दादी आत्ममोहिनी जी, जो दादी पुष्पशांता की लौकिक में छोटी बहन थी, भारत के विभिन्न स्थानों पर सेवायें करने के पश्चात् कुछ समय कानपुर में रहीं। जब दादी पुष्पशांता को उनके लौकिक रिश्तेदारों द्वारा कोलाबा का सेवाकेन्द्र दिया गया तब ब्रह्मा बाबा की श्रीमत अनुसार दादी आत्ममोहिनी ने भी दादी पुष्पशांता के साथ कोलाबा सेवाकेन्द्र की सेवा में बहुत सहयोग दिया और उनके जाने के बाद कोलाबा सेवाकेन्द्र का कार्यभार संभाला। आप बहुत ही निर्मानचित्त और शान्त स्वभाव की थी। बड़ी बात को छोटा करने में सदा ही नंबर आगे लिया। अपने नियम की पक्की और व्यवहारकुशल भी थी। आप 17 फरवरी, 1996 को पुराना शरीर छोड़ अव्यक्त वतनवासी बनी।
आत्ममोहिनी दादी लौकिक में पुष्पशांता दादी की छोटी बहन थीं। दादी पुष्पशांता तो माता थीं परंतु आत्ममोहिनी दादी कन्या थीं और कन्या के रूप में ही आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर सदा ही ईश्वरीय सेवा में तत्पर रही। जब आबू से सभी बहनें इधर-उधर ईश्वरीय सेवा पर गई तब आत्ममोहिनी दादी अनेक स्थानों पर सेवायें करते हुए, अंत में कानपुर में स्थिर हुईं परंतु जब दादी पुष्पशांता को उनके लौकिक रिश्तेदारों द्वारा कोलाबा का सेवाकेन्द्र दिया गया तब उन्होंने ब्रह्मा बाबा को अर्जी दी कि मुझे हैण्डस चाहिए। दूरांदेशी ब्रह्मा बाबा ने उत्तर में यही लिखा कि तुम्हारा यह सेन्टर लौकिक के सहयोग से खुल रहा है इसलिए तुम्हारा साथी भी लौकिक ही होना चाहिए ताकि आपके लौकिक को तसल्ली हो जाये कि उनके द्वारा दिया सहयोग सेवा में सफल हो रहा है। इसी कारण जब कोलाबा सेवाकेन्द्र की स्थापना हुई, तब दादी आत्ममोहिनी मुंबई आई। दादी पुष्पशांता के बाद आत्ममोहिनी दादी ने ही कोलाबा सेवाकेन्द्र का कार्यभार संभाला।
आत्ममोहिनी दादी बहुत ही निर्मानचित्त और शांत स्वभाव की थी। एक बार मेरे से गलती हो गई। सन् 1974 में मुंबई में विशेष मेला हो रहा था और हम सबने मिलकर अखबार में सप्लीमेंट डाली जिसमें हमने दादी पुष्पशांता और दादी आत्ममोहिनी दोनों का फोटो डाला। परंतु ग़लती से मैने दादी आत्ममोहिनी के फोटो के नीचे दादी आत्मइन्द्रा (गंगे दादी) का नाम लिख दिया। अखबार में दादी का नाम ग़लत छप गया। सबने मुझे कहा कि आपके ऊपर आत्ममोहिनी दादी नाराज होंगी। कोलाबा सेवाकेन्द्र पर जाकर मैंने आत्ममोहिनी दादी से गलती के लिए माफी माँगी। दादी ने कहा कि कोई हर्जा नहीं है। ‘आत्म’ शब्द तो है ही, सिर्फ ‘मोहिनी’ की बजाय ‘इन्द्रा’ शब्द लिखा गया है, आप फिक्र मत करो। मुझे कोई दुख या अफसोस नहीं है। तब मैंने दादी आत्ममोहिनी का बहुत-बहुत दिल से शुक्रिया माना और तय किया कि आगे से ऐसी छोटी भूल नहीं करूँगा। मुझे सदा ही दादी जानकी का एक क्लास याद रहता है कि हमारे हाथों में है छोटी बात को बड़ा करना या बड़ी बात को छोटी करना। छोटी बात को बड़ी करने में तो सब एक्सपर्ट हैं पर परीक्षा होती है बड़ी को छोटी करने में और उसमें विरले ही सफल होते हैं। इस प्रकार दादी आत्ममोहिनी जी ने सदा ही बड़ी बात को छोटी करने में नंबर आगे लिया।
