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Dadi manohar indra ji

दादी मनोहरइंद्रा जी – अनुभवगाथा

आपका लौकिक नाम हरि था, आप गंगे दादी की पक्की सखी थी, इसलिए बाबा दोनों को जब याद करते तो कहते ‘हरगंगे’। आप त्याग- तपस्या की मूर्ति थी। सदा एक बाबा, दूसरा न कोई, इसी महामंत्र से सेवा के हर कार्य में हाँ जी करते आगे बढ़ी। पहले दिल्ली फिर पंजाब में अपनी सेवायें दी, करनाल में रहकर अनेक विघ्नों को पार करते हुए एक बल एक भरोसे के आधार पर आपने अनेक सेवाकेन्द्रों की स्थापना की। अनेक कन्यायें आपकी पालना से आज कई सेवाकेन्द्र संभाल रही हैं। आपकी रूहानियत, हर एक को दिव्यता का पाठ पढ़ा देती। आपने देश-विदेश में अपनी खूब सेवायें दी। दादी चंद्रमणि के बाद आप ज्ञान-सरोवर परिसर की डायरेक्टर बनी। आप महिला प्रभाग की अध्यक्षा थी। आप यज्ञ का इतिहास इतना स्पष्ट शब्दों में सुनाती थी जो बाबा के हर चरित्र को साकार कर देती थी। आपने आज्ञाकारी बन हाँ जी, हाँ जी करके सबकी दिल को जीत लिया। आप देश-विदेश के भाई-बहनों की बहुत अच्छी पालना करते हुए 17 नवंबर, 2008 को अव्यक्त वतनवासी बन गई।

दादी मनोहर इन्द्रा जी अपने लौकिक, अलौकिक जीवन के बारे में इस प्रकार सुनाती थी –

मेरा जन्म सन् 1924 में हैदराबाद-सिन्ध में एक संपन्न परिवार में हुआ था। लौकिक नाम ‘हरि’ था। ‘मनोहर इन्द्रा’ बाबा द्वारा दिया हुआ अव्यक्त नाम है। मेरे ज्ञान में आने के 25 वर्षों तक हमारे परिवार में कोई ज्ञान में नहीं चला पर अभी बहुत सारे मित्र-संबंधी स्नेही-सहयोगी हैं। लौकिक बड़ी बहन तथा उनका पति भी ज्ञान में चले, बड़ी बहन ने अब शरीर छोड़ दिया है। मेरा घर दादा लेखराज (प्रजापिता ब्रह्मा) के घर के पास ही था। उस बाल्यावस्था में मेरा दादा के घर आना-जाना, पारिवारिक समारोहों में शामिल होना चलता रहता था। बाल्यकाल से ही मैं प्रभु प्राप्ति की – इच्छुक और बहुत ही सात्विक विचारों की थीं। इसी कारण मुझे दादा के घर का आश्रम जैसा सात्विक वातावरण बहुत ही आकर्षित करता था। जब दादा को दिव्य साक्षात्कार हुए और वे ईश्वरीय कर्त्तव्य के निमित्त बने तब हमको भी ओम मण्डली के बारे में जानकारी मिली। गली से गुजरते हुए एक दिन मुझे बाबा के मकान के अंदर से मन को मोहने वाली ओम की ध्वनि सुनाई दी। मैंने वहाँ प्रवेश किया तो मन भाव-विभोर हो उठा। मैंने देखा, अनेक स्त्री-पुरुष ओम की ध्वनि सुनकर प्रभु-प्रेम में मग्न हैं। बस यही दृश्य मेरे मन को इतना भाया कि मैं भी प्रभु-प्रेम में लीन हो गई।

आशाओं के दीप जगे

तब मेरी आयु 12 वर्ष की थी। मुझे सांसारिक जीवन से वैराग्य था। मैं प्रभु की होना चाहती थी। जन-सेवा करने की भावना मेरे मन में बैठी हुई थी परंतु ऐसा प्रेम कहीं से भी न मिलने के कारण मन बहुत ही निराश रहता था। ओम मण्डली से संपर्क होते ही मेरे जीवन में आशाओं के दीप जले। मुझे कोर्स कराया गया। मैं शांत समाधि में घंटों बैठी रहती थी। मुझे यह बात बहुत अच्छी लगती थी कि मैं आत्मा हूँ और शान्त स्वरूप हूँ। इस स्थिति का मैंने खूब अभ्यास किया। मेरी लगन निशदिन बढ़ती गई। कुछ ही समय बाद मेरे लौकिक पिता का देहांत हो गया। चारों ओर हाहाकार मचा परंतु मेरा चित्त शान्त था। मैं सभी को सांत्वना देती थी कि देह विनाशी है, अविनाशी आत्मा तो शान्त है। शान्ति के इस अनुभव ने मुझे भी पूर्ण शान्त रखा और सभी को भी शान्ति दी। तब मेरी इस स्थिति का सभी पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा।

सत्संग में जाने पर रोक

छह मास तक तो उन्होंने मुझे ज्ञान में जाने से मना नहीं किया क्योंकि मेरे जीवन में बहुत परिवर्तन आया। मेरी लौकिक माता को मेरा यह परिवर्तन अच्छा लगा परन्तु जैसे-जैसे हम बड़े होते गए, लौकिक संबंधियों ने माँ को भड़काना प्रारंभ कर दिया कि यदि इसी प्रकार यह ओम मण्डली के नियमों का पालन करती रहेगी तो संसार में कैसे चल सकेगी, धीरे-धीरे यह संन्यास कर लेगी। तब मुझ पर बंधन पड़ने लगे। उन्होंने मुझे सत्संग में जाने से रोका, तालों में बंद किया और कई बार मारा भी। उनको भ्रान्ति थी कि वहाँ हिप्नोटिज्म सिखाते हैं। माता जी भी भ्रांतिवश विघ्न डालती थी। आखिर एक दिन ऐसा आया जब हमारी माता ने पूछा, आपके जीवन का क्या लक्ष्य है? आपको समाज में रहना है तो शादी भी करनी पड़ेगी। शादी के लिए आप चाहो कि हमारे को ऐसा लड़का मिले, वो भी नहीं होगा इसलिए आप सत्संग में जाना बंद कर दो। हमने कहा, हमने तो भगवान से शादी कर ली है, अब हम किसी विकारी पुरुष से शादी नहीं करेंगी। आज के युग में अधिकतर खाने-पीने वाले लोग ही होते हैं इसलिए हमने भगवान को ही पति रूप में स्वीकार कर लिया है।

बाबा सितारों के बीच चन्द्रमा थे

यह सुन माताजी को थोड़ा महसूस हुआ और मुझे चारों ओर से बन्धन डाला कि अब हम आपको बिल्कुल जाने नहीं देंगी। परन्तु, जितना वो बंधन डालती थी, हमारी लगन उतनी ही बढ़ती जाती थी। इसी लगन की बदौलत हमें घर बैठे अनेक दिव्य अनुभव होते रहे। शरीर भले बंधन में था परन्तु आत्मा को अंदर से रूहानी खुराक मिलती रहती थी। कभी मौका मिलता था तो सत्संग में चले भी जाते थे। जहाँ सत्यता का अनुभव हो जाता है वहाँ विघ्न, विघ्न नहीं लगते। हमने भी अपनी माता, बहनों, भाई को शान्ति और प्रेम के बल से समझाकर, सब विघ्नों को पार कर लिया। उन्होंने फिर खुशी-खुशी स्वीकृति पत्र लिखकर मुझे इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय में दाखिल कर दिया। मैं 1936 में आई, सन् 1937 में ओम मण्डली में समर्पित हो गई।

इसके बाद हमने बाबा को प्रैक्टिकल में देखा। पहले तो सत्संगी बहनों को ही देखा था, उन्का सच्चा गीता-ज्ञान सुना, उसके कारण मुझे जीवन को महान बनाने की प्रेरणा आ गई। जब मैंने बाबा को देखा तो मुझे उनसे अपनापन महसूस हुआ। बाबा के मस्तक का तेज मुझे बहुत आकर्षित करता था और सभी के बीच खड़ा हुआ बाबा मुझे ऐसा लगता था मानो सितारों के बीच पूर्ण चंद्रमा चमक रहा हो।

सत्य को ढकने वाली भ्रान्तियाँ

निर्मलशान्ता बहन का ससुर एन्टी ओम मण्डली का लीडर था। बाबा ने दो सुन्दर रिकार्ड बनवाये थे। एक गीत था – ‘इस पाप की दुनिया से दूर कहीं ले चल’ और दूसरा था – ‘यह धन-माल छोड़कर कहाँ जा रही हो।’ ये दोनों गीत जैसे हमारे दिल की आवाज़ थे। बाबा ने कहा था, इन गीतों का सेट बनाकर अपने पेरेन्टस को सौगात दो। निर्मलशान्ता बहन ने यह गिफ्ट अपने ससुर के पास भेजा। उस घर में उस समय एक जादूगर बैठा था। रिकार्ड को लाल रिबन बंधा था। उसे देख जादूगर बोला, खबरदार, इसको हाथ ना लगाओ, इसमें जरूर कुछ जादू है। उसने खुद अपनी जादूगरी दिखाई। एक तलवार उस रिकार्ड के सुराख के अंदर डाली और वहाँ से आग निकली। फिर बोला, देखा, तुम्हारे घर को जलाने के लिए, तुम्हारे परिवार को खत्म करने के लिए यह जादू वाली चीज़ भेजी गई है। वो डर गये परन्तु कुछ समय बाद जब सामने मुलाकात हुई और हम लोगों ने उन्हें समझाया तो वे मान गये। कहने लगे, वो जादूगर की चालाकी थी, हम भी नहीं समझते थे कि आप हमारे साथ ऐसा कर सकते हैं पर समाज में फैली भ्रान्तियों के कारण हम डर गए। 

