Bk santosh bahan sant petersbarg anubhav gatha

बी के सन्तोष बहन  – अनुभवगाथा

ब्र.कु.सन्तोष बहन सेन्ट पीटर्सबर्ग सेवाकेन्द्र की निर्देशिका हैं। आपका जन्म भारत की राजधानी दिल्ली में हुआ। आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राणिशास्त्र विषय में बी.एस.सी. की डिग्री प्राप्त की है। बचपन से ही आप ईश्वरीय विश्व विद्यालय के सम्पर्क में थीं क्योंकि आपके माता-पिता तथा अन्य रिश्तेदार ज्ञान में चलते थे। पढ़ाई पूरी होने के बाद सन् 1983 में आप ईश्वरीय सेवार्थ समर्पित हुई। सन् 1983 से 1989 तक दिल्ली में और सन् 1989 से लेकर वर्तमान समय तक रूस में सेवारत हैं।  संतोष बहन जी कहती हैं कि यह मेरा भाग्य कहिए या विधि का विधान कि बचपन से ही मेरा सम्बन्ध किसी न किसी रूप से ब्रह्माकुमारी संस्था से जुड़ा हुआ था। हमारे परिवार में मेरे लौकिक पिताजी की मौसी और उनकी पुत्री रजनी बहन, जो अभी जापान में रहती हैं, पहले से ही ज्ञान में चलते थे। यह सन् 1962 की बात है। रजनी बहन की मम्मी को इतना नशा था कि यह बात सारे परिवार के अन्दर फैल गयी। लौकिक माता-पिता को उनसे ज्ञान का परिचय मिला लेकिन उन्होंने उस समय उतनी रुचि नहीं दिखायी। लेकिन सन् 1970 से उन्होंने ज्ञान को अच्छी तरह से अपनाया। जब मेरे माता-पिता ज्ञान में आये उस समय मैं छह साल की थी। तब से मुझे घर तथा सेन्टर पर अलौकिक पालना मिली। लेकिन लौकिक पढ़ाई में बहुत रुचि होने के कारण मैं सेन्टर पर नियमित रूप से नहीं जाती थी। जब कोई बड़े प्रोग्राम होते थे सेन्टरों पर या और कहीं, तब हम बच्चों को सजाकर दादियों का स्वागत करने ले जाते थे। इस तरह बचपन से ही बाबा के घर से मेरा नाता रहा। लौकिक पढ़ाई के साथ-साथ मैं सिलाई, कढ़ाई तथा बर्तन बनाने की कला सीखती रही। हर दो-तीन मास के बाद मैं कुछ न कुछ नया सीखती थी। मैंने तरह-तरह के खाने बनाने सीखे, स्कूटर चलाना सीखा, उसके बाद मोटर साइकिल चलाना सीखा, उसके बाद कोई-न-कोई दूसरी भाषा सीखी। बचपन में जब भी मैं रानी झाँसी को देखती थी तो लगता था कि नारी हो तो ऐसी होनी चाहिए। विद्यार्थी जीवन से मुझे मन में आता था कि देश के लिए कुछ करके दिखाना है। विधि तो पता नहीं थी कि कैसे देश की सेवा करें। ईश्वरीय ज्ञान की पढ़ाई रेग्युलर न होने के कारण यह भी पता नहीं था कि भगवान आकर यह कार्य कर रहा है। 

घर में ब्रह्माकुमारी मिशन का ज्ञान था लेकिन मैं बाहर कोई न कोई समाज सेवी संस्था से जुड़ी रहती थी। मैं राष्ट्रीय स्वयं सेवी संघ की सदस्या थी। उनकी जो महिलाओं की शाखा थी, उसके मैंने तीन कैम्प किये थे। उसमें सुबह-सुबह उठना, नेष्ठा में बैठना, जम्प लगाना, तलवार तथा लाठी चलाना होता था, इन सबको मैं करती थी। उसके बाद जैसे-जैसे पढ़ाई ज़्यादा हो गयी तो मैं पढ़ाई में लग गयी और उसको छोड़ दिया। लौकिक में मैंने प्राणिशास्त्र में बी.एस.सी. की। हर साल घर से माँ-बाप मधुबन जाते थे, उनके साथ मैं भी जाती थी। दो बार बच्चों के प्रोग्राम में भी गयी थी। कॉलेज पूरा होने के बाद एम.एस.सी. के फार्म भरने के लिए महीने-डेढ़ महीने का समय था। सन् 1983 की बात है। उन दिनों दिल्ली से पार्टी मधुबन जा रही थी। उसमें किसी एक का जाना कैन्सल हो गया तो घर में पिताजी ने मेरे से पूछा, तुम माउण्ट आबू जाओगी? मैंने सोचा, अभी कम से कम एक महीना समय है, इन छुट्टियों को क्यों नहीं आबू की पहाड़ियों में बिताऊँ। उस समय मैं 18 साल की थी। मैं पहली बार माता-पिता बगैर, दूसरों के साथ मधुबन आयी। बचपन से ही मैं बाबा-बाबा शब्द सुनती आयी थी। जब मधुबन आयी, बाबा आने वाले थे। सब कहने लगे, भगवान आने वाला है। तब मुझे अनुभव हुआ कि अरे, भगवान आ रहा है! 

