ब्रह्माकुमारी दादी कमलसुन्दरी जी मेरठ में रहकर अपनी सेवायें दे रही थीं। आप यज्ञ की नामीग्रामी संदेशी थी। शुरू में आपके द्वारा सतयुगी दुनिया के कई नये राज़ खुले इसलिए आपको सभी ‘देवता दादी’ के नाम से जानते थे। आपकी योगस्थिति बड़ी पावरफुल थी, बाबा के साथ क्लीयर लाइन थी। रग-रग में यज्ञ के प्रति प्रेम भरा था। इकॉनामी का पक्का संस्कार था। अंत तक भी कर्मरत रही। आप पूर्ण नष्टोमोहा, समय की पाबंद, मर्यादाओं और धारणाओं में बड़ी दृढ़ थी। अंतिम स्थिति एकदम उपराम थी। आपने 8 मई, 2007 को अपना पुराना शरीर छोड़ बापदादा की गोद ली।
दादी कमलसुन्दरी जी ने अपने मरजीवा जन्म का अनुभव इस प्रकार सुनाया है–
‘क्या बताऊँ, सारे कल्प में वर्तमान जीवन एक बहुत ही अजीब जीवन है। मैंने इस जीवन में चार बार जन्म लिया। एक जन्म तो जैसे सभी का होता है, वैसे लिया ही। इस जन्म से मेरा अभिप्राय है ‘शारीरिक जन्म लेना।’ इसके बाद माता-पिता ने लालन-पालन करके बड़ा किया और फिर विवाह कर दिया। इसे मैं अपना दूसरा जन्म मानती हूँ क्योंकि कन्या के लिए विवाह एक घर से मरकर दूसरे घर में जन्म लेने के समान होता है। विवाह होने पर उसे एक प्रकार से माता-पिता से और मायके वालों से दैहिक नाते तोड़कर पति से तथा ससुराल वालों से नया नाता जोड़ना होता है। कन्या के समय का अलबेला, निश्चिन्त, स्वतंत्र और पवित्र जीवन समाप्त होकर अब उसका पराधीन, परतंत्र और चिन्ताओं से भरा, जिम्मेवारी का जीवन प्रारंभ होता है जिसमें उसे कदम-कदम पर सहन तथा त्याग करना पड़ता है। ये दो जन्म तो प्रायः हरेक नारी को इस कलियुगी विकारी संसार में लेने ही पड़ते हैं, परन्तु मैंने दो जन्म इनके अलावा भी लिये। आप सोचते होंगे कि वे दो जन्म कौन-से थे?
दो और जन्म
जब मैने ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त किया तब वह मेरा एक नया जन्म था। इसे मैं इसलिए ‘नया जन्म’ मानती हूँ क्योंकि अब मैंने परमात्मा को पिता के रूप में अपनाया और मीरा की तरह विकारी संसार की रीति-रस्म और लोक-लाज छोड़ी। अब परमपिता परमात्मा जो सद्गुरु के रूप में मिले तो सभी दैहिक नातों को भूलकर, उनके ‘मामेकं शरणं व्रज’, ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ के मंत्र के अनुसार उनसे ही आत्मिक नाता जोड़ना पड़ा। ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई’ इस वचन को निभाने के लिए बुद्धि में एक पतिव्रता नारी की तरह उस निराकार परमात्मा को ही मन में बसाया, बाकी इस संसार के विनाशी नाते तथा कर्मों के खाते भुलाने पड़े। यह मरना भी कठिन था और जन्म लेना भी कठिन था क्योंकि मैंने पहले जो दो जन्म लिये थे, जिनका मैं पहले वर्णन कर चुकी हूँ, उनमें इतना सहन नहीं करना पड़ा और बुद्धि को भी इतना पुरुषार्थ नहीं करना पड़ा जितना कि अलौकिक जन्म अथवा मरजीवा जन्म लेने पर। इस अलौकिक जीवन में वर्तमान कलियुगी विकारी संसार को बुद्धि से भुलाने तथा मन से बिसारने का पुरुषार्थ था और सभी लौकिक रिश्तेदारों को देखते हुए भी बुद्धि से उन नातों को याद न करके अविनाशी आत्मिक नाते को याद करना था। जन्म-जन्मान्तर से आत्मा के जो संस्कार पक्के हो गये थे, उन्हें बिल्कुल मिटाने की मेहनत कोई कम मेहनत न थी बल्कि यह भी एक तरह से मरना और एक तरह से जीना था। पाँव फर्श पर होते हुए भी बुद्धि को अर्श पर रखने का यह पुरुषार्थ था। और तो क्या, स्वयं अपनी देह को भूलकर विदेही बन जाने का यह अभ्यास था और कदम-कदम पर, पतियों के भी पति परमेश्वर की जो मत मिले, उस पर ही चलने तथा मर-मिटने की टेव मन को डालनी थी। पुराने सिर (पुरानी बुद्धि) को काट कर, तली पर रखकर, दिव्य बुद्धि के दाता परमपिता से नया शीश अर्थात् दिव्य बुद्धि लेने की यह अनोखी बात थी। इसलिए ही तो इस जीवन को ‘मरजीवा जन्म’ कहा गया है और इस जन्म के कारण ही तो सच्चे ब्राह्मणों को ‘द्विज’ अर्थात् ‘दूसरा जन्म लेने वाला’ माना गया है। गोया शुद्र (क्षुद्र) जीवन का अंत करके अब ब्राह्मण (पवित्र) बनने का सवाल था।