छोटे बच्चों की सहनशक्ति 

एक दिन हम अपनी ही बस में बाबा की मुरली सुनने जा रहे थे। दादी बृजेन्द्रा जी बस चला रही थीं तो अचानक बस गड्ढे में जा गिरी। बड़ी भारी दुर्घटना हुई। परंतु दर्दनाक सीन में भी हम वत्सों के मन शान्त थे और चेहरों पर वही मुस्कराहट थी। देखने वाले हैरान थे, डॉक्टर सोचते कि इनके पास क्या शक्ति है। उन बेचारों को क्या पता कि स्वयं सर्वशक्तिवान इनके साथ है। वे पूछते थे तो उत्तर मिलता था, मैं तो ठीक हूँ, यह दुख तो इस देह को है। छोटे-छोटे बच्चों की यह महान सहनशक्ति देखकर डॉक्टर दाँतों तले अंगुली दबा लेते थे। ब्राह्मण बच्चों की इस मनोस्थिति की चर्चा अखबार द्वारा चारों ओर फैल गई और सभी जगह बाबा की महानताओं के गुणगान होने लगे।

बाबा कहते थे, यह ज्ञान-गंगा है

मुझे इस ईश्वरीय पढ़ाई का बहुत शौक था। बाबा निबंध लिखने को देते थे तो मैं सबसे पहले लिखकर ले जाती थी। इस प्रकार मेरा मनन का अभ्यास बढ़ता गया और साथ ही साथ बाबा ने हमें भाषण करना भी सिखाया। बाबा मुझे कहा करते थे, ‘यह तो ज्ञान गंगा है, यह तो शेरनी है।’ इस प्रकार उमंग-उत्साह बढ़ाते हुए अथाह प्यार देकर बाबा ने मुझे आगे बढ़ाया। यज्ञ में हम 10-12 बहनों की एक पार्टी बन गई थी जिसे बाबा प्यार से ‘मनोहर पार्टी’ कहते थे। हम सभी बहनें आपस में मनन करते थे, भाषण भी तैयार करते थे और हर प्रकार की यज्ञ-सेवा भी करते थे। जहाँ भी आवश्यकता पड़ती थी तो बाबा कहते थे कि मनोहर पार्टी को भेजो। तो यह हमारा परम सौभाग्य रहा कि बाबा ने हमें हर तरह से आगे बढ़ाया।

चौदह वर्ष का वनवास

शुरू में हमारे संबंधी पूछते थे कि तुम कब लौटोगी तो हमें बाबा ने कहा था कि उन्हें बताओ कि यह हमारा 14 वर्ष का वनवास है, हमारी 14 वर्ष की योग-तपस्या है। उसके बाद हम आपकी सेवा में आयेंगी। बस 14 वर्ष बाबा ने हमसे पूरी तपस्या कराई। हमें अबला नारी से शेरनी शक्तियाँ बनाया, हमारे मन का भय निकाला, हमारी लज्जा समाप्त की। हमें आत्मा का इतना अधिक अभ्यास कराया जो हमारा यह भान निकल गया कि हम नारी हैं। बाबा हमें विशेष योग के प्रोग्राम देते थे। हम रात-भर जागकर, कभी-कभी आठ घंटे बैठकर योग-अभ्यास करते थे। इस प्रकार बाबा ने हमारे जीवन में तप कराया और हमने देखा कि सचमुच जीवन तप कर ही निखरता है।

कोई दुश्मन नहीं

इसी मध्य, भारत स्वतंत्र हुआ और पाकिस्तान बना। वहाँ पर नर-संहार हुआ, विनाश का तांडव नृत्य हुआ परंतु हम सब पूर्ण सुरक्षित थे। हमें लगता था कि हम सद्‌गुरु की छत्रछाया में हैं। बाबा ने उस समय हमें अशरीरीपन का बहुत अभ्यास कराया। बाबा कहते थे, ‘बच्ची, तुम सदा इस देह से उपराम होकर रहो ताकि यदि कोई तुम्हारे सामने आये तो उसे तुम्हारी देह दिखाई ही न दे।’ तब बाबा हमसे रात-रात योगाभ्यास कराते थे। तब हमने महसूस किया कि उस समय 1947-50 तक, जो भी मुसलमान भाई हमारे पास आते थे, बड़ी ही रूहानी दृष्टि से मिलते थे। वे हमें बहुत सत्कार देते थे तथा हर तरह से सहयोग देते थे। उनकी भावना हो गई थी कि ये सब देवियाँ खुदाई खिदमतगार हैं। उसी समय बाबा ने हमें यह पाठ बहुत पक्का करा दिया था कि तुम्हारा संसार में कोई भी दुश्मन नहीं है, इसलिए तुम निर्भय होकर रहो। इस बात ने हमारे मन में सभी के प्रति आत्मीयता की भावना पैदा कर दी थी। परिणामस्वरूप सन् 1947-50 तक हम वहाँ पूर्ण शान्ति व सुरक्षा के साथ रहे। फिर माउंट आबू में आए 1950 में। यहाँ आते ही बेगरी पार्ट शुरू हो गया। 

शिव बाबा बाबा ने भेजा भट्ठी का प्रोग्राम

बेगरी पार्ट में भी बाबा सदा एक बल एक भरोसे रहा। बाबा के चेहरे पर पूर्ण निश्चिन्तता थी। बाबा आलमाइटी बाबा (शिव बाबा) को सन्देश भेज देता था और पूछता था, बाबा, इन बच्चों का क्या करना है? बाबा ने संदेश भेजा, इनको एक मास भट्ठी में बिठाना है, भोजन बहुत हल्का देना है। सुबह थोड़ा दूध, शाम को थोड़ा दूध और दिन में एक चपाती देना, इस प्रकार बहुत हल्के भोजन का प्रोग्राम ऊपर से आया। हमारे शरीर भी हल्के हो गए और हमें बहुत ही अच्छे अलौकिक अनुभव हुए। आत्म-अनुभूति इतनी अच्छी हुई कि लगता था, हम परमधाम में, दुनिया से बहुत दूर वतन में बैठे हैं।

बाबा की गुप्त मदद

एक बार होली का दिन आया। बाबा का बच्चों से बहुत-बहुत प्यार था। होली पर लोग जलेबी और घेवर खाते हैं। बाबा ने मम्मा को कहा, तुम मेरे सिकीलधे बच्चों को जलेबी नहीं खिलाओगी। मम्मा ने कहा, जी बाबा, हाँ बाबा, जरूर खिलायेंगे परन्तु भण्डारे में ना मैदा, ना चीनी, ना घी था। यह मम्मा जानती थी तो भी कहा, जी बाबा, जरूर खिलायेंगे। अब देखो, कैसा चमत्कार होता है। एक माता माउंट आबू में ही रहती थी। वह श्रीकृष्ण की पक्की भक्त थी। उसका प्यार बाबा के यज्ञ से था। उसका पति भक्त था। वह कहता था, जो कुछ दान करना है, वह हरिद्वार जाकर करना है। माता चाहती थी कि मैं ब्रह्माकुमारी आश्रम में करूँ। खैर, दो-चार दिन के बाद जब एक बार पति सोया हुआ था, तब भगवान ने साक्षात्कार करवाया और उनको आवाज दी कि तुमको जो दान करना है, वह ब्रह्माकुमारी आश्रम में करो। उस व्यक्ति ने फिर अपनी पत्नी को बताया कि मुझे ऐसा अनुभव हुआ है, तुम ब्रह्माकुमारी आश्रम में जाओ, मैं तुमको यह पैसा देता हूँ, तुम यज्ञ-माता को देकर आओ। वह माता दौड़ी-दौड़ी आई और मम्मा को अपनी श्रद्धा भेंट दी और कहा, इससे आप सबको भोग खिलाओ। उसी समय बाबा ने सब सामान मँगवाया और बच्चों को जलेबी बनाकर खिलाई। बाबा ने मम्मा को कहा, देखो मम्मा, शिवबाबा ने कैसे हमारे लिए प्रबंध किया है। देखो बच्चों के लिए कैसे सब सामग्री भेज दी है। बच्चों को कहो, जी भर कर जलेबी खाओ। ब्रह्मा बाबा को सदा मन में रहता था कि जब बाबा बैठा है तो हम चिंता क्यों करें, स्कूल का मालिक वो है, स्कूल उसने खोला है; हम और मम्मा तो टीचर हैं। कई बार ऐसे अनुभव हुए। आलमाइटी बाबा कभी किसी को टच करते थे और कभी किसी को, फिर जैसे-जैसे हम बच्चे बाहर गए, सेवाकेन्द्र खुले। बाबा के बच्चे स्नेही बने, सहयोगी बने और फिर पक्के योगी भी बन गए, फिर बाबा की सेवा में बहुत वृद्धि हुई।

