गाजियाबाद से ब्रह्माकुमारी सुतीश बहन जी लिखती हैं कि मेरा जन्म सन् 1936 मे लायलपुर (पाकिस्तान) के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। घर का वातावरण शुरू से ही पूजा-पाठ का था। घर में जब तक हर कोई, व्यक्ति या बच्चा पूजा आदि नहीं करता तब तक किसी को पानी भी नहीं मिलता था। शुरू से ही मेरे भी संस्कार कुछ ऐसे ही थे। हमेशा भगवान की प्राप्ति के लिए मन में एक तड़प थी कि भगवान कौन है? कहाँ मिलेगा? फिर भी शिवलिंग की प्रतिमा में मेरी विशेष श्रद्धा थी। जब भी कोई तकलीफ होती थी या बीमारी आती थी तो मैं मंदिर में जाकर शिवलिंग का जल पी लेती थी जिससे बीमारी आदि ठीक हो जाती थी। इसी कारण मेरी शिव में बहुत आस्था थी। समझती थी कि यही सबसे बड़ी शक्ति है, यही कल्याणकारी है। समय बीतता गया, जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो हम भारत में दिल्ली में आकर रहने लगे। कुछ दिनों के बाद पिताजी का देहान्त हो गया। इसी घटना के कारण माताजी बहुत दुःखी रहा करती थी। कार्तिक मास में अन्य माताओं के साथ मेरी माताजी भी यमुना में स्नान करने जाती थी।
सन् 1951 की बात है, एक दिन कुछ सफ़ेद वस्त्रधारी बहनें यमुना के किनारे तपस्या करती हुई दिखायी पड़ीं। जैसे ही मातायें, बहनों के सामने गयीं तो उनके नयनों से रूहानियत का साक्षात्कार हुआ। उनके मुख द्वारा ज्ञान के अनमोल वचन सुनते हुए माताओं को बहुत अच्छा लगा। ऐसा अनुभव हुआ कि ये कोई महान् शक्तियाँ हैं। माताजी ने घर में आकर मुझे बताया कि यमुना किनारे कुछ देवियाँ आयी हैं और वे भगवान के बारे में बहुत अच्छा ज्ञान देती हैं। उनकी बात सुनकर मैं भी दूसरे दिन घूमने के बहाने उनके प्रवचन सुनने गयी। बहनों (देवता दादी, बृजशान्ता दादी, मिट्ठू बहन) को देखकर ऐसा लगा कि यही मेरी बहनें हैं और यही मुझे परमात्मा से मिलने की राह बतायेंगी। इसी विश्वास के साथ मैं घर आ गयी। दूसरे दिन मातायें घर के नज़दीक जगन्नाथ की धर्मशाला में उन बहनों को ले आयीं। यह सुनकर मैं खुशी से झूम उठी और उसी समय मैं उन बहनों से मिलने के लिए धर्मशाला में पहुँच गयी। वहाँ जाकर देखा कि कुछ मातायें शान्त अवस्था में बैठी थीं, जिससे मुझे असीम शान्ति और खुशी की अनुभूति होने लगी। परन्तु भगवान को याद कैसे किया जाता है उसका ज्ञान नहीं था।
