आप दादी गुलजार (हृदयमोहिनी दादी) की लौकिक माँ थी। बहुत ही संपन्न परिवार से थीं पर सर्व भौतिक सुख-सुविधाओं को त्याग कर, अनेक लौकिक बंधनों को पार कर यज्ञ में समर्पित हुईं। बाबा के साथ प्रथम मिलन में आप बाबा की भृकुटि में चमकते सफेद प्रकाश के गोले को देख आकर्षित हुईं। जब हैदराबाद (सिन्ध) में बाल भवन बना तो आपने अपनी 9 वर्षीय लौकिक बच्ची शोभा (दादी हृदयमोहिनी) को बाल भवन के छात्रावास में दाखिल करवा बाबा-मम्मा की पालना में रखने का बहुत साहसी कदम उठाया। आप यज्ञ की हर छोटी-बड़ी सेवा बड़े प्यार से करती थी। आवश्यक चीजों की खरीदारी के लिए भी बाबा ने आपको ही नियुक्त किया। आप हर क्षेत्र में बहुत अनुभवी थी इसलिए बाबा ने ही आपको ऑलराउण्डर नाम दिया। आपका एक बहुत प्यारा शब्द था ‘लाल’। हर एक को लाल कहकर पुकारती और दिल्ली, पाण्डव भवन में रहकर जोन इंचार्ज के रूप में अपनी सेवायें देते 23 नवंबर, 1993 में आप अव्यक्तवतनवासी बनी। आपकी छोटी बहन रुक्मिणी दादी अभी दिल्ली में रजौरी गार्डन सेवाकेन्द्र संभालती हैं।
लगभग 30 वर्षों तक दादी ऑलराउण्डर के साथ सेवा की साथी बनकर रहीं, दिल्ली जोन की प्रभारी ब्रह्माकुमारी पुष्पा बहन उनके बारे में इस प्रकार सुनाती हैं–
पहले दादी ऑलराउण्डर रजौरी गार्डन सेन्टर पर रहती थी, बाद में करोल बाग सेन्टर पर आई। दादी हम सबको ‘लाल’, ‘लाल’ कहकर संबोधित करती थी। दादी अथक होकर हमेशा सेवा में तत्पर रहती थी। दादी में रूहानी पालना देने का बहुत सुंदर गुण था। बाल्यकाल में 9-10 वर्ष की आयु में, मैं अपने माता-पिता के साथ बाबा से मिली, मम्मा से भी मिली, उनकी गोद भी प्राप्त की। माता-पिता के साथ सेन्टर में आते-जाते दादी ऑलराउण्डर के संपर्क में भी आई। हमारे परिवार की पालना, अधिकतर बड़ी दीदी मनमोहिनी तथा दादी ऑलराउंडर के द्वारा ही हुई।
दादी सुनाती थी कि जब यज्ञ में मैं बाबा के साथ थी तब बाबा ने मुझे 17 ड्यूटी दी हुई थी। दादी बहुत बहादुर थी। बाबा ने दादी को बाहर की सेवायें भी सौंपी हुई थी। दादी से ऐसी भासना आती थी कि वे केवल नारी ना होकर, एक शक्तिशाली पुरुष हैं जो कोई भी कार्य करने में प्रवीण हैं। जब दादी सेवार्थ, यज्ञ से बाहर जाने वाली थी तब बाबा ने क्लास में हाथ उठवाए कि दादी की सेवाओं की ड्यूटी लेने को कौन तैयार है? दो-तीन भाइयों ने हाथ खड़े किये और बाबा ने दादी की सेवाओं को बाँटा जबकि दादी अकेली ही उन सब सेवाओं को संपन्न करती थी। दादी का नाम ऑलराउण्डर ब्रह्मा बाबा ने इसलिए रखा था कि चाहे किसी भी प्रकार की सेवा हो, दादी उसे बहुत अच्छी तरह से पूरा करती थी।
