वर्तमान समय में ब्र.कु.सुधा बहन रूस के तथा उसके आस-पास के सेवाकेन्द्रों की संयोजिका हैं। वे कहतीं हैं; सन् 1968 में मुझे यह ज्ञान दिल्ली, कमला नगर सेन्टर से मिला। यह मेरा सौभाग्य है कि हमारा घर दिल्ली, कमला नगर में ही था। जिस समय हम ज्ञान में आये, उस समय कमला नगर सेन्टर पर दादी गुलज़ार जी रहती थीं। उनके साथ भ्राता जगदीश जी तथा चक्रधारी दीदी रहते थे। इनके अलावा वहाँ और कई भाई रहते थे, जैसे सत्यनारायण भाई, बलदेव भाई इत्यादि क्योंकि ईश्वरीय विश्व विद्यालय का प्रकाशन विभाग वहीं पर था। जब मैं ज्ञान में आयी उस समय मेरी आयु 14 साल की थी। मेरी पढ़ाई सन् 1976 में पूरी हुई।
सबसे पहले हमारे घर से लौकिक माताजी ज्ञान में आयीं। उसके बाद मैं और मेरी छोटी बहन कमलेश, जो मुंबई सान्ताक्रुज़ सेवाकेन्द्र पर रहती हैं, ज्ञान में चलने लगी। कुछ समय के बाद सबसे छोटी बहन राधा भी, जो अभी मुंबई, गोरेगाँव सेवाकेन्द्र पर रहती हैं, ज्ञान में चल पड़ी। इस प्रकार, हमारे घर से चार लोग ज्ञान में चलते थे, अब हम तीन बहनें समर्पित हैं। जब मैं छह साल की थी, उस समय से ही मेरे मन में कई प्रश्न उठते थे। मुझे लोगों की बातों में विरोधाभास लगता था। मम्मी से पूछा करती थी कि वे लोग वैसे क्यों कहते हैं, ऐसे क्यों कहते हैं? तो मम्मी कहती थी कि बेटी, सब लोग तो यही कहते हैं, हम भी उसी को मानते आये हैं, बाक़ी मुझे भी नहीं पता।
मैंने सुना था कि भगवान हमारे अच्छे और बुरे कर्मों को देखता है और जो अच्छे कर्म करते हैं, उनको स्वर्ग में भेजता है और जो बुरे कर्म करते हैं, उनको नरक में भेजता है। इसलिए मेरी यह इच्छा होती थी कि मुझे स्वर्ग में जाना है और भगवान मुझे स्वर्ग में ही भेजेगा। स्वप्न में बहुत बार मैं श्रीकृष्ण को देखती थी। घर में तो सब देवी-देवताओं की भक्ति होती थी जैसे दुर्गा, काली, गणेश, हनुमान, इत्यादि। वैसे तो हमने शिव की भक्ति भी बहुत की है, सोमवार को व्रत रखते थे। माताजी हमें बचपन से ही सुबह-सुबह उठाती थीं, नहला कर भगवान की मूर्ति के सामने बिठाकर आरती गाने के लिए कहती थी। बचपन से ही भक्ति करते हुए मन में यह उत्सुकता रहती थी कि ये सब क्या है? वास्तव में परमात्मा कौन है?
जिस बिल्डिंग में हम रहते थे, उस में छह-सात परिवार रहते थे। उन परिवारों में से एक परिवार ज्ञान में चलता था। उस परिवार में जो माता थी, वो हमारी मम्मी की सहेली थी, उनके साथ मम्मी जाकर बैठा करती थी तो शायद वहाँ ज्ञान सुनती होगी। एक दिन मम्मी वहाँ से त्रिमूर्ति का चित्र ले आयी और मेरे से कहा कि दुनिया खत्म होने वाली है, विनाश होने वाला है। जो मौत के समय बाबा को याद रखेगा, वो स्वर्ग में जायेगा। उस समय तो हमें यह पता ही नहीं था कि बाबा माना निराकार शिव है। आम भाषा में तो बाबा माना बुज़ुर्ग व्यक्ति। मुझे स्वर्ग जाने की इच्छा तो थी ही, तो मैं सुबह-सुबह जाकर त्रिमूर्ति के चित्र में ब्रह्मा बाबा के सामने खड़ी हो जाती थी ताकि मरने के समय बाबा की याद आये और मैं स्वर्ग में जाऊँ।
फिर एक दिन मम्मी घर पर मुरली ले आयी। उसे देखकर मैंने पूछा, यह क्या है? उन्होंने कहा, तुम ही पढ़कर देख लो। मैंने तो पढ़ा लेकिन समझ में कुछ नहीं आया। मैंने पूछा, यह कहाँ मिलती है? उन्होंने कहा, वहाँ एक आश्रम है, वहाँ मिलती है। फिर मैंने पूछा, वहाँ क्या करते हैं? मम्मी ने कहा, वहाँ लोगों की ग़लतियों को छुड़ाते हैं। मैंने सोचा, यह तो अच्छी बात है, वहाँ जाकर देखना चाहिए। मैंने कहा, मुझे भी वहाँ ले चलो। फिर यह बात पूरी हो गयी। उन दिनों स्कूल की परीक्षायें आने वाली थीं तो पढ़ने के लिए कुछ दिनों की छुट्टियाँ मिली थीं। उस समय मैं दसवीं कक्षा में थी।