जब बाबा आये, सबके साथ मैं भी मुरली सुन रही थी। तब मुझे मन में आने लगा कि भगवान के सामने ऐसे ही हमेशा बैठे रहें। बाबा ओम शान्ति भवन में आये थे। उसका उद्घाटन भी बाबा ने किया था। मैं पहली बार अकेली बापदादा से मिली। उससे पहले परिवार वालों के साथ हिस्ट्री हाल में तथा मेडिटेशन हाल में बाबा से मिली थी। ओम् शान्ति भवन में जब बाबा आये थे उस समय मैं नीचे बाबा के सामने ही बैठी थी। बाबा से उस समय ग्रुप-ग्रुप में मिलते थे। हमारी बारी आयी। हम 6-7 लोग थे। मुझे अहसास हो रहा था कि जब मैं बाबा के सामने जाऊँगी, बाबा मुझे बहुत प्यार करेंगे। लेकिन बाबा ने मेरे से पूछा कि क्या करती हो? मैंने कहा, पढ़ रही हूँ। बाबा ने कहा, डबल पढ़ाई करो। फिर भी मैं बाबा के सामने खड़ी रही। फिर बाबा ने कहा, साथ-साथ सेवा भी करो। फिर मुझे वहाँ से भेजा गया। मेरा दिल भारी हो गया क्योंकि बाबा दूसरों से बहुत प्यार से, मुस्कराते हुए बात कर रहे थे। उनको अच्छे-अच्छे वरदान दे रहे थे। मुझे तो सिर्फ कुछ कहकर भेज दिया। वहाँ से कमरे में जाकर सारी रात रोती रही। इतने सालों से मैंने बाबा को जाना है, सारा परिवार बाबा का है फिर भी मैं बाबा को राज़ी नहीं कर सकी। भगवान का प्यार नहीं मिला तो, इतने साल जीकर मैंने क्या किया? मन को यह बात खा रही थी। मैं अपने को समझती थी कि मैंने कितनी पढ़ाई पढ़ी है! कितनी कलायें सीखी हैं! लोग मेरी कितनी तारीफ़ करते हैं! लेकिन मुझे भगवान से प्यार नहीं मिल सका तो सब व्यर्थ है। 

मैंने दो दिन खाया-पीया नहीं, दिल्ली गयी तो मेरी शक्ल ही बदल गयी थी। चेहरे पर बहुत गंभीरता थी। घर में मेरे से बात करने के लिए सब लोग डरें कि इसको क्या हो गया। मेरे दिल में तो यही था कि मुझे भगवान का दिल जीतना है। घर में, हर घंटे, आधे घंटे के बाद कानों में बाबा के ये शब्द गूंजते थे कि डबल पढ़ाई करो, सेवा करो। मैंने सोचा, पहले डबल पढ़ाई करूँ। हमारे घर के ऊपर, पहली मंज़िल में गीता पाठशाला चलती थी। वहाँ 20-25 लोग आते थे और रजनी बहन की माता जी वहाँ क्लास कराती थीं। राजौरी गार्डन सेन्टर से सुदेश बहन तथा अन्य बहनें भी आया करती थीं। 

फिर मैं ऊपर क्लास हॉल की अलमारी में से सन् 1969 से जो भी मुरलियाँ रखी थीं उन सबको अपने कमरे में ले आयी और दरवाज़ा बन्द करके उन एक-एक को पढ़ने लगी। मैंने लगातार छह महीनों तक अपने कमरे में मुरलियों का अध्ययन किया। रेडियो सुनना, दोस्तों से मिलना सब बन्द कर दिया। एम.एससी. के लिए जो फार्म भरना था, वो भी नहीं भरा। मुरलियों को जैसे-जैसे पढ़ती गयी, वैसे-वैसे बाबा के प्यार का अनुभव होने लगा। बाबा के प्यार में खुशी के आँसू बहने लगे। प्राणीशास्त्र की छात्रा होने के कारण मेरे कमरे में ही प्रयोगशाला थी जिसमें माइक्रोस्कोप, मेंढक काटने के सामान इत्यादि थे। उन सबको कमरे से निकाल दिया। सब किताबों को दिल्ली के चावड़ी बाज़ार में देकर आ गयी चुपके से, घर वालों को बताया नहीं। मुरली पढ़ते-पढ़ते मुझे अन्दर से आवाज़ आ रही थी कि मुझे अब सारे लौकिक सम्बन्ध तथा सम्पर्क को खत्म करना है। 

छह मास तक मुरलियों का अध्ययन करने के बाद मुझे ज्ञान काफी कुछ समझ में आ गया। बाबा की एक बात मैंने पूरी कर दी। दूसरी रह गयी, सेवा। घर में रहकर तो सेवा कर नहीं सकती थी क्योंकि वहाँ कोई जिज्ञासु आता नहीं था। मैंने सोचा, अभी घर में नहीं रहना है। फिर बाबा की सीज़न आ गयी। बाबा से मिलने राजौरी गार्डन के ग्रुप के साथ मधुबन गयी। इस बार भी मैं बाबा के सामने ही बैठी थी नीचे। लेकिन इस बार बाबा ने मुझे इतनी देर तक देखा कि आस-पास वाले आश्चर्य से देखने लगे कि बाबा इसको इतना समय तक क्यों दृष्टि दे रहा है! उस दृष्टि में बाबा ने मुझे खूब प्यार दिया। मन एकदम शान्त हो गया था। मुझे समझ में आ गया था कि भगवान का प्यार पाने के लिए और उसका दिल जीतने के लिए क्या करना है। मुझे यह भी अनुभव हो रहा था कि भगवान मेरा नहीं हो सकता है तो और किसका हो सकता है! बहुत नशा चढ़ गया था।                   

जब बाबा से मिलने ऊपर गयी तो बाबा ने मुस्कराते हुए कहा, बहुत समझदार हो, बाबा का इशारा समझा। गीता पाठशाला अभी छोटी हुई, अभी बेहद की सेवा में आ जाओ। मधुबन जाते समय मैंने बाबा से कहा था कि बाबा, मैं तो आपके पास आ रही हूँ, मुझे वापिस नहीं जाना है। मैं आपको पसन्द हूँ तो अपने पास रखो। मुरली में तो आता है ना, सब ब्राइड (वधू) हैं, भगवान ब्राइडग्रूम (वर) है। भारतीय सम्प्रदाय के अनुसार वधू अपने आप घर छोड़कर वर के साथ नहीं जा सकती है ना! वर ही उसको पिता के घर से साथ में ले जाता है। इसलिए मैंने बाबा से कहा था, आपको मेरी आवश्यकता है तो आप ही मुझे घर से ले जाओ। जब बाबा ने कहा कि बच्ची ने बाप का इशारा समझा, तो ख़ुशी से मेरी आँखों से आँसू निकले कि मेरे मन की बातें बाबा ने भी समझीं और बाबा की बातें मैंने भी समझीं। जब बाबा के सामने खड़ी थी तो मैंने देखा कि बाबा का ज्ञान के सागर तथा प्यार के सागर का रूप था।