कुमारियों को दादी ऐसी पालना देती थी कि कोई अपनी लौकिक कुमारी को भी शायद ऐसी पालना ना दे पाए। दादी कहती थी, यह बाबा का यज्ञ है, बाबा ही पालना देने वाला है। जो पालना हमने बाबा से ली है, वो हम तुमको दे रहे हैं। एक बार, जब मैं दिन में भोजन करने गई तो खिलाने वाली बहन दही देना भूल गई। मेरा तो ध्यान नहीं था पर दादी का ध्यान गया कि इस बहन की थाली में दही नहीं है। उन दिनों मैं नई-नई समर्पित हुई थी। दादी ने अपने भोजन की थाली में से दही की कटोरी मुझे भेज दी। बाद में एक बहन द्वारा मुझे पता चला कि आज दादी ने दही नहीं खाया, अपनी कटोरी आपको भेज दी। मैंने सुना तो दिल एकदम पिघल गया। सब्जी-अनाज की खरीदारी, नये सेवास्थान के लिए जगह देखना, किसी से विशेष मिलना, पहरा देना, भण्डारे में भोजन बनाना, टोली बनाना, अनाज साफ करवाना, सब्जी कटवानी, भोजन खिलाना आदि अनेक प्रकार की सेवाओं की जिम्मेवारी दादी पर थी। जब कोई विशेष नाश्ता बनता था तो अपने हाथों से सबको खिलाती थी ताकि सबको बराबर मिले और सभी संतुष्ट रहें। इस प्रकार उनका बहुत ही प्यारा मातृ रूप नजर आता था।
दादी नष्टोमोहा थी। गुलजार दादी उनकी लौकिक सुपुत्री हैं, दोनों साथ-साथ रहे पाण्डव भवन में लेकिन हमें कभी भी ऐसा आभास नहीं होता था कि गुलजार दादी इनकी लौकिक सुपुत्री हैं, और ही, हमको यह आभास होता था कि हम कुमारियाँ ही इनकी लौकिक-अलौकिक बच्चियाँ हैं क्योंकि वे हम सबका इतना ध्यान रखती थी। दादी कहती थी, हम देह के संबंधियों को और सारी पुरानी दुनिया को छोड़ आये हैं और अगर फिर से हमारा खिंचाव उनकी तरफ होता है तो यह ऐसे ही है जैसेकि कोई थूक फेंक देता है और फिर उसे चाटता है। दादी कहती थी, देह और देह के संबंधियों से तो हमारा उत्थान हुआ नहीं। जब दादी से हम पूछते थे, लौकिक परिवार के बारे में सुनाओ तो कहती थी, उनको याद नहीं करना। जब बाबा ने देह की दुनिया से निकाल लिया तो उन बातों का जिक्र करना माना आत्मा को नीचे लाना। दादी कहती थी, मैं उन बातों को भूल चुकी हूँ। बाबा के चरित्र खूब सुनाती थी। हम कहते थे, दादी आप सिन्धी भाषा में बात नहीं करते हो, तो कहती थी, जब से बाबा ने मना किया, मैने सिन्धी बोलना छोड़ दिया। सिन्धी बोलना भी लौकिक को याद करना है। बड़ी दीदी कहती थी, ऑलराउण्डर दादी सिन्धी नहीं बोलती इसलिए अच्छा भाषण कर लेती है। दादी भाषण करने में बहुत होशियार थी। गुलजार दादी के साथ भी हिन्दी में ही बात करती थी। जिन बातों के लिए बाबा की मना थी, दादी उनको कभी नहीं करती थी।
पाण्डव भवन में शुरू से काफी बड़ा संगठन रहा है। यदि कभी किसी भाई ने थोड़ा असंतुष्टता से कुछ बोल भी दिया तो दादी चुप करके बैठी रहती थी। कहती थी, बोलत-बोलत भरे विकार (ज्यादा बोलने से विकार भर जाते हैं)। यदि हम कहते थे, दादी, देखो, उसने ऐसा बोल दिया तो कहती थी, चुप। उस बात को रिपीट भी करने नहीं देती थी। जवाब देना, चेहरे पर कोई भाव लाना, यह तो दूर की बात रही। कभी कोई उनकी बात यदि किसी कारण से नहीं सुनता था तो शक्तिशाली रूप में स्थित होकर चुप बैठ जाती थी। दादी निर्भय थी। ना व्यक्ति से, ना परिस्थिति से डरती थी।
