प्रमाण-पत्र नहीं था क्योंकि मैं ज़्यादा पढ़ी नहीं थी। सच में मुझे पढ़ाई में रुचि ही नहीं थी। घर में कहती थी कि मैं स्कूल में जा रही हूँ लेकिन सहेलियों के साथ पार्क में जाकर बैठती थी।
एक दिन हमारे समाज वाले एक आदमी ने आकर मेरे पिता जी से कहा कि आपकी बेटी घर में ख़ाली बैठी है, उसको कहो कि हमारी दुकान चलाये। छह मास तक उनकी दुकान चलायी। तब तक मुझे ज्ञान में आये एक साल हो गया था।
प्रश्नः आप ज्ञान में कैसे आयीं ?
उत्तरः सबसे पहले ज्ञान में मेरी मम्मी आयी, उसके बाद मैं। मेरे पिता जी ज्ञान में नहीं आये। बाक़ी चार बहनें भी ज्ञान में चलती हैं लेकिन एक बहन ने शादी की है। माता जी बहुत भक्ति करती थी। कोई भी संन्यासी दिखायी पड़ता था तो उसको घर में ले आती थी और खाना खिलाती थी। कहीं भी सत्संग होता था तो घर का काम छोड़कर तुरन्त वहाँ पहुँच जाती थी। एक दिन उसकी सहेली उसको सेन्टर पर ले गयी और कोर्स दिलाया तो माता जी ज्ञान में चल पड़ी। सन् 1977 में जब मैं लन्दन से घर आयी पढ़ाई पूरी करके, तब तक माँ ज्ञान में आ गयी थी। वह मुझे रोज़ कहती थी कि तुम चलकर तो देखो, ट्राइ करके देखो, वह मेडिटेशन बहुत अच्छा है। मैं कहती थी, मुझे कोई भगवान मिलने वाला नहीं है, सत्य कोई है नहीं; आप अपना करते रहो, मुझे परमात्मा में कोई रुचि नहीं है। फिर भी वह रोज़ कहती रही कि ट्राई करके देखो, बहुत अच्छा है। तो एक दिन घर पर ही उसके साथ मेडिटेशन करने बैठी। टेप पर कॉमेन्ट्री लगायी थी तो मुझे बहुत अच्छा अनुभव हुआ। उस दिन से मैं ज्ञान में चलने लगी। तब से हिन्दी भी सीखने लगी। ज्ञान की प्रशंसा करने लगी। एक साल तक मैं बहुत अच्छी तरह से ज्ञान में चली। रोज़ अमृतवेले उठना, क्लास में जाना, सब नियमों का पालन करना आदि किया। एक साल के बाद यह जीवन मुझे कठिन लगने लगा। मैंने सूक्ष्म रूप से तय किया था कि शादी कर लूँ। इन्हीं दिनों, मम्मी ने कहा कि तुमको मधुबन जाना है। मेरे मुख से तुरन्त निकला कि ओ माँ! यह कैसे हो सकता है! मैं तो अमृतवेले नहीं उठती, रोज़ मुरली नहीं सुनती तो कैसे मधुबन जा सकती हूँ? वो कहती थी कि तुमको जाना है, मैं कहती थी मैं इंडिया नहीं जाऊँगी वह तो बहुत गंदगी वाला देश है। वहाँ टीवी में बार-बार इंडिया के गंदगी वाले स्थानों को ही दिखाते थे। इसलिए मेरे मन में था कि इंडिया बहुत डर्टी प्लेस (गंदा स्थान) है। मैं कहती थी, मम्मी, मैं इंडिया नहीं जाऊँगी। मम्मी कहती थी, तेरे को इंडिया जाना ही है, वह तेरा देश है। फिर उनकी जिद्द देखकर मैंने कहा, ठीक है, मैं जाऊँगी लेकिन मैं आकर ज्ञान में नहीं चलने वाली हूँ, मुझे बी. के. नहीं बनना है।
फिर मैं इंडिया आयी, दिल्ली में उतरी। उस समय वहाँ एक बड़ी कान्फ्रेंस थी। हमें एक कमरा दिया गया। मैंने रात को बाबा से कहा कि बाबा, मुझे आप इतने डर्टी प्लेस में क्यों ले आये हैं। मुझे यहाँ नहीं रहना है।