एक दिन मैं छत पर जाकर पढ़ रही थी। जो माता मेरी मम्मी की सहेली थी और ज्ञान में चलती थी, उन्होंने मुझे आवाज़ दी कि सुनो, एक मिनट इधर हमारे घर में आओ, रेडियो पर कितना अच्छा गीत आ रहा है! हम सब बहनें गाने की बहुत शौकीन थीं, यह उनको मालूम था। गीत आ रहा था, ‘किसी ने अपना बनाके, हमको मुस्कराना सिखा दिया’। मुझे वो गीत अच्छा लगा और उसके आधार पर उन्होंने मुझे ईश्वरीय ज्ञान सुनाना शुरू किया। ज़्यादा तो नहीं सुनाया, थोड़ा ही सुनाया क्योंकि उनको भी पता था कि हमारी परीक्षायें आने वाली हैं। लेकिन उसका प्रभाव मुझ पर इतना पड़ा कि मैंने तय कर लिया कि परीक्षा पूरी होने के बाद सेन्टर पर जाना है। परीक्षा पूरी होने के बाद मैंने पिताजी से कहा कि मुझे आश्रम पर जाना है, तो उन्होंने कहा, जाओ। मैं वहाँ गयी। जाते ही मैंने सेन्टर पर दादी गुलज़ार जी, दीदी चक्रधारी जी और भ्राता जगदीश जी को देखा। जैसे ही उनको देखा, मन में आया कि मुझे भी इन जैसा बनना है।
छुट्टियों के बाद फिर स्कूल खुले, मैं स्कूल जाने लगी। रोज़ सेन्टर पर नहीं जाती थी परन्तु हर रविवार ज़रूर जाती थी। उस समय सेन्टर पर लगभग बड़ी और छोटी चालीस कुमारियाँ आती थीं। रक्षा बन्धन आने वाला था। जगदीश भाईजी ने मेरे से पूछा, देखो, यह गीत है और अभी रक्षाबन्धन का तयौहार होगा, हम पब्लिक प्रोग्राम करेंगे तो आपस में मिलकर यह गीत गा सकती हो? मैंने गीत देखा और कहा, हाँ, हम गा सकती हैं और सामूहिक गीत के रूप में भी प्रस्तुत कर सकते हैं। उन्होंने पूछा, कैसे कर सकते हो, दिखाओ? वहाँ छोटी-छोटी कुमारियाँ थीं, उनको ले कर मैंने थोड़ा रिहर्सल दिखा दिया। भाई साहब को बहुत अच्छा लगा। गीत था, ‘पवित्र बन, पवित्र बन, मां भारती पुकारती।’ नौ कुमारियों के ग्रुप ने सफ़ेद फ्रॉक और रिबन आदि पहनकर डान्स किया तो सबको बहुत पसन्द आया। वह गीत इतना जनप्रिय हो गया कि कम से कम सौ बार उस डान्स का प्रदर्शन किया गया। दिल्ली के सब सेन्टरों पर और मधुबन में भी इस डान्स का प्रदर्शन किया। इस तरह से मेरे ज्ञान का बचपन शुरू हुआ।
एक दिन जगदीश भाई साहब ने मेरे से पूछा कि अगर आपको मैं कोई लिखने का काम दूँ तो लिखोगी? मैंने कहा, हाँ, फेअर करके दूंगी। उस दिन से उनका लिखा हुआ मैटर फेअर करके देने की सेवा करने लगी। ज्ञान में आने के एक साल के अन्दर ही मैं जगदीश भाई जी के साथ सेवाएं देने लगी। वे पहले-पहले फेअर करने की सेवा देते थे, उसके बाद डिक्टेट कराते थे, मैं सीधा लिख लेती थी। उसके बाद ज्ञानामृत के लेख तथा ईश्वरीय साहित्य की प्रूफ रीडिंग की सेवा देने लगे। इसके बाद अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-व्यवहार की सेवा दी। भाई साहब के साथ मैंने बहुत सेवा की, एक-एक दिन चौदह-चौदह घण्टे भी सेवा की। मुझे ज्ञान में आये दो साल हुए थे, गुलज़ार दादी जी पाण्डव भवन चली गयीं। उस समय चक्रधारी दीदी कहीं बाहर जाने वाली थीं तो उन्होंने कहा कि मैं एक हफ़्ता बाहर जा रही हूँ, मेरे आने तक तुमको सेन्टर में रहना है। तुमको रोज़ मुरली सुनानी है और आये हुए जिज्ञासुओं को कोर्स कराना है। मैंने कहा, ठीक है। मैं कोर्स कराने की तैयारी करने लगी।
उन दिनों सुबह की क्लास साढ़े पाँच बजे शुरू होती थी। क्लास में आने वाले भाई-बहनें तो बाबा के पुराने बच्चे थे, वे मेरे माता-पिता की उम्र वाले थे। वहाँ यह रिवाज़ था कि मुरली सुनाने से पहले, थोड़ा क्लास कराया जाता था, बाद में मुरली। मैं छोटी होने के कारण, क्लास वाले भी बहुत प्यार करते थे। वहाँ की क्लास फुल होती थी। मुरली सुनाना शुरू किया और आधे घंटे में मुरली पूरी हो गयी। मैं हैरान हो गयी क्योंकि दीदी तो एक घंटे में मुरली पूरी करती थी लेकिन मेरी तो आधे घंटे में पूरी हो गयी। फिर मैंने भाई-बहनों से पूछा कि दूसरी मुरली भी पढ़ लूँ? उन्होंने कहा, हाँ, पढ़ लो।