अगले दिन मैं रतनमोहिनी दादी के पास गयी और कहा कि दादी मुझे यहीं रहना है, वापिस घर नहीं जाना है। वे मुस्करायी और बहुत मीठी दृष्टि देते हुए कहा कि ठीक है, दिल्ली की निमित्त दादी गुलज़ार जी हैं, तुम उनसे बात करो। जो बहन हमारी पार्टी लेकर आयी थी उससे दादी रतनमोहिनी जी ने कहा कि इसको गुलज़ार दादी से मिला देना। 

दादी गुलज़ार जी तो मुझे अच्छी तरह जानती थीं। दादी गुलज़ार जी ने कहा कि अच्छी बात है, अभी आप राजौरी गार्डन में एक हफ़्ता रहकर देखो। अगर आपको सेन्टर का जीवन अच्छा लगा तो आगे देखेंगे। दादी रुक्मणि जी के साथ मैं मधुबन से दिल्ली गयी। स्टेशन पर लेने के लिए लौकिक पिताजी आये थे। दादी को भी सेन्टर तक छोड़ने के लिए आये। उनका सामान गाड़ी से उतारा पर मेरा नहीं। मैंने कहा कि मेरा सामान भी उतारो। तो पिताजी ने समझा कि एक-दो दिन सेन्टर पर रहना चाहती होगी, अच्छी बात है। जिस दिन से मेरा सामान सेन्टर पर उतरा, उसके बाद वो सामान कभी लौकिक घर गया नहीं। मैं और मेरा सामान सेन्टर पर रह गये। सेन्टर पर रहते मुझे अभी 24 साल हो गये हैं। सन् 1983 दिसम्बर से मैंने सेन्टर पर रहना शुरू किया। उसके बाद घर पर रात को कभी रही नहीं। दिन में जाती थी, माँ-बाप से मिलकर, थोड़ा-बहुत खा-पीकर रात को सेन्टर पर लौटकर आती थी। 

राजौरी गार्डन सेन्टर पर रहते-रहते छह मास बीत गये। उन दिनों दिल्ली में एक बड़ा कार्यक्रम होने वाला था यूथ का, जिसकी ज़िम्मेवारी जगदीश भाई साहब ने ली थी। किसी कार्यवश वे राजौरी गार्डन सेन्टर पर आये हुए थे। उस समय उन्होंने मुझे देखा। उन्होंने दादी रुक्मणि जी से कहा कि दादी, हमें एक इंग्लिश हैण्ड चाहिए, आप इनको कुछ दिनों के लिए हमें दे दो। दादी ने कहा, भले ले जाओ। तब मेरा शक्ति नगर सेन्टर आना हुआ। यह थी सन् 1984 की बात। रूस में सेवा शुरू हुई तो मुझे सन् 1990 में वहाँ भेजा गया। 

प्रश्नः​आपका रशिया कैसे जाना हुआ? 

उत्तरः मुझे सेन्टर पर सफ़ाई करना बहुत अच्छा लगता था इसलिए राजौरी गार्डन में हूँ या शक्ति नगर में, मैं अच्छी तरह सफ़ाई करती थी और सामान को बहुत साफ़-सुथरा रखती थी। कमरों को, सामान को बहुत साफ़-सुथरा रखती थी। कमरों को, सामान को साफ़-सुथरा रखते हुए देख जगदीश भाई बहुत खुश होते थे। एक बार वैसे ही मैं सफ़ाई करके कोई किताब पढ़ रही थी। उस समय जगदीश भाई साहब आये। उस समय मेरे पास एक रशियन भाषा की भी पुस्तक पड़ी थी। भाई साहब ने पूछा, यह क्या है? मैंने कहा, रशियन किताब है। उन्होंने पूछा कि क्या आप रशियन भाषा जानती हो? मैंने कहा, हाँ, मैंने तो रशियन भाषा का डिप्लोमा किया हुआ है। उन्होंने कहा कि आपने मुझे बताया नहीं! मैंने कहा, कभी सोचा ही नहीं कि यहाँ रशियन भाषा की भी ज़रूरत है। वहाँ से जाते-जाते वे मुझे कहकर गये कि रशियन बुक पढ़ती रहो। 

प्रश्नः आपने रशियन भाषा कब तथा कैसे सीखी? 

उत्तरः इसकी कहानी भी बड़ी विचित्र है। जब आठ साल की थी उस समय हमारे घर में ‘सोवियत नारी’ पत्रिका आती थी। उस पत्रिका में एक चैप्टर होता था, ‘आओ हम रूसी सीखें’। उन पन्नों को फाड़कर इकट्ठा करती थी और उन द्वारा अपने आप सीखती थी। उन पन्नों में रशियन्स के चित्र भी होते थे। उनकी शक्ल देखकर मुझे लगता था कि मैं उनको जानती हूँ। उनमें जो डिज़ाइन होती थीं उनको मैं कॉपी करती थी। इस प्रकार, कॉलेज में आने तक मैं रूसी भाषा को बहुत हद तक सीख चुकी थी। घर में भी किसी को मालूम नहीं था। बचपन से ही मैं अपने संसार को अन्दर ही रखती थी, माँ-बाप को भी नहीं बताती थी। 

जब पहले दिन कॉलेज गयी तो नोटिस बोर्ड पर एक छोटा-सा नोटिस लगा हुआ था- “विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए रशियन कल्चर सेन्टर, रशियन भाषा का डिप्लोमा कोर्स शुरू कर रहा है।” वहाँ बहुत नोटिस थे, उनमें से यह एक छोटा-सा था। शायद ही और किसी ने उसको देखा होगा। मेरी नज़र तो सीधी उसी पर गयी थी थी। उसको पढ़ते ही मैं बस पकड़कर रशियन कल्चर सेन्टर पर पहुँच गयी और नाम लिखवाकर आ गयी। 

तीन साल तक मैं घर से सुबह छह बजे निकलती थी, दिन में कॉलेज में पढ़ती थी और शाम को रशियन सीखती थी और रात को घर लौटती थी। इधर बी.एस.सी. पूरी हुई, उधर रशियन भाषा का डिप्लोमा भी पूरा हुआ। दिन में मुझे एक घंटे का समय ख़ाली मिलता था। जब मुझे लगा कि यह एक घंटा व्यर्थ जा रहा है तो उस घंटे मैं दूसरे कॉलेज जाकर कत्थक नृत्य सीखने लगी। शनिवार तथा रविवार समय रहता था तो जहाँ मैं रशियन भाषा सीखती थी वहाँ भारतीय कला केन्द्र था, वहाँ जाकर पॉटरी (मिट्टी के बर्तन बनाने की कला) सीखती थी । 