लौकिक माता का मुझमें बहुत मोह था। मैं समर्पित हुई तो वो रोती रहती थी और दादी के पास आती थी। एक बार मुझे जोर से बुखार आया। लौकिक घर से फोन आया तो दादी ने ना मुझे फोन दिया, ना मुझे फोन के बारे में बताया और ना घरवालों को बताया कि आपकी लौकिक बच्ची को बुखार है। काफी दिनों के बाद उन्हें पता चला, वे मिलने आए तो कहने लगे, हमने तो फोन कई बार किया था लेकिन आपसे हमारी बात दादी ऑलराउण्डर ने कराई ही नहीं। मैंने बाद में समझा कि दादी ने यह कितना अच्छा किया जिससे ना तो मुझे ये ख्याल आया कि मैं घर जाऊँ और ना ही मेरे प्रति घरवालों का चिन्तन चला। इस प्रकार दादी ट्रेनिंग देती थी कि लौकिक की तरफ कभी मोह न जाए।
दादी अलर्ट और एक्टिव थी। दादी के कमरे के अंदर बाथरूम नहीं था, बरामदे में जाना पड़ता था। हम कई बार कहते थे, तो कहती थी, फिर क्या हुआ, हम तो शुरू से ऐसे ही यज्ञ में रहे हैं। दादी की आयु जब और बढ़ी और सभी इस बारे में कहने लगे तो दादी ने कहा, बड़ी दादी की आज्ञा होगी तो बनायेंगे। फिर एक बार जब दादी प्रकाशमणि पाण्डव भवन में आई थी, तब दादी ने उनको सब बात बताकर उनसे अनुमति ली। कोई भी बात होती थी तो बड़ी दादी से पूछकर करती थी। इस प्रकार खुद बड़ी होते भी, बड़ी दादी का इतना सम्मान करती थी। दादी पत्र द्वारा सारा समाचार मधुबन भेजती थी। मधुबन से कम्यूनिकेशन बहुत अच्छा रखती थी। क्या खरीदारी की, कौन मेहमान आया, क्या सेवा हुई आदि-आदि सब समाचार उस पत्र में विस्तार से लिखती थी। सीजन का कोई भी पहला फल आता तो पहले मधुबन भेजती, बाद में खुद स्वीकार करती। सेन्टर पर भोग लगाने के लिए खर्चा मिलता था तो उस पैसे में से भी मधुबन के लिए पैसा बचा लेती थी। हमको भी ऐसा ही सिखाती थी।
दादी बहुत सादगी वाली थी। सफाई की कला, टोली, भोजन बनाने की कला भी सिखाती थी। बचत सिखाती थी। जब कभी फोटो खींचने के लिए हम कैमरा निकालते थे तो कहती थी, यह माया है, यह तुमको चक पहन रही है। सब्जी काटने के बाद, कई सारे पत्ते निकालकर दिखाती थी जो फेंक दिये होते थे। अनाज सफाई खुद बैठकर कराती थी, सिखाती थी। उनकी चाल साधारण नहीं थी, ऐसा लगता था, कोई महाराजा चल रहा है। दादी का अनुशासन बहुत शक्तिशाली था। किसी स्कूल, कॉलेज के प्रिंसिपल की तरह अनुशासन में रहती थी, एकदम सीधी चलती थी, झुककर नहीं। दादी की सबके प्रति समान दृष्टि थी। व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था। बड़े-बड़े लोग आकर मिलते थे, संतुष्ट होकर जाते थे, महसूस करते थे, एक माँ की पालना मिली है। उनका जगतमाता का रूप भी था तो रूहानी टीचर का भी। ज्ञान बड़ी अथॉरिटी से सुनाती थी। ज्ञान की गहराई में जाती थी। बेहद सेवा का बहुत शौक था। अजमल खां पार्क में जब मेला आयोजित किया तो कहती थी, ऐसा मेला करो जो सबसे सुन्दर हो। अच्छे से अच्छा मेला होना चाहिए। पहले तो सारी दिल्ली के सेवाकेन्द्रों को दादी ऑलराउंडर ही संभालती थी। सुबह मुरली क्लास दादी गुलजार करवाती थी, दादी ऑलराउंडर बाद में सभी भाई-बहनों से मिलती थी। सतगुरुवार और रविवार को आधा घंटा क्लास कराती थी, अमृत पिलाती थी। दादी अथक बहुत थी, हम जवान कन्यायें थक जाती थी, जाकर सो जाती थी पर दादी इतनी आयु में भी हर समय कमरे में बैठी मिलती थी, सोई हुई नहीं। सुबह चार बजे बाहर बरामदे में आ जाती थी, वहीं बैठकर बाबा को याद करती थी और सारा दिन हरेक आने-जाने वालों पर ध्यान रखती थी।