उसके बाद वहीं से मुझे बहुत अच्छे अनुभव होने लगे जैसे कि बाबा ने मेरे सिर तथा माथे पर अपना हाथ फिराकर कहा कि ठीक है, कोई बात नहीं, सब कुछ ठीक हो जायेगा। धीरे-धीरे इंडिया के प्रति मेरी जो पहले वाली भावना थी ना, वो बदलती गयी। उसके बाद वहाँ मुझे सेवा मिली। सेवा करते मुझे बहुत खुशी होने लगी। वहाँ से फिर हम बस से मधुबन आये। आते समय रास्ते में अच्छे-अच्छे मन्दिर, धर्मशालायें तथा बाबा के घरों को देखा तो मुझे इंडिया अच्छा लगने लगा ।
मधुबन आये तो उसी दिन बाबा आने वाले थे और बाबा आये मधुबन के आँगन में। बैठने के लिए मुझे बाबा के नज़दीक स्थान मिला। बाबा को देखा लेकिन मुझे कोई विशेष अनुभव नहीं हुआ क्योंकि मैंने तो मन में तय किया था कि यहाँ से जाकर शादी करनी है। इसलिए लन्दन में जितने भी पैसे इकट्ठे किये थे, वो सब साथ में लायी थी ताकि इंडिया से शादी के लिए कुछ जवाहरात तथा रंगीन कपड़े ले जाऊँ। उन दिनों बाबा हर दो दिन के बाद आते थे। दूसरी बार बाबा मेडिटेशन हॉल में आये। तब मैंने सोचा था कि इस बार पीछे बैठूं। जब लन्दन में थी तो मैं पार्टियों में जाती थी। जब घर में आती थी तो मम्मी मुझे जबर्दस्ती क्लास में बिठाती थी। मुरली में आता था कि बच्चों को दो नाव में पाँव नहीं रखना चाहिए। तो मधुबन आते समय मैं यह प्रश्न लेकर आयी थी कि बाबा, मैं कहाँ की हूँ, आपकी हूँ या संसार की! फिर मैंने फैसला किया था कि मुझे बी. के. नहीं बनना है, गृहस्थ बनना है। जब पीछे बैठने गयी तो मुझे वहाँ बैठने नहीं दिया क्योंकि डबल फोरेनर्स के लिए आगे जगह बनायी गयी थी। मुझे मज़बूरी वश आगे बैठना पड़ा।
बाबा आये और दृष्टि देने लगे। बाबा की नज़र जब मेरे ऊपर पड़ी तो मुझे ऐसे लगा जैसे कि मुझे करेंट लगा। उस एक पल की दृष्टि से मैं भगवान के प्यार में डूब गयी। मुझे अनुभव होने लगा कि मुझे भगवान से प्यार हो गया और मैं भगवान की हो गयी, मैं संसार की नहीं हूँ, भगवान की हूँ।
उसके बाद मुझे इतना नशा तथा खुशी चढ़ गयी कि कपड़े और जवाहरात ख़रीदने के लिए जो पैसे लाये थे उनको भंडारी में डाल दिया। मैंने निर्णय कर लिया कि मुझे शादी नहीं करनी है, मेरा प्यार तो भगवान से हो गया। उसके बाद मधुबन में भोजन खिलाना, भाई-बहनों के कपड़े धुलाई करना, बीमार लोगों की सेवा करना, टोली बनाना, रोटी बेलना, सब्जी काटना आदि यज्ञसेवा करने लगी। मधुबन में एक मास कैसे बीत गया, पता ही नहीं पड़ा। एक मास के अन्दर मैं लन्दन को इतना भूल गयी कि मेरे लौकिक माता-पिता के चेहरे कैसे हैं- उनको याद करना पड़ा। मधुबन का वातावरण इतना शक्तिशाली था कि मुझे यह अनुभव हो गया- जीवन है तो यही है। बाहरी दुनिया की याद ही नहीं आयी।
फिर, मधुबन से हमारे जाने का समय आ गया। अगले दिन फिर बाबा आने वाले थे। हम आबू रोड में ट्रेन में बैठे। ट्रेन में मुझे इतना रोना आया कि बाबा, आप मुझे कैसे भेज सकते हैं! आबू रोड से लेकर अहमदाबाद तक रोती रही। उसके बाद मैं लन्दन आयी। घर में मेरा दिल नहीं लग रहा था। मैं तो नौकरी छोड़ चुकी थी। उस समय बड़ी दादी की बात मुझे याद आयी। मधुबन से निकलने के कुछ दिन पहले दादी जी हम लोगों से मिल रही थी तो मेरे से पूछा था, तुम क्या करती हो? मैंने कहा कि अभी मेरे पास नौकरी नहीं है, कुछ नहीं करती। तो दादी ने कहा कि तुम दादी जानकी को कहकर ट्रेनिंग लेकर सेन्टर पर ही क्यों नहीं रहती? इस बात ने मेरे ऊपर बहुत असर डाला। जब घर में खाली बैठी थी तो मैंने अपनी माँ से कहा कि मैं सेन्टर पर रहना चाहती हूँ। माँ ने कहा, तुम घर में रहकर भी ज्ञान में चल सकती हो ना! मैंने कहा, नहीं, मुझे सेन्टर पर रहना है।