बाबा ने युक्ति से सेवा पर भेजा

बेगरी पार्ट के दौरान ही बाबा ने कहना शुरू किया, ‘तुम तो हर गंगे हो’ क्योंकि मेरा नाम पहले हरि था और मेरी सखी थी गंगा बहन। तो बाबा हमें प्यार से कहते थे, बच्ची, तुम हर हर गंगे हो, पतित- पावनी हो। क्या तुम्हें भक्तों की आवाज़ नहीं सुनाई देती है? हम कहते थे, बाबा, हमें तो भगवान की आवाज़ सुनाई देती है, भक्तों की नहीं। बाबा, हम आपकी मधुर मुरली को छोड़ बाहर जाकर क्या करेंगे? बाहर मुरली बिना मन नहीं लगेगा। बाबा कहते थे, मुरली तुम्हारा खज़ाना है। जहाँ जाओगी वहाँ तुम्हें मुरली मिल जायेगी। जो बाबा से अखुट खज़ाने प्राप्त किये हैं, क्या उन्हें नहीं बाँटोगे? क्या तुम दानी नहीं हो? क्या तुम ज्ञान-गंगा बनकर पतितों को पावन नहीं बनाओगी? बाबा ऐसे-ऐसे उमंग वाले बोल बोलकर हमें उत्साह के पंख लगाते थे और हम बाहर सेवा पर निकलते थे। सर्वप्रथम हम गये दिल्ली में। 

शिवबाबा का चमत्कार

बाबा का फरमान था, ‘चेरिटी बिगिन्स एट होम’, तो पहले-पहले हमने लौकिक संबंधियों की सेवा की। निमित्त उनका निमंत्रण था परंतु सेवा हर प्रकार के लोगों की हुई। कई घरों से सत्संग करने के निमंत्रण मिले। मंदिरों, गुरुद्वारों और सभाओं से भाषण करने के निमंत्रण मिले। दिल्ली में हम चाँदनी चौक के एक मन्दिर (गौरी-शंकर मंदिर) में गए। वहाँ ज्ञान सुनाया तो ट्रस्टी लोग संतुष्ट हुए। उन्होंने वहाँ ही हमें एक कमरा दे दिया। शिव बाबा का चमत्कार था कि सत्संग में आने वाले अनेक नर-नारियों को साक्षात्कार होने लगे और लोगों का आकर्षण ईश्वरीय ज्ञान की ओर बढ़ने लगा। चारों ओर धूम मच गई कि ये देवियाँ प्रभु का दीदार कराती हैं। यह बात ट्रस्टियों के कानों में भी पहुँची। उन्होंने सोचा, आज दिन तक भगवान का साक्षात्कार किसी को नहीं हुआ, जरूर इन बच्चियों के पास कोई जादू है, तो जादू ही दिखाती हैं। एक-दो मास रहने के बाद उन्होंने कहा, आप अपना रहने का प्रबंध कहीं ओर कर लें क्योंकि यहाँ की जनता में भ्रान्तियाँ पैदा हो गई हैं।

दिव्यलोक से मृत्युलोक में आने जैसा अनुभव

इसके बाद हमें जमना के कण्ठे पर एक मकान मिला। मकान में केवल दो दीवारें थी, दरवाजा दोनों तरफ नहीं था। हम तो आबू में भी और दिल्ली में भी नये-नये आये थे। इससे पहले हम 14 साल कराची में रहे थे, दुनिया को हमने देखा नहीं था। हमें तो ऐसा लगा मानो हम दिव्य संसार को छोड़ मृत्युलोक में आए हैं। हम दो बहनें थी। जमना घाट के उस मकान में एक बहन सोती थी, एक पहरा देती थी। ऐसे करते- करते हमने दो-चार दिन काटे। वहाँ पास में ही एक पहलवान का प्रैक्टिस का स्थान था। उसने सोचा, ये देवियाँ कौन हैं, यहाँ घाट पर आकर बैठी हैं, इनको डर भी नहीं लगता है! उसको मानो परमात्मा ने टच किया कि तुम्हारे घाट पर जो देवियाँ हैं, तुम्हारा काम है इनकी संभाल करना। तो वो रात्रि को रोज हमारे पर पहरा लगाता था। हम सोचते थे, यह पहरा किस पर लगाता है, यह तो सोचा नहीं कि हमारे पर लगाता है। हमने सोचा, धन, माल आदि कुछ भी यहाँ चारों ओर कहीं नहीं है, फिर पहरा क्यों? फिर कुछ समय बाद पहलवानों की आपस में कुश्ती हुई। उस पहलवान को संकल्प आया कि मैं जिन देवियों की सेवा कर रहा हूँ, अगर ये सच्ची होंगी तो जरूर मेरी जीत होगी क्योंकि मैं निष्काम सेवा कर रहा हूँ। अगर मेरी हार होगी तो मैं समझ जाऊँगा कि इनमें कोई सत्यता की शक्ति नहीं है। ड्रामानुसार उनकी जीत हो गई। वे बहुत खुशी में आ गये। अपने साथ 10-12 पहलवानों को लेकर आये और दण्डवत् प्रणाम किया। वे दूध, चीनी, नारियल और 20 रुपये भी साथ में भेंट-भोग के रूप में लाए। हमने 14 साल किसी अन्य का अन्न खाया नहीं था। लौकिक घर में गए तो वहाँ भी अपना ही पकाया हुआ खाते थे। हमने कहा, भैया, आपकी मनोकामना बाबा ने पूरी की, यह सबसे अच्छी बात है पर आपकी ये सब चीजें तो हम स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने कहा, हमारी भावना को ठेस लगेगी, कैसे भी करके आप स्वीकार करो। फिर हमने उस सामान से खीर बनाई, उनको खिलाई और बाबा की याद में थोड़ी खुद भी स्वीकार की। इस प्रकार ईश्वरीय सेवा होने लगी।

नेहरू जी तक गई अच्छी रिपोर्ट

जैसे-जैसे लोगों को सेवा-समाचार मिलने लगे तो कई लोग जमना घाट पर आने लगे। काफी लोग हो गए। एक माता रोज जमना घाट पर स्नान करने आती थी। वह शहर की मानी हुई माता थी। उसकी एक बहुत बड़ी धर्मशाला थी। उसने जब हमें देखा कि दो देवियाँ यहाँ अकेली रहती हैं तो प्यार से शहर के बीच ले गई। वहाँ एक कमरे में हम रहने लगे। धर्मशाला पास में थी। वहाँ सत्संग बहुत बढ़ गया। जब हम योग कराते थे, बहुत सारी मातायें-बहनें ध्यान में चली जाती थी। भगवान के पास है दिव्य दृष्टि की चाबी तो हमें लगता, भगवान बाप से हमें बहुत मदद मिल रही है। घर-घर में पता लग गया साक्षात्कारों का। बात इन्दिरा गांधी के कानों तक पहुँची। फिर उसने हम पर सी.आई.डी. लगाई। चार माताओं को हमारे पास निरीक्षण के लिए भेजा। वे वहाँ आकर चारों ओर देखती रहती थी। उनको सत्यता का आभास हुआ कि ये बहनें कोई जादू या हिप्नोटिज्म आदि नहीं करती हैं। उन्होंने माताओं-बहनों से अनुभव भी पूछा। अनुभव सुनकर उनको निश्चय हुआ कि यहाँ भगवान का कार्य चल रहा है और ये बहनें छल-कपट नहीं जानती। ये निष्काम सेवा करती हैं। इसलिए इन्दिरा गांधी तथा नेहरू तक हमारी अच्छी रिपोर्ट गई।                                                            ऐसी सेवा करने के छह, आठ मास बाद हम पुनः लौटकर मधुबन आ गये। जिनके निमंत्रण पर गये थे, वो निमंत्रण पूरा हो चुका था और आगे का कोई विशेष निमंत्रण था नहीं इसलिए हम अपनी तपोभूमि में पहुँच गये।

108 से भी ज्यादा सेवाकेन्द्र खुलेंगे

बाबा ने जब हमें आते हुए देखा तो बहुत प्यार से बोले, बच्ची, सेवाक्षेत्र से वापस पहुँच गई, तुमने बेहद बाप के ज्ञान-रत्नों का एक भी दुकान नहीं जमाया, जरूर बच्चों में अभी योगबल की कमी है इसलिए दुकान समाप्त कर लौट आये हो। यह सुनकर मैंने बाबा को बोला, बाबा, धर्म की स्थापना में अनेक कठिनाइयाँ आईं, नया निराला ज्ञान सुन लोगों में बहुत भ्रांतियाँ फैल गई हैं, विघ्न बहुत पड़ते हैं, मकान देने वाले भी हिम्मत नहीं रखते हैं, आखिर वो हमसे मकान खाली करवा लेते हैं इसलिए हम लौट आये। बाबा बोले, बच्ची, धैर्य रखो, अभी तो लोग विघ्न डालते हैं, आगे चल तुम देखना अनेक सेन्टर खुलेंगे, 108 से भी ज्यादा खुलेंगे। गली-गली में, देश-विदेश में शिव बाबा का झण्डा लहरायेगा, वो दिन भी आने वाला है। बाबा के ये शब्द सुनकर एक ओर बेहद हर्ष हुआ लेकिन दूसरी ओर अद्भुत आश्चर्य भी कि कैसे देश-विदेश में सेन्टर खुलेंगे, कौन वहाँ सेवा करेगा? एक सेन्टर में इतने विघ्न, तो अनेकों में क्या हाल होगा? परंतु यह हमें अटल निश्चय भी था कि बाबा ने कहा है तो टल नहीं सकता, अवश्य ही होकर रहेगा इसलिये निमंत्रण मिलने पर उमंग-उल्लास के पंखों से हम पुनः देहली पहुँच गये और चारों ओर निश्चय के साथ सेवा की धूम मचाई। जहाँ-जहाँ मौका मिला, हम गये और बाबा का संदेश सुनाया। 