रशियन भाषा का डिप्लोमा कोर्स पूरा होने के बाद मुझे उनकी तरफ़ से एक लेटर, पोस्ट द्वारा आया था कि आपको हम आठ साल के लिए स्कॉलरशिप देकर पढ़ने के लिए रूस भेजेंगे। यह पत्र गया पिता जी के हाथ में। उसको पढ़कर वे नाराज़ हो गये और उसको फाड़कर फेंक दिया कि तुमको रूस जाने की ज़रूरत नहीं है। तुम उन माँस-मदिरा सेवन करने वाले शूद्रों के पास जाओगी पढ़ने? यह नहीं होगा। इन्हीं दिनों मुझे दादी रुक्मणि जी से मधुबन चलने का आदेश मिला तो उनके साथ मधुबन गयी। 

मधुबन जाने के बाद दूसरी कहानी बन गयी, मेरे जीवन की दिशा ही बदल गयी। मैं ध्यान से अवलोकन करती हूँ तो ऐसा लगता है कि अगर वह पत्र पिताजी के हाथ में नहीं जाता, मेरे हाथ में आता तो शायद मैं आठ साल के लिए रशिया चली जाती और मेरा जीवन ही बदल जाता। बाबा ने यह सारी पृष्ठभूमि अपनी सेवा कराने के लिए तैयार की थी। जब विजय भाई रशिया जा रहे थे, उस समय मैंने उनको आत्मा, परमात्मा, योग तथा अष्ट शक्तियों के लेसन रशियन भाषा में अनुवाद करके दिये थे। प्लेन में जाते समय विजय भाई ने, किसी रशियन व्यक्ति को वे दिखाये। वो व्यक्ति बहुत खुश हुआ। यह बात विजय भाई ने जगदीश भाई साहब को पत्र में लिखी थी। तो भाई साहब ने कहा कि अच्छा, उसको रशियन भाषा इतनी आती है! फिर भाई साहब ने बहुत खुश होकर मेरे से कहा कि समय आने पर हम आप से सेवा लेंगे। 

विजय भाई के रशिया जाने के बाद पहले चक्रधारी दीदी को, उसके बाद सुधा बहन को बुलाया गया। तीसरी बार मैं गयी सन् 1990 मार्च में। जब मैं वहाँ गयी तो विजय भाई बाबा से मिलने के लिए मधुबन आये। मैं अकेली वहाँ रही। उन दिनों मुझे योग में इतना शक्तिशाली अनुभव होता था कि मैं एक आग का गोला हूँ। विश्व के गोले पर बैठकर पूरे रशिया को योगदान देती थी। बाबा ने भी मुझे उतना ही शक्तिशाली अनुभव कराया। योग में मैं यही संकल्प करती थी कि इन आत्माओं का भारत से प्यार जुटाना है, इन आत्माओं को भारत में लाना है, बाबा से मधुर मिलन कराना है। 

जैसे भारत वालों को रशिया से प्यार है, वैसे ही रशिया वालों को भी भारत से बहुत प्यार है। वहाँ की मातायें हम बहनों को तो देवी के रूप में देखती हैं, बहुत मान देती हैं। इससे हमारा मन भी वहाँ लग गया। वे हमारे पास आकर बैठ गये और अपने वायब्रेशन्स से कहते थे कि हम तो आपके पास आये हैं, जो करना है, जैसा करना है, जैसे ले चलना है, ले चलो। मैं तो एक साल के लिए गयी थी लेकिन ऐसी स्थिति में उनको छोड़कर हम आयें कैसे? मुझे भी उनको आधे रास्ते में छोड़कर भारत लौटना ठीक नहीं लगा और मैं भी वहाँ की और वहाँ के भाई-बहनों की बनकर रह गयी। 

पहले मास्को में सेन्टर खुला। उसके छह माह के बाद सेन्ट पीटर्सबर्ग में निमन्त्रण मिला तो मैं वहाँ गयी। वह भी बहुत बड़ा शहर है। वह रूस की पुरानी राजधानी है। रशिया के अन्य स्थानों से भी बहुत निमन्त्रण आये। अभी अधिकारिक तौर पर बत्तीस सेवाकेन्द्र हैं। मास्को तथा सेन्ट पीटर्सबर्ग में दो भारत की बहनें रहती हैं, बाक़ी स्थानों पर वहाँ से ही निकली हुई रशियन बहनें रहती हैं। जहाँ मैं रहती हूँ वहाँ प्रतिदिन सुबह-शाम मिलाकर 300 भाई-बहनें क्लास में आते हैं। सुबह की क्लास में लगभग 200 की सभा होती है।       

प्रश्नः वहाँ के सेवा-अनुभव सुनाइये । 

उत्तरः उनकी ज्ञान की तृष्णा बहुत गज़ब की थी। आत्मा का ज्ञान वे आँख बिना झपके सुनते थे। दो-दो घंटे चुपचाप बैठे रहते थे। मुँह से एक शब्द भी नहीं बोलते थे लेकिन दिल से, आध्यात्मिकता की भूख से सुनते थे। छह सौ-आठ सौ की सभा होती थी, एक भी हिलता नहीं था। इतने ध्यान से, लगन से सुनते थे कि वो दृश्य आज भी हमें नहीं भूलता। 

फिर हमने उनके हिसाब से ज्ञान के 90 चित्र बनाये। वे अपने आप क्लासेस की रिकार्डिंग करने लगे। रिकार्डेड कैसेट सुनकर मुरली का अध्ययन करने लगे। एक मास में कोर्स पूरा हो गया और उसी एक मास में उनमें से 25 सेवाधारी भाई-बहनें तैयार हो गये। उस समय हमें भी लग रहा था कि बाबा ने वहाँ पहले से धरनी तैयार करके हमें बुलाया है। हम यह भी अनुभव करते थे कि बाबा वहाँ की तड़पती हुई आत्माओं की आशा पूर्ण करने, वहाँ बैठा हुआ है। शुरू के जो पाँच साल थे, उनको न हम भूल सकते और न वे भूल सकते क्योंकि वे लोग दिन-रात बैठकर ज्ञान सुनते थे। न खाने का संकल्प, न पीने का संकल्प होता था। ज्ञान के बारे में और-और प्रश्न पूछकर अपनी ज्ञान-पिपासा बना लेते थे।     