मैंने पढ़ ली। क्लास के भाई-बहनें बहुत खुश हो गये, मेरी बहुत प्रशंसा करने लगे कि आपने बहुत अच्छी मुरली सुनायी। कुछ भाई-बहनों ने जगदीश भाई जी के पास जाकर भी बता दिया कि यह कुमारी तो बहुत बढ़िया मुरली सुनाती है। मुझे तो पता नहीं था कि मैंने क्या पढ़ा, कैसे पढ़ा। लेकिन क्लास के भाई-बहनों के समर्थन ने मेरे में बहुत उमंग-उत्साह बढ़ा दिया। फिर जगदीश भाई जी ने टोली खिलायी, शाबाशी दी। क्लास पूरी ही हुई थी कि एक कोर्स वाला आ गया। पहले ही मैंने एक पर्ची में प्वाइंट्स नोट करके रखे थे, वो उसको सुना दिये। उसके बाद दूसरा आया, उसके बाद तीसरा, फिर चौथा।
इस प्रकार, पहले दिन ही मैंने चार लोगों को दिन के बारह बजे तक कोर्स कराया। इस प्रकार, सेन्टर की सेवा के साथ-साथ मेरी लौकिक पढ़ाई भी चलती रही। कॉलेज की पढ़ाई पूरी हो गयी, युनिवर्सिटी में पढ़ने लगी लेकिन मेरी अलौकिक पढ़ाई तथा सेवा में बहुत रुचि पैदा हो गयी थी। ज्ञान सुनाना, योग कराना, ड्रामा और डान्स सिखाना, कार्यक्रमों का आयोजन करना, कर्मणा सेवा तथा ऑफिस के काम करना सब प्रकार की सेवा करने को मिली। उस समय मेरे लौकिक पिताजी ज्ञान में नहीं चलते थे। मैं इतना व्यस्त हो गयी कि पिताजी हफ़्ते तक मुझे देख नहीं पाते थे। सुबह उनके उठने से पहले मैं क्लास में चली जाती थी। फिर घर जाकर कपड़े बदलकर नाश्ता करके युनिवर्सिटी चली जाती थी, फिर शाम को आती थी। आने के बाद फिर सेन्टर पर चली जाती थी। फिर रात को घर वापिस। पिताजी को हमारे साथ बात करने के लिए भी अवसर नहीं मिलता था। हमारी प्रिंटिंग प्रेस थी। पिताजी सुबह प्रेस जाते थे तो मैं घर में नहीं रहती थी, जब रात को वापिस आते थे तो भी मैं घर में नहीं रहती थी। पूछते थे, सुधा कहाँ है, तो उत्तर मिलता था कि सेन्टर पर गयी है। धीरे-धीरे उनको बहुत खराब लगने लगा। तब से उन्होंने तरह-तरह की अड़चनें डालनी शुरू की। उनको ज्ञान में चलने के लिए कोई विरोध नहीं था। जब मैं हाईस्कूल पढ़ती थी, तब ही उन्होंने मेरे से कहा था कि देखो बेटा, मैं तुझको शादी के लिए जबर्दस्ती नहीं करता, ज्ञान में चलने के लिए भी मना नहीं करता लेकिन तुमको पढ़ाई अच्छी तरह पढ़नी चाहिए, इसमें मैं तुमको किसी तरह की छूट नहीं दूंगा। जब उन्हों को लगा कि सारा समय यह सेन्टर पर रहती है तो उनको बहुत ही बुरा लगने लगा और मम्मी पर बहुत गुस्सा करने लगे। एक दिन उनको इतना गुस्सा आया कि उस दिन घर में कोई ने खाना ही नहीं खाया। उस समय में बी.एस.सी. में पढ़ रही थी। पिताजी की इच्छा थी कि मैं डॉक्टर बनूँ, मम्मी चाहती थी कि मैं प्रोफेसर बनूं। मुझे डॉक्टर बनने की इच्छा थी इसलिए मैंने हाईस्कूल में जीवशास्त्र (Biology) लिया। ज्ञान मिलने के बाद मेरा लक्ष्य बदल गया। अगर मैं मेडिकल लाइन में जाऊँगी तो मेरा सारा समय उस में चला जायेगा, ईश्वरीय सेवा नहीं कर सकती। इसलिए मैंने कॉलेज में वनस्पति शास्त्र (Botany) लिया। इसके कारण पिता जी और मामा जी बहुत नाराज़ हो गये, उस नाराजगी में यह बात भी मिली हुई थी कि सारा दिन यह सेन्टर में ही रहती है। अगले दिन सुबह फिर मैं सेन्टर पर जाने के लिए तैयार हो गयी तो मम्मी ने कहा, आज क्लास में नहीं जाओ, तुम्हारे पिताजी और मामाजी नाराज़ हैं। कल जाना, आज छोड़ दो।
मैंने कहा, अगर आज छोड़ दिया तो कल भी ऐसे ही करेंगे। वे समझेंगे कि हम नाराज़ होंगे तो जाना छोड़ देगी। इसलिए मुझे जाना ही है, आज नहीं तो कल यह समस्या आयेगी ही। कल के बदले आज ही हो जाये फैसला। एक बार हमारे सारे रिश्तेदार आ गये घर पर और मम्मी को कहने लगे कि आपको जाना हो तो वहां जाओ, बच्चों को क्यों ले जा रही हो? सबने मम्मी को बहुत सुनाया। मम्मी चुपचाप सुन रही थी, उन्होंने कुछ नहीं बोला। मैं भी वहीं बैठकर सुन रही थी। उन्हों का कहना सुनकर मुझ से रहा नहीं गया तो मैंने रिश्तेदारों से कहा, आप मम्मी को क्यों इतनी सारी बातें