ब्र.कु.जयन्ती बहन जी एक वरिष्ठ राजयोग शिक्षिका तथा आध्यात्मिक नेता हैं। आपका जन्म भारत में हुआ और पढ़ाई लन्दन में हुई। उन्नीस साल की आयु से आपने ईश्वरीय जीवन बिताना आरम्भ किया। इक्कीस साल की आयु में अपने जीवन को ईश्वरीय सेवार्थ समर्पित किया। आपने विश्व भर में भ्रमण कर आध्यात्मिक प्रवचन तथा ईश्वरीय सन्देश दिया है। वर्तमान में आप यूरोप के ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय की शाखाओं की निर्देशिका है।
बाबा ने वरदान दिया कि सारी दुनिया में आप ज्ञान बाँटोगी
वर्तमान समय हम किस वातावरण में हैं, इसका आधार हमारे पूर्वजन्मों के कर्मों पर है। पूर्वजन्म ही वर्तमान जन्म की पृष्ठभूमि को तैयार करता है। यदि जन्म के साथ ही बच्चे को आध्यात्मिक वातावरण मिलता है तो यह उसके पूर्व के संचित पुण्य का फल है। मुझे अल्पायु से ही घर में सुन्दर आध्यात्मिक वातावरण मिला। मेरी दादी का मेरे जीवन पर बाल्यकाल में काफी प्रभाव रहा। वे विश्वास, श्रद्धा और समर्पण से भरपूर थीं। न केवल ईश्वर के प्रति बल्कि पड़ोसियों और समाज के अन्य लोगों की भी समयानुसार खूब सेवा तथा सहायता किया करती थीं।
सात वर्ष की आयु में मैं पहली बार दादी जानकी जी से मिली। पूना में दादी जी हमारे घर आयी थीं और मेरे दादा जी तथा दादी जी को ब्रह्माकुमारी संस्था की शिक्षाओं से अवगत करा रही थीं। मैं सुन नहीं रही थी, कमरे में से केवल उन्हें देख रही थी और उनकी उपस्थिति का अनुभव कर रही थी। मेरा आठवाँ जन्मदिन पूना सेवाकेन्द्र पर मनाया गया। इसलिए मैं मानती हूँ कि भाग्यदायिनी स्थिति के नज़दीक आने के लिए मैंने वर्तमान जन्म में कोई पुरुषार्थ नहीं किया बल्कि मेरे पूर्वजन्म के संचित कर्मों ने ही मुझे दो फ़रिश्ता रूप अभिभावक प्रदान किये। उनमें से एक हैं ब्रह्मा बाबा और दूसरी हैं दादी जानकी जी।
ब्रह्मा बाबा को मैंने अपने उस जन्मदिन के कुछ दिनों बाद देखा। वे, मुझे आध्यात्मिक पिता नज़र आये। उनका व्यक्तित्व किसी राजा जैसा लगा। पहले तो मैं थोड़ा डरी परन्तु जब नज़दीक आकर उन्होंने मेरा आलिंगन किया और एक दादाजी की तरह प्यार दिया तो मैं उनसे समीपता का अहसास करने लगी। उन्होंने मुझे जो कहा, वह याद नहीं परन्तु उस मुलाक़ात का असर बड़ा गहरा हुआ।
सन् 1957 में मैं पहली बार लन्दन गयी। मैंने भारत में दादी जानकी जी से, राजयोग का अभ्यास करना सीख लिया था। मुझे बताया गया था कि परमात्मा पिता का रूप ज्योतिर्बिन्दु स्वरूप है। मैंने इस बात पर सहज ही विश्वास कर लिया। लौकिक माताजी ने तो भारत में पूरा ही ईश्वरीय ज्ञान सीख लिया था और वे प्रतिदिन उसके अभ्यास में लगी रहती थी। जब मैं पीछे मुड़कर जीवन की उन घड़ियों की ओर निहारती हूँ तो माताजी की ईश्वरीय लगन, अनुशासन, साहस और अभ्यास के प्रति दृढ़ता सहज स्मृति में आती है।