वहाँ की आत्माओं को भगवान के प्रति बहुत प्यार है। भगवान को पाने की प्यास उनमें बहुत है। बाबा का परिचय पाकर वे लोग खुशी में नाचते रहते हैं। सत्तर सालों तक साम्यवादी (कम्युनिस्ट) शासन होने के कारण वहाँ की प्रजा परमात्मा से दूर रही, परमात्मा के परिचय के बिना उनका जीवन सूखा-सूखा रहा। जैसे सूखी धरनी पर बहुत सालों के बाद वर्षा पड़ती है तो सारे पानी को वह धरनी अपने में समा लेती है, वैसे वे लोग ज्ञान के जल को अपने में समा रहे थे। आठ सौ की सभा में ज्ञान सुनकर, लास्ट में बैठा हुआ व्यक्ति भी आकर कहता कि मुझे यह-यह अनुभव हुआ। यह कैसे हो सकता है? बाबा ही यह सब करा रहा था ना! उन दिनों में तो यह सब देख-देख कर बाबा के प्रति हम भी भावुक हो उठते थे कि बाबा, आप कोने-कोने में रहे हुए अपने बच्चों को कैसे ढूँढ़ते हो, उनकी आश कैसे पूर्ण करते हो!     

बाबा की मुरली से तो उनका इतना प्यार है, बात मत पूछिये। हिन्दी से भी उनका उतना ही प्यार है। हर बात में वे लोग हमें फॉलो करने की कोशिश करते हैं। हम जैसे बाल बनाते हैं वैसे बनाना शुरू किया। हम जैसे सफ़ेद साड़ी पहनतीं हैं, वैसे वे भी सफ़ेद साड़ी पहनकर आने लगे। इससे वहाँ थोड़ा शोर मच गया। क्रिश्चियन मिशनरी वालों ने हंगामा मचाना शुरू किया। एक बार तो जिसने हमें हॉल दिया था प्रवचन के लिए, उससे कह दिया कि इनको हॉल मत दो। हम वहाँ गये तो मैनेजर ने दरवाज़ा बन्द कर दिया और कहा कि हम आपको हॉल नहीं देंगे। छह सौ लोग आकर खड़े हुए थे, क्या करें? 

मैं बाबा को याद करते, धीरे-धीरे रोड पर चलती रही। थोड़ी दूर जाकर पीछे मुड़कर देखा तो सारे छह सौ लोग मेरे पीछे-पीछे शान्ति में आ रहे थे। यह भी दृश्य देखने लायक था। वहाँ पहली बार, पुलिस के बन्दोबस्त बगैर इतने लोग शान्ति यात्रा पर निकले थे। फिर मैं जाकर एक पार्क में बैठी। वे भी वहाँ आकर बैठ गये। मैंने वहीं उनको क्लास कराया। आये हुए लोगों को कारण का पता पड़ा तो उनमें से एक-दो ने कहा कि हमारे पास जगह है, कल सब वहाँ आइये, हम वहीं मिलेंगे। फिर क्लास वहाँ शुरू हो गयी। इस प्रकार, बाबा का कार्य वहाँ बहुत अच्छी तरह से चलता रहा। एक-एक मास में सात-सात स्थानों को भी हमें बदलना पड़ा लेकिन न बाबा की सेवा रुकी और न बाबा के बच्चे रुके, आते गये, चलते गये और बढ़ते गये। 

इसके बाद हमने संस्था को आफिशियली रजिस्टर्ड करवाया। वहाँ के बाबा के बच्चों में समर्पित भाव भी बहुत है। यज्ञ के प्रति, बाबा के प्रति बहुत प्यार है। उन्होंने अपने-अपने स्थानों पर बाबा के दो बड़े-बड़े घर बनाये। हमने वहाँ उनको कभी हद की दृष्टि में आने नहीं दिया। न हमने उनको रशियन के रूप में देखा और न ही हम उनको भारतीय दिखायी दिये। आत्मिक दृष्टि, आत्मिक रूप और आत्मिक देश की ही भावना भरी। उन्होंने भी कभी हमें पराया नहीं समझा और हम ने भी उनको पराया नहीं समझा। 

प्रश्नः सरकार की तरफ़ से वहाँ कोई विघ्न आता है?

उत्तरः हम सरकार के नियमों के खिलाफ़ जाते हैं तो विघ्न आयेंगे ही! पर हम तो उनके नियमों के अन्दर ही चलते हैं। साल में 3-4 कार्यक्रम होते हैं जिनमें वहाँ के पर्व, संस्कृति आदि की बातें रहती हैं। वहाँ के राष्ट्रीय पर्वों को भी हम मनाते हैं। उनमें आये हुए सबको हम बाबा का प्रसाद बाँटते हैं। हम सामाजिक सेवा भी करते हैं। हम ब्रह्माकुमारियाँ तो यूनिवर्सल हैं। सारा विश्व हमारा है और हम सारे विश्व के हैं। जहाँ भी रहती हैं, वहीं रूहानी सेवा कर उस स्थान को सुखी तथा शान्तिमय बनाते हैं। हम तो किसी को न हिन्दू बनाते हैं और न ही उनको उनके धर्म तथा संस्कृति से छुड़ाते हैं। हम तो लोगों को मूल्य, चरित्र तथा आध्यात्मिक जीवन-पद्धति सिखाते हैं। उनके ही समाज, उनके ही लोग राजयोग सीखकर सुधर रहे हैं, शान्ति तथा सुख से जी रहे हैं तो वे कैसे हमारा विरोध करेंगे! 