अतीन्द्रिय सुख वाला जीवन
बहुत-से यज्ञ-वत्सों ने यह जन्म लिया और उनकी तरह मैने भी यह अलौकिक जन्म अथवा जीवन लिया। अतः अब हम ‘ब्रह्मामुख-वंशावली’ अर्थात् ब्रह्मा बाबा के मुख से (मुख द्वारा दिये गये ज्ञान से) पैदा हुए ब्राह्मण-‘ब्रह्माकुमारियाँ’, ‘ब्रह्माकुमार’ कहलाये। यज्ञ-पिता और यज्ञ-माता द्वारा ही हमारा लालन-पालन और हमारी शिक्षा शुरू हुई। बड़ी आयु होते हुए भी अब फिर से इस ईश्वरीय गुरुकुल में हमारा न्यारा, प्यारा और निश्चिन्त विद्यार्थी जीवन प्रारंभ हुआ और ईश्वरीय विद्या के अध्ययन में ही व्यस्त हम ब्रह्मा बाबा तथा सरस्वती मैया के रूहानी धर्म के बच्चे (Adopted Children) बने। अहा, इस अलौकिक जीवन के सुख का क्या वर्णन करें! नित्य-प्रति ज्ञान की मीठी- मीठी बातें सुनते, अलौकिक तथा पारलौकिक माता-पिता का निःस्वार्थ और आत्मिक स्नेह पाते, ईश्वर अर्पण हुए धन से, सच्चे ब्राह्मणों द्वारा बनाया पवित्र ब्रह्मा-भोजन लेते, ईश्वरीय कुटुम्ब में रहते, हमारा यह नये प्रकार का बचपन तो हमें कभी स्वप्न में भी नहीं भूल सकता। अतीन्द्रिय सुख वाला यह जीवन सभी ब्रह्मा-वत्सों ने पाया। परन्तु मेरा जो चौथा जन्म हुआ, वह किसी-किसी ने ही पाया।
मेरा चौथा जन्म हुआ यह कि एक बार मेरे जीवन में फिर पलटा आया। शिव बाबा को यज्ञ-वत्सों, यज्ञ-माता और यज्ञ-पिता को यह अनुभव कराना था कि सतयुग में देवताई जीवन कैसा होगा। उस समय के संस्कार कैसे होंगे और खान-पान आदि की रीति कैसी होगी। अतः उस करन-करावनहार, दिव्य- दृष्टि के दाता, दिव्य-दृष्टि विधाता प्रभु ने मुझे एक और जन्म दिया। कैसे? अनायास ही एक दिन शिवबाबा ने विशेष प्रोग्राम दिया। उसके अनुसार, मैं अलग ही एक कमरे में कई दिन तक रही। थोड़ा फल और दूध लेती थी और न किसी की बात सुनती थी, न किसी से करती थी और न किसी अज्ञानी व्यक्ति को देखती थी। निरंतर योगाभ्यास की आज्ञा मुझे मिली हुई थी। एक सूर्यमुखी फूल की तरह मेरी दिनचर्या थी। शिवबाबा की याद ही मेरा एकमात्र काम था, बस! इस प्रोग्राम के परिणामस्वरूप मेरे इस जीवन के सभी संस्कार तिरोभावित (Merge) हो गये। इस संसार की सभी स्मृतियाँ गुम हो गई, सभी दैहिक नाते भूल गये और दृष्टि-वृत्ति सब पलट गई। मैं जीती-जागती तो थी परन्तु मुझे अपनी देह का नाम, आयु वा परिचय कुछ भी याद न रहा। मेरे जो लौकिक संबंधी थे, उनकी भी मुझे पहचान तथा स्मृति न रही। यहाँ यज्ञ में आने के बाद जो मेरे दिव्य संबंधी अर्थात् यज्ञ-निवासी भाई-बहनें थे, इनके भी नाम आदि मुझे सब भूल गये।
सतोप्रधान संस्कारों का प्रादुर्भाव
मैंने अपने-आपको भविष्य की, सतयुगी सृष्टि की एक दैवी राजकुल की बहुत छोटी-सी कन्या के रूप में अनुभव किया। वहाँ की ही भाषा तथा बोलचाल मेरे मुख से धीमे-धीमे स्वर से निकलती थी। वहाँ के देवी-देवताओं जैसे ही सतोप्रधान संस्कारों का मेरे मन में प्रादुर्भाव हुआ। मैं काम, क्रोध, लोभ आदि का अर्थ, व्यवहार या विचार जानती तक न थी। इस कलियुगी संसार की भाषा, चेष्टा, हाव-भाव, रीति-रस्म आदि को समझती तक न थी।
सतयुगी सृष्टि का स्पष्ट ज्ञान
मेरे नेत्र वही थे परन्तु देखने वाला मन बदल गया था। मैं दिव्य दृष्टि से सभी को देखती थी। त्रिकालदर्शी परमपिता परमात्मा ने अपनी शक्ति से मुझे कुछ समय के लिए ऐसा कर दिया था कि जो-जो भी यज्ञ-वत्स मेरे सामने आते, मेरे मन में उनकी वह सूरत-सीरत, उनका वह नाम-धाम, वह संबंध और कर्त्तव्य स्पष्ट रूप से अंकित हो जाता जोकि भविष्य में सतयुगी सृष्टि में उन्हें मिलना था। मुझसे यज्ञ-वत्स कई बातें पूछते कि ‘आप कौन हो’ तो मैं अपने-आपको भविष्य की सतयुगी सृष्टि में एक शहजादी (राजकुमारी) महसूस करने के कारण अपना वही देवताई नाम-धाम, आयु आदि बताती और जब वे पूछते कि फलां जो यज्ञ-वत्स है, यह कौन है? तो उसे भी मैं सतयुगी राजकुमार या राजकुमारी या दास या दासी या सखी आदि जिस रूप में देखती, उसी का वर्णन करती। कौन-से राजा का राज्य है, कौन मेरे माता-पिता हैं, उनका भी पता मैं देती थी। मेरा ऐसा पार्ट लगभग एक-डेढ़ मास चला।