लखनऊ में सेवा की धूम

देहली में फिर अन्य शहरों से निमंत्रण मिलने लगे और हम ज्ञान-योग से अनेक दुखी, अशांत, भिखारी, दीन-हीन आत्माओं की सेवा कर उन्हें बाप के पास ले आते रहे। इसी प्रकार जब हम लखनऊ में गई तो वहाँ भी एक धर्मशाला में प्रतिदिन सत्संग रखा गया। वहाँ भी लोगों को साक्षात्कार होने लगे। वही धूम वहाँ भी मची। तो धर्मशाला की मालकिन माता हमसे बहुत आग्रह करने लगी कि मुझे श्रीकृष्ण का दीदार कराओ। हमने उसे बहुत समझाया कि यह तो शिवबाबा की शक्ति है परंतु वह न मानी, आखिर उसने तीन दिन व्रत किया और शिवबाबा ने उसकी इच्छा पूर्ण की। वह ध्यानस्थित हुई और श्रीकृष्ण का साक्षात्कार किया।

रहमदिल और गरीब निवाज बाबा

एक बार जब हम लखनऊ में थे, तब एक वर्ष पूरा होने को आया तो भी एक भी आत्मा माउंट आबू आने को तैयार नहीं हुई। हमें तो अपने प्यारे मधुबन और बाबा के पास आने की बहुत कशिश हो रही थी। इसलिए सोचा, कोई तैयार नहीं है तो हम दोनों (गुलजार दादी और मैं.. मनोहर दादी) ही मधुबन चलें। जिस समय हम ट्रेन में बैठे तो एक गाँव की साधारण माता (उसने सुन लिया था कि ये माउंट आबू जा रहे है) भी हमारे साथ चल दी। हम माउंट आबू पहुँचे और बाबा से मिले। वह माता तैयार होने अपने कमरे में चली गई। बाबा ने हमसे पूछा, बच्ची, क्या अकेली आई हो, कोई को फूल बनाकर बाबा के सामने गुलदस्ता नहीं लाई? हम बोली, बाबा, इस समय ऐसी कोई आत्मा तैयार नहीं थी, इसलिए हम दोनों ही अपने बाप से मिलने आ गये हैं। फिर बाबा बोले, वह माता कहाँ है, उसे बुलाओ। वह माता बाबा के सामने आकर बैठी। वह बहुत ही स्नेह भरी रूहानी मुलाकात कर रही थी, बाबा ने उसको देख कहा, यह साधारण आत्मा नहीं है, यह कोई विशेष आत्मा है, बिछुड़ी हुई आत्मा है जिसने फट से बाप को पहचान लिया है। बाबा ने पूछा, बच्ची, तेरा नाम क्या है? माता ने धीरे से कहा, शान्ति देवी। बाबा ने कहा, बच्ची का जैसा नाम है, वैसा ही गुण है। 

बाबा ने फिर पूछा, बच्ची, पहले तुम बाबा से मिली थी? माता ने कहा, हाँ बाबा। मैं आपसे पाँच हजार वर्ष पहले इसी स्थान पर मिली थी। फिर बाबा ने पूछा, बच्ची, तुमको कितने बच्चे हैं? वह बोली, बाबा, एक ही बच्चा है। बाबा बोले, बच्ची, वह क्या करता है? वह बोली, मेरा तो शिव बाबा ही बच्चा है जो विश्व का कल्याण करता है। तब बाबा ने कहा, बच्ची, यह बड़ी निश्चयबुद्धि आत्मा है, शांतमूर्त है, बाबा इसको डायरेक्शन देता है, हर रोज भंडारे में जाकर भोजन को योग की दृष्टि दो और सबको बाप की स्मृति दिलाओ। बाबा की ये बातें सुन प्यार के सागर, रहमदिल बाप की रहमदिली का अनुभव हुआ। बाबा कितना गरीबनिवाज है जो गरीब बच्चों को इतना ऊँचा उठाते हैं। इससे मुझे भी गरीब और साधारण आत्माओं की सेवा करने की प्रेरणा मिली।

विचित्र अलौकिक प्रश्न

एक बार पटना से कुछ नये-नये भाई-बहनों का ग्रुप बाबा से मिलने आया। सुबह की क्लास में सबके साथ वे भी बाबा की मुरली सुनने लगे। मुरली के अंत में बापदादा ने कहा कि आज सभा में टोली बाँटने के लिये वो बच्चे आवें जो कहें, हम नष्टोमोहा हैं, नष्टोमोहा बच्चे, हाथ उठाओ। किसी ने भी हाथ नहीं उठाया। पुराने बच्चे बाबा के राज़ को समझ गये थे कि बाबा का यह प्रश्न किन्हीं नये बच्चों के प्रति है। सभी एक-दो की तरफ देखने लगे। बाबा भी मुसकराते हुए सभी बच्चों की तरफ देखने लगे।

बाबा फिर बोले, क्यों बच्चे, क्या कोई भी ऐसा बच्चा नहीं है? फिर बाबा ने आये हुए बच्चों में से एक नये बच्चे को अपने समीप बुलाया और कहा, क्यों बच्चे, तुम टोली नहीं बाँट सकते हो, नष्टोमोहा होना बड़ी बात है क्या? क्या तुम्हारा अपनी स्त्री में मोह है? अगर तुम्हारी स्त्री शरीर छोड़ दे तो क्या तुम रोओगे? भाई दो मिनट खामोशी में रहा, फिर बोला, नहीं, मैं नहीं रोऊँगा, मेरी पहली स्त्री ने जब शरीर छोड़ा था, तो भी मैं रोया नहीं था, अब भी नहीं रोऊँगा। फिर बाबा की दृष्टि उनकी स्त्री पर पड़ी। बाबा ने उनसे भी यह विचित्र प्रश्न पूछा, बच्ची, तेरा लौकिक पति अगर शरीर छोड़ दे, तो तुम रोयेंगी? स्त्री बाबा की ओर देखकर गंभीर रूप से मुसकराती रही, बाबा की रूहानी दृष्टि जैसे कि उसमें बल भरती जा रही थी। उसने धीमे स्वर में बोला, बाबा, बेहद का बाप मिला तो सब कुछ मिला, अब क्यों रोयेंगे? ज्ञान का तीसरा नेत्र मिला अब अज्ञानवश क्या रोना? आपने हमें रोने से छुड़ा दिया। इतना सुन बाबा बोले, अच्छा, मेरे महावीर बच्चे जाओ, सभी को टोली बाँटो।

अपने सेवाकेन्द्र पर लौटकर उन दोनों ने क्लास में अपना अनुभव सुनाया कि हमें बाबा से मिलकर संपूर्ण निश्चय हो गया कि यह ज्ञान देने वाला स्वयं भगवान है, किसी मनुष्य की यह पढ़ाई नहीं है क्योंकि इस प्रकार के विचित्र अलौकिक प्रश्न कोई मनुष्य पूछ ही नहीं सकता। कोई साधु-महात्मा भी अपने शिष्यों से ऐसा नहीं कह सकता। अगर कोई गुरु किसी शिष्य से ऐसा पूछे तो वह संशयबुद्धि हो जाये। देहधारी गुरु तो और ही कहते हैं, आयुष्वान भव, पुत्रवान भव, संपत्तिवान भव। लेकिन यह तो कालों का काल स्वयं भगवान है जिसके लिए जन्म-मरण शब्द ही नहीं है, जो अजन्मा, अकालमूर्त है, वही पूछ सकता है। 

एक बार बाबा ने पूछा, बच्ची, तुम अभी घर (परमधाम) चलना चाहती हो? मैंने कहा, बाबा, अभी हम नहीं जाना चाहते हैं क्योंकि जो सुख, जो खजाना अब ले रहे हैं, वो वहाँ नहीं मिलेगा इसलिये मैं नहीं जाना चाहती हूँ। इस पर बाबा गंभीर रूप से मुसकराते रहे। उस समय तो बाबा ने कुछ नहीं कहा परंतु रात्रि क्लास में मुरली में कहा, बच्ची ने ठीक बोला क्योंकि यह जो समय है, बड़ी भारी कमाई का है, इस समय का सुख न परमधाम में है, न सुखधाम में। उस समय बाबा की पावरफुल स्टेज का साक्षात्कार करते हुए दिल में अत्यंत स्नेह भर आया और पुरुषार्थ का एक तीव्र उमंग आया कि बाबा कैसे उड़ते जा रहे हैं, बाबा कितना साक्षीपन का अनुभव कर रहे हैं, ड्रामा पर बाबा कितने अचल-अडोल हैं, जो पास्ट हो गया, उस पर फुलस्टॉप लगाने की कितनी शक्ति है! इससे हमको अपनी लाइफ में फुलस्टॉप लगाने और विस्तार को सार में लाने की विशेष प्रेरणा मिली।