वे प्रत्यक्ष देखते हैं, हमारे पास आने वालों का जीवन! लौकिक युवा नशीली चीजें खाकर जहाँ-तहाँ पड़े रहते हैं। यहाँ देखो, युवा, फ़रिश्ते जैसे दिखायी पड़ते हैं। सरकार के लोग भी कभी-कभी हमारे पास आते हैं तो हमें कहते हैं, आपके ये यूथ, एंजिल्स जैसे हैं। कई बार उन लोगों के मुँह से ही निकला है कि आपकी इन दीवारों के अन्दर बिल्कुल दूसरी ही दुनिया है। यहाँ आकर हमारे मन को सुख-चैन मिलता है।

अभी वे लोग समझते हैं कि हमें इन लोगों का सहयोग लेना चाहिए क्योंकि उनके जो कार्यक्रम होते हैं उनमें उतनी सफलता नहीं मिलती। हम जो कार्यक्रम करते हैं उनमें सफलता ही सफलता नज़र आती है। उनके पास कभी धन होता है तो जन नहीं होते। कभी जन होते हैं तो धन नहीं होता, फिर काम रुक जाता है। लेकिन यहाँ एक-एक बहन है, फिर भी इनका काम कभी रुकता नहीं है। कई अधिकारी तो आकर मेरे से पूछते हैं कि आप कैसे ये सब कार्यक्रम करते हैं! कई बार तो हमारे से सीखने आते हैं। हाँ, वे मुक्त रूप में हमें सहयोग नहीं देते या हमें नहीं मानते क्योंकि वहाँ के चर्च वाले बहुत प्रभावशाली हैं इसलिए अधिकारी लोग उनसे डरते हैं। लेकिन अन्दर से सरकारी अधिकारीगण हमसे बहुत प्रभावित हैं और सहयोगी हैं। 

उनके पास हमारा रिकार्ड भी है कि ये लोग अच्छा कार्य कर रहे हैं, वहाँ की जनता की सेवा कर रहे हैं। हम जो भी सार्वजनिक सेवा करते हैं उसकी रिपोर्ट, वहाँ के हमारे भाई लोग फौरन उनके पास भेज देते हैं। 

प्रश्नः वहाँ का मौसम कैसा रहता है? 

उत्तरः जहाँ मैं रहती हूँ वह स्थान उत्तरी ध्रुव (नॉर्थ पोल) से डेढ़ घंटे की दूरी पर है। साल में आठ मास तो बर्फ होती है। तीन मास गरमी के दिन होते हैं। वहाँ की गरमी माना मधुबन का जनवरी महीना। 

प्रश्नः आप वहाँ सेवा कैसे करती हैं? 

उत्तरः वहाँ क्रिश्चियन धर्म का, उसमें भी ऑर्थोडॉक्स वालों का बहुत प्रभाव है। वे क्राइस्ट को ही गॉड मानते हैं। वे ही हमारा थोड़ा विरोध करते हैं। उसका कारण भी है। शुरू-शुरू में हमारे पास आने वाले कुछ लोगों ने जाकर उनसे कहा कि उन ब्रह्माकुमारियों को देखो, कितना अच्छा ज्ञान देते हैं, कितना प्यार देते हैं! आप लोग तो किसी को देखते भी नहीं, आपके चर्च खाली पड़े हैं। यह बात सुनकर उनको बुरा लगा और उन्होंने समझा कि ये लोग हमारे लोगों को कनवर्ट कर रहे हैं। तब से वे अड़चन डालने की कोशिश करते हैं परन्तु यह तो बाबा की सेवा है, लोग भी समझते हैं कि ये नेक काम करते हैं, सरकार भी समझती है कि ये अच्छे काम करते हैं इसलिए हमारे सब कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न हो ही जाते हैं। 

हमारी कोशिश यह भी रहती है कि उन लोगों को भी खुश करें, साथ लेकर चलें लेकिन वे खुद चाहते नहीं हैं तो हम क्या करें! उनमें से एक प्रीस्ट हमारे पास आया था हमारा सेन्टर देखने के लिए। हमने उनका बहुत प्यार से स्वागत किया। उनको अपना सारा सेन्टर दिखाया। हम कैसे भोजन बनाते हैं, क्या खाते हैं और हमारे नियम क्या हैं ये सब बताया। हमने बताया कि हमारा प्रथम नियम तथा फाउण्डेशन ही है ब्रह्मचर्य। हम खुद ब्रह्मचर्य में रहते हैं और आने वाले विद्यार्थी भी ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। यह बात सुनकर वह हैरान रह गया और उसने पूछा कि क्या स्टूडेण्ट्स भी पवित्र रहते हैं! वे भी शाकाहार स्वीकार करते हैं! उसको बहुत खुशी हुई। 

वह आधे घंटे के लिए आया था परन्तु तीन घंटों तक हमारे पास रहा, हमारे साथ ही भोजन किया। उसको यह निश्चय हुआ कि ये लोग अच्छे काम करते हैं, इनका कोई धर्म परिवर्तन का कार्य नहीं है। इनकी तो मानव-सेवा है। वह एक व्यक्ति हमारे प्रति आदर भाव रखता है। है वह भी आर्थोडॉक्स परन्तु सहयोगी है। 

हमने एक गार्डन बनाया है वहाँ। अस्सी के लगभग हमारे यहाँ वानप्रस्थ मातायें हैं, वे उसकी देखभाल करती हैं। गरमी के जो तीन मास होते हैं, उन्हीं दिनों में वे गार्डन तैयार करते हैं। लोग उसको देख-देखकर बहुत खुश होते हैं। उस गार्डन की विशेषता यह है कि सर्दी आने के बाद भी दो मास तक वह ख़राब नहीं होता, फूल ख़राब नहीं होते। लोगों को यह भी लगता है कि यह तो जादू है। लोग उन फूलों को देखने आते हैं। देखकर आश्चर्य खाते हैं कि इतनी सर्दी में भी यहाँ फूल उगते हैं! वो समझते हैं, इन लोगों की पॉजिटिव थिंकिंग काम करती है।

इसके अलावा हम बच्चों के लिए उत्सव मनाते हैं, खेल-पाल रखते हैं। भारत में जैसे देवियों की झाँकियाँ निकलती हैं, वहाँ एंजिल्स की झाँकियाँ निकलती हैं। हम उनका भी आयोजन करते हैं। हम ईश्वरीय ज्ञान को वहाँ के लोकगीत तथा लोककथा के आधार से समझाते हैं। इससे उनको समझने में सहज भी होता है और अपना भी लगता है। 