दैवीय शहजादी
मैं सतयुगी दैवीय राजकुमारियों की तरह बहुत ही थोड़ा खाती थी। दिन-भर में एक-दो बार दूध के दो-चार चम्मच ही लेती थी। इतना बड़ा शरीर था, सभी सोचते कि यह इतने दिन तक इस प्रकार अल्प भोजन पर कैसे चलेगी? परंतु मुझे कुछ भी कमजोरी अनुभव नहीं होती थी। एक छोटी-सी दैवीय शहजादी की तरह ही मेरी चाल-ढाल, मेरा खान-पान और मेरा सारा व्यवहार था।
डेढ़ मास मानो गुम थी
उन्हीं दिनों मेरे लौकिक रिश्तेदार भी यज्ञ में मुझसे मिलने आये थे, परंतु मैंने किसी को भी नहीं पहचाना था। जब मेरा यह पार्ट समाप्त हुआ तब भी बहुत दिनों तक मुझे अपने दैहिक नाम, देह के संबंधियों का परिचय तथा यज्ञ-वत्सों के भी नाम आदि याद न थे। कई दिन तक जब मुझे यज्ञ-वत्सों का तथा मेरे मरजीवा जीवन का परिचय याद दिलाया जाता रहा, तब मेरा पहले वाला अर्थात् यज्ञ का जीवन मुझे याद हो आया और दिव्य दृष्टि पर आधारित देवताई जीवन का पार्ट हल्का हुआ। तब मुझे यज्ञ-वत्सों ने बताया कि डेढ़ मास मेरा जीवन बिल्कुल ही बदला हुआ था और एक दैवीय शहजादी की तरह था। मुझे तो अब उस डेढ़ मास के जीवन का बिल्कुल पता तक न था। बस, मैं यही जानती कि इस डेढ़ मास के समय में मैं कहीं गुम थी, पता नहीं कहाँ थी। इसे मैं अपना चौथा और विचित्र जन्म मानती हूँ जो कि स्वयं परमपिता परमात्मा की दिव्य शक्ति के प्रभाव से कुछ काल के लिए हुआ।
नोएडा सेवाकेन्द्र की मंजू बहन जिन्होंने 17 साल देवता दादी के अंग-संग रहकर उनकी पालना ली, अपना अनुभव सुनाती हैं –
यज्ञ से विशेष प्यार
दादी 24 साल की उम्र में यज्ञ में आई। यज्ञ के प्रति बहुत उच्च भावना थी। दादी को लौकिक परिवार से जो कुछ भी मिलता, दादी अपने लिए कुछ न रख सीधे यज्ञ में देती। हमसे भी यही अपेक्षा रखती कि हमें भी लौकिक से जो मिले, हम सारा यज्ञ में दें, अपने लिए खर्च न करें। वह समझती थी, क्योंकि हम यज्ञ के हैं तो हमें प्राप्त हर चीज, बाबा के यज्ञ की अमानत है। हमने उन्हें बीमारी में भी कभी दो रुपये का फल खरीदकर खाते हुए नहीं देखा। किसी भाई-बहन ने ला दिया तो खा लिया, बाबा की भंडारी के पैसे से फल मंगवाकर खायें, यह उन्हें अच्छा नहीं लगता था। डॉक्टर के कहने पर अगर हम युक्ति से फल मँगवाते भी तो वे तुरंत पहचान लेती थी।
योग की पावरफुल स्थिति
अमृतवेला बहुत नियमित था। अपने आप दो बजे उठकर योग करती, बीच में थोड़ा आराम लेती फिर हम लोगों के साथ योग करती। मैंने जब सेन्टर पर रहना शुरू किया तब मैं नौकरी करती थी। उन्हें इतनी जल्दी उठकर योग करते देख मुझे भी होता कि मैं भी योग करूँ। एक-दो बार मैं दो बजे योग के लिए उठी तो उन्होंने मना किया। कहती थी, मैं तो फिर भी दिन में आराम कर लूँगी, तुम नौकरी पर जाओगी तो दिन में आराम का समय नहीं मिलेगा, रात तक थक जाओगी, बीमार पड़ जाओगी। इसलिए मुझे जल्दी उठने से मना करती। कई बार मैं देखती कि योग के लिए बैठे हैं तो मैं भी बैठ जाती तो मुझे देख खुद लेट जाते, आँखें बंद कर लेते ताकि मैं भी सो जाऊँ। मैने उन्हें बीमारी में भी कभी अमृतवेला मिस करते हुए नहीं देखा। एक बार उन्हें 105 डिग्री बुखार था तो भी कमरे में बैठकर योग किया। ऐसे समय उन्हें चाहना रहती कि सब बहनें मेरे साथ कमरे में ही योग करें जिससे उनको सकाश मिले। जब स्वस्थ होती तो कभी भी कमरे में, बिस्तर पर योग नहीं करती, ना हमें करने देती। दादी का योग बहुत पावरफुल था। मुझे दादी के योग ने ही समर्पित कराया। मुझे दादी की योग-दृष्टि से ही ऐसा अलौकिक अनुभव हुआ जैसेकि मैं यहाँ पर नहीं, एकदम शान्ति की दुनिया में हूँ और मैं बाबा की बन गई। योग कराते समय दादी जी लगातार एक घंटा बिल्कुल स्थिर, एक ही पोज में बैठे रहते। हम हिलते तो कहते, तुम्हारा योग ठीक नहीं है, चंचलता है।
त्यागमूर्त