बाबा का अथाह प्यार

बाबा हमें जहाँ भी भेजते थे, हम वहाँ निर्संकल्प होकर चली जाती थी। इसलिए बाबा मुझे ‘बहुरूपी’ और ‘चक्रवर्ती’ कहा करते थे। बाबा तो ज्ञान सागर है। उनके पास हरेक के संस्कार और भाग्य की पहचान है। बाबा कहते थे, बच्चे, मेरे इस उच्चतम ज्ञान को मेरे भक्तों को ही देना। मैं भक्तों का उद्धार करने आया हूँ, उन्हें भक्ति का फल अब संगम पर मिलने वाला है, तुम्हें भक्तों की पहचान रखनी है। भक्तों को पहचानने की बाबा ने निशानियाँ भी बताई कि जब वे बच्चे ज्ञान सुनेंगे तो उन्हें यह ज्ञान बहुत अच्छा लगेगा और वे महसूस करेंगे कि हम बेहद बाप के वर्से के अधिकारी हैं। इस प्रकार कई पार्टियाँ आती रही और बाबा से जन्मसिद्ध अधिकार ले वापस अपने स्थान पर जाती रही। हम हर साल पाँच-छह आत्माओं को कली से फूल बनाये बागवान के पास ले आते थे। सेवाकेन्द्रों पर रहते हुए मुझे ध्यान रहता था कि बाबा के वारिस बच्चे तैयार किये जायें। मैं आने वाली कन्याओं की पूर्णतया ज्ञान-योग से पालना करती थी, उन्हें बाबा के समीप लाती थी, उन्हें योग्य टीचर बनाने का संकल्प रखती थी तो बाबा के बहुत ही प्यार व उमंग भरे पत्र मुझे मिलते थे। बाबा के प्यार की याद आते ही मन की कलियाँ खिल उठती हैं और मन गाने लगता है इतना प्यार करेगा कौन …!

छोटे बच्चों की ज्ञान द्वारा कमाल

एक बार मैं कोलकाता से भाई-बहनों का एक ग्रुप मधुबन लेकर आई थी, उस ग्रुप में एक माता और उसकी दो बच्चियाँ भी थीं। बच्चियों की आयु 10 और 12 वर्ष की थी और वे दोनों पांडिचेरी में आश्रम पर रहती थीं। उनको छोटा समझ मैंने उनके साथ ज्ञान-चर्चा नहीं की। जब वे बाबा के पास आईं तो बाबा ने पूछा, ‘बच्ची, माँ से तो तुम्हारा बहुत प्यार है, लेकिन तुम्हें पता है आत्मा का बाप कौन है? यहाँ तुम्हें बाप का परिचय मिलेगा।’ ऐसे दो-तीन दिन में बाबा ने उनको योग, त्रिमूर्ति तथा गोले के चित्र के बारे में समझाया। मैं रोज़ देखती थी कि बाबा इन छोटी बच्चियों पर बहुत मेहनत कर रहे हैं। बाबा ने उनको ‘ज्ञानी तू आत्मा’ बना दिया। अपने साथ उनको भोजन भी खिलाते थे। उनमें ज्ञान तथा स्नेह का संस्कार पड़ गया था। वापस जाते समय वो बच्चियाँ मेरे साथ ट्रेन में थीं, तो एक साधु ‘परमात्मा सर्वव्यापी है’. – इस बात पर बहस कर रहा था। यह सुनकर बच्चियाँ उस साधु से पूछने लगीं, महात्मा जी, अगर आप में परमात्मा है और सर्व में परमात्मा है तो आप प्रश्न किससे पूछ रहे हैं? ऐसा वार्तालाप देर तक चलता रहा। अंत में उस साधु ने पूछा, आपको यह ज्ञान किसने सिखाया? उनका जवाब था, माउंट आबू में ईश्वरीय विश्व विद्यालय में यह ज्ञान सुना। उस समय मैंने सीखा कि छोटे बच्चों में ज्ञान का संस्कार डालने से वे बाबा की कितनी सेवा करते हैं।

बाबा धर्मराज भी है

दिल्ली में बाबा मेजर की कोठी में हम बच्चों से रूहरिहान कर रहे थे। तब बाबा ने पूछा, ‘बच्चे, बाबा को किस-किस रूप में याद करते हो?’ किसी ने कहा, बाप के रूप में; किसी ने कहा, टीचर के रूप में; किसी ने कहा, सतगुरु के रूप में। बाबा गंभीरता से सुन रहे थे। लगता था कि जो जवाब बाबा चाहते हैं वह किसी ने नहीं दिया। तो मैंने कहा, धर्मराज के रूप में। बाबा ने कहा, ‘बच्ची ने ठीक उत्तर दिया है। बाबा के धर्मराज के रूप को कभी मत भूलना। मात-पिता के रूप से बच्चों को प्यार मिलता है, टीचर के रूप से पढ़ाई पढ़ाते हैं, सतगुरु रूप से पावन बनने के लिए महामंत्र मिलता है और धर्मराज के रूप से कर्मों में श्रेष्ठता आती है। धर्मराज के रूप को भूलने से बच्चे, भूलों के ऊपर भूलें करते रहेंगे।’ इसी तरह बाबा हमारी बुद्धि चलाते थे और चेक करते थे कि बच्चों का योग कहाँ तक है, पढ़ाई पर ध्यान कहाँ तक है, बच्चे विचार- सागर मंथन कहाँ तक करते हैं?

अन्त मति सो गति

एक बार हमारी सखी ‘हृदयमणि’ गुड़गाँव में ईश्वरीय सेवार्थ गई हुई थी। वह बहुत गुणमूर्त बहन थी। वहाँ उसको बुखार आया तो उसे हॉस्पिटल में दाखिल किया गया। वहाँ वह हर रोज मुरली सुनकर योग करती थी। एक दिन अचानक उसने हॉस्पिटल में ही शरीर छोड़ा। समाचार बाबा के पास आते ही बाबा उसकी महिमा करने लगे, ‘बच्ची, बहुत आज्ञाकारी, सच्ची सेवाधारी थी। अब वह एडवांस पार्टी में सेवार्थ चली गई है।’ तो मैंने बाबा से कहा कि उसने तो शरीर हॉस्पिटल में छोड़ा जबकि आप हमेशा कहते हैं, ‘हरि का द्वार हो, ज्ञानामृत मुख में हो, दैवी परिवार का साथ हो, मधुबन का तट हो तब तन से प्राण निकले।’ तो बाबा ने समझाया, ‘बच्ची, ज्ञान गंगा तो वह खुद ही थी। उसके मन में, मुख में ज्ञान ही था। वह दैवी परिवार के बीच में ही थी और सेवा पर उपस्थित थी अर्थात् सेवाकेन्द्र हरि का द्वार था और बाबा की याद में शरीर छोड़ा तो वह अवश्य सद्गति को प्राप्त करेगी, जरूर अच्छे घर में जन्म लेगी।’ ऐसे जो बाबा ने राज़ बताया वो मेरी बुद्धि में बैठ गया।

बाबा उपराम स्थिति के प्रेरणास्त्रोत थे

एक बार बाबा मधुबन के आंगन में खड़े थे। छोटा हॉल बन चुका था। तो हमने बाबा से कहा, बाबा, आपका कमरा पुराना हो गया है, उसे तोड़कर नया बनाओ तो अच्छा होगा। बाबा ने मुसकराते हुए कहा, बच्ची, यह लॉ नहीं कहता कि बाबा नये मकान में रहे। शिवबाबा जो मालिक है, विश्व पिता है, वो ही पुराने तन में आया है तो उसका तन नये मकान में कैसे रह सकता है। नये तन के लिए नया मकान चाहिए। यह लॉ तुम बच्चों के लिए नहीं है। बाबा तो तुम्हें स्वर्ग का सुख यहाँ देता है।’ बाबा को देखकर ऐसा लगता था कि संसार से बाबा का बुद्धियोग हट चुका है और एकदम उपराम हो चुके हैं।

 

ब्र.कु. अमीरचंद भाई जी, मनोहर दादी के साथ के अनुभव इस प्रकार बाँटते हैं –

सन् 1959 में मैं पहली बार करनाल सेवाकेन्द्र पर गया। उस समय मनोहर दादी ने ही मुझे पहले दिन का कोर्स कराया, उसके बाद दादी ने मुझे मेडिटेशन के लिए अपने सामने बिठाया। दादी से दृष्टि लेते-लेते मैं अशरीरी हो गया। मुझे गहन आत्मिक शांति की अनुभूति हुई। मैं वहीं लेट गया। दादी ने आसपास के सेवाकेन्द्रों के पाँच-छह भाई-बहनों को बुलाया यह दिखाने के लिए कि यहाँ सिर्फ बहनें ही नहीं, भाई भी ध्यान में जाते हैं। कुछ समय बाद जब मैं उठा तो देखा कि तकिया मेरे सिरहाने रखा है। दादी ने अनुभव पूछा तो मैंने कहा कि जब आप योग करा रही थी तो मेरी आँखें बंद हो गई और मुझे सफेद रोशनी दिखाई दी। कहीं दूर से धीमी आवाज भी सुनाई दे रही थी कि आप शरीर नहीं, आत्मा हो। आपने जो आज लेसन कराया, वही ऊपर भी सुनाई दे रहा था। इस प्रकार सात दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा। दादी मुझे कोर्स का लेसन कराती, उसके बाद जब योग कराती तो मैं ट्रांस में चला जाता, वहाँ मुझे उस लेसन का प्रैक्टिकल अनुभव होता।