दादी आत्ममोहिनी ने मुझे हमेशा ही ईश्वरीय सेवाओं में हर तरह से सहयोग दिया। दादी पुष्पशांता ने यह नियम बनाया था कि मैं हर रविवार को कोलाबा सेवाकेन्द्र पर क्लास कराऊँ। दादी पुष्पशांता के शरीर छोड़ने के बाद दादी आत्ममोहिनी ने इस नियम को अंत तक निभाया। रविवार आने के एक-दो दिन पहले वे मुझे फोन करके याद दिलाती और कोलाबा सेवाकेन्द्र आने का निमंत्रण देती। इस प्रकार आत्ममोहिनी दादी न केवल नियम की पक्की थी बल्कि व्यवहारकुशल भी थी।
कोलाबा सेवाकेन्द्र की गायत्री बहन जिन्होंने दादी जी के साथ 8 वर्ष तथा मोहिनी बहन जिन्होंने दादी जी के साथ 15 वर्ष बिताये, अपना अनुभव इस प्रकार सुनाती हैं –
आत्ममोहिनी दादी, पुष्पशांता दादी की लौकिक बहन थी। उनका लौकिक नाम हँसी मिलवानी था। सिंध हैदराबाद में जब बाबा ने यज्ञ की स्थापना की उस समय कुमारी अवस्था में ही ये यज्ञ में समर्पित हो गई। कुछ समय कानपुर में रहकर सेवायें की फिर बाबा ने इन्हें कोलाबा भेजा।
दादी जी अमृतवेले पर विशेष ध्यान देती थी। अनुशासन में रहना, चारों विषयों में बैलेन्स रखना, एक्यूरेसी – ये सब हमने दादी जी से सीखा। कन्यायें जब सेन्टर पर आती तो अपने लौकिक का, पढ़ाई का देह-अभिमान होता, दादी बड़ी युक्ति से उसे खत्म करती। दादी जी चाहती थी कि मेरे पास रहने वाली हर कुमारी भाषण में भी होशियार हो तो किचन का काम करने में भी एक्यूरेट हो, आलराउंडर हो। इसलिए दादी कुमारियों को इसी तरह की ट्रेनिंग देती थी। दादी जी को सुस्ती, बहानेबाजी बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी। लौकिक परिवार के साथ कितना संबंध रखना है, उनकी सेवा कैसे करनी है, यह सब हमें दादी जी ने सिखाया। रोजाना रात को कचहरी (फैमिली मीटिंग) लगाती। एक-दो से समाचारों की लेन-देन करती, अगले दिन के कार्यक्रम को निर्धारित करती।
दादी कुमारों को विशेष पालना देकर आगे बढ़ाती थी। उन्हें रहता था कि कुमार, कुमार ही रहे, कभी ब्राह्मण जीवन से तंग होकर भटक न जाये। इसलिए दादी हर रविवार कुमारों की विशेष भट्ठी कराती थी। उस दिन का भोजन कुमार ही बनाते थे। इससे कुमार भोजन बनाना भी सीख जाते थे और उनकी पिकनिक भी हो जाती थी। कुमारों की योग्यता अनुसार उन्हें सेवा देती थी। जिन कुमारों ने उनकी पालना ली, वे आज भी दृष्टि, वृत्ति, नियम, धारणाओं में बहुत पक्के हैं।
दादी जी निर्भय थी। बड़ी- बड़ी परीक्षायें आईं पर हमने उन्हें कभी घबराते हुए नहीं देखा। दादी जी बहुत इकॉनामी से चलती थी। दादी जी का सिद्धांत था, कम खर्च बालानशीन। हम जहाँ एक हजार खर्च करते हैं वहाँ दादी इकॉनोमी से सिर्फ 200 रुपये ही खर्च करती थी। उसमें भी अपने लिए उन्होंने कभी खर्च नहीं किया। कहीं भी सेवार्थ जाना होता तो बस में या रिक्शा में जाती थी, अपने लिए कभी गाड़ी नहीं ली।
अंतिम समय की उनकी स्थिति के बारे में ब्र.कु. गायत्री वहन सुनाती हैं-