दादी में त्याग भावना बहुत थी। उनके कपड़े फट जाते तो उन्हें चित्ती लगाकर भी पहनती। दादी मेरे आगे सारे फटे कपड़े लाकर रख देती कि इन्हें सिलाई करो। मैंने लौकिक में कपड़े पर कभी चित्ती नहीं लगाई थी। मैं उलटा-सीधा लगा देती तो उधड़वाकर दुबारा सिलवाती। हम अक्सर दादी को कहते, आप भी बड़ी दादी हो, आप अच्छे कपड़े पहनो तो मना करती। कभी नया कपड़ा आता तो बाबा के घर मधुबन भेजती, खुद पुराना पहनती रहती। कपड़े धुलाई के समय साबुन का पानी वेस्ट न जाए, इसकी भी सावधानी देती। त्यागमूर्त दादी में त्याग भावना बहुत थी। हम कहते, दादी, देखो, सबके बड़े-बड़े सेवाकेन्द्र बन गए, आप भी अपना बड़ा बना लो तो कहती कि जो यहाँ पर बड़े-बड़े महलों में रहेंगे तो देखना, उन्हें सतयुग में बड़े महल नहीं मिलेंगे। मुझे तो सतयुग में बड़े महल में रहना है, यहाँ नहीं, उन्हें बनवा लेने दो। जब दादी बीमार थी तो मैं दादी के साथ डेढ़ साल रही। बीमार होते भी दादी रसोई में अपनी सब्जी खुद बनाती। भोग के समय आ जाती और मदद करवाती। उन्होंने अपने शरीर को अंत तक यज्ञ सेवा में लगाया।
पालना के संस्कार
जिज्ञासुओं के प्रति उनकी बहुत अच्छी भावना थी। जो नियम-मर्यादा पर चलते, उन पर जान कुर्बान करती, उन्हें अच्छे से अच्छा खिलाती, अच्छी पालना देती। अच्छी से अच्छी चीज भी अपने प्रति इस्तेमाल न कर उन्हें सौगात में दे देती पर अगर यज्ञ मर्यादा के विपरीत कुछ होता तो वे बर्दाश्त नहीं करती थी। उनकी पालना में पले सभी विद्यार्थी ईश्वरीय मर्यादाओं का स्वरूप हैं। दादी माताओं को विशेष नियम-धारणाओं में पक्का करती। क्लास में मातायें पूरी ड्रेस में आयें, रोजाना क्लास-योग करें, इस पर पूरा ध्यान देती। वे समय की बड़ी पाबंद थी। क्लास में हमेशा पाँच मिनट पहले पहुँचती। जैसे वे खुद करती, हमसे भी यही अपेक्षा रखती।
बाबा से विशेष प्यार
उनके मन में बाबा के प्रति बहुत सम्मान था। कभी लेटते समय और कभी खाना खाते समय कुछ न कुछ बाबा की बातें सुनाती रहती थी। कभी खाने में सिन्धी कढ़ी बनती तो कहती, बाबा को कढ़ी के साथ बूंदी बहुत पसंद थी। जो चीजें बाबा को पसंद थी, वहीं चीजें 18 जनवरी को भोग के समय बनवाती। बड़ी दादी से भी इतना ही प्यार था जितना बाबा से। जब कभी दादी का फोन आता और दादी उन्हें मधुबन बुलाती तो वे बहुत खुश हो जाती थीं। तबीयत खराब होने पर भी कहती थीं, मुझे दादी ने नहीं, बाबा ने बुलाया है, जाना जरूरी है। अगर कभी किसी भाई को कोई सेवा दी और वह पूरी किये बिना ही चला गया तो हम कहते, दादी, उसे बुला लें तो सिन्धी में कहती, “मिंजो तो बाबा बैठो, वो पानो कंदो (मेरा तो बाबा बैठा है, वो अपने आप करेगा)। बाबा का कार्य है, पूरा हो ही जायेगा, इससे नहीं तो बाबा किसी और से करा लेगा।”
स्वर्ग का वर्णन
दादी संदेशी थी। वे अक्सर स्वर्ग के साक्षात्कार करती थी और वहाँ की बातें सुनाया करती कि कैसे सतयुग में दिल्ली से लेकर जयपुर तक एक ही महल होगा। शादी के बाद राजकुमारी के साथ 25 दासियाँ जाती हैं। बाबा पहले नंबर के कृष्ण तो बनेंगे ही, बाद में चौथे नंबर के नारायण (नारायण प्रथम का पड़पौता) भी बनकर आयेंगे और गद्दी पर बैठेंगे। सतयुग में यहाँ जैसी लाइट नहीं होगी, महलों में हीरे लगे होंगे जिनसे रोशनी होगी। इस प्रकार की कई बातें हमें उनसे जानने को मिलती। उनके ट्रांस की स्थिति में एक अजीब-सा चुंबकीय आकर्षण था। ध्यान के माध्यम से, सतयुग में जाने पर जब वे खड़े होकर रास करती तो क्लास का माहौल एकदम बदल जाता, सब उनके साथ रास करने लगते।
मेरठ सेवाकेन्द्र की संचालिका विनोद बहन जो सन् 1965 से 1980 तक देवता दादी के साथ रहीं, अपना अनुभव सुनाती हैं –
परीक्षा में पास हुई
दादी जी सन् 1958 में मेरठ आई। इससे पहले उन्होंने दिल्ली जमुना के कंठे पर व कमला नगर सेवाकेन्द्र पर सेवायें की थी। जब दादी जी यज्ञ में आई तो बच्चों को साथ लेकर आई थी, फिर परिवार वाले आकर बच्चों को वापस ले गये। जब यज्ञ हैदराबाद-सिंध से करांची चला गया तो वे कुछ समय के बाद हैदराबाद से करांची पहुंची और बाबा से मिली। साथ में दृढ़ निश्चय था कि मैं सीता, रावण की जेल से निकलकर राम की शरण में तो आ ही गई हूँ, अब राम मिलेंगे अवश्य ही। उन्होंने अपने लिए कभी कुछ नहीं चाहा। हड्डी-हड्डी सेवा में लगाई। अन्य आत्माओं का सब कुछ सफल कराने की विधि भी दादी को बहुत अच्छी आती थी। जो भी धारणायें हमारे जीवन में आई, सब दादी जी की कमाल है।