हम वहाँ वैज्ञानिकों की सेवा पर भी ध्यान देते हैं क्योंकि रशिया में वैज्ञानिक मनोभावना वाले बहुत हैं। उनमें एकाग्रता की शक्ति, साहित्य तथा विज्ञान में रुचि बहुत है परन्तु उनके पास पैसे नहीं हैं। एक वैज्ञानिक कोर्स करने आया था। आत्मा का पाठ सुनकर वह इतना खुश हो गया कि उसने कहा कि आत्मा भृकुटि में ही है इसको मैं वैज्ञानिक रूप से सहज रीति सिद्ध कर सकता हूँ।

रशिया के वैज्ञानिक मानते हैं कि पाँच तत्त्वों के अलावा एक छठा तत्त्व है, वह आत्मा है। वे यह भी कहते हैं कि विज्ञान के आधार से उस छठे तत्त्व को हम सिद्ध कर सकते हैं। हमारे कार्यक्रम में वे आते हैं, बाबा के ज्ञान को मानते हैं। बाबा से, संस्था से बहुत स्नेही हैं, अपने-अपने स्थानों में मेडिटेशन करते हैं। लेकिन वे रेग्युलर नहीं आ सकते क्योंकि उनकी अपनी पाबन्दियाँ हैं। जहाँ रहते हैं वहीं मेडिटेशन का अभ्यास करते हैं। जब दादियाँ या कोई हमारे वरिष्ठ यहाँ आते हैं तो ये वैज्ञानिक लोग ऐसे आकर सेन्टर पर बैठते हैं जैसे रेग्युलर स्टूडेण्ट बैठते हैं। चातक बन उनकी बातें सुनते रहते हैं। उनको मधुबन तक नहीं ले आ पा रहे हैं क्योंकि उनकी आर्थिक परिस्थिति अच्छी नहीं है। जितना अमेरिका तथा भारत में वैज्ञानिकों की वैल्यू है, उतनी वैल्यू रशिया में नहीं है। 

वहाँ जो अन्य संस्थायें हैं उनके साथ मिलकर हम काम करते हैं। अपने कार्यक्रमों में उनको बुलाते हैं और वे अपने कार्यक्रमों में हमें बुलाते हैं जैसे कि वहाँ के महिला संगठन हैं। वहाँ जितने भी महिला संगठन हैं, सरकारी हों या गैर सरकारी उन सबको हम आफिशियली बुलाते हैं और अपने कार्यक्रमों वे में हमें बुलाते हैं, मिलकर वर्कशॉप आदि करते हैं। वहाँ के लोगों के लिए हम भारतीय खाना बनाने का कोर्स देते हैं। उसमें बहुत पब्लिक भाग लेती है। 

प्रश्नः वहाँ के मंत्री या सरकारी अधिकारी की सेवा आपने की है?  

उत्तरः वहाँ सरकारी काम करने वाले हर व्यक्ति को सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्ध रखना, उनके कार्यक्रमों में भाग लेना सख्त मना है। इसलिए उनको हम सेन्टर पर बुला नहीं सकते और उनको ज्ञान सुना नहीं सकते। हाँ, कुछ लोग हैं, गुप्त रूप में आते हैं, ज्ञान सुनते हैं। सेन्टर पर आते-जाते रहते हैं लेकिन मुक्त रूप से नहीं। वे जानते हैं, प्रत्यक्ष में देख रहे हैं, मानते हैं लेकिन आफिशियली नहीं, अन्दर से। 

प्रश्नः अभी आप अपने बारे में बताइये, हमारे चार विषय हैं, उनमें आपका अति प्रिय विषय कौन-सा है? 

उत्तरः ऐसे कैसे बताऊँ! ईश्वरीय जीवन माना चारों विषयों की समरसता। इस शरीर का कौन-सा अंग मुझे नापसन्द होगा, कौन-सा एक ही अंग पसन्द होगा? ऐसा नहीं हो सकता है ना, सारे अंगों से ही शरीर चलता है। इसलिए मुझे तो चारों विषय अति प्रिय हैं। ज्ञान के बिना योग नहीं, योग के बिना धारणा नहीं, धारणा के बिना सेवा नहीं।

प्रश्न: बाबा के साथ आपको कौन-सा सम्बन्ध निभाने में बहुत खुशी होती है?

उत्तरः मैंने अपने व्यक्तिगत पुरुषार्थ में बाबा के साथ एक-एक सम्बन्ध को एक-एक साल तक अनुभव करने का अभ्यास किया है। जैसे कि शुरू-शुरू में जब मैंने मुरली का अध्ययन करना आरम्भ किया था, बाबा को टीचर के रूप में पूरे एक साल तक अनुभव अनुभव किया। इस अवधि में सब प्रश्नों के उत्तर बाबा से ही पाये। विचार सागर मंथन करने की विधि अच्छी तरह मेरे में विकसित हुई। 

रशिया में मैंने एक बार बाबा को गुरु के रूप में अनुभव किया। गुरु के रूप में बाबा से कई वरदान पाये तथा विघ्नों को पार करने की शक्ति पायी। जब मैं बाबा को पिता के सम्बन्ध से याद करती थी तब बाबा ने बच्ची की हर आशा पूर्ण की। उदाहरण के रूप में रशिया में 70 साल के इतिहास में कभी बाज़ार में केला नहीं आया था। मेरे वहाँ जाने के बाद केले, सेब, सब्जियाँ मार्केट में आने लगे। यह क्या है? बच्चों के प्रति बाबा की पालना ही है ना! उसके बच्चे जहां भी हैं, उनको खिलाना, पिलाना, पालना उसका ही कर्त्तव्य है ना! ये सब मैंने अनुभव किया है। इसलिए मुझे बाबा के साथ सारे सम्बन्ध अति प्रिय हैं। 

प्रश्न: फिर भी कोई एक सम्बन्ध तो अति प्रिय होगा? वह कौन-सा है?