मन ही मन में कहने लगी कि भगवान, मैं तुम्हारी पुत्री हूँ, तुम मुझे अपनी गोदी में ले लो। बस यह अन्दर ही अन्दर जपती रही। फिर देखा कि सामने विष्णु चतुर्भुज बाहें पसारे मुझे बुला रहे थे। यह दृश्य देखकर मेरी आँखों में आँसू आ गये। थोड़ी देर में दृश्य देखा कि मैं चलती जा रही हूँ और प्यास से बहुत व्याकुल हूँ। इतने में देखा कि मेरे सामने ब्रह्मा बाबा साधारण रूप में खड़े हैं और बोले, ‘बच्ची, बहुत प्यास लगी है?’ तो मैं बाबा को देखकर बोली, ‘हाँ जी।’ बाबा ने बोला, ‘बच्ची, यह साधारण जल नहीं, ज्ञान-अमृत है। इसे सदा पीते ही रहना, पिओगी?’ मैं बोली, ‘जी पीयूँगी।’ तो बाबा ने मुझे जल पिलाया और जल पीते ही ऐसे महसूस हुआ मानो मेरी जन्म-जन्मान्तर की प्यास बुझ गयी। प्यास बुझते ही मैंने बाबा से पूछा, ‘बाबा आप कौन हैं?’ तो बाबा ने मुझे ज्यातिर्बिन्दु का साक्षात्कार कराया। तभी निश्चय हुआ कि यही परमात्मा हैं। बस उसी दिन से ही मेरे नये अलौकिक जीवन की शुरूआत हुई। फिर रोज़ क्लास करने जाने लगी।
कुछ समय के पश्चात् बहनें हमें छोड़कर माउण्ट आबू चली गयीं तब सारी मातायें एक माता के घर में क्लास करने लगी। अब तक हमने बाबा को सम्मुख नहीं देखा था फिर भी आन्तरिक महसूसता होती थी कि बाबा को बहुत बार देखा है। लेकिन मैं बाबा से कैसे मिलूँ व कैसे पत्र-व्यवहार करूँ, यह समझ नहीं आ रहा था। अगले दिन बाबा ने मुझे बृजकोठी, माउण्ट आबू का पता साक्षात्कार में ही दिखा दिया। इसी निश्चय से मैंने बाबा को पत्र लिखा कि बाबा, आपने कहा कि मैं आया हूँ, सो आप मेरे पत्र का जवाब देना। पत्र मिलते ही बाबा ने मेरे पत्र का जवाब दिया और
लिखा, ‘मैं तुम्हारे लिए ही तो आया हूँ, तुम मेरी पुरानी बच्ची हो, बाबा की हो, बाबा की ही रहोगी। यह मेरे लिए वरदान था, यह वरदान बाबा ने मुझे पत्र के उत्तर में दिया।’
इसके बाद हम सभी भाई-बहनों ने बाबा को निमन्त्रण-पत्र लिखा और बाबा ने सेवार्थ बहनों को भेजा। फिर तो मैं रोज़ क्लास करने लगी। इस प्रकार, मुझे ईश्वरीय ज्ञान लेते हुए तीन साल हो गये। मुझमें बहुत परिवर्तन आता गया और परिवार वाले देखने लगे कि यह तो बदलती जा रही है। बस, फिर तो परीक्षायें आनी शुरू हो गयीं। सेन्टर में आना-जाना बन्द कर दिया गया। सबने आपस में मिलकर मुझे रोकना शुरू किया और सोचा कि इसकी शादी कर दें तो अपने आप ठीक हो जायेगी। लेकिन बाबा से मुझे हर कदम पर मदद मिलती रहती थी।
एक बार सारी मातायें मधुबन बाबा से मिलने जा रही थीं तो मैंने भी निश्चय किया कि मुझे बाबा से मिलने ज़रूर जाना है। जबकि परिवार वाले नाराज़ थे, बन्धन भी डालते थे तो मुझे कैसे जाने देंगे? जाना भी है लेकिन झूठ बोल कर भी नहीं जाना। फिर मैंने तीन दिन लगातार दिन-रात बैठकर योग-तपस्या की, फिर बाबा ने मुझमें ऐसी शक्ति भर दी जो मैंने भाई से कहा कि एक बार मैं यह आश्रम देख आऊँ? इस प्रकार, मैं 1954 में मधुबन पहली बार बाबा से मिलने कोटा हाऊस में चली आयी। मैं बाबा से मिली तो मीठी दृष्टि देते हुए बाबा ने कहा, बच्ची, बहादुर हो। अब बाबा से मिल गयी तो मिलती ही रहोगी। बाबा दिल्ली आयेगा, तुम्हें सब बन्धनों से छुड़ाने। इस प्रकार मैं मम्मा-बाबा के साथ 15 दिन बिताकर वापस दिल्ली आ गयी।