सुना रहे हो? मम्मी मुझे नहीं लेकर गयी है। मैं अपनी मर्ज़ी से, अपने शौक से जा रही हूँ। अगर मम्मी लेकर जाती होती तो मुझ अकेली को क्यों लेकर जाती? सबको लेकर जाती। इसलिए आपको जो कुछ भी कहना है, मुझे कहिये। अच्छा, आप यह बताइये, वहाँ जाने के लिए आप क्यों मना कर रहे हैं? क्या वहाँ जाने के बाद हमारे में कोई बुराइयाँ आयी है? क्या हम कोई ग़लत काम करते हैं? अगर ऐसे है तो बताइये। अगर आप यह देख रहे हैं कि मैंने पढ़ाई में लापरवाही की है तो मैं आपको लिखकर देती हूँ कि कल से वहाँ नहीं जाऊँगी। सब चुप हो गये क्योंकि उनके बच्चे ट्यूशन लेते थे, मैं नहीं लेती थी। मैं कभी किसी विषय में कम मार्क्स भी नहीं लिए थे।
उस दिन के बाद हमारा कोई रिश्तेदार कुछ नहीं बोला। सन् 2005 में हमने अपने सब रिश्तेदारों के लिए दिल्ली में एक स्नेह सम्मेलन रखा था। उस समय हम तीनों बहनें थी वहाँ, हम लोगों ने भी उनको ज्ञान सुनाया। सब बहुत खुश हो गये। भाषण पूरा होने के बाद मैंने उनसे पूछा कि किसी को कुछ कहना है तो कह सकते हैं। तब जो मामा जो मेरा सबसे ज़्यादा विरोध करता था, उसने ही कहा कि मुझे कुछ कहना है। वे स्टेज पर आये और कहा कि ये बच्चियाँ बचपन से ही आश्रम पर जाती थीं, मैं बहुत इनका विरोध करता था लेकिन आज इनका जीवन देखकर हमें बहुत खुशी हो रही है। हमें भी प्रेरणा मिली है, हम भी इन जैसा बनने के लिए प्रयत्न करेंगे।
प्रश्नः जगदीश भाई जी के साथ आपने बहुत समय तक सेवा की है, उनकी साहित्य की सेवा में भी बहुत मददगार रही हुई हैं, उनके साथ का कोई संस्मरण सुनाइये।
उत्तरः भाई साहब बड़े कमाल के व्यक्ति थे। बचपन से ही में बहुत नाजुक स्वभाव की थी। भाई साहब काम के बहुत पक्के थे। अगर आपने उनसे कहा कि यह काम इतने समय में हो जायेगा, तो तब तक वो होना चाहिए, एक मिनट भी देर नहीं होनी चाहिए। कई बार मेरे से ऐसा नहीं हो पाता था, कारण मैं बताती थी कि जिज्ञासु को कोर्स कराना था, फलाना काम अर्जन्ट आ गया, उसको करना पड़ा इसलिए यह काम नहीं हो पाया। ऐसी बातों को वे पसन्द नहीं करते थे। अगर आपने कहा है, तो किसी भी परिस्थिति में करके देना चाहिए। कई बार वे सीरियस हो कर कह देते थे, तो मुझे रोना आ जाता था। रोना आता था तो मेरी आँखें सूज जाती थी, मोटी-मोटी, लाल-लाल हो जाती थीं। उसके बाद मैं न खाना खाती थी, न नींद कर पाती थी। फिर भाई साहब आकर, मुझे मनाते थे तो फिर खाना आदि खाती थी। जब तक मुझे खाना नहीं खिलाते थे, तब तक वे खुद भी नहीं खाते थे। खाना खाने के बाद मुझे हँसा लेते थे। जब तक हँसें नहीं, तब तक मेरे सामने से वे उठते ही नहीं थे। ऐसा सिर्फ मेरे साथ नहीं था, किसी का भी मूड ऑफ होता था, तो जब तक वे ठीक नहीं होंगे तब तक छोड़ते नहीं थे। उनका मूड ठीक करके ही वहाँ से उठते थे। लव और लॉ का सन्तुलन भाई साहब के पास बहुत अच्छा देखने में आता था।
एक बार की बात मुझे याद आ रही है। यह शुरू-शुरू की बात है। भाई साहब ने मुझे लिखने का काम दिया। उसको लेकर में दूसरे कमरे में चली गयी। वहाँ बलदेव भाई (जो आजकल ‘प्रगति पथ प्रदर्शक‘ पत्रिका के सम्पादक हैं) बैठे थे। उन्होंने कहा, मुझे अर्जन्ट प्रेस में जाना है लेकिन प्रूफ रीडिंग भी करना है। क्या आप कर सकते हैं, बहुत अर्जन्ट है। उनकी रिक्वेस्ट सुनकर मैंने सोचा, उनको प्रेस जाना है, तो उनका काम पहले करना चाहिए। तो मैंने प्रूफ रीडिंग करना शुरू किया। इसमें टाइम लग गया। दो घंटे बीत गये। भाई साहब ने मुझे बुलाया और पूछा कि हो गया काम? मैंने कहा, ‘नहीं।’ उन्होंने पूछा, ‘और कितनी देर लगेगी?’ मैंने कहा, ‘अभी तो शुरू ही नहीं किया।’ उन्होंने पूछा, क्यों नहीं शुरू किया? मैंने कहा, ‘बलदेव भाई ने यह काम दिया। उन्होंने कहा, जब मेरे से काम लिया था तो उनसे आपने काम कैसे लिया? मैंने कहा, भाई साहब, आप भी मेरे से बड़े हैं और वे भी मेरे से बड़े हैं। उन्होंने कहा कि मुझे अभी ही प्रेस जाना है प्रूफ रीडिंग लेकर।’ भाई साहब ने कहा, ‘ठीक है, वे भी बड़े हैं, उनकी बात मना नहीं करो लेकिन क्या आपने यह बताया था कि जगदीश भाई ने भी मुझे काम दिया है?’ मैंने कहा, ‘नहीं बताया।’ फिर भाई साहब ने कहा, ‘अगर उनको पता होता, तो आपको यह काम नहीं देते थे। मैं तो आपके लिए इन्तज़ार कर रहा हूँ। आप उनसे यह तो कह सकती थी कि आपका काम अर्जन्ट है तो भाई साहब से पूछ लीजिये। अगर वे कहते हैं कि मेरा बाद में करना, इनका पहले कर दो, तो मैं करके दूंगी।’ तब मैंने उनसे यह सीखा कि जिस काम के लिए हमने ‘हाँ’ कहा है, उसको पहले करना चाहिए, अगर दूसरा अर्जन्ट काम भी आ जाये, तो पहले जिन्होंने काम दिया है उनसे छुट्टी लेकर दूसरों का काम करना है, यह तरीका है।
सन् 1981 में दिल्ली में ‘विश्वकल्याण महोत्सव’ हुआ था। भाई साहब इसके मुख्य संगठनकर्ता थे। उसमें मेला तथा चित्रप्रदर्शनी का आयोजन करना था। बारह हज़ार लोग दिल्ली में इकट्ठे हुए थे, उनकी शान्ति यात्रा निकलनी थी, बहुत सारी झांकियां बनी थी और अंग्रेजी में दो स्मारिका निकालनी थी, इनके अलावा डिवाईन एक्सपीरियन्स तथा दिव्य अनुभव नामक दो पुस्तकें प्रकाशित करवानी थी। उन्हीं दिनों में ‘द वे एण्ड गोल ऑफ राजयोग’ (The Way & Goal of Rajyoga) तथा ‘महाभारत और गीता का सच्चा सार और स्वरूप’ पुस्तकें छप रही थीं। स्मारिका तथा अनुभव की पुस्तकों के लिए लोगों से उनकी बॉयोग्राफी, अनुभव, फोटो आदि मंगवाना था। इन सेवाओं के कारण पूरे साल सन् 1980 से लेकर 1981 तक, मुझे याद है, भाई साहब और मैं पूरे दिन में मुश्किल से 2-3 घंटे विश्राम ले पाते थे। भाई साहब के साथ सेवा करते-करते मुझे साहित्य प्रकाशन के कार्य में बहुत सीखने को मिला, प्रूफ रीडिंग करना, डेमी बनाना, चार्ट बनाना, कवर पेज बनाना, पेज सैटिंग कराना आदि। उस समय विदेश के सारे सेवाकेन्द्रों के एड्रेस मुझे याद थे। भाई साहब पूछते थे, सुधा बहन, जापान का क्या एड्रेस है? तो मैं फटाफट बोल देती थी। इस प्रकार, उनके साथ रहकर सेवा के विभिन्न तरीके सीखे।
भाई साहब का बहनों के प्रति बहुत सम्मान था। वे तो उम्र में मेरे पिताजी के समान थे। एक बार उनके साथ किसी गण्य व्यक्ति से मिलने गयी थी। हम उनके सामने बहुत छोटी कन्या होते हुए भी, उनका उस व्यक्ति से परिचय कराने का ढंग देखने लायक था। वे दिल और जान से परिचय कराते थे। बहनों को आगे बढ़ाने का, उनको सिखाने का प्रयत्न उनमें सदा होता था। हरेक बहन को सेवाक्षेत्र में अवसर देते थे, आगे बढ़ने की प्रेरणा देते थे। शक्तिनगर में रोज़ रात को हम सेन्टर पर रहने वाली बहनों की क्लास होती थी। उसमें अक्सर भाई साहब भी आते थे। उस क्लास में कोई अव्यक्त मुरली पढ़ी जाती थी या अगले दिन की साकार मुरली। एक-एक दिन एक-एक बहन की बारी होती थी मुरली पढ़ने की। बहन जब मुरली पढ़ना शुरू करती थी, दो-तीन वाक्य ही पढ़े होंगे, उतने में मुरली पढ़ने वाली बहन से भाई साहब पूछते थे कि बाबा ने ऐसे क्यों कहा? इसका अर्थ क्या है? जब उस प्रश्न का उत्तर देते थे तो उस उत्तर में से और प्रश्न निकाल कर पूछते थे, ऐसे क्यों? उसका अर्थ क्या है? प्रश्नों पर प्रश्न पूछते थे। कई बार हम बहनें तंग आकर पूछ लेती थीं कि भाई साहब, आप आगे पढ़ने देंगे या नहीं? फिर कहते थे, चलो पढ़ो। लेकिन उस समय हमें समझ में नहीं आता था कि भाई साहब क्यों ऐसे बीच-बीच में प्रश्न पूछते थे। जब मैं रूस की सेवा पर गयी तो मुरली की गहराई में जाने के लिए भाई साहब का वह प्रशिक्षण काम में आया। इस प्रकार, भाई साहब का सिखाने का तरीक़ा, मनाने का तरीका, सम्मान और प्यार देने का तरीक़ा बहुत निराला था, अनुकरणीय था।
प्रश्नः विदेश सेवा के लिए आप कब गये?