उत्तरः साथी, साजन। क्योंकि मैं उस उम्र में ज्ञान में आ गयी जब व्यक्ति को साथी की ज़रूरत होती है। इसलिए परमात्मा को अपने साथी या साजन के रूप में याद करने में मुझे अच्छा लगता है और खुशी होती है। उसके बाद है टीचर तथा पिता का।

Bk sudhesh didi germany anubhavgatha

जर्मनी की ब्रह्माकुमारी सुदेश बहन जी ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि 1957 में दिल्ली के राजौरी गार्डन सेंटर से ज्ञान प्राप्त किया। उन्हें समाज सेवा का शौक था। एक दिन उनकी मौसी ने उन्हें ब्रह्माकुमारी आश्रम जाने

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Dada anandkishore ji

दादा आनन्द किशोर, यज्ञ के आदि रत्नों में से एक, ने अपने अलौकिक जीवन में बाबा के निर्देशन में तपस्या और सेवा की। कोलकाता में हीरे-जवाहरात का व्यापार करने वाले दादा लक्ष्मण ने अपने परिवार सहित यज्ञ में समर्पण किया।

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Bk suresh pal bhai shimla anubhavgatha

ब्रह्माकुमार सुरेश पाल भाई जी, शिमला से, 1963 में पहली बार दिल्ली के विजय नगर सेवाकेन्द्र पर पहुंचे और बाबा के चित्र के दर्शन से उनके जीवन की तलाश पूर्ण हुई। 1965 में जब वे पहली बार मधुबन गए, तो

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Bk mahesh bhai pandav bhavan anubhav gatha

ब्रह्माकुमार महेश भाईजी, पाण्डव भवन, आबू से, अपने अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि कैसे बचपन से ही आत्म-कल्याण की तीव्र इच्छा उन्हें साकार बाबा की ओर खींच लाई। सन् 1962 में ब्रह्माकुमारी संस्था से जुड़े और 1965 में

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Bk jayanti didi anubhavgatha

लन्दन से ब्रह्माकुमारी ‘जयन्ती बहन जी’ बताती हैं कि सन् 1957 में पहली बार बाबा से मिलीं, तब उनकी आयु 8 वर्ष थी। बाबा ने मीठी दृष्टि से देखा। 1966 में दादी जानकी के साथ मधुबन आयीं, बाबा ने कहा,

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Dada chandrahas ji

चन्द्रहास, जिन्हें माधौ के नाम से भी जाना जाता था, का नाम प्यारे बाबा ने रखा। साकार मुरलियों में उनकी आवाज़ बापदादा से पहले सुनाई देती थी। ज्ञान-रत्नों को जमा करने का उन्हें विशेष शौक था। बचपन में कई कठिनाइयों

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Bk sutish didi gaziabad - anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी सुतीश बहन जी, गाजियाबाद से, अपने आध्यात्मिक अनुभव साझा करती हैं। उनका जन्म 1936 में पाकिस्तान के लायलपुर में हुआ था और वे बचपन से ही भगवान की प्राप्ति की तड़प रखती थीं। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद, उनका परिवार

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Dadi gange ji

आपका अलौकिक नाम आत्मइन्द्रा दादी था। यज्ञ स्थापना के समय जब आप ज्ञान में आई तो बहुत कड़े बंधनों का सामना किया। लौकिक वालों ने आपको तालों में बंद रखा लेकिन एक प्रभु प्रीत में सब बंधनों को काटकर आप

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Bk pushpal didi

भारत विभाजन के बाद ब्रह्माकुमारी ‘पुष्पाल बहनजी’ दिल्ली आ गईं। उन्होंने बताया कि हर दीपावली को बीमार हो जाती थीं। एक दिन उन्होंने भगवान को पत्र लिखा और इसके बाद आश्रम जाकर बाबा के दिव्य ज्ञान से प्रभावित हुईं। बाबा

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Dadi ratanmohini bhagyavidhata

ब्रह्माकुमारी दादी रतनमोहिनी जी कहती हैं कि हम बहनें बाबा के साथ छोटे बच्चों की तरह बैठते थे। बाबा के साथ चिटचैट करते, हाथ में हाथ देकर चलते और बोलते थे। बाबा के लिए हमारी सदा ऊँची भावनायें थीं और

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ब्रह्माकुमारी गीता बहन का बाबा के साथ संबंध अद्वितीय था। बाबा के पत्रों ने उनके जीवन को आंतरिक रूप से बदल दिया। मधुबन में बाबा के संग बिताए पल गहरी आध्यात्मिकता से भरे थे। बाबा की दृष्टि और मुरली सुनते

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Bk kamla didi patiala anubhav gatha

ब्रह्माकुमारी कमला बहन जी, पटियाला से, अपने आध्यात्मिक अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि 1958 में करनाल सेवाकेन्द्र पर पहली बार बाबा से मिलने के बाद, उनके जीवन में एक अद्भुत परिवर्तन आया। बाबा की पहली झलक ने उनके

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नैरोबी, अफ्रीका से ब्रह्माकुमारी ‘वेदान्ती बहन जी’ लिखती हैं कि 1965 में पहली बार मधुबन आयीं और बाबा से मिलीं। बाबा ने उन्हें पावन बनकर विश्व की सेवा करने का वरदान दिया। बाबा ने वेदान्ती बहन को सफेद पोशाक पहनने

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पुरी भाई, बेंगलूरु से, 1958 में पहली बार ब्रह्माकुमारी ज्ञान में आए। उन्हें शिव बाबा के दिव्य अनुभव का साक्षात्कार हुआ, जिसने उनकी जीवनशैली बदल दी। शुरुआत में परिवार के विरोध के बावजूद, उनकी पत्नी भी इस ज्ञान में आई।

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Bhau vishwakishore ji

बाबा के पक्के वारिस, सदा हाँ जी का पाठ पढ़ने वाले, आज्ञाकारी, वफादार, ईमानदार, बाबा के राइट हैण्ड तथा त्याग, तपस्या की प्रैक्टिकल मूरत थे। आप लौकिक में ब्रह्मा बाबा के लौकिक बड़े भाई के सुपुत्र थे लेकिन बाबा ने

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Bk ramesh bhai ji anubhavgatha

हमने पिताश्री जी के जीवन में आलस्य या अन्य कोई भी विकार कभी नहीं देखे। उम्र में छोटा हो या बड़ा, सबके साथ वे ईश्वरीय प्रेम के आधार पर व्यवहार करते थे।इस विश्व विद्यालय के संचालन की बहुत भारी ज़िम्मेवारी

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Bk trupta didi firozpur - anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी तृप्ता बहन जी, फिरोजपुर सिटी, पंजाब से, अपने साकार बाबा के साथ अनुभव साझा करती हैं। बचपन से श्रीकृष्ण की भक्ति करने वाली तृप्ता बहन को सफ़ेद पोशधारी बाबा ने ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ का संदेश दिया। साक्षात्कार में बाबा ने

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