सुबह चार बजे वे उठ जाती थीं और मुझे भी अपने साथ राजयोग के अभ्यास के लिए प्रेरित करती थीं। मैं उनको प्रसन्न करने के लिए, उनका साथ देती थी। वे बाबा को भोग लगाते समय भी मुझे साथ में बिठा लेती थी। इससे मुझे लगता था कि भगवान हमारे जीवन में भी है और घर में भी है। हम जो भी खाते हैं वह सब भगवान से ही प्राप्त हुआ है। भोग लगाते समय मेरी मानसिकता का दिव्य पहलू जाग जाता था। मैं केवल ब्रह्मा बाबा को ही नहीं बल्कि शिव बाबा को भी बुद्धि रूपी नेत्र से देखती थी। भोग लग जाने के बाद माताजी मुझसे अनुभव पूछती थी। मैंने जो देखा और समझा होता था, उसका वर्णन कर देती थी। माताजी उन्हीं बातों से प्रेरणा ग्रहण कर लेती थी। रात के समय माताजी मुझे पुनः योग में बैठने के लिए कहती थीं और मुरली पढ़कर सुनाया करती थी। मेरी हिन्दी इतनी अच्छी नहीं थी इसलिए मैं उसे पूरा और बहुत अच्छी तरह तो नहीं समझ पाती थी लेकिन सुनकर बड़ी शान्ति का अनुभव होता था।
जैसे-जैसे मेरी पढ़ाई आगे बढ़ती गयी, मैं अपने चारों ओर के संसार के बारे में जानने में रुचि लेने लगी। जब 12 वर्ष की हुई तो मैंने माताजी के समक्ष यह इच्छा प्रकट की कि मैं रात्रि को 9 बजे राजयोग करने के बजाय समाचार देखना चाहूँगी। मम्मी ने राजयोग अभ्यास के लिए मेरे साथ ज़ोर-जबरदस्ती नहीं की। वे जानती थीं कि जो ज्ञान का बीज इसमें पड़ा है वह अविनाशी है।
सन् 1964 में मैं वापिस भारत लौटी। मुम्बई में उस समय बहुत तेज़ बरसात हो रही थी। हवाई अड्डे से शहर की तरफ़ जाते हुए मैंने देखा कि बहुत-सी झोपड़ियाँ, जो प्लाई आदि से बनी थीं, क्षतिग्रस्त हो गयी थीं और कई लोग उन्हें जैसे-तैसे बचाने में लगे हुए थे। ग़रीबी के उन असहनीय दृश्यों को देखने के बाद अगले दिन हम पूना के लिए रवाना हुए। उन दृश्यों ने मेरे भीतर एक उथल-पुथल पैदा की और यह वही क्षण था जब मैंने निश्चय किया कि मेरा जीवन केवल मेरे लिए नहीं होना चाहिए, यह किसी भी रूप में मानवता की सेवा में लगना चाहिए। मुझे पता नहीं था कि किस प्रकार की सेवा मैं कर सकती हूँ परन्तु इतना निश्चित हो गया कि अपने सुख के लिए जीने के बजाय मैं कुछ दूसरा अवश्य करूँगी। इस भारत यात्रा के दौरान मैं मम्मा से मिली जो कि सारी मानव-जाति की आध्यात्मिक माँ हैं। यह मेरे लिए बहुत सुन्दर अनुभव था। उनके रूहानी व्यक्तित्व का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा था। उनका प्यार असीम था। उन दिनों मम्मा को कैन्सर हो चुका था। परन्तु कैन्सर जैसे भयानक रोग की पीड़ा होते हुए भी उनका चेहरा दिव्य प्रकाश से चमक रहा था और रोग का कोई प्रभाव उन पर अनुभव नहीं हो रहा था।
भारत में कुछ दिन रहने के बाद मैं पुनः लन्दन रवाना हो गयी। सन् 1965 के एक दिन, स्कूल से घर लौटने पर मैंने माताजी को योग में बैठे हुए देखा। उन्होंने भारत से आया हुआ टेलिग्राम दिखाया जिसमें लिखा था; ‘नथिंग न्यू (कुछ नयी बात नहीं), मम्मा अव्यक्त हो गयी हैं।’ मैं भी माताजी के पास ही योग में बैठ गयी। अगले वर्ष माताजी ने मुझे आबू चलने के लिए कहा। आध्यात्मिकता में इतनी रुचि जागृत न होने पर भी, मैं प्यारे बाबा को एक बार पुनः देख लेने की इच्छा से, जाने के लिए तैयार हो गयी।
जैसे ही हम मधुबन के महाद्वार में प्रविष्ठ हुए, ऐसा लगा जैसे कि मैंने बाहरी संसार को पीछे छोड़ दिया और एकदम नये संसार में आ गयी हूँ। यह अन्तरात्मा की अनुभूति थी। बाबा ने एक युवा कन्या को मेरा साथी बना दिया। हम दोनों पहाड़ों पर घूमने जाते थे और आपस में ज्ञान-चर्चा करते थे। मैं मधुबन को छोड़ना नहीं चाहती थी परन्तु लम्बे समय तक वहाँ रहना भी सम्भव नहीं था। मधुबन से जाते समय मुझे लगा जैसे कि मैंने अपना दिल वहीं छोड़ दिया है। मधुबन मुझे स्वर्ग जैसा लगा और वहाँ से बाहर निकलते ही नर्क में प्रवेश करने जैसी भासना आयी।