फिर मैंने लन्दन सेन्टर पर फोन किया, सुदेश दीदी ने फोन उठाया। मैंने उनसे यह बात कही तो उन्होंने कहा कि ठीक है, पहले दो सप्ताह के लिए आ जाओ, उसके बाद देख लेंगे। उस समय सेन्टर पर एक ही कुमारी थी जैमिनी बहन। अभी सेन्टर पर रहते-रहते मुझे पच्चीस साल हो गये। एक बार सेन्टर पर जाने के बाद मुझे घर जाने के लिए फुर्सत ही नहीं मिली। पच्चीस साल कैसे बीत गये, मुझे पता ही नहीं पड़ा। ज्ञान-योग में पहले से ही रुचि थी लेकिन रेग्युलर तथा समय पर करना मुझे कठिन लगता था। भाइयों जैसे भारी काम करना मुझे बहुत पसन्द था। जब सेन्टर पर कोई भाई नहीं होता था तो टेबल आदि वजन वाली चीज़ों को उठाकर मैं ही सैट करती थी। बाबा के प्यार में यह सब-कुछ हुआ। लन्दन में मैंने सब विभागों में सेवा की है जैसे कि भोजन बनाना, टोली बनाना, ट्रान्सपोर्ट तथा ट्रैवलिंग, ट्रान्सलेशन, कोर्स देना इत्यादि ।
प्रश्नः वर्तमान समय आप कौन-सी सेवा करती हैं?
उत्तरः ट्रैवल विभाग में। वीज़ा निकालना, अन्तर्राष्ट्रीय टिकट बनवाना आदि सेवायें करती हूँ। इनके अलावा, मुरली अनुवाद करने में मदद करती हूँ। जहाँ ज़रूरत पड़ती है, वहाँ चली जाती हूँ। लन्दन अभी मधुबन जैसा बन गया है। वहाँ बी.के. भाई बहनों का आना-जाना, मिलना-जुलना बहुत होता है। मैं लन्दन के ग्लोबल हाउस में रहती हूँ। मैं अंग्रेज़ी तथा इंडियन सब तरह का खाना बनाती हूँ। मैंने एक पुस्तक भी लिखी है, ‘फूड एण्ड सोल’ (आहार तथा आत्मा)। सरल तथा सात्त्विक भोजन कैसे तैयार करें, इसके बारे में लिखा है। मुझे ट्रान्सपोर्ट विभाग मिला है इसका अर्थ यह नहीं है कि मुझे यही एक सेवा करनी है। वहाँ दादी जानकी जी ने ऐसा सिस्टम बनाया है कि अपने विभाग की सेवा करते हुए सबको सब तरह की कर्मणा सेवा करनी है। सप्ताह में सब बहनों की, एक बार भोजन बनाने की, कपड़े धुलाई करने की, बर्तन साफ़ करने की, पोछा आदि लगाने की बारी आती है।
प्रश्नः इस बी.के. जीवन में आपको क्या अच्छा लगा ?
उत्तरः भगवान। भगवान के साथ बातें करना, उनकी मुरलियों की स्टडी करना। हिन्दी मुरली पूरी समझ में नहीं आती, फिर भी मुझे हिन्दी मुरली बहुत अच्छी लगती है। मैं हिन्दी मुरली की स्टडी करती हूँ और साथ में अंग्रेजी मुरली भी रखती हूँ, जहाँ हिन्दी समझ में नहीं आती तब अंग्रेज़ी मुरली का आधार लेती हूँ। सीज़न की सारी अव्यक्त मुरलियाँ पूरी की पूरी नोटबुक में लिखती हूँ। उसके बाद विशेष प्वांइट को अलग से नोट करती हूँ, उनमें से स्लोगन निकालती हूँ फिर उनके आधार पर विविध प्रकार के स्लोगन कार्डस बनते हैं। समय मिलता है तो अंग्रेजी में लेख लिखती हूँ। मेरे लेख ‘वर्ल्ड रिन्युअल’ तथा ‘इंडिया टुडे’ में छपे हैं। मुझे लेख लिखना तथा कोर्स कराना बहुत अच्छा लगता है।
प्रश्नः आप भारत मूल की हैं, तो आपकी भारत के प्रति क्या भावनायें थीं?
