Bk mahesh bhai pandav bhavan anubhav gatha

बी के महेश भाई – अनुभवगाथा

पाण्डव भवन, आबू से ब्रह्माकुमार महेश भाईजी साकार के संग के अपने अनुभव लिखते हैं कि बचपन से ही मुझे परमात्मा के प्रति श्रद्धा-भावना थी और आत्म-कल्याण की प्रबल इच्छा थी जो धीरे-धीरे बढ़ती गयी। बाद में, वैराग्य-वृत्ति संन्यास प्रवृत्ति में बदल गयी।

सत्य और  सतगुरु की तलाश

अपनी संन्यास प्रवृत्ति और आत्म-कल्याण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हाई स्कूल पास करने के बाद मैं अधिकांश समय आध्यात्मिक पठन-पाठन, तीर्थ, व्रत, हठयोग साधना आदि में लगाता था और उसमें मन-वांछित सफलता प्राप्त करने के लिए सत्य की खोज और सतगुरु की तलाश में थियोसॉफिकल सोसायटी, डिवाइन लाइफ सोसायटी, निरंकारी सत्संग, आदि में भी जाता रहता था। इस सत्य की खोज में हरिद्वार, बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि की यात्रा भी की परन्तु अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई। 

सब में मुझको अच्छा तो लगता था परन्तु अपने को समर्पित करने के लिए मेरी आत्मा गवाही नहीं देती थी। योगमार्ग में मेरी विशेष श्रद्धा थी इसलिए गीता, पतंजलि योगदर्शन का अध्ययन किया। गीता तो रोज़ पढ़ता था। संन्यास प्रवृत्ति और आत्म-कल्याण की प्यास बढ़ती गयी। मैंने घर से बाहर किसी आश्रम में जाने का निश्चय किया। उन दिनों मेरे स्कूल का एक साथी ब्रह्माकुमारी सेवाकेन्द्र पर जाता था। उसने 2-3 छोटी-छोटी किताबें मुझे दीं और कहा कि आप इन्हें पढ़कर देखो और यहाँ चलकर तो देखो, फिर ठीक नहीं लगा तो और चाहे कहीं भी जाना। मैंने उन किताबों को अच्छी रीति पढ़ा और सेवाकेन्द्र पर जाने का निश्चय किया।

जन्म-जन्म की प्यास बुझ गयी

सन् 1964 का जुलाई मास, मंगलवार का दिन था, उस दिन मेरा उपवास भी था। मैं अपने उस साथी के साथ शाम 7 बजे सेवाकेन्द्र पर गया। उन दिनों बनारस वाले गुप्ताजी की युगल कमला बहन सेवाकेन्द्र पर थीं। उन्होंने मुझे झाड़, त्रिमूर्ति तथा गोले के चित्रों पर समझाया और योग पर बताया। मैंने अनुभव किया कि मैं अपने मनोनीत लक्ष्य को प्राप्त करने के योग्य स्थान पर पहुँच गया हूँ। मैं उसी दिन से नित्य प्रति क्लास करने लगा। जब परमात्मा का ज्ञान समझ में आया और निश्चय हुआ तो परमात्मा से मिलने की इच्छा भी तीव्र हो गयी। चार-पाँच मास ही बीते होंगे कि बाबा का दिल्ली में माथुरजी की कोठी पर आने का समाचार मिला। मैं और मेरा दोस्त दिल्ली में जाकर बाबा से मिले। बाबा से कैसे मिलना है, कैसे बाबा की गोद में जाना है, वह सब हमको पता नहीं था। पहली बार मैं बाबा से माथुरजी की कोठी में मिला। बाबा की आनन्दमयी गोद में जाकर जो अतीन्द्रिय सुख का अनुभव किया, उससे जन्म-जन्म की प्यास बुझ गयी। बाबा ने पीठ पर हाथ फेरा और सिर पर हाथ रखते हुए कहा ‘बच्चे, बाबा के घर आना।’ बाबा का वह वरदानी हाथ आज भी मेरे सिर पर है।