इसके बाद मैं हर वर्ष भारत जाने लगी और आबू में साकार बाबा का सान्निध्य प्राप्त करने लगी। बाबा मुझे ऊँची-ऊँची बातें सुनाते थे जैसे कि तुम सारे विश्व की आत्माओं को ज्ञान का सन्देश दोगी आदि-आदि। मैं इतना ही सोचती थी कि ठीक है, यह बाबा की दूरदृष्टि है और उनकी अपनी इच्छा है। उस समय ऐसी बातें मेरे विचारों में नहीं आती थीं। मुझे तो बस मधुबन में बाबा के साथ रहना अच्छा लगता था। सन् 1967 में मैंने विश्वविद्यालय में प्रवेश कर लिया।
एक दिन मैं एक बहुत सुन्दर सभागार में बैठी हुई थी। रसायन विज्ञान (Chemistry) के प्राध्यापक बोर्ड पर फार्मूले लिख रहे थे। अचानक मुझे लगा कि मैं किसी दूसरे स्थान पर हूँ और वहाँ से अपने-आपको देख रही हूँ। मैंने अपने-आप से पूछा कि मैं यहाँ क्यों हूँ, मेरे यहाँ होने का उद्देश्य क्या है? मैंने अपने-आपको हिलाया ताकि इस स्थिति से बाहर आ सकूँ। प्राध्यापक द्वारा लिखा गया फार्मूला अपनी नोटबुक में दोबारा लिखना प्रारम्भ कर दिया लेकिन (शरीर से) बाहर जाकर अपने आपको देखने का यह अनुभव इतना शक्तिशाली था कि बार-बार मन में वही आता रहा। यह वो समय था, जब लन्दन और सारे विश्व में समाज बहुत तेज़ी से बदल रहा था और नयी हवायें बह रही थीं। मैंने अपने पिताजी से यह बात कही। उन्होंने मुझे कुछ दिन विश्राम कर लेने की सलाह दी।
उनका कहना था कि मैं भारत जाऊँ और कुछ दिन वहाँ रहूँ। मैंने उनसे कहा कि भारत में मैं पहले भी रही हूँ। उन्होंने सुझाव दिया कि तुम भारत में कुछ समय के लिए इस खोजी दृष्टि से जाओ कि वह देश तुम्हें क्या दे सकता है? मुझे लगा कि इस समय मेरे मन में जो उलझन है उसको दूर करना बहुत ज़रूरी है। इसलिए मैं एक पर्यटक के रूप में भारत गयी। उस समय भारत में नये-नये पर्यटन स्थान विकसित हो रहे थे और उस पर्यटन के दौरान मैंने पाया कि भारत के पास आश्चर्यजनक आध्यात्मिक खज़ाने हैं।
भारत में मैं पूना में, ब्रह्माकुमारी आश्रम पर दादी जानकी जी से मिली। एक योगी, बिना बताये ही, दूसरे के मनोभावों को जान लेने में समर्थ होता है। मैंने दादी जी से थोड़ी देर बातें की। दादी जी ने बढ़ते तनाव, बदलती शिक्षा प्रणाली और बदलते वातावरण से आत्माओं पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, उसी के बारे में बातें बतायीं और यह भी कहा कि ऐसी स्थितियों में व्यक्ति की, सही-ग़लत का निर्णय करने की शक्ति ख़त्म हो जाती है। मैंने उनको कुछ भी नहीं बताया था लेकिन उन्होंने मेरी आन्तरिक स्थिति का पूरी तरह से यथार्थ वर्णन कर दिया। मैंने उनसे पूछा कि जब ऐसा हो तो समाधान कैसे किया जाये? उन्होंने कहा कि योगाभ्यास करो क्योंकि योगाभ्यास करने से आप सर्वोच्च सत्ता (परमात्मा) से जुड़ जाती हैं। उनका प्रभाव आप पर पड़ने लगता है जिस कारण अन्य सभी प्रभावों से मन मुक्त हो जाता है। मैंने कहा कि मैं सीखना चाहती हूँ। फिर उन्होंने मुझे ईश्वरीय ज्ञान का पहला पाठ सुनाया।
प्रश्नः जब आप कोर्स ले रही थीं, उस समय का क्या अनुभव था?