दिल्ली आने के बाद वही परेशानी, वही बन्धन परन्तु मन में पक्का निश्चय था कि अब कुछ भी हो जाये बाबा का हाथ और साथ नहीं छोड़ना है। इसी प्रकार समय बीतता गया और सन् 1955 में बाबा दिल्ली, राजौरी गार्डेन में आये। परिवार वालों को मालूम पड़ा कि इनका बाबा आया है तो क्यों नहीं हम मिलकर बाबा के पास जायें क्योंकि सुतीश हमारा कहना तो मानती नहीं, बाबा का कहना ज़रूर मानेगी, ऐसा सोचकर भैया और जीजाजी साकार बाबा के पास गये। बाबा ने बहुत प्यार से पूछा, ‘बच्चे, क्या चाहते हो?’ तो भैया और जीजाजी ने कहा कि हम इसकी शादी करना चाहते हैं, कुछ भी हो जाये हम घर से ऐसे नहीं जाने देंगे। घर से लड़की जायेगी तो शादी करके ही जायेगी चाहे कोई ज्ञान में चलने वाला लड़का ही क्यों न हो, हम उसके लिए भी तैयार हैं। तो बाबा ने कहा, बच्चे, बस इतनी सी बात है! फिर बाबा ने कहा कि शादी करके यह ब्रह्माकुमारी बने।
बाबा ने मुझे बुलाया और कहा कि बच्ची, मैं तुम्हारा गन्धर्व विवाह करा दूंगा। मैं तुम्हें बिल्कुल निर्बन्धन बनाऊँगा।’ फिर मैंने कहा, ‘बाबा, आप गन्धर्व विवाह भल कराओ ‘जो आपकी आज्ञा’, वह मैं ज़रूर मानूँगी लेकिन मैं किसी के घर नहीं जाऊँगी।’ फिर बाबा ने कई कुमार देखे, उनमें से एक कुमार बाबा को ठीक लगा। ड्रामा अनुसार गन्धर्व विवाह की तारीख पक्की हो गयी। मम्मा-बाबा ने मुझे अपना-अपना एक-एक रूमाल दे दिया। मैं वहाँ गयी, जब पल्ले से पल्ला बाँधने की बात आयी तो मैं मम्मा-बाबा के दिये हुए रूमाल बाँधकर, लौकिक सम्बन्धियों से विदाई लेकर, शहज़ादी के वेष में पुरानी दुनिया को छोड़कर, राजौरी गार्डेन सेवाकेन्द्र पर अपने शहज़ादे प्यारे मम्मा-बाबा के पास आ गयी। इसके पश्चात् मैं मम्मा-बाबा के पास राजौरी गार्डेन में रही। बाद में पंजाब और यू.पी. में बाबा ने मुझे अपने साथ घुमाया। अमृतसर, सहारनपुर, अम्बाला इस तरह 6 मास घूमकर सबसे पहले मैं हापुड़ सेवाकेन्द्र पर गयी। सन् 1960 में हापुड़ का हंगामा हुआ तो बाबा ने कहा, छोटी बच्ची को वहाँ से बुलाओ। फिर बाबा ने मुझे अपने पास बुलाया।
एक बार मैं मथुरा में बहुत बीमार पड़ी तो मुझे बाबा ने बुलाया और कहा कि मैं अपने आप तुम्हें ठीक करूँगा। बाबा ने मुझे मक्खन और बादाम खिलाया और सचमुच मैं ठीक हो गयी। इस प्रकार, मम्मा-बाबा ने मेरी स्थूल और सूक्ष्म पालना की। चार मास के बाद बाबा ने मुझे गाज़ियाबाद सेवा पर भेज दिया। इस प्रकार जानी-जाननहार बाप पर मेरा जितना निश्चय था उतना बाबा को भी मुझ पर विश्वास था कि यह मेरी बच्ची है और सदा रहेगी! ऐसे थे हमारे बाबा!!
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