अंतिम समय दादी चार महीना बीमार रही, हार्ट की तकलीफ थी। मुझे उनकी नजदीक से सेवा करने का भाग्य मिला। उस दिनों दादी बहुत न्यारी, प्यारी, उपराम हो गई थी। उन्हें ल्यूकोमिया हो गया था। उन दिनों बाबा का संदेश आया कि दादी तो मेरी गोद में है, निमित्त मात्र हिसाब- किताब चुक्तू करने के लिए बेड पर है। हम जब उनसे मिलने जाते, हमें बहुत हलकी दिखाई देती मानो हमें सकाश दे रही है। सत्रह फरवरी, 1996, शिवरात्रि का दिन था, दादी के कहे अनुसार हमने प्यारे बाबा को भोग लगाया। दादी जी की इच्छा थी कि पुलिस कमिश्नर शिवध्वज लहराये सो पुलिस कमिश्नर आये और शिवध्वज लहराया। इधर शिवरात्रि का कार्यक्रम पूरा हुआ और उधर दादी ने प्रातः 9 बजे के लगभग शरीर छोड़ा।
कोलाबा सेवाकेन्द्र के नागेश भाई जो पिछले 25 वर्षों से ज्ञान में चल रहे हैं और जिन्होंने 15 वर्ष दादी जी की पालना ली, उनके साथ का अनुभव इस प्रकार बताते हैं –
उन दिनों मेरा नया-नया कोर्स हुआ था। मुझे अमृतवेला सेन्टर पर करने की इच्छा थी। इसके लिए मैंने दादी जी से अनुमति ली। अगले दिन सुबह से ही मुझे एकदम बुखार आ गया, सारे शरीर में कंपकंपी छूटने लगी फिर भी नहा-धोकर मैं सुबह 4 बजे सेवाकेन्द्र पर आया। अमृतवेले योग के बाद मैं बाबा के कमरे में गया। दादी मुझे देखने आई और कहा, नागेश, बाबा तो वतन में चले गये, अभी उठो। मैं उठ नहीं पा रहा था। दादी को पता चला तो कहा, बाजू में आराम करने का कमरा है, वहाँ जाकर आराम करो। उन्होंने अपने हाथ से आशीर्वाद दिया और कहा, दस मिनट के अंदर आराम हो जाएगा। सच में ऐसा ही हुआ, दादी के वरदान से दस मिनट में ही मेरा बुखार उतर गया।
एक अन्य भाई शिवचरण शर्मा की उंगली में कपड़ा बंधा देखकर दादी ने पूछा, आप उंगली में कपड़ा क्यों बाँधते हो? उस भाई ने कहा, मुझे उंगली अंदर से दुखती है, ऐसा लगता है कि उंगली में कैंसर है। दादी ने कहा, आज से कपड़ा नहीं बाँधना, ठीक हो जायेगी। ऐसा ही हुआ, एक हफ्ते के अंदर ही उंगली दुखनी बंद हो गई और उस भाई का वहम खत्म हो गया।
मुलुंड सेवाकेन्द्र की संचालिका ब्र.कु. गोदावरी बहन दादी जी की विशेषतायें इस प्रकार सुनाती हैं –
दादी जी बहुत सरल स्वभाव की थीं और ईश्वरीय स्नेहमूर्त फरिश्ता स्वरूप जैसी बहुत ही अच्छी लगती थीं। चलते-फिरते भी हमें कर्मों द्वारा शिक्षा देती रहती थीं। उस समय उम्र छोटी होने के कारण दादी जी की कई बातें हमें समझ में नहीं आती थी लेकिन दादी जी कभी भी नाराज नहीं होती थी बल्कि हमेशा हर्षितमुखता से ज्ञान की मीठी-मीठी शिक्षायें देती रहती थी। उनका पवित्र प्रेम, रूहानी दृष्टि, आत्मीय योगदान और बाबा के प्रति लगन देखकर हमें भी उन समान बनने की प्रेरणा मिलती थी। अभी भी हमें याद आता है कि दादी जी के यज्ञ स्नेह, यज्ञ के प्रति बेहद की भावनाओं ने हमें भी यज्ञ के समीप लाकर यज्ञ में तन, मन, धन, मन, वचन, कर्म से समर्पित कर दिया।
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