उत्तरः ईश्वरीय ज्ञान का पहला पाठ, एक अद्भुत चाबी है। पहले पाठ को पढ़ते ही मालूम पड़ जाता है कि हमारे अन्दर क्या चल रहा है, कैसे मन, बुद्धि और संस्कार मिल करके हमारे से कर्म अथवा विकर्म कराते हैं। यही तो मैं जानना चाहती थी और यह भी मेरा महान् सौभाग्य है कि मैंने जिस दरवाज़े को पहली बार खटखटाया वह इतना समर्थ निकला कि उसने आवश्यकता के अनुसार मुझे समझ प्रदान कर दी। मैं घर जाकर भी उन बातों के चिन्तन में रही। मुझे लगा कि मेरे दिल और दिमाग में एक प्रकाश कौंध गया है जो दिन के साथ-साथ रात में भी मुझे प्रकाशित करता रहता है। मैं जागृत स्थिति में थी, सावधान थी और उस प्रकाश का अनुभव कर रही थी। यह मेरी बड़ी शक्तिशाली आत्मिक अवस्था थी। अगला पाठ सुनने के लिए मैं बहुत उत्सुक थी जिसमें मुझे बहुत ही सरल तरीके से परमात्मा का परिचय दिया गया। मेरे सभी प्रश्नों का उत्तर दिया गया। इस कारण मुझे परमात्मा के साथ गहन सम्बन्ध का अनुभव हुआ। जिससे मेरा प्यार है और जिससे मेरा सम्बन्ध है, उस सत्ता के नज़दीक लौटने का अनुभव हुआ। ईश्वरीय प्रेम का अनुभव मुझे ऊपर उठाने लगा। उस दिन के बाद मैंने अपने जीवन के लिए नये निर्णय निर्धारित किये। जीवन परिवर्तन हो गया और लगा कि मैं उड़ रही हूँ।
प्रश्नः आप समर्पित कैसे हुईं?
उत्तरः छह सप्ताह में मैंने निर्णय कर लिया कि यही मेरा जीवन है। मैंने दादी जानकी जी को अपना निर्णय सुनाया। उन्होंने कहा कि तुम जो कुछ भी महसूस कर रही हो, वो एक पत्र में लिखकर साकार बाबा को बताओ। मैंने जिगरी पत्र लिखा कि बाबा, ज्योंही मैंने इस ज्ञान को समझा और कुछ सप्ताह अभ्यास किया तो मेरे जीवन में पूर्ण परिवर्तन आ गया है। मैं ऐसा ही जीवन चाहती हूँ। बाबा के पास पत्र पहुँचने में एक दिन लगा और उसके एक दिन के बाद सेवाकेन्द्र पर टेलिग्राम आया कि बच्ची, जनक बेटी के साथ आबू आ जाये।
इस बार मैं पूरी समझ के साथ आबू गयी। एक दिन बाद बाबा मुझसे मिले। केले के पत्तों से बनी झोपड़ी में बाबा बच्चों से प्रातः 10 बजे मिलते थे। वे 92 वर्ष के थे परन्तु बिना सहारे के बैठे थे। उनकी आँखों में चमक थी। वे पूर्ण चुस्त और जागरूक अवस्था में थे। बाबा ने पूछा, ‘बच्ची, तुम क्या करना चाहती हो?’ मैंने कहा, ‘बाबा, मैं समर्पित होना चाहती हूँ।’ यह सुनकर बाबा मुस्कराये क्योंकि वे इस बात को पहले से ही जानते थे। मुझे बाबा के वो शब्द याद आ गये कि यह बच्ची बाबा की बनेगी और ईश्वरीय शिक्षाओं को सारे विश्व तक पहुंचायेगी। उस समय बाबा ने मुझे कई शिक्षायें, सावधानियाँ देने के साथ-साथ कई लौकिक बातें भी समझायीं। बाबा ने कहा कि रात्रि क्लास के बाद बाबा आप से मिलेगा।