उत्तरः बचपन से ही मुझे एक इच्छा थी कि विदेश जाना है, वहाँ देखकर आना है लेकिन वहाँ जाकर रहना यह कभी नहीं सोचा था। सन् 1989 में रशिया से निमंत्रण आया। तब तक विजय भाई, जो दिल्ली शक्तिनगर में रहते थे, रशिया चले गये थे। जाते समय उनको भाई साहब ने कहा था कि कोशिश करना वहाँ सेवा करने की। उनकी कोशिश के दौरान चक्रधारी दीदी और मेरे लिए दस दिन का निमंत्रण आया था। जब बड़ी दादी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि दोनों नहीं जा सकते, कोई एक जाओ, शक्ति नगर सेन्टर छोड़कर के दोनों कैसे जा सकती हो? कोई एक जा नहीं सकती थी इसलिए उस निमंत्रण को हमने स्वीकार नहीं किया। फिर उसके बाद दूसरी बार निमंत्रण आया चक्रधारी दीदी और डॉ.उषा किरण के नाम पर। फिर वे दोनों गयीं एक महीने के लिए। डॉ. किरण बहन तो एक महीने रहकर आयी लेकिन दीदी चार महीने रहकर आयी। दीदी के वापिस आने में 15 दिन रह गये थे, मैं वहाँ गयी। प्लेन में जाते समय मैं सोच रही थी कि यहाँ इतनी बर्फ है, कौन आयेगा ज्ञान-योग करने! सर्दी के दिनों में दिल्ली में ही लोग ठीक से क्लास में नहीं आते, वहाँ कौन आयेगा। जब मैं प्लेन से उतरी, उस समय वहाँ का तापमान 25 डिग्री था। मैं तो सिर्फ शाल और स्वेटर लेकर गयी थी। मैं यही सोचकर रशिया गयी थी कि यह मेरी पहली और अन्तिम यात्रा है। चार महीने का मेरा वीज़ा था। वहाँ पहुंचने के तीसरे दिन मुझे एक योगा क्लब से निमंत्रण मिला। आपको पता होगा कि सन् 1987 के बाद वहाँ गोर्बाचोव का नया दौर शुरू हुआ था। वहाँ धर्म के आचरण के लिए छुट्टी मिली थी। तो बहुत सारी धार्मिक संस्थायें, खासकर अमेरिका से रशिया में आ गयी थीं।
इस सभा में योगा क्लब के अध्यक्ष और उसके कार्यकारी सदस्य थे। राउण्ड टेबल मीटिंग जैसा उन्होंने प्रबन्ध किया था। उन्होंने बहुत थोड़ा समय ही दिया था। अध्यक्ष ने मेरे से पूछा, ‘आप कौन-सा योग सिखाते हैं? मैंने कहा, हम राजयोग सिखाते हैं।’ फिर उन्होंने पूछा, ‘राजयोग क्या है?’ मैंने राजयोग के बारे में दो मिनट में ही बताया और एक मिनट कमेन्ट्री द्वारा योग कराया। योग के बाद उन्होंने मेरे से पूछा, ‘हमारे 300 सदस्य हैं, क्या आप उनको राजयोग प्रवचन दे सकती हैं?’ मैंने कहा, ‘हाँ।’
अगले दिन जब हम गये तो तीन सौ के बदले लगभग पाँच सौ लोग थे। हरेक के हाथ में डायरी और पेन थे। जब हम अन्दर गये तब से लेकर स्टेज पर पहुंचने तक लोग तालियाँ बजाते रहे। भाषण के बाद हमारे यहाँ के कोर्स के बारे में बताया गया। जब हम स्टेज से उतरे तो लोगों ने हमें घेर लिया। ऐसे आश्चर्य चकित होकर वे हमें देख रहे थे कि हम इन्सान हैं या और कोई! कोई अपनी बैग से सेब निकाल कर, कोई शहद की बोतल निकाल कर हमें कहते थे कि कृपया, आप इसको स्वीकार कीजिये। एक अपने गले से माला निकाल कर कहने लगा कि इसको स्पर्श कीजिये, आशीर्वाद दीजिये। एक महिला ने मुझ से कान में पूछा, क्या मैं आपको छू सकती हूं? उनका व्यवहार और वायब्रेशन्स देखकर मुझे लग रहा था कि वे आध्यात्मिक ज्ञान और योग के लिए बहुत समय से बहुत भूखे-प्यासे हैं।