उत्तरः भारत के प्रति मेरी कोई ख़ास भावनायें नहीं थीं। हाँ, इतना जानती थी कि भारत एक ग़रीब देश है, वहाँ साधु-सन्त रहते हैं। वहाँ के लोग धर्म के बारे में चर्चा करते हैं। लेकिन भारत के लिए मेरे दिल में कोई आकर्षण नहीं था और न कभी भारत आना चाहती थी। परन्तु अभी मुझे भारत बहुत अच्छा लगता है।
प्रश्नः ज्ञान में कौन-सा प्रश्न, कौन-सी बात अच्छी लगी?
उत्तरः कर्म-अकर्म-विकर्म की गुह्यगति की बात मुझे बहुत अच्छी लगती है। कर्म सिद्धान्त तथा कर्म के हिसाब-किताब के बारे में पढ़ने, जानने में मुझे बहुत रुचि रहती है। दूसरी बात है, योग में बीज रूप स्थिति। एक बार जगदीश भाई लन्दन आये थे तो उन्होंने कहा था कि जब हम देही-अभिमानी स्थिति तथा बीज रूप स्थिति में बाबा को याद करते हैं, तब ही विकर्म विनाश होते हैं। यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी और मैं योग में यही कोशिश करती हूँ कि मेरी बीजरूप स्थिति रहे। मेरे जीवन का सहारा कहो, मेरा विशेष पसन्दीदा टॉपिक कहो, वह है योग।
प्रश्नः आपको यह ज्ञान क्यों अच्छा लगा?
उत्तरः यह ज्ञान सरल है, स्पष्ट है तथा सत्य है। मुझे यह अनुभव हुआ है कि इस ज्ञान को हम जितना गहराई से समझते हैं, उतना ही यह धारण करने में सरल लगता है।
प्रश्नः बाबा के साथ आपका अति प्रिय सम्बन्ध कौन-सा है?
उत्तरः पिता का। लौकिक में मुझे पिता का प्यार नहीं मिला। पिता जी एक सरल व्यक्ति थे। उनके लिए काम करना ही सब-कुछ था। सुबह से लेकर रात तक काम करते थे और रात को आकर खाना खाकर सो जाते थे, फिर सुबह होते ही नौकरी पर चले जाते थे। घर के कारोबार, बच्चों की देखरेख के बारे में वे अपनी बुद्धि नहीं चलाते थे। बस, कमा करके ले आना उनका काम था। बाक़ी सब-कुछ मम्मी ही करती थी। जैसे पिता बच्चों के बारे में पूछताछ करता है, उनके भविष्य के बारे में, पढ़ाई-लिखाई के बारे में प्रबन्ध करता है – ये काम वे नहीं करते थे। माँ ही करती थी लेकिन वह भी अपने सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहती थी। इसलिए मुझे पिता का प्यार न मिलने के कारण मैं परमात्मा से पिता का प्यार पा रही हूँ। बाबा भी मुझे प्यार बहुत देता है। मुझे सदा यह अनुभव होता है कि बाबा मेरे साथ रहता है, मेरा संरक्षक बनकर। कई बार मैं कुछ बातों को भूल जाती हूँ, तब अनुभव होता है कि बाबा मुझे सचेत कर रहे हैं। फट से वो काम कर लेती हूँ। कई बार कुछ संकेत भी मिलते हैं कि फलाना काम जल्दी करो और फलाना काम नहीं करो। इस तरह, ऐसे बहुत अनुभव हैं कि बाबा ने मुझे बाप के रूप में मदद की है, रक्षा की है। ट्रैवल का काम बहुत झंझट वाला तथा टेंशन वाला होता है। अगर मैं लौकिक में होती तो भले ही कितनी भी कमाई होती, यह काम नहीं करती। लेकिन यहाँ तो यह बाबा की सेवा है, इस सेवा से प्रभु-प्यासी आत्मायें, प्रभु-मिलन करके जन्म-जन्मान्तर की प्यास मिटाकर खुश हो जाती हैं। तो यह बहुत बड़े पुण्य का काम हो गया ना, इसलिए मैं करती हूँ और मददगार बाबा है, वह कराता है, मुझे केवल साकार में निमित बनना है।
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