मैं रात्रि को लगभग 10 बजे बाबा के कमरे में गयी। उस समय कमरा बहुत छोटा था। बाबा चारपाई पर लेटे हुए थे। उनका चेहरा, उनके कपड़े आदि सब चमक रहे थे। वह चाँदनी रात थी। दादी जी, मेरी लौकिक माताजी, मैं और अन्य सब मिलाकर लगभग 10 लोग वहाँ उपस्थित थे। बाबा ने हरेक को दृष्टि देना प्रारम्भ किया। ज्योहीं बाबा की दृष्टि मुझ पर पड़ी, चुम्बक की तरह उसने मुझे बाबा के नज़दीक खींच लिया। मैं बाबा की तरफ़ आयी और बाबा ने सफ़ेद जास्मीन के फूलों का एक गुच्छा हाथ में उठाया। उन फूलों से निकलती हुई खुशबू को मैं आज तक भी नहीं भूल पायी हूँ। फूलों का गुच्छा बाबा ने मुझे दे दिया। मेरे लिए दृष्टि लेने का यह सुनहरी मौका था। मैं फूल भी पकड़ रही थी और साथ-साथ बाबा के नेत्रों की भाषा भी समझ रही थी। मुझे ऐसा लगा कि एक शक्तिशाली चुम्बक, मुझ आत्मा को मस्तक में से बाहर खींच रही है। बाबा का चेहरा प्रकाशमान था और उनकी चुम्बकीय दृष्टि मुझे शरीर से बाहर खींच कर एक दिव्य दिशा की ओर ले जा रही थी। मैं अपने आपको अविनाशी माता-पिता के साथ प्रकाश के लोक में अनुभव कर रही थी जहाँ पर परमात्म-प्रेम के अलावा कुछ नहीं था। मुझे याद नहीं है कि बाबा ने मुझे उस अवस्था में कितनी देर तक रखा। यह सब कुछ समय के माप के अहसास से परे था। इसके बाद बाबा ने अपनी शक्ति को थोड़ा कम किया। तब मैंने उस प्रकाश के लोक को छोड़ दिया और धीरे-धीरे साकारी दुनिया के वातावरण में लौट आयी। बाबा अभी भी मुझे निहार रहे थे। फिर उन्होंने पूछा, क्या तुम जानती हो कि बाबा क्या कर रहा था? बाबा के सामने दादी जानकी बैठी थीं, वे अच्छी तरह से समझ रही थीं कि बाबा क्या कर रहे थे। यह वही क्षण था जब मैंने बुद्धि से पुरानी दुनिया को पूरी तरह भुला दिया और दुबारा उसे याद नहीं किया। इसके बाद मैं पूना का एक चक्कर लगाकर मधुबन वापिस आ गयी। पूना छोड़ने से पहले दादी जानकी जी ने मुझे कुछ महत्त्वपूर्ण शिक्षायें सुनायीं:
ये तीनों शिक्षायें मेरे आध्यात्मिक जीवन की नींव बन गयीं। ऐसे तो मैंने बहुत शिक्षायें सुनी हैं पर ये व्यक्तिगत शिक्षायें मेरे लिए बहुत कीमती हैं। पूना से जब मैं आबू लौटी तो बाबा मुझे देखकर बहुत खुश हुए कि अब यह एक ईश्वरीय सेवाधारी के रूप में नया जीवन शुरू करने जा रही है। बाबा ने मुझे बड़ी दीदी के साथ आध्यात्मिक टूअर पर भेजा। दीदी और मैं आगरा पहुँचे। मैं कुछ समय तक आगरा में रही। मैंने कभी भी लोगों के सामने खुलकर बात नहीं की थी। लेकिन बाबा ने मुझे सेवा की ज़िम्मेवारी दी थी और दादी जानकी जी ने ‘हाँ जी’ का पाठ पक्का कराया था इसलिए मैं वहाँ भाषण करने लगी।