व्यक्ति-वैभव से लगावमुक्त

इस प्रकार मनोहर दादी हमारी पहली टीचर थी। दादी का किसी भी व्यक्ति, वैभव या पदार्थ में लगाव नहीं था। उन्होंने कई सेन्टर खोले पर किसी सेन्टर से लगाव नहीं। उस समय मनोहर दादी और गंगे दादी भाषण करने वाली बहनें थी। बाबा उन्हें भाषण के लिए इधर-उधर भेजते रहते थे। इसलिए दोनों हमेशा अपना बैग तैयार रखती थी। उनमें पालना के संस्कार विशेष थे। साकार बाबा से अति स्नेह था। किसी भी तरीके से दो-तीन आत्माओं को भी तैयार कर पंडा बनकर बाबा से मिलाने ले आती थी।

मनोहर दादी को फालो करो

मनोहर दादी सुनाती थी कि जब मैं मधुबन जाती तो बाबा मुझे दर्पण की तरह दिखाई देता। बाबा को देखते ही मुझे अपना चार्ट नजर आता। एक बार मैंने मम्मा से पूछा कि मम्मा, सच्चा ब्राह्मण किसको कहेंगे? उस समय मनोहर दादी भी पास में बैठी थी। मम्मा ने मनोहर दादी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि मनोहर दादी को फालो करो। दादी श्रीमत का एक्यूरेट पालन करती थी। कभी भी अपनी मनमत मिक्स नहीं करती थी।

 

ब्रह्माकुमारी शशि बहन (माउंट आबू), मनोहर दादी के बारे में इस प्रकार सुनाती हैं –

जब दादी मनोहर करनाल में सेवार्थ आई, वहाँ एक परिवार ज्ञान में निकला, भाई का नाम था राजकुमार और उनकी युगल का नाम था राजकुमारी। वे टीचर थे, उन्हें सब मास्टरजी कहते थे। उन्होंने अभी नया मकान बनाया था। वे ईश्वरीय ज्ञान से इतने ज्यादा प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना मकान सेवाकेन्द्र के लिए दे दिया और स्वयं एक छोटे-से कमरे में रहे। उस मकान के सामने बहुत बड़ा ग्राउंड था, एक तरफ बगीचा था, नई कॉलोनी थी। उस मकान में तीन कमरे, तीन बरामदे, किचन आदि सब सुविधायें थी।

विरोध शांत होने लगे

जब भी बड़ा प्रोग्राम होता था, उस ग्राउंड में टेंट लगाते थे। शिवजयंती पर काफी संख्या में लोग वहाँ आते थे। आस-पास के बहुत सारे परिवार के परिवार ज्ञान में आने लगे। बहुत सारी कुमारियाँ भी क्लास में आती थी। लगभग 20-25 कुमारियाँ थीं। कुछ को बंधन थे। कुमारियों के कारण सारा समय सेन्टर पर रिमझिम लगी रहती थी। मनोहर दादी उन्हें बहुत हँसाती-बहलाती थी, उनकी पालना करती थी। जब भी वे आती थी, उन्हें कुछ न कुछ खिलाती थी। वे कहती थी, आज हमको कढ़ी-चावल खाना है या इस प्रकार की चपाती खानी है तो दादी कहती थी, खूब खाओ। बांधेली कुमारियाँ छिप-छिप कर गुप्त रीति से मधुबन, सेन्टर और दादी के लिए बहुत कुछ करती थी। जैसा दादी का बाबा से प्यार था, उन्हें देख कुमारियों का भी बाबा से वैसा ही प्यार हो गया। कैथल की पुष्पा बहन आर्यसमाजी परिवार की है। उस समय आर्यसमाजी, ब्रह्माकुमारियों के बिल्कुल विरोधी थे। इसका परिवार बहुत रॉयल था और इसे बहुत बंधन था। यह रात को आती थी, एक बार तो रात को एक बजे आई। दादी ने दरवाजा खोला और इसे रात को प्यार से अपने पास ही रखा। दादी की पालना का परिणाम यह निकला कि धीरे-धीरे सभी विरोध शांत होने लगे और लोग ज्ञान को भी थोड़ा समझने लगे।

जीवंत इतिहास वर्णन

जब दादी करनाल में थे, तब उनके पास मम्मा, बाबा, जानकी दादी, रमेश भाई, ऊषा बहन आदि सब महारथी आये। जब बाबा आये थे तो कन्याओं को इतना निश्चय था जो गोपियों की तरह से कहने लगी कि बाबा को हम जाने नहीं देंगी। सभी कन्यायें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बहुत रुचि लेती थी। करनाल की कुमारियाँ गीत, ड्रामा, डांस आदि के प्रोग्राम देने अंबाला, जालंधर आदि शहरों के सेन्टरों पर जाती रहती थी। भारतमाता नाम से एक ड्रामा था। उसमें मैंने भी कई स्थानों पर भाग लिया था। दादी स्वयं भी कन्याओं को ज्ञान-योग से बहुत ऊँची पालना देती थी और दूसरे स्थानों की बहनों को बुला-बुलाकर पालना दिलवाती थी। मनोहर दादी घंटो-घंटो बैठकर यज्ञ का इतिहास सुनाती थी। गर्मी के दिनों में हम शाम को आ जाते थे और वे रात के 10-11 बजे तक यज्ञ का इतिहास सुनाती रहती थी। बाबा के प्यार की बातों में हम खो जाते थे। उस समय सुबह की क्लास में भी बाबा की ऐसी मदद होती थी कि योग के समय आधी क्लास सेमी ट्रांस में चली जाती थी और अव्यक्त रास करने लग जाती थी। क्लास के बाद अनुभवों की लेन-देन होती थी। हर एक से पूछा जाता था कि आज तुमको बाबा ने क्या दिखाया। ये अनुभव इतने गहन होते थे कि घर में जाकर भी उनका नशा चढ़ा रहता था। स्कूल में जाते थे तो भी मम्मा-बाबा सामने खड़े है, ऐसा महसूस होता था।

रहम भावना थी

राखी के त्योहार पर भी, बहनें ध्यान में चली जाती थी और ध्यान में ही एक-एक को पंद्रह-पंद्रह मिनट लगाकर राखी बाँधती थी। मनोहर दादी को देखते ही मातायें गोपियों की तरह नाचने लगती थी, उन्हें अलौकिक अनुभव होने लगते थे। भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय कई परिवार अपने धन को खोकर या मित्र-संबंधियों को खोकर भारत में आये थे। किसी घर में कमाने वाला ही नहीं रहा था, मातायें-बहनें मेहनत करके अपना जीवन चलाती थी। उन परिवारों पर दादी को बहुत रहम आता था। उनको प्यार देकर दादी ने उठाया, कइयों को समर्पित कराया। नागपुर की पुष्पा बहन का पूरा परिवार ही समर्पित हुआ। कई ऐसे भी थे जो शारीरिक रूप से बीमार रहते थे, ज्ञान सुनकर उनमें शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक परिवर्तन आ जाता था।

दादी ने कभी ‘ना’ नहीं कहा

मैं सन् 1959 में ज्ञान में आई। मैं बहुत कम बोलती थी। दादी का पुरुषार्थ रहता था कि मैं कुछ बोलूँ, अपनी बातें शेयर करूँ। दादी ने मुझे बाबा से दिल्ली में मिलने के लिए भेजा। दादी सन् 1967 में मुझे अपने साथ आबू लेकर आई। सफर के दौरान, ट्रेन में भी मैंने देखा, दादी सबके साथ ऐसे बातें करने लगी जैसे सबको जानती हो। दादी कहती, आओ बैठो, खाओ और हमें महसूस होता कि हम सेन्टर में ही बैठे हैं। तब आबू में पहली प्रदर्शनी म्यूजियम के सामने विश्राम भवन में लगी थी। दादी मुझे रोज बाबा के पास लेकर जाती थी। दिन में हम तीन बार बाबा से मिलते थे। सुबह चेंबर में भी बाबा के साथ बैठने का मौका मिला। बाबा ने मेरी ड्यूटी लगाई प्रदर्शनी समझाने की। उन दिनों एक युगल बाबा से मिलने आया, बहुत भावना वाला था, कहता था, मुझे आपके गुरु से मिलना है। बाबा ने पहले मनोहर दादी को मिलने भेजा। दादी हर एक की भावना को देखती थी। दादी ने बाबा को बताया कि यह तो बहुत भावना वाला है। बाबा ने कहा कि उसे कोर्स कराओ। दादी ने कोर्स कराने की ड्यूटी मेरी लगाई। कोर्स करने के बाद वह गुरु के बजाय बाबा-बाबा कहने लगा। इससे मैंने यह सीखा कि मनोहर दादी हर एक के अंदर को जानती थी, केवल बाहरी रूप नहीं देखती थी। जब बाबा अव्यक्त हुए, दादी को कहा गया कि आप मधुबन में आकर रहो। दादी ने अपने जीवन में कभी भी, किसी भी बात के लिए ना नहीं कहा। मनोहर दादी ने यहाँ रहकर हर प्रकार की ट्रेनिंग देने में अपना अमूल्य सहयोग दिया। बड़ी दीदी, मनोहर दादी को कहती थी कि तुम यहाँ टीचर हो, सतयुग में भी कृष्ण की टीचर बनोगी।