बाबा के साथ क्लीयर लाइन
दादी जी के ट्रांस की विशेषता यह थी कि वे खुली आँखों से ट्रांस में जाती थी। जब वे स्वर्ग को बातें सुनाती तो इतना खो जाती कि महसूस होता कि दादी वहीं हैं। उनका सुनाने का तरीका ऐसा होता कि हमें लगता कि हम भी स्वर्ग में हैं। तीन-चार घंटे स्वर्ग की क्लास कराना उनके लिए साधारण बात थी। वे जब भोग लगाती, तो कई बार स्वर्ग की शहजादी उनमें आ जाती फिर रास प्रारंभ हो जाती। यदि कोई मर्यादा का उल्लंघन करके क्लास में आता तो दादी को तुरंत वायब्रेशन आ जाता और वे क्लास में बोल भी देती। योग कराते समय किसके मन में क्या विचार चल रहे हैं, कौन बाबा की याद में है, दादी को यह भी पता चल जाता। इसका कारण था कि दादी की बाबा के साथ बुद्धि की लाइन बहुत क्लीयर थी।
नष्टोमोहा
दादी में, 96 वर्ष की आयु में भी आलस्य नाम की कोई चीज़ नहीं थी। वे सदा उमंग-उत्साह में रहती थी। यज्ञ का हर कार्य स्वयं करती। दूसरों से उन्होंने कभी सेवा नहीं ली। दादी जी नष्टोमोहा थीं।
बचपन से दादी की पालना लेने वाली मवाना की अमिता बहन सुनाती हैं –
रग-रग में यज्ञ प्रति प्रेम
एक बार मधुबन में दादियों का 70वां वर्ष मनाया गया। उस समय वार्षिक मीटिंग भी थी। मीटिंग में भारत तथा नेपाल से हजारों बहनें-भाई आये हुए थे। कइयों ने उस उपलक्ष्य में दादियों को सौगातें भी दी। देवता दादी को भी बहुत सौगातें मिली। उन सभी सौगात की चीज़ों को गठरी में पैक करके उनके कमरे में पहुँचा दिया गया। दादी ने कहा, इस गठरी को अलग रख दो। कई बहनों ने कहा, दादी, यह चीज़ हमें दे दो, वो चीज़ हमें दे दो। दादी ने इशारा से समझाया, यह सब यज्ञ का है और यज्ञ में ही जायेगा। दादी ने, सब यज्ञ में पहुँचा दिया। दादी की रग-रग में यज्ञ के प्रति प्रेम समाया था। हर बात में पहले यज्ञ ही याद आता था।
घटनाओं का पूर्व आभास
एक दिन दोपहर में एक माता दादी से मिलने आई। दादी सबसे प्रेम से मिलती थी, किसी को मिलने से ना नहीं कहती थी पर उस दिन दादी ने माता से कहा, अभी नहीं, शाम को मिलने आना। माता को आश्चर्य भी हुआ और थोड़ा ख्याल भी आया कि दादी क्यों नहीं मिली? वह उदास-सी घर पहुँची, देखा कि घर में चोर घुसे हुए थे, गठरी बाँध ली थी। उसे देखकर चोर गठरी छोड़कर भाग गये। दादी को मानो पहले से ही आभास हो गया था कि नुकसान होने वाला है इसलिए माता को नुकसान से बचाने के लिए ही मिलने से मना कर दिया था। बाद में माता को भी दादी के ना मिलने का रहस्य समझ में आया तो उसको खुशी भी बहुत हुई।
मेरठ की सरोज बहन दादी के बारे में सुनाती हैं-
ट्रांस का क्लीयर पार्ट
क्लास में आने वाले एक भाई का बेटा, उसके ज्ञान में आने के कई वर्ष पहले खो गया था। जब वह ज्ञान में आने लगा और उसे दादी द्वारा ध्यान में जाने का ज्ञान हुआ तो उसने दादी को, अपने बेटे के बारे में संदेश लाने को कहा। दादी ने तो बच्चे को कभी देखा भी नहीं था। दादी ने कहा, भोग लगवाओ। दादी ट्रांस में गई, बाबा ने एक दृश्य दिखाया कि दिल्ली में एक पुल के नीचे, बच्चा रिक्शे पर सोया हुआ है। उस भाई ने तुरंत दिल्ली में फोन किया, पता किया और वह बच्चा मिल गया। दादी का ट्रांस का पार्ट एकदम क्लीयर था।
जब उन्होंने आँखों का ऑपरेशन कराया तब डॉक्टर आश्चर्यचकित होकर कहते, आपकी उम्र इतनी होते भी आपको बी.पी. आदि नहीं है। दादी जी ने 8 मई, 2007 को 96 वर्ष की आयु में एकदम उपराम अवस्था में शरीर छोड़ा।
ब्र.कु. भावना बहन, हस्तसाल, दादी जी के साथ बिताए गए उन अविस्मरणीय पलों को याद करते हुए कहती हैं –
दादी जी सचमुच मानवी तन में देवताई अवतार थीं। वे सचमुच देवदूत, फरिश्ता और साथ-साथ शक्तिस्वरूपा भी थीं। ब्रह्माकुमारी जीवन के शुरू के 5 वर्षों में दादी से मिली पालना ने मुझे अचल, अडोल और धारणामूर्त बना दिया। उनके दिल में सदा एक बाबा, बाबा का यज्ञ और सेवा ही रहती थी।
