अजमेर से ब्रह्माकुमारी राधा बहन जी लिखती हैं कि 11 अक्टूबर, 1965 के दिन मैंने साप्ताहिक कोर्स शुरू किया और उसके बाद 18 अक्टूबर को बाबा को पत्र लिखा। तीन दिन बाद बाबा का प्रत्युत्तर प्राप्त हुआ। बाबा ने लिखा, ‘बच्ची राधा कल्प पूर्व समान सच्ची ‘अनुराधा’ बनने पुनः आयी है। बच्ची डबल पढ़ाई पढ़कर अलौकिक 21 कुल तार कर 21 जन्म की राजाई लेगी…’ आदि। बापदादा के लाल अक्षरों वाला वह पहला पत्र अभी भी मेरी आँखों के सामने घूम रहा है। परन्तु वह मेरे ज्ञान का बचपन था, मैं उस पत्र के गूढ़ अर्थ को समझ न सकी। उस समय मैं एल.एल.बी. के अन्तिम वर्ष में पढ़ रही थी।
हम 6 दिसम्बर, 1965 को मधुबन पहुँचे। सायंकाल 6 बजे बाबा के कमरे में पहुँचे। हम सभी बाबा के सामने बैठे थे और बाबा ने दृष्टि देना शुरू किया। बाबा की दृष्टि इतनी सात्विक, पवित्र और शक्तिशाली थी कि मैं एकदम अशरीरी, हल्की हो गयी और डबल लाइट अपने को अनुभव करने लगी। कमरे में जैसेकि एकदम दिव्य सन्नाटा, दिव्य शान्ति ही शान्ति हो गयी। मेरे बाद बाबा ने कइयों को दृष्टि दी और वे बाबा की गोद में चले गये। परन्तु मैं अचल स्थिति में ही बैठी रही। सब कुछ देख भी रही थी पर मैं वहाँ कुछ अलग-सी अपने को महसूस कर रही थी। बारी-बारी से सब बाबा से मिल चुके तब बाबा ने कहा, ‘बच्ची, कहाँ खो गयी हो? नीचे आओ।’ तब कहीं मेरी निन्द्रा भंग हुई और मैं शरीर के भान में आयी और उठकर बाबा की गोदी में चली गयी। बाबा की गोद में जाकर ऐसा लगा जैसेकि सच्चा मात-पिता मुझ आत्मा को अब मिला है। जैसेकि अनेक बार मिले थे अब फिर से मिल रहे हैं। फिर बाबा ने हाथ मिलाया और कहा, बच्ची एकदम पवित्र फूल है, बाबा की अथक सेवा करेगी, बाबा का नाम बाला करेगी।
दूसरे दिन क्लास के बाद नाश्ता करके सब्ज़ी काटने की सेवा में सभी बैठ गये। इतने में बाबा आये, मुझे देखा तो निर्मला दीदी (राजापार्क, जयपुर वाली) को बोले, बच्ची, इस बच्ची को भाषण करना सिखाओ, ज्ञान समझाना सिखाओ। फिर बाबा ने मुझे अपने साथ मधुबन का चक्कर लगवाया। जहाँ भी काम चल रहा था वहाँ मिस्त्रियों, कारीगरों को डायरेक्शन दिये और हम झोपड़ी में पहुँचे। बाबा गद्दी पर बैठ गये। मैं बाबा के सामने बैठ गयी। बाबा ने मुझे उस दिन संन्यासियों को कैसे समझाना चाहिए, मिनिस्टरों और सरकारी अफ़सरों को कैसे समझाना चाहिए आदि बताया। यह सब समझाते हुए बाबा ने कहा, ‘बच्ची, सामने वाले को आदर देते हुए निडर होकर अथॉरिटी से समझाओ। सोचो, तुम्हें कौन पढ़ा रहा है! तुम किसका परिचय दे रही हो! सदा अपनी रूहानी अथॉरिटी में रहकर बोलोगी, तो सफलता तुम्हारे गले का हार बन जायेगी।’