मोल्ड होने की शक्ति

दादी का मन एकदम स्वच्छ था। कभी किसी की कमजोरी को चित्त पर नहीं रखा। दादी किसी में कोई कमी होती भी थी तो उसे अलग ले जाकर बता देती थी और उसी समय उससे घुलमिल जाती थी। सुनने वाले को भी कभी ऐसा नहीं लगता था कि दादी ने मुझसे मेरी कमजोरी की बात की है। दादी का यज्ञ से अटूट प्यार था। दादियों के प्रति बहुत रिगार्ड, एकमत और एकता का पाठ पक्का था तथा ज्ञान का अटूट निश्चय था। दादी में मोल्ड होने की शक्ति बहुत ज्यादा थी। हँसने-हँसाने का संस्कार बहुत था। दादी ने बहुत वारिस निकाले। अंत में दादी की कर्मातीत स्टेज भी देखी हमने। एकदम न्यारी और प्यारी अवस्था थी।

ब्रह्माकुमार रघुवीर, जालंधर दादी मनोहर के बारे में अपनी यादगारें इस तरह व्यक्त करते हैं –

चार वर्ष पूर्व की बात है। डायमण्ड हाल में टोली वितरण चल रहा था। एक तरफ मनोहर दादी जी टोली दे रहे थे, दूसरी तरफ एक वरिष्ठ बहन जी टोली दे रहे थे। मैं बहन जी से टोली लेने वाली पंक्ति में था। मेरा मन हुआ कि दादी जी से भी टोली ली जाए। जब दादी जी की तरफ गया तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि आपको टोली मिल चुकी है। मेरे मन में कुछ-कुछ हुआ कि दादी जी ने मुझे मना क्यों कर दिया। उसी दिन हमारी वापसी यात्रा थी। रास्ते भर विचार चलते रहे कि दादी जी ने टोली क्यों नहीं दी। लगभग आधी यात्रा पूरी होने को थी, मुझ से रहा नहीं गया। मैंने निमित्त (गाइड) बहन के सामने दिल खोला, देखो बहन जी, दादी जी से टोली माँगी थी ..। इतना ही कह पाया था कि बहन जी ने कहा, ओह रघुबीर भाई, आपकी टोली दादी जी ने मुझे दी है और टोली मेरे हाथ पर रख दी। मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। मेरे से कुछ बोला नहीं गया। बहन जी ने कहा, बड़े समय तक अपने पास संभाल कर रखी है यह टोली। मुझे समझ में आ गया कि दादी जी ने उस समय इसलिए मना किया था ताकि नियम न टूटे और बहन जी के पास इसलिए टोली भेज दी कि भाई का दिल न टूटे। ऐसे स्टील की तरह नियम-मर्यादा के पक्के व मक्खन की तरह नर्म थे दादी जी। जब भी कभी इस घटना की याद आती है तो आँखें नम हो जाती हैं और दादी जी के आगे नतमस्तक हो जाता हूँ।

दादी मनोहर इन्द्रा की विशेषतायें

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के आदि स्थापना काल की आदि रत्न, यज्ञ की वफादार नेत्री, यज्ञ इतिहास को शब्दों द्वारा प्रत्यक्ष की न्यायीं दिखा देने वाली, स्नेही व्यवहार से सबके मन को हरकर उसे परमात्मा से जोड़ देने वाली, मिलनसारिता के गुण की धनी, राजयोग रूपी महातपस्या में रत रहते हुए देश-विदेश की लाखों आत्माओं को आध्यात्मिकता के मार्ग पर उड़ाने वाली राजयोगिनी दादी मनोहर इन्द्रा जी के गुणों और विशेषताओं का वर्णन करना जैसे सूर्य को दीपक दिखाना है। यज्ञ पिता, यज्ञ माता की सदा लाडली रहीं। ईश्वरीय महावाक्यों में जब भी कभी सर्विसएबुल बच्चों के नामों का वर्णन आता है आपका नाम पहले नम्बर पर होता है।

त्याग-तपस्या की जीवंत मिसाल

कम साधन होते हुए भी आप साधना की धनी थीं, त्याग और तपस्या की जीवंत मिसाल थीं। यमुना के कंठे पर बैठकर बिना किसी साधन-सुविधा के आपने ईश्वरीय सेवाओं का प्रारंभ किया। पतित-पावनी बन अनेक आत्माओं का उद्धार किया। ईश्वरीय नियम और मर्यादाओं के पालन में सदा तत्पर थीं। कड़ी से कड़ी परिस्थितियों को भी योगबल से जीत लेती थीं। चाहे यज्ञ का ‘बेगरी पार्ट’ (अभाव का समय) रहा, चाहे नए-नए स्थानों पर ईश्वरीय संदेश देने का चुनौतीपूर्ण कार्य, सभी में आप हिम्मत के साथ सफलता का परचम लहराती रहीं। आपके कदमों के निशां देख-देख चलने वालों का एक लंबा काफिला है।

अलौकिकता तथा रूहानियत से सदा संपन्न

पिताश्री के प्रति आपके मन में अटूट, अगाध श्रद्धा थी। उनके द्वारा उपदेशित हर अभियान के प्रति आपका सदा हाँ जी का पाठ रहा और उसे सफल बनाने में आप सदा सक्षम रहीं। आपकी दृष्टि में अलौकिक जादू था। योग कराते समय आपकी दृष्टि पड़ने पर भाई-बहनें ध्यान में चले जाते थे। ऐसी रूहानियत और अलौकिकता से संपन्न थीं आप। पंजाब और हरियाणा में विभिन्न स्थानों पर और विशेष करनाल में बहुत समय तक आपने सेवायें दीं। अनेक कुमारियाँ आपके स्नेह की पालना से खिंचकर ज्ञान में आई, आदर्श ब्रह्माकुमारियाँ बनीं और अब भारत के विभिन्न स्थानों पर ईश्वरीय सेवायें दे रही हैं।

नम्रता की मूर्त

आप सदा निमित्त और नम्रचित्त बन कर रहीं। अपने सरल स्वभाव की छाप हरेक के दिल पर डाली। आपसे मिलना बहुत सहज था। कोई भी सरल भाव से आपके पास पहुँच सकता था। आप हरेक पर स्नेह लुटाती और वरदानी दृष्टि, वरदानी बोल से भरपूर कर देती थीं। आप न कभी किसी से टकराव में आई और न ही प्रभाव में आईं। ‘एक बाबा दूसरा न कोई’ इस महामंत्र में सबका विश्वास बिठाया। आप बहुत ही रमणीकता से हरेक से बातचीत करती थीं। कभी भी आपको उदास, चिंतित या सोचने के मूड में नहीं देखा। आप यज्ञ के इतिहास का ऐसे वर्णन करती थीं जो सुनने वाले के मन के पर्दे पर सारे चित्र क्रमवार उभरने लगते थे। आपकी स्मृति इतनी अच्छी थी कि यज्ञ की स्थापना कैसे हुई, यज्ञ आगे कैसे बढ़ा, कौन कब यज्ञ में समर्पित हुआ, बाबा और मम्मा की क्या-क्या लीलाएँ चलीं – वे सब तिथि-तारीख सहित सुनाती थीं। आपके शब्द मानो नये-नये भाई-बहनों के लिए नेत्र बन जाते थे जिनसे वे बाबा और मम्मा का साकार अनुभव करते थे।

निश्चिन्त और निर्भय

आपके प्रवचन में सदा ही एक लय और मिठास रही जो सुनने वाले के हृदय पर छप जाता था। आप यज्ञ के पुराने गीत बहुत रमणीकता से गाती थीं। किसी भी परिस्थिति में आपके चेहरे पर कभी भी प्रश्नवाचक बिन्ह नहीं आया। ‘बाबा बैठा है, सब ठीक होगा’, इस अटूट विश्वास से सदा निश्चिन्त और निर्भय रहीं। आपने कभी किसी की बात को दिल पर नहीं रखा, कोई कुछ बोल भी जाता था तो भी आप उसे निर्दोष भावना से ही देखती थीं। कभी भी कटु और कठोर वचन आपने नहीं उच्चारे। आपकी निश्छल भावनाओं का प्रभाव चारों ओर वायुमण्डल में फैला रहता था इसलिए किसी को आपसे भय नहीं लगता था।

अपनेपन की भासना

आप जितनी बापदादा की, दादियों की प्रिय थीं उतनी ही सारे ब्राह्मण परिवार की भी प्रिय थीं। आपसे सभी को अपनेपन की भासना आती थी। हरेक को रूहानी प्यार की अनुभूति कराते भी आप सदा न्यारी रहती थीं। हरेक की विशेषताओं को देख उन्हें सेवा में लगाती थीं। उनकी प्रशंसा करके बाबा के कार्य में मददगार बना देती थीं। कोई में कोई कमी भी होती थी तो उसका वर्णन नहीं करती थी बल्कि और ही स्नेह देकर गुणवान बना देती थीं।