समय की पाबंद
अमृतवेले रिकॉर्ड बजाने वाला भाई थकावट या अन्य किसी कारण से यदि 3.30 बजे का रिकॉर्ड नहीं बजाता तो खुद आवाज लगाकर अलर्ट करती कि समय हो गया है। सुबह ठीक 5.30 बजे क्लास रूम में पहुँच जाती थी और पहले साकार मम्मा-बाबा की कैसेट चलवाती थी फिर योग और मुरली चलती थी। दादी की खड़ाऊँ की आवाज सुनकर हमें पता लग जाता था कि समय हो गया है, दादी पहुँच गये हैं। खड़ाऊँ की आवाज, अलार्म की घंटी की तरह हमें अलर्ट कर देती थी। दिन में बाबा को भोग ठीक 12 बजे लग जाता था। दादी कहती, यह बाबा का दिया हुआ समय है, मधुबन में ठीक 12 बजे भोग लग जाता है तो यहाँ 12.15 भी नहीं होने चाहिएँ। अगर होते हैं तो आपकी एक्यूरेसी कम है। इसके लिए हमें अलर्ट करती थी। योग में वे साक्षात् देवी की मूर्ति लगती थी, बिल्कुल हिलती नहीं थी, यहाँ तक कि उनकी पलकें भी नहीं झपकती थी। ऐसे लगता था मानो मूर्ति को ही बिठा रखा है।
अपने लिए कुछ नहीं चाहा
दादी जी त्यागमूर्त थी। मेरठ, दिल्ली से दूर पड़ता है। दिल्ली में मीटिंग आदि में जाने के लिए अपनी गाड़ी न होने से तकलीफ होती थी। भाई-बहनें गाड़ी के लिए कहते थे तो मना कर देती थीं। उन्होंने कभी अपनी सुख-सुविधा के लिए धन खर्च नहीं किया। वे जहाँ रहती थी, वह मकान पुराने ढंग से बना हुआ था। उनके कमरे से बाथरूम दूर था। भाई-बहनें नये मकान के लिए कहते तो कहती थीं, मुझे नहीं चाहिए। जो भी धन की बचत होती, बड़ी दादी को मधुबन में देकर आती, अपने पास नहीं रखती थीं, कहती थीं, मुझे जरूरत होगी तो दादी देगी। वे डरती नहीं थीं। सच्चाई की बात स्पष्ट कह देती थीं। कोई उन्हें कुछ कह देता तो उसका बुरा नहीं मानती थीं। अपने लिए कुछ नहीं चाहा दादी जी त्यागमूर्त थीं।
बाबा से अटूट प्यार
बाबा का बड़ा फोटो उनके बेड के सामने लगा होता था। आते-जाते जब हम उनके कमरे में देखते तो पाते कि वो लेटे-लेटे बाबा से बातें कर रही हैं। हम पूछते, दादी, आप क्या कर रहे हो तो कहती, मेरा बाबा ही तो है, मैं उनसे बात करती हूँ। बाबा की, यज्ञ की, ध्यान की बातें करते हुए उनमें खो जाती थी, खुशी से झूम उठती थीं। उनका लौकिक जीवन कैसा था, फिर बाबा के कैसे बने, कैसे सब त्याग किया, कैसे बाबा के पास आ गये, सब बातें सुनाती थीं। ब्राह्मण जीवन का और भविष्य स्वरूप का (शहजादी की ड्रेस वाला) जो फोटो बाबा ने उनका बनवाया था, उसे देख बड़ी खुश होती थीं कि शीघ्र ही मैं यह बनूँगी।
रक्षाबंधन पर जब भाई-बहनों को राखी बाँधती थीं तो ध्यान में जाकर बाँधती थीं, देखती थीं कि अगर किसी की धारणा ठीक नहीं है तो पहले उनसे प्रतिज्ञा करवाती थीं, लेटर लिखवाती थीं, बाद में राखी बाँधती थीं।
बड़ों का सम्मान
कोर्स कराना, भाषण करना, योग शिविर कराना आदि की ट्रेनिंग मुझे दादी जी द्वारा ही मिली। मुझे दादी के पास रहते छह मास ही हुए थे कि गुलजार दादी जी वहाँ मेले की ओपनिंग करने आई। दादी ने, गुलजार दादी से कहा, मेले में शिविर कराने के लिए बहनों को भेजना। गुलजार दादी ने कहा, गुजराती बहनें बहुत अच्छा शिविर कराती हैं, यह (भावना) करा लेगी। यह सुनकर देवता दादी ने यह नहीं कहा कि अभी तो इसे आये हुए छह मास ही हुए हैं, नई है। गुलजार दादी ने कहा और देवता दादी ने मान लिया। दादी जी, बड़े दादी और अन्य दादियों की हर बात में आज्ञाकारी थे। जब मैं शिविर कराती थी तो बाहर बैठकर सुनती थीं कि कैसा सुनाती है। फिर कहती थीं, अच्छा ज्ञान सुनाती हो।
किसी से प्रभावित नहीं