मधुबन से वापस जयपुर आकर तो मैं लौकिक पढ़ाई के साथ-साथ सेवाओं में जुट गयी। मैंने मन ही मन एक्यूरेट श्रीमत पर चलने का निश्चय किया हुआ था, अतः मैं लॉ कॉलेज नहीं गयी। लगभग 15 दिन हो गये थे कॉलेज से अनुपस्थित रहते हुए। कॉलेज के प्रिन्सीपल ने घर पर शिकायत भेजी। शाम को जब मैं सेन्टर से घर पहुंची तो लौकिक पिताजी ने मुझ से पूछा कि कॉलेज क्यों नहीं जा रही हो? तो मैंने रूहानी नशे में कहा कि भगवान कहते हैं कि कन्याओं को लोक-कल्याण के लिए ईश्वरीय सेवा में लग जाना चाहिए। पिताजी ने बाबा को पत्र लिखा कि बच्ची ने पढ़ाई छोड़ दी है। बाबा का तुरन्त पत्र आया कि बच्ची को श्रीमत है कि तुम्हें डबल पढ़ाई पढ़नी है। डबल सर्विस करनी है। फिर मैंने कालेज जाना शुरू किया।
मैं लॉ फाइनल की परीक्षा देकर बाबा के पास पहुँच गयी और बाबा को कहा, ‘बाबा, मैं बिल्कुल फ्री होकर आयी हूँ, अब आप जो सेवा दें। बाबा ने कहा, बच्ची, तुम्हें डबल सर्विस करनी है। मैंने कहा, बाबा, आप मिले हो तो मैं लौकिक सर्विस में क्यों टाइम गंवाऊँ? मैं तो ईश्वरीय सेवा ही करूंगी।’ बाबा ने कहा, ‘बच्ची, तुम्हें यह वरदान है कि तुम लौकिक सर्विस करते भी ईश्वरीय सेवा अधिक करोगी।’ मैंने पूछा, ‘बाबा, वकालत करूँ? तो बाबा ने कहा, ‘भल करो।’ मैंने जयपुर आकर वकालत शुरू कर दी और कोर्ट जाने लगी। मैं तब लगभग हर माह मधुबन जाया करती थी। बाबा हर बार पूछते थे, बच्ची, वकालत तुम्हें कैसी लग रही है? मैं हर बार जवाब देती थी कि बाबा, मुझे वकालत अच्छी नहीं लगती क्योंकि झूठ बोलना पड़ता है। लगभग 10 महीने वकालत करते हो गये थे, फिर एक बार मधुबन आयी तो बाबा ने पूछा, बच्ची, अब वकालत कैसी लग रही है? तो मैंने कहा, ‘बाबा, अब तो ठीक है, इतनी बुरी नहीं है। अब मुझे भी वकालत में मज़ा आ रहा है।’ बाबा ने तुरन्त बोला, ‘बस बच्ची, अब आज से तुम्हें वकालत नहीं करनी है वरना तुम्हें झूठ बोलने की आदत पड़ जायेगी। बस बहुत हो गयी वकालत। तुम्हें अनुभवी बनाने के लिए बाबा ने वकालत करवायी। अब तुम बैंक में सर्विस करो। सुबह 10 से शाम 5 बजे तक लौकिक सेवा करो बाक़ी सुबह-शाम ईश्वरीय सेवा करो।’ मधुबन से जयपुर जाने के बाद बैंक में सर्विस ले ली। सचमुच बैंक सर्विस करते हुए बाबा ने ईश्वरीय सन्देश देने की मेरे से बहुत सेवा करवायी।
सन् 1968 में भाऊ विश्व किशोर जी बहुत बीमार हो गये थे। बाबा ने उन्हें ऑपरेशन कराने मुंबई भेजा। उस समय मैं भी मधुबन में ही थी। ऑपरेशन तो अच्छा हो गया परन्तु भाऊ को काफ़ी तकलीफ़ थी। अतः बाबा रात भर योग में बैठे रहे। मैंने रात को 12 बजे देखा, बाबा योग कर रहे थे। मैं वापस अपने कमरे में आकर योग करने लगी। फिर 2 बजे के लगभग मैंने बाबा के कमरे में देखा तो बाबा उसी प्रकार योग कर रहे थे। फिर 4 बजे बाबा के कमरे में गयी तो बाबा बोले, ‘बच्ची, विश्व किशोर बच्चे को बहुत तकलीफ़ है इसलिए आज रात भर बाबा बच्चे को सकाश देते रहे।’