सदा हर्षितमूर्त

आप सदा सर्व के प्रति कल्याण भावना से भरपूर और हर्षितमूर्त थीं। आपके स्नेही बोल और सहयोग की भावना हर आत्मा को सदा निश्चिंत बना देती थी। आपने सर्व ब्रह्मावत्सों का तथा अन्य संपर्क वालों का दिल, अपने प्यार और सत्कार-भाव से जीता। सेवा में सदा अथक रहीं। निमित्त दादियों के साथ मिलकर यज्ञ-सेवा के हर कार्य में आपका सदा अमूल्य योगदान रहा। बाबा के नए-नए फूलों में उमंग भरकर उन्हें आगे बढ़ाने की कला में आप सिद्धहस्त थीं। एकनामी और इकानामी के पाठ में आप स्वयं भी बहुत पक्की थीं और दूसरों में भी यह धारणा भर देती थीं। भूलों को भुलाकर गले से लगाने वाली आप मास्टर क्षमा का सागर थीं। ईश्वरीय रत्नों को पालना देकर आध्यात्मिक मार्ग पर समर्थ बना देने की सेवा आप अहर्निश करती रहीं। 

दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा भारत के विभिन्न अन्य भागों की सेवा कर, सन् 1970 में आप मुख्यालय निवासी बनीं। मुख्यालय में रह आपने अनेक जिम्मेवारियाँ संभालीं। आप महिला प्रभाग की राष्ट्रीय अध्यक्षा रही। राजयोग शिविरों की भी आप मुख्य निदेशिका रहीं। टीचर्स ट्रेनिंग में आपका सक्रिय योगदान रहा। आप ब्रह्माकुमारीज़ की मैनेजमेंट कमेटी की मेम्बर थीं। ब्रह्माकुमारीज़ एज्युकेशनल सोसायटी के गवर्निंग बोर्ड की मेम्बर थीं। राजयोग एज्युकेशन एंड रिसर्च फाउण्डेशन की मेम्बर ऑफ गवर्निंग बॉडी थीं। सन् 1997 से आप ज्ञान सरोवर अकादमी की निदेशिका रहीं। आपने अनेक विदेश यात्राएँ कर अनेक देशों के बहन-भाइयों को आध्यात्मिकता से सींचा।

जब भी कोई आपके समक्ष गया, आपकी ममता भरी मुस्कान के स्पर्श से तन-मन में उमंग भरकर ही लौटा। किन शब्दों में वर्णन करें आपकी महिमा का ! आप जीवंत मुस्कान और प्रभु का वरदान थीं।

यह श्रद्धानत लेखनी आपकी अनन्त महिमा के सागर में दो बूंद श्रद्धांजलि के भेंट करने की कोशिश में लगी है। भावनाओं का सागर थामे नहीं थम रहा। की यादों का ज्वार हिलोरें मार रहा है। आपने मन, वचन, कर्म से जो अमूल्य देन मानवता को दी है, वह स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है। आपकी आभा पर पड़ा भौतिक आवरण हट चुका है। आप में समाहित सत्य, प्रेम, पवित्रता, दिव्यता का प्रकाश धरती और गगन को प्रकाशित करता हुआ तीनों लोकों में फैल रहा है। आप हमारी थीं, हमारी हैं और हमारी रहेंगी। आवरण को उतार आप ससीम से असीम हो गई हैं। अब अव्यक्त वतन में, अव्यक्त रूप में आपकी छवि निहारा करेंगे और आपकी अविस्मरणीय साकार यादों की अमूल्य धरोहर को हृदय से लगाए आपके चरण-चिन्हों का अनुकरण करते रहेंगे।

हे विश्ववंदनीय दादी माँ, आपको शत् शत् नमन !

 

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

अनुभवगाथा

Didi manmohini anubhav gatha

दीदी, बाबा की ज्ञान-मुरली की मस्तानी थीं। ज्ञान सुनते-सुनते वे मस्त हो जाती थीं। बाबा ने जो भी कहा, उसको तुरन्त धारण कर अमल में लाती थीं। पवित्रता के कारण उनको बहुत सितम सहन करने पड़े।

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Dadi situ ji anubhav gatha

हमारी पालना ब्रह्मा बाबा ने बचपन से ऐसी की जो मैं फलक से कह सकती हूँ कि ऐसी किसी राजकुमारी की भी पालना नहीं हुई होगी। एक बार बाबा ने हमको कहा, आप लोगों को अपने हाथ से नये जूते

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Experience with dadi prakashmani ji

आपका प्रकाश तो विश्व के चारों कोनों में फैला हुआ है। बाबा के अव्यक्त होने के पश्चात् 1969 से आपने जिस प्रकार यज्ञ की वृद्धि की, मातृ स्नेह से सबकी पालना की, यज्ञ का प्रशासन जिस कुशलता के साथ संभाला,

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Bk jagdish bhai anubhavgatha

प्रेम का दर्द होता है। प्रभु-प्रेम की यह आग बुझाये न बुझे। यह प्रेम की आग सताने वाली याद होती है। जिसको यह प्रेम की आग लग जाती है, फिर यह नहीं बुझती। प्रभु-प्रेम की आग सारी दुनियावी इच्छाओं को

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Dadi gulzar ji anubhav

आमतौर पर बड़े को छोटे के ऊपर अधिकार रखने की भावना होती है लेकिन ब्रह्मा बाबा की विशेषता यह देखी कि उनमें यह भावना बिल्कुल नहीं थी कि मैं बाप हूँ और यह बच्चा है, मैं बड़ा हूँ और यह

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Bk brijmohan bhai ji anubhavgatha

भारत में प्रथा है कि पहली तनख्वाह लोग अपने गुरु को भेजते हैं। मैंने भी पहली तनख्वाह का ड्राफ्ट बनाकर रजिस्ट्री करवाकर बाबा को भेज दिया। बाबा ने वह ड्राफ्ट वापस भेज दिया और मुझे कहा, किसके कहने से भेजा?

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Bk ramesh bhai ji anubhavgatha

हमने पिताश्री जी के जीवन में आलस्य या अन्य कोई भी विकार कभी नहीं देखे। उम्र में छोटा हो या बड़ा, सबके साथ वे ईश्वरीय प्रेम के आधार पर व्यवहार करते थे।इस विश्व विद्यालय के संचालन की बहुत भारी ज़िम्मेवारी

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Bk kamlesh didi ji anubhav gatha

प्यारे बाबा ने कहा, “लौकिक दुनिया में बड़े आदमी से उनके समान पोजिशन (स्थिति) बनाकर मिलना होता है। इसी प्रकार, भगवान से मिलने के लिए भी उन जैसा पवित्र बनना होगा। जहाँ काम है वहाँ राम नहीं, जहाँ राम है

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Dadi gange ji

आपका अलौकिक नाम आत्मइन्द्रा दादी था। यज्ञ स्थापना के समय जब आप ज्ञान में आई तो बहुत कड़े बंधनों का सामना किया। लौकिक वालों ने आपको तालों में बंद रखा लेकिन एक प्रभु प्रीत में सब बंधनों को काटकर आप

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Bhau vishwakishore ji

बाबा के पक्के वारिस, सदा हाँ जी का पाठ पढ़ने वाले, आज्ञाकारी, वफादार, ईमानदार, बाबा के राइट हैण्ड तथा त्याग, तपस्या की प्रैक्टिकल मूरत थे। आप लौकिक में ब्रह्मा बाबा के लौकिक बड़े भाई के सुपुत्र थे लेकिन बाबा ने

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Dadi brijindra ji

आप बाबा की लौकिक पुत्रवधू थी। आपका लौकिक नाम राधिका था। पहले-पहले जब बाबा को साक्षात्कार हुए, शिवबाबा की प्रवेशता हुई तो वह सब दृश्य आपने अपनी आँखों से देखा। आप बड़ी रमणीकता से आँखों देखे वे सब दृश्य सुनाती

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Bk nirwair bhai ji anubhavgatha

मैंने मम्मा के साथ छह साल व बाबा के साथ दस साल व्यतीत किये। उस समय मैं भारतीय नौसेना में रेडियो इंजीनियर यानी इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर था। मेरे नौसेना के मित्रों ने मुझे आश्रम पर जाने के लिए राजी किया था।

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Mamma anubhavgatha

मम्मा की कितनी महिमा करें, वो तो है ही सरस्वती माँ। मम्मा में सतयुगी संस्कार इमर्ज रूप में देखे। बाबा की मुरली और मम्मा का सितार बजाता हुआ चित्र आप सबने भी देखा है। बाबा के गीत बड़े प्यार से

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Dadi hridaypushpa ji

एक बार मैं बड़े हॉल में सो रही थी परंतु प्रातः नींद नहीं खुली। मैं सपने में देख रही हूँ कि बाबा से लाइट की किरणें बड़े जोर से मेरी तरफ आ रही हैं, मैं इसी में मग्न थी। अचानक

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Dadi chandramani ji

आपको बाबा पंजाब की शेर कहते थे, आपकी भावनायें बहुत निश्छल थी। आप सदा गुणग्राही, निर्दोष वृत्ति वाली, सच्चे साफ दिल वाली निर्भय शेरनी थी। आपने पंजाब में सेवाओं की नींव डाली। आपकी पालना से अनेकानेक कुमारियाँ निकली जो पंजाब

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