माँ का भी प्यार देती थीं तो भोजन, टोली आदि बनाना भी सिखाती थीं। मैं सादी रोटी, परांठा बना देती थी तो कहती थीं, तुम तो सूखा संन्यासी हो, रोज रोटी खिला देती हो। फिर सुनाती कि बाबा ने हमें कैसी पालना दी, माजून खिलाया, इतने प्रकार के भोजन खिलाये आदि-आदि। मैं सेवाकेन्द्र पर नई-नई आई थी, दादी जी सिन्धी शब्द ज्यादा बोलती थीं। वे सिन्धी भाषा में जो चीज माँगती थीं, मैं लाकर दे देती थी तो कहती थीं, होशियार है, समझदार है। कभी मैं बीमार पड़ती थी तो तबीयत का ध्यान रखती थीं, दवाई आदि लाकर देती थीं। उन्होंने हमेशा देने का ही ख्याल किया, कभी लेने का नहीं। वे सबको समान रूप से चलाती थीं, चाहे कोई बड़ा हो या छोटा। किसी के धन या पद-पोजीशन का उनके ऊपर रिंचक भी प्रभाव नहीं पड़ता था। ऐसी थी हमारी देवता दादी, जो माँ का स्वरूप भी थीं तो शक्ति स्वरूपा भी थीं। वे व्यक्ति को धारणामूर्त, त्यागी, तपस्वी और हर परिस्थिति का सामना करने योग्य अचल, अडोल बना देती थीं।
ब्र.कु. सपना वहन, वर्तमान समय ओ. आर. सी. में सेवारत हैं। देवता दादी के साथ के सात वर्षों का अनुभव इस प्रकार बताती हैं –
लौकिक में भी अलौकिक मर्यादा
दादी जब यज्ञ में आई तो 24 साल की थीं। दो बच्चे थे, लड़की छह मास की तथा लड़का थोड़ा बड़ा था। पति विदेश में था। पति ने पवित्रता पर झगड़ा किया और ओम मण्डली में आने पर बन्धन लगा दिया। फिर बन्धन तोड़कर, बच्चों को साथ लेकर आई। बच्चों को पिताजी लेने आया तो बच्चों को वापस दे दिया। अब बेटे ने 70 साल की उम्र में शरीर छोड़ दिया है। जब वे मिलने आते तो दादी उनको गेस्ट हाऊस में ठहराती थीं, सेन्टर पर नहीं। वे अपने लौकिक में भी सेवार्थ जाती थीं तो यज्ञ के लिए मदोगरी करके आती थीं अर्थात् उनका सफल कराके आती थीं। यज्ञ की बातें उनको सुनाती थीं, कभी लौकिक बातें उनसे नहीं करती थीं। एक बार दादी की बेटी अपनी बहू को लेकर आई। बहू ने दादी को कहा, लाओ, मैं आपको नहला दूँ। दादी ने कहा, नहीं, मेरी बच्ची (अर्थात् मैं) नहलायेगी। यह सुनकर उनकी बेटी तथा बहू दोनों बहुत अफसोस से कहने लगी, हमने ना तो दादी से पालना लेने का भाग्य पाया और ना ही अब पालना देने का भाग्य हमें मिल रहा है।
बचत का संस्कार
दादी का सेन्टर भरपूर था, कोई भी चीज़ आती थी, चाहे माचिस भी, सब इकट्ठी करके मधुबन देती थीं। चप्पल टूट जाती थी तो उनको गठवा कर प्रयोग करती थीं। फटे-घिसे कपड़े ठीक करके पहनती रहती थीं। यदि हम उन्हें छिपाकर, पहनने को दूसरे देते थे, तो कहती थीं, बाबा के घर का वेस्ट नहीं करना, अभी उनसे काम चल सकता है, वही पहनूंगी। एक बार मेरी चप्पल टूटी, मैंने दादी को बिना पूछे दूसरी पहन ली। दादी ने देखा तो पूछा, तुम्हारी वो चप्पल कहाँ हैं? मैंने कहा, दादी, वो टूट गई हैं। दादी बड़े प्यार से कहती हैं, नई चप्पल क्यों पहनी मेरे बिना पूछे, तुम पुरानी को टांका लगाकर पहन सकती थीं? फिर उनके सामने वही चप्पल टांका लगवाकर कई दिन पहनी। इस प्रकार स्वयं भी फालतू खर्च नहीं करती थीं। हमें भी नहीं करने देती थीं।
धारणाओं पर ध्यान
हम बहनें एक-दो की चीज़ यदि आपस में यूज कर लेते तो बहुत ध्यान रखतीं और सख्ती से मना करती थीं। आपस में व्यर्थ बातें करने से भी मना करती थीं। चक्कर लगाती रहती थीं यह देखने के लिए कि क्या बातें करती हैं। एक-दूसरे के बेड पर बहनों को बैठने नहीं देती थीं। कन्याओं का आपस में या भाई-बहनों के साथ लगाव झुकाव ना हो जाए, इस बात में बहुत सावधान रहती थीं। भाई से तो क्या, माताओं से भी ज्यादा बात नहीं करने देती थीं। कन्याओं को अलबेला नहीं बनने देती थीं। किसी नई साथी बहन के आ जाने पर दादी कहती थीं, तुमने इसे सफाई के लिए क्यों बोला, मालकिन क्यों बनती हो? दूसरों से सेवा लेती हो? आदत क्यों बिगाड़ती हो? लौकिक घर से फोन आ जाये तो ज्यादा देर बात नहीं करने देती थीं। मैं कहती थी, दादी उनकी तरफ से आया है, तो भी कहती थीं, उनका पैसा क्यों खराब कर रही हो। मुझसे पूछती थीं, कॉलेज से कितने बजे आयेगी? मैं कहती थी, 2.50 बजे आऊँगी। यदि मैं पाँच मिनट भी लेट हो जाती थी तो वो बाहर धूप में खड़ी होकर इंतजार करती थीं। मैं कहती थी, दादी, आप बाहर क्यों खड़े हो? कहती थी, तेरे इंतजार में, कहीं मेरी बालकी को कोई उठा ना ले जाये। अपने हाथों खाना खिलाती थी बड़े प्यार से। फिर कहती थी, इन बर्तनों को अभी साफ कर। इस प्रकार प्यार भी देती थीं, सेवा भी सिखाती थीं।
अनासक्ति सिखाती थीं