चक्रधारी दीदी ने तो वहाँ कोर्स और मुरली क्लास शुरू कर दिया था। कोर्स करने रोज़ शाम को 200 लोग आते थे। हम जहाँ रहते थे उस मकान में सुबह की मुरली क्लास चलती थी। वह बहुत छोटा मकान था, छोटे-छोटे दो कमरे थे। बीस-बीस लोगों की एक क्लास होती थी। सुबह 6.45 बजे हम दरवाज़ा खोलते थे। हम खिड़की के ग्लास से देखते थे कि 6.30 बजे से ही सब लोग लाइन में खड़े रहते थे। कोट पहने रहते थे, कोट पर बर्फ पड़ी रहती थी। वहाँ सेवा करते-करते मुझे निश्चय हुआ कि मुझे यहाँ दुबारा आना पड़ेगा।
कोर्स कराते-कराते मुझे यह विचार आने लगा कि इनके लिए भारत जैसा कोर्स नहीं चलेगा, इनके लिए अलग तरह का कोर्स तैयार करना चाहिए। वे लोग कई बातों को जानते नहीं इसलिए मैंने उनके हिसाब से अलग तरह का कोर्स लिखना शुरू किया। आत्मा के पाठ को तीन में, योग के पाठ को आठ में विभाजित किया। सात दिन के कोर्स को लगभग चालीस दिन का कोर्स बना दिया। एक ग्रुप का कोर्स पूरा हुआ तो मैंने उनसे पूछा कि आपको कैसा लगा? उन्हों को बहुत अच्छे-अच्छे अनुभव हुए थे। हमने सोचा, इनके अनुभवों का संग्रह अपने पास रखना चाहिए। हमने उनके लिए एक फार्म तैयार किया। उसमें एक प्रश्न ऐसा भी होता था कि यह ज्ञान-योग सीखने के बाद, आप में क्या परिवर्तन आया, आपके सम्बन्धों में क्या परिवर्तन आया, आपके व्यवहार में क्या परिवर्तन आया? हम पहले पढ़के सुनाते थे, फिर वे लिखते थे। फिर उनमें से कोई अपने ऑफिस से उन फार्मों को प्रिन्ट कर ले आने लगा, ऐसे वे भी सेवा करने लगे।
जब धारणा की बात आयी तो हमने धीरे-धीरे बताया कि माँसाहार नहीं सेवन करना है। वे पूछते थे, माँस नहीं खाना है तो मछली खा सकते हैं? हमने कहा, वह भी तो जानवर है। तो फिर वे पूछते थे, अंडे खा सकते हैं? हमने कहा, वह भी माँसाहार में आता है। तो उन्होंने पूछा कि फिर हम क्या खायें? फिर हमने सोचा कि इनको बताना चाहिए कि क्या खाना है और क्या नहीं खाना है। शाकाहार तैयार करना तो किसी को आता ही नहीं था, सलाद बना लिया या आलू उबाल लिया और खा लिया। सब्जियाँ कैसे बनानी होती हैं, उनको पता नहीं था। फिर हमने उनको क्लास में ही सब्ज़ी कैसे बनायी जाती है, प्रैक्टिकली सिखाना शुरू किया। वहाँ खास सब्जियाँ भी नहीं मिलती थीं। पत्ता गोभी, आलू, गाजर और छोटे-छोटे सेब, इनके सिवाय और कुछ मिलता ही नहीं था। कभी-कभी वहां सीताफल और पेठा आता था। वे लोग सेन्टर पर बड़े-बड़े पेठे लेकर आते थे। मैं उनको लेकर क्या करूँ? किसी को पेठा देना, वहाँ समझा जाता है कि हमने बहुत बड़ी सौगात दे दी।
जब नया साल आया तो मेरे पास बहुत पेठे इकट्ठे हो गये। सारी बाल्कनी पेठों से भर गयी। फिर मैंने सोचा, ये लोग पेठा पसन्द करते हैं तो एक दिन क्लास के बाद पेठा काटकर सबको एक-एक टुकड़ा बाँट दिया। इससे वे भी खुश हो गए और मैं भी खुश हो गयी कि बाबा का भंडारा सफल हो गया।
प्रश्नः आपको वहाँ कोई तकलीफ नहीं हुई?