मेरे लिए दिन लम्बे होते जा रहे थे

दिल्ली में बाबा से मिलने के बाद उसी रात को हम दोनों वापिस अपने लौकिक स्थान पर लौटे परन्तु मन बाबा की गोद में ही रह गया और बाबा के घर में जाकर बाबा से मिलने की लगन लग गयी। उन दिनों आबू में अधिकतर पार्टियाँ, बाबा से मिलने गर्मी के दिनों में ही आती थीं। मेरे लिए दिन लम्बे होते जा रहे थे। आखिर सेवाकेन्द्र के एक भाई से आबू आने की जानकारी ली और अकेले ही आबू आने का निश्चय किया। अप्रैल 18 तारीख 1965 को मैं मधुबन आ गया। बाबा सेवाकेन्द्रों पर आने वालों से एक फार्म भरने के लिए कहते थे। मैं जब आया तो मेरे साथ कोई टीचर नहीं थी। बाबा के कहने पर मुझ से वह फार्म, परीक्षा-पत्र के रूप में भराया गया और बाबा को दिखाया गया। बाबा ने उसे देखकर ठहरने की स्वीकृति दे दी। उन दिनों सन्तरी दादी बाबा की ब्राह्मणी के रूप में थीं। सन्तरी दादी और सन्देशी दादी मेरे लिए मार्गदर्शक बन गयीं। उन दोनों ने मुझे कैसे रहना है, कैसे और कब बाबा से मिलना है आदि के विषय में मार्गदर्शन दिया।

बाबा ने अपने साथ बिठाकर खाना खिलाया

जो भी पार्टी मधुबन में जाती थी, उनका बाबा के साथ भोजन भी होता था। मैं तो अकेला ही मधुबन आया था। वर्तमान पाण्डव भवन में बाबा के कमरे में जहाँ अगरबत्ती स्टैण्ड रखा है वहाँ ही बाबा कुर्सी पर बैठकर भोजन-पान करते थे। मुझे वहाँ ही बाबा ने अपने साथ बिठाकर खाना खिलाया, वहाँ ही बाबा के साथ मिले। वहीं अपने साथ अपनी चारपाई पर बिठाकर दिलाराम बाप ने दिल का हालचाल पूछा और अपने हाथों से अंगूठी भी पहनायी। मिलन के वो दृश्य बाबा के कमरे में जाते ही याद आ जाते हैं। उनके साथ मिलन को और पालना को याद करते हैं तो एक गीत के कुछ शब्द याद आते हैं ‘हम तो कहाँ थे तेरे क़ाबिल, तेरा कर्म है तू ने दिया दिल, तेरे हो गये हम।’ शिव बाबा तो है ही ग़रीब निवाज़ क्योंकि उनके लिए ग़रीब-अमीर की बात ही नहीं परन्तु साकार बाबा की दृष्टि में भी ग़रीब-अमीर का कोई भेद नहीं था। सभी को अपने ही बच्चे समझ प्यार करते थे और पालना देते थे।

बाबा मेरे से नहीं मिले

एक साल के बाद मैं अपने गाँव से कानपुर चला गया। अपनी संन्यास प्रवृत्ति के प्रवाह में एक बार मैं गंगे दादी जी की छुट्टी के बिना ही मधुबन चला आया और सोचा कि बाबा से मिलने के बाद जीवन का निर्णय करूँगा। परन्तु बाबा लवफुल भी हैं तो लॉफुल भी। इसलिए उस समय बाबा मेरे से नहीं मिले और मुझे दीदी मनमोहिनी जी के द्वारा वापस जाने को कहा। वह सुनकर मेरा मन एक बार तो कुछ भारी हुआ परन्तु आगे कुछ कह भी नहीं सका और वापस चला गया। वापस जाते समय भी मेरे दिल को लग रहा था कि बाबा का हाथ मेरे सिर पर है और शक्ति दे रहा है। वह दिन याद आता है तो मुझे कवि की ये पंक्तियाँ याद आती हैं, ‘गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है गढ़ि-गढ़ि कादै खोट, भीतर हाथ सहार दे बाहर वाहै चोट।’ अर्थात् परमात्मा जानी-जाननहार है, वही जानता है कि बच्चों का कल्याण किस में है। उसके बाद तो कई बार बाबा से मिला और देव-दुर्लभ परम आनन्द का अनुभव किया। उस मिलन की स्मृति अभी भी अलौकिक आनन्द की अनुभूति कराती रहती है।

जीवन में अद्वितीय सन्तुलन

मैंने साकार बाबा के जीवन में रमणीकता और गम्भीरता का, लव और लॉ का अद्वितीय सन्तुलन देखा। कई बार बाबा को देखा कि बाबा बच्चों की इच्छा को जानकर उनको सन्तुष्ट करने के लिए उनकी इच्छा पूर्ण भी करते थे और साथ में उनके हित की शिक्षा भी अवश्य देते थे। एक बार मैं पार्टी के साथ मधुबन आया तो हमारी पार्टी के एक भाई ने झूले पर बैठकर बाबा से फोटो निकलवाने का आग्रह किया। बाबा ने कहा, ‘बच्चे, फोटो तो इस तन का निकलेगा, शिव बाबा का तो फोटो निकाल नहीं सकते और याद तो शिव बाबा को करना है, इस तन को नहीं। पावन तो शिव बाबा की याद से ही बनेंगे, इस तन को याद करने से नहीं। चित्र स्मृति दिलाने का साधन अवश्य है परन्तु वैसा चरित्र बनाने के लिए, जीवन परिवर्तन के लिए उस विचित्र को अपने अन्तः पटल पर उतारने की आवश्यकता है।’