एक बार दादी ने शकरकंदी उबाली। मेरे हिस्से की किसी मेहमान को खिला दी।जब मैं कॉलेज से आई, मेरे लिए स्पेशल एक शकरकंदी, पतीले के पास बैठकर उबाली और मुझे खिलाई। दादी कहती थी, भोजन बाबा की याद में खाओ, आसक्ति से नहीं। मुझसे पूछती थी, तुमको क्या खाना पसंद है? मैं कहती थी, भिण्डी पसंद है, केले की सब्जी बिल्कुल नहीं खाऊँगी। दादी क्या करती थी, भिण्डी थोड़ी देती थी, केले की सब्जी ज्यादा खिलाती थी। यह भी कहती थीं, देवताओं का भोजन बहुत कम होता है। जितना भी फल आता था, गुरुवार को भोग में प्रयोग करती थी। आलू का छिलका कम उतारती थी। मटर का दाना कुर्सी के नीचे चला जाये तो कहती थी, ढूँढ़कर दो। एक दाना भी व्यर्थ नहीं जाने देती थीं। सब्जी का साइज एक जैसा कटवाती थीं। हमें थोड़े से सर्फ से कपड़े धोने भी सिखाये।
कभी खाली नहीं रही
दादी मुझे दो बजे उठा देती थीं। अमृतवेले योग के बाद सब्जी काटने तथा झाडू-पोछा करने में पौने पाँच बज जाते थे, फिर दादी को स्नान कराना, उनके कपड़े धोना, चोटी करना आदि सेवायें करती थी। फिर छह बजे क्लास होती थी। मुरली विनोद भाई सुनाते थे। दादी हफ्ते में दो बार क्लास कराते थे। दादी ने लास्ट तक अपने हाथों से सब्जी बनाई, अमृतवेले के बाद कभी नहीं सोई। कहती थी, अमृतवेले के बाद सोना माना बाबा से शक्ति ली, वो खत्म। मधुबन में होती थी तब भी, कोई हो या ना हो, ठीक 6.30 बजे क्लास में आ जाती थीं। हमने उनको कभी खाली नहीं देखा, या तो मुरली पढ़ती थीं या योग करती थीं।
मैं कितनी खुशनसीब हूँ, मैंने पालना उनकी पाई, जो ईश्वर के प्रेम में अपना सब कुछ छोड़कर आई, त्यागी और तपस्वी इकॉनोमी की अवतार, बाबा के यज्ञ से था उनको बहुत ही प्यार। थीं पक्की नष्टोमोहा, हमको भी बनना सिखाया, बन जाओ एकव्रता, यह पाठ हमको पढ़ाया।
नवसारी सेवाकेन्द्र की निमित्त बहन गीता, जिन्होंने लौकिक पढ़ाई पढ़ते हुए दादी से पालना ली, उनके साथ का अनुभव इस प्रकार सुनाती हैं –
साथ खिलाने-पिलाने का संस्कार देवता दादी में पालना का संस्कार कूट-कूट कर भरा हुआ था। कोई भी चीज़ वे कभी अकेले नहीं खा-पी सकती थी, सबको साथ खिलाने-पिलाने में ही उनको तृप्ति होती थी। एक बार, दादी जी के लिए चाय बनानी थी। दूध कम था। हम दो बहनें साथ थी। एक बहन ने दादी के लिए एक कप चाय बनाई तथा दो गिलासों में पानी डालकर ले आई। एक मुझे पकड़ाया,एक खुद ने पकड़ा। पानी को हम दोनों बहनों ने दादी के साथ-साथ, छूट-घूट कर ऐसे पीया जैसे हम चाय पी रहे हैं। दादी को लगा कि ये भी मेरे साथ चाय पी रहे हैं। यदि हम ऐसा ना करते तो दादी अकेले चाय नहीं पीती।
सावधानी देने का संस्कार
दादी भरी क्लास में किसी भी बहन या भाई को किसी भी धारणा के प्रति सावधान कर देती थी परन्तु किसी को भी बुरा नहीं लगता था। क्लास पूरी होने पर वह बहन या भाई यही कहता था, हमारी माँ भी तो हमें सिखाती थी, दादी भी तो हमारी माँ हैं, सावधानी दी तो क्या हो गया। पीठ पीछे किसी ने भी, कभी भी दादी की बुराई नहीं की क्योंकि दादी का चित्त हर प्रकार के दुर्भाव से अछूता था। उनके मन में जो कल्याण-भावना थी, वही सब तक पहुँचती थी।
धारणाओं पर ध्यान
दादी माताओं को क्लास में फुल ड्रेस में आने का पाठ पक्का कराती थी। माताओं को भी दादी ने समर्पित ब्रह्माकुमारियों की तरह फुल ड्रेस पहनने की आदत डाली। बाँधेली माताओं को भी ड्रेस के मामले में छूट नहीं देती थीं।
सच्ची योगिन
दादी साढ़े तीन बजे उठकर संदली पर बैठ जाती थी और योग में चेहरा लाल-लाल हो जाता था। देखकर हमें लगता था, सचमुच दादी का कनेक्शन बाबा से जुड़ा हुआ है। दिन में आराम करना होता था तो कहती थीं, वतन में जा रही हूँ। पाँच मिनट के अंदर दादी सो भी जातीं और उठ भी जाती थीं। ऐसे लगता था, स्वयं पर इतना नियंत्रण है कि संकल्प के साथ निद्रा और संकल्प के साथ जागृति हो जाती है। दादी की पालना से आत्मा इतनी परिपक्व हो जाती थी कि कोई भी परिस्थिति, कहीं भी, कभी भी उसे हिला ही नहीं सकती थी।
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