फिर बाबा पुनः योग में बैठ गये और मुझे भी बिठा दिया तथा सकाश देने लगे। मुझे दृष्टि देकर योग कराया तो वह अनुभव भी एकदम निराला था, जैसे संकल्प-विकल्प से परे दिव्य ज्योति के प्रकाश ही प्रकाश का अनुभव किया। दिन में एक बजे के लगभग रमेश भाई का फोन आया कि बाबा, भाऊ विश्व किशोर ने पुरानी देह को त्याग दिया। जब तक यह फोन नहीं आया था बाबा बार-बार बहुत प्यार से भाऊ को याद कर रहे थे। किन्तु जैसे ही भाऊ के शरीर छोड़ने का समाचार आया, बाबा एकदम नष्टोमोहा बन गये।
रमेश भाई ने बाबा से पूछा कि भाऊ के शरीर को आबू ले आयें? बाबा ने कहा, नहीं, बच्चे का मुंबई में ही अन्तिम संस्कार कर दो। फिर बाबा ने भाऊ को बिल्कुल याद नहीं किया। बस, इतना ही कहा कि बच्चे का पार्ट पूरा हुआ, ड्रामा। दो-तीन दिन के बाद शील इन्द्रा दादी मुंबई से भाऊ के अन्तिम संस्कार के फोटो लेकर आयीं और बाबा के कमरे में जाकर बाबा को लिफाफा देकर बोली, ‘बाबा, भाऊ के अन्तिम संस्कार के फोटो लायी हूँ। बाबा एकदम गंभीर होकर बोले, बच्ची, ये क्यों खिंचवायी? विश्व किशोर बच्चे के मुरीद इन्हें देखकर रोयेंगे। आश्चर्य! बाबा के दोनों ही रूप एक-दूसरे से विपरीत देखकर मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। कहाँ इतना प्यार कि रात भर योगदान दिया और कहाँ भाऊ के देह त्यागते ही नष्टोमोहा दिखायी दिये!
मेरे लौकिक पिताजी ज्ञान में चलकर भी मधुबन डेढ़ वर्ष तक नहीं गये। उन्हें दिव्य दृष्टि भी प्राप्त हो गयी थी। लगभग 20-25 वर्ष पुराना दमा भी खत्म हो गया था और वे निरोगी बन गये थे। एक बार उन्होंने इच्छा जाहिर की कि वे बाबा से मिलना चाहते हैं। घर पर उनकी डायरी में मैंने बाबा से पूछने के लिए लगभग 100-150 प्रश्न लिखे देखे। मैंने मन में सोचा कि शायद इस आत्मा को भगवान पर बिल्कुल निश्चय नहीं है। उससे पहले उनका कोर्स भी बड़ा विचित्र ढंग से हुआ था। निर्मला दीदी ने उन्हें कोर्स करने को कहा। मेरी लौकिक माताजी और पिताजी ने कोर्स किया। आत्मा का चित्र देखते ही पिताजी शरीर से डिटैच हो ट्रान्स में चले जाते थे। जब बाबा को यह बात फोन पर मैंने बतायी तो बाबा ने कहा, ‘बच्ची, तुम उस बच्चे को रीयल गीता (Real Gita) पुस्तक दे दो। बाक़ी ध्यान में ही ऊपर (वतन में) बाबा कोर्स करा देंगे।’ सो उन्होंने ध्यान में बाबा द्वारा कोर्स किया।