कुछ समय के बाद मुझे सन्देश मिला कि आपको कानपुर जाना है। वहाँ राज्यपाल जी को एक कान्फ्रेंस में आना था। वे केवल अंग्रेज़ी में ही बोलते थे इसलिए मुझे भी उस कार्यक्रम में भाग लेना था। मैंने निमित्त भाई को कहा कि मुझे भाषण करना नहीं आता। भाई ने कहा कि आप अमृतवेले उठकर भाषण तैयार करना। मैंने सुबह में 10 पेज लिखकर भाषण तैयार किया। उन्होंने बताया कि हरेक भाषण में आत्मा, परमात्मा और समय की पहचान ज़रूर होनी चाहिए तथा आपको 20 मिनट भाषण करना है। लेकिन मेरे 10 पेज 10 मिनट में ही समाप्त हो जाने वाले थे। अतः अगले दिन मैंने उस विषयवस्तु को दुगुना बना दिया। मैंने उनसे पूछा कि भाषण को याद तो कर लिया लेकिन भाषण करते समय भूल गयी तो क्या होगा? भाई ने कहा कि आप आत्मिक स्थिति में स्थित हो जाना, सभा में उपस्थित लोगों के चेहरे और कपड़ों पर ध्यान नहीं देना बल्कि मस्तक में चमकते हुए आत्मा रूपी सितारे को ही देखना। मैं तैयार हो गयी। मुझे विश्वास था कि बाबा अवश्य मुझे मदद करेंगे। मैं समझ गयी कि मुझे शब्दों को याद नहीं करना है लेकिन भाषण की विषयवस्तु मेरे दिमाग में स्पष्ट होनी चाहिए। कार्यक्रम में पहुँच कर मैंने सभी को आत्मा की दृष्टि से देखने का अभ्यास प्रारम्भ किया और अपने भाषण को गति के साथ प्रस्तुत किया क्योंकि मुझे डर था कि मैं कहीं भूल न जाऊँ। मुझे नहीं मालूम कि लोगों पर उसका क्या असर रहा पर जब हम लौटने लगे तो राज्यपाल महोदय ने कहा कि आपने जो कुछ कहा वो बहुत अच्छा था, बहुत उपयोगी था, धन्यवाद। यह सुनकर मैंने अपने अन्दर झाँका और महसूस किया कि यह भाषण मेरे इस जन्म के अभ्यास व अनुभव का फल नहीं है बल्कि संस्कार रूप में संचित पूर्वजन्म का अनुभव, समय अनुसार प्रकट हो गया है।
कुछ समय बाद, बाबा ने साकार देह का त्याग कर दिया लेकिन मुझे अन्दर पक्का विश्वास था कि शिव बाबा अब भी हमारे साथ हैं और मैंने अपना जीवन उन्हीं को समर्पित किया है। मैं अपने समर्पित जीवन के प्रति पूर्ण प्रतिबद्ध रही। दादी जानकी तथा अव्यक्त बापदादा की प्रेरणा अनुसार मैं लन्दन आ गयी। उस समय लन्दन में कोई सेन्टर नहीं था। सन् 1971 में भारत से एक आध्यात्मिक दल का लन्दन आना हुआ। वे हमारे घर में ठहरे। एक महीने तक प्रवचन और प्रदर्शनी के कार्यक्रम चलते रहे। इसके बहुत सुन्दर परिणाम निकले। कुछ लोग तैयार हुए जिन्होंने निश्चित किया कि लन्दन में सेवाकेन्द्र अवश्य खुलना चाहिए। इस प्रकार, अक्टूबर 1971 में लन्दन में सेवाकेन्द्र शुरू हो गया। इसके बाद सन् 1974 में मुझे बताया गया कि दादी जानकी जी लन्दन आ रही हैं और मुझे उनका सहयोगी बनकर के रहना है। आज्ञाकारी बनकर मैंने इसे स्वीकार कर लिया और तब से मैं दादी जानकी जी के साथ रह रही हूँ।
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