उत्तरः कोई तकलीफ़ नहीं आयी। वहाँ के भाई-बहनें इतने भावुक हैं कि हमको बहुत ऊँची नज़र से देखते हैं। एक दिन मैं खिड़की के पास खड़ी होकर सूर्योदय देख रही थी। पीछे से एक माता आयी और मेरे कंधे पर ऊन के कपड़े रख दिये। उसमें एक लाँग स्वेटर था और एक मफलर। वह इतना विनम्र होकर कहने लगी, देखो हमारे देश में बहुत ठण्ड है, आपके देश में तो इतनी ठण्ड होती नहीं है, इसलिए कृपया इन गरम कपड़ों को स्वीकार कीजिये। उसकी नम्रता देखकर, मैं कुछ बोल नहीं सकी, चुपचाप ले लिया। मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि ज़िन्दगी में मुझे पराये देश में, जिस देश की भाषा तक मैं नहीं जानती, वहाँ अकेले रहना पड़ेगा। लौकिक में भी मैं बड़े परिवार में रहती थी। जब सेन्टर पर आयी, वहाँ भी भाई-बहनों से हरा-भरा अलौकिक परिवार था। लेकिन बाद में मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं अकेली हूँ क्योंकि कोई भी कार्यक्रम में जाना है तो मुझे लेने अपने ही भाई-बहनें आते थे, फिर ऊपर कमरे तक छोड़ने आते थे।
प्रश्नः आपने रशियन भाषा कब और कैसे सीखी?
उत्तरः जब मैं पहली बार गयी थी, उस समय उनके कुछ शब्द मेरे दिमाग में बैठ गये थे। चार महीने बाद वापस आयी तो दिल्ली में अपना एक भाई दिल्ली युनिवर्सिटी में काम करता था, उसका एक दोस्त था वह रशियन विभाग में अध्ययन करता था। उस भाई ने आकर मुझे एक दिन अल्फाबेट लिखकर दिये, उसके बाद उसको कहीं जाना था, चला गया। फिर मैं दोबारा रशिया गयी। वहाँ रोज़ इंग्लिश का रशियन अनुवाद सुनती थी, सुनते-सुनते सीख लिया।
सन् 1994 में दादी जानकी जी मॉस्को आयी थीं। मैं इंग्लिश में अनुवाद कर रही थी। इंग्लिश से रशियन में एक दुभाषिया अनुवाद कर रही थी। मैं बीच-बीच में उसको करेक्शन करती थी कि ऐसे नहीं, ऐसे बोलो। जब दादी जी ने यह देखा तो उन्होंने मुझे कहा, ‘तुम खुद ही क्यों नहीं रशियन अनुवाद करती हो?’ मैंने कहा, ‘मुझे रशियन भाषा नहीं आती।’ उन्होंने कहा, ‘जब तुम उसको करेक्शन दे रही हो तो आती कैसे नहीं? तुम करो, मैं देखती हूं, कैसे नहीं आती’। दादी जी ने मुझ से ज़बरदस्ती की तो मुझे करना पड़ा। क्लास के बाद लोगों ने कहा कि उस दुभाषिया से ज़्यादा आपका अच्छा समझ में आया। अभी तो क्लास के भाई-बहनों के साथ रशियन में बात करती हूं, क्लास कराती हूँ लेकिन जब बाहर कहीं भाषण करना होता है, तो मैं इंग्लिश में ही बोलती है, दुभाषिया उसका अनुवाद करती है। आजकल सप्ताह में दो दिन मुरली भी रशियन में चलती है। बाकी समय इंग्लिश में ही पढ़ते हैं।
प्रश्नः मॉस्को में कितने बी. के. विद्यार्थी हैं?
उत्तरः सप्ताह में तीन-चार बार आने वालों को मिलाकर विद्यार्थियों की संख्या पांच सौ है। रोज़ दोनों समय आने वालों की संख्या 150 है। मॉस्को बहुत बड़ा शहर है, दिल्ली से भी बड़ा है। कई लोगों की दो-दो नौकरियां हैं। बाकी त्त्यौहारों में, छुट्टियों में ज़्यादा लोग आते हैं।
प्रश्नः भारतवासी भाई-बहनों के लिए आपका क्या सन्देश है?
उत्तरः मैं अपने अनुभव के आधार से यह बात कह सकती हूँ कि अलौकिक जीवन में माया, विघ्न अथवा परीक्षा के रूप में या और किसी रूप में आती है। लेकिन हमें उन चुनौतियों को या विघ्न-परीक्षाओं को सकारात्मक रूप में लेना चाहिए। इसके लिए एक शर्त है कि चाहे कुछ भी हो जाये, मुरली क्लास मिस नहीं करनी चाहिए क्योंकि मुरली भगवान की है। चाहे वह परीक्षा आपकी टीचर से ही आये, चाहे वही टीचर मुरली सुनाती रहे परन्तु आप कभी मुरली मिस नहीं करना। आज नहीं तो कल बाबा आपको मुरली द्वारा ही उस समस्या का समाधान देगा। आप सत्य हैं तो अभी नहीं तो बाद में भी वह बात ठीक हो जायेगी। और एक बात, दैवी परिवार तथा बड़ों से कभी दूर-दूर नहीं रहना, उनके साथ मधुर सम्बन्ध बनाये रखना। क्योंकि बड़ों की नज़र हमारे ऊपर होनी चाहिए। बड़ों की नज़रों में रहने से हमारी सुरक्षा है। तीसरी बात, बड़े हमारे प्रति कभी चिन्तित न हों। बड़ों को बेफ़िकर रखना मानो उनकी दुआओं के पात्र बनना। हमारा जीवन ऐसा हो जो बड़े हमारे प्रति बेफ़िकर हों। हमारा जीवन ऐसा हो जो हमें देखकर लोगों को प्रेरणा मिले, आध्यात्मिक जीवन में चलने में उनको सहारा मिले।
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