मैं लौकिक पिताजी को लेकर आबू अब्बा के घर पहुंची। मैं नहा-धोकर बाबा के कमरे में गयी। मैंने पूछा, बाबा, लौकिक पिताजी को आपसे मिलवाने आपके कमरे में ले आऊँ? बाबा ने कहा, ‘बच्चे को क्लास रूम में बिठाओ, बाबा वही मिलेंगे।’ उस समय अन्य 40 भाई-बहनें भी आये हुए थे। जब उन्होंने सुना कि जयपुर से एस.पी. बाबा से मिलने आया है तो वे भी क्लास में आकर बैठ गये। बड़ी दीदी बाबा को क्लास हॉल में लेकर आयीं। बाबा को देखकर लौकिक पिताजी खड़े हो गये और झुककर बाबा के पाँव छूने लगे। किन्तु बाबा ने पाँव छूने से पहले ही उन्हें पकड़ लिया और कहा, ‘बच्चे बाबा के कन्धे पर बैठते हैं, न कि पाँव में।’ बाबा ने उन्हें बिठा दिया और वे भी नीचे ही बैठ गये। बाबा लौकिक पिताजी को दृष्टि देने लगे। लौकिक पिताजी दृष्टि लेते ही एकदम उठकर जल्दी से बाबा की गोद में समा गये और सिसक-सिसककर छोटे बच्चे की तरह रोने लगे। लगभग 20 मिनट तक बाबा की गोदी में रोते रहे। आखिर बाबा से अलग हुए और मैं उन्हें कमरे में लेकर आयी। मैंने उनसे पूछा, ‘आपको क्या हो गया था? अरे! आप ज़िले के एस.पी. हैं, बड़े आदमी हैं, आप हमारे बाबा के गले लगकर बच्चों की तरह रोयें…। आखिर आपको हुआ क्या था एस.पी. साहब?’
वे मुस्कराने लगे और बोले, ‘बाबा की दृष्टि में इतनी ममता और आत्मीयता थी कि मैं एकदम भूल गया कि मैं कौन हूँ। मैं तो अपने को एकदम छोटा बच्चा महसूस कर रहा था। बाबा के सामने अनुभव कर रहा था कि इतने समय के बाद मेरा बिछुड़ा हुआ असली पिता मुझे मिला है। मैं अपने को रोक नहीं सका और गोद में चला गया, प्यार में आँसू बहा रहा था। अब मुझे 100% निश्चय है कि परम पिता शिव बाबा ही इस ब्रह्मा बाबा में प्रवेश करके कार्य कर रहे हैं; और तो और मैं सारी दुनिया को बता सकता हूँ कि यह भगवान का ही कार्य है।’
शाम को 5 बजे बाबा के कमरे में पिताजी को ले गयी। बाबा ने प्यार से बिठाया और सारा समाचार पूछा, फिर लौकिक पिताजी से पूछा कि बच्चे, कुछ पूछना हो तो बाबा से पूछ सकते हो। इससे पहले जो भी बातचीत हुई वह साकार ब्रह्मा बाबा कर रहे थे। किन्तु एक सेकण्ड में निराकार शिव बाबा की प्रवेशता हो गयी और बाबा ने पूछा, बच्चे, कुछ पूछना हो तो बाबा से पूछ सकते हो। लौकिक पिताजी पर बाबा की दृष्टि पड़ते ही वे अशरीरी होने लगे और बाबा से बोले, बाबा, मुझे कुछ नहीं पूछना है। मेरे अब कोई प्रश्न नहीं है। तीन दिन वे मधुबन में रुके। उन तीन दिनों में बाबा ने मुरली में, लौकिक पिताजी के डायरी में लिखे हुए सभी प्रश्नों के तर्कसंगत और सटीक जवाब दिये। जयपुर वापस लौटकर तो पिताजी का जीवन ही बदल गया। ऐसी थीं बाबा की दृष्टि और वाणी।
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