साकार बाबा की सम्पूर्ण बनने की लगन और पुरुषार्थ को देखकर वत्सों में भी सहज ही पुरुषार्थ की लगन जागृत होती थी। अभी भी उनके स्वरूप की स्मृति आने से पुरुषार्थ की लगन में तीव्रता आ जाती है कि कैसे वृद्ध तन होते हुए भी दृढ़ पुरुषार्थ के द्वारा उन्होंने अव्यक्त स्थिति को पाया। उनका वह पुरुषार्थ और लगन हमारे लिए प्रेरणा-स्रोत है।

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

Dadi pushpshanta ji

आपका लौकिक नाम गुड्डी मेहतानी था, बाबा से अलौकिक नाम मिला ‘पुष्पशान्ता’। बाबा आपको प्यार से गुड्डू कहते थे। आप सिन्ध के नामीगिरामी परिवार से थीं। आपने अनेक बंधनों का सामना कर, एक धक से सब कुछ त्याग कर स्वयं

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Bk geeta didi batala anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी गीता बहन का बाबा के साथ संबंध अद्वितीय था। बाबा के पत्रों ने उनके जीवन को आंतरिक रूप से बदल दिया। मधुबन में बाबा के संग बिताए पल गहरी आध्यात्मिकता से भरे थे। बाबा की दृष्टि और मुरली सुनते

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Bk janak didi sonipat anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी जनक बहन जी, सोनीपत, हरियाणा से, जब पहली बार ब्रह्मा बाबा से मिलीं, तो बाबा के मस्तक पर चमकती लाइट और श्रीकृष्ण के साक्षात्कार ने उनके जीवन में एक नया मोड़ लाया। बाबा की शक्ति ने उन्हें परीक्षाओं के

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Dadi allrounder ji

कुमारियों को दादी ऐसी पालना देती थी कि कोई अपनी लौकिक कुमारी को भी शायद ऐसी पालना ना दे पाए। दादी कहती थी, यह बाबा का यज्ञ है, बाबा ही पालना देने वाला है। जो पालना हमने बाबा से ली

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Dadi ratanmohini bhagyavidhata

ब्रह्माकुमारी दादी रतनमोहिनी जी कहती हैं कि हम बहनें बाबा के साथ छोटे बच्चों की तरह बैठते थे। बाबा के साथ चिटचैट करते, हाथ में हाथ देकर चलते और बोलते थे। बाबा के लिए हमारी सदा ऊँची भावनायें थीं और

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Bk sudarshan didi gudgaon - anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी सुदर्शन बहन जी, गुड़गाँव से, 1960 में पहली बार साकार बाबा से मिलीं। बाबा के दिव्य व्यक्तित्व ने उन्हें प्रभावित किया, बाद उनके जीवन में स्थायी परिवर्तन आया। बाबा ने उन्हें गोपी के रूप में श्रीकृष्ण के साथ झूला

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Dadi atmamohini ji

दादी आत्ममोहिनी जी, जो दादी पुष्पशांता की लौकिक में छोटी बहन थी, भारत के विभिन्न स्थानों पर सेवायें करने के पश्चात् कुछ समय कानपुर में रहीं। जब दादी पुष्पशांता को उनके लौकिक रिश्तेदारों द्वारा कोलाबा का सेवाकेन्द्र दिया गया तब

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Bk jagdish bhai anubhavgatha

प्रेम का दर्द होता है। प्रभु-प्रेम की यह आग बुझाये न बुझे। यह प्रेम की आग सताने वाली याद होती है। जिसको यह प्रेम की आग लग जाती है, फिर यह नहीं बुझती। प्रभु-प्रेम की आग सारी दुनियावी इच्छाओं को

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Bk pushpal didi

भारत विभाजन के बाद ब्रह्माकुमारी ‘पुष्पाल बहनजी’ दिल्ली आ गईं। उन्होंने बताया कि हर दीपावली को बीमार हो जाती थीं। एक दिन उन्होंने भगवान को पत्र लिखा और इसके बाद आश्रम जाकर बाबा के दिव्य ज्ञान से प्रभावित हुईं। बाबा

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Bk santosh didi sion anubhavgatha

संतोष बहन, सायन, मुंबई से, 1965 में पहली बार साकार बाबा से मिलीं। बाबा की पहली मुलाकात ने उन्हें विश्वास दिलाया कि परमात्मा शिव ब्रह्मा तन में आते हैं। बाबा के दिव्य व्यक्तित्व और फरिश्ता रूप ने उन्हें आकर्षित किया।

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