दादी खुद तकिये के नीचे दबाये हुए, बिना प्रेस वाले कपड़े पहनती थी पर समय के साथ-साथ भी चलती थी। बाबा की और यज्ञ की रीति-रस्म को ध्यान में रखती थी परंतु सेवा, समय और वर्तमान की कुमारियों को देखकर कई नियमों में छूट भी देती थी। ऐसे नहीं कि कोई कुमारी इतना त्याग ना कर सके तो जबरदस्ती उसे बोझिल किया जाये। जैसे मैं जब आई तो प्रेस वाले कपड़े पहनती थी, तकिये के नीचे रखे कपड़े मुझे पसंद नहीं थे। दादी ने युक्ति से कहा, तुम गठड़ी बाँधकर कपड़े नीचे दे जाओ, मैं बाहर से प्रेस करवाकर ऊपर भिजवा दूँगी। गुप्त पालना देकर भी कुमारियों को संतुष्ट रखती थी और साथ-साथ उनकी शक्ति के अनुसार त्याग का पाठ भी पढ़ाती थी।
दादी की स्टूडेन्ट लाइफ दिखाई देती थी। बरामदे में बैठी दादी मुरली, पत्रिका आदि पढ़ती रहती थी। कभी दादी को खाली बैठे नहीं देखा। वे या तो टोली देने में या पढ़ने में या ज्ञान सुनाने में ही व्यस्त नजर आती थी। दादी को सुस्ती पसंद नहीं थी। यदि कोई बहाना करके, अलबेलेपन में सोये तो पसंद नहीं था। तबीयत खराब होने पर हाल-चाल पूछती थी। दवाई-पानी, आराम का प्रबंध कर देती थी पर जब ठीक से भोजन खाना शुरू हो जाता था तो कहती थी, अब सेवा पर आना है। जब हम नये-नये आये थे, ज्ञान में इतने प्रवीण नहीं हुए थे तब दादी हमें मार्गदर्शन देती थी कि आज यह परिवार कोर्स करने आयेगा, इसको क्या-क्या सुनाना है। कोर्स करने आने वालों से भी पहले पाँच मिनट मिलती थी, फिर कहती थी, ‘लाल’, इसको परिवार में शान्ति की बातें विशेष सुनाना या आत्मा पर विशेष सुनाना, ऐसे उसकी जरूरत को परख लेती थी। हम तो आधे घंटे में पाठ पढ़ाकर आ जाते थे पर दादी उन कोर्स करने वालों से या म्यूजियम समझने वालों से भी, एक-एक से बैठकर बातचीत करती थी। उनके प्रश्नों के उत्तर भी देती थी।
जगदीश भाई के मन में दादी के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। वे दादी के त्याग को देखकर बहुत प्रभावित थे। दादी ने कितने बड़े संपन्न परिवार को छोड़ा, गुलजार दादी जैसा रत्न यज्ञ को दिया, इतनी बड़ी दिल्ली की जिम्मेवारी उठाई और दिन-रात अथक रूप से सेवारत रही-इन बातों के कारण जगदीश भाई दिल से सम्मान देते थे। दादी को देखकर खुद खड़े हो जाते थे, नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर ओमशान्ति बोलते थे। दादी से बहुत अच्छी रूहरिहान करते थे और कहते थे, आपके मुख से सुनूँगा तो अच्छी तरह उसे लिख सकूँगा। दादी का भी जगदीश भाई के प्रति बहुत स्नेह और विश्वास था कि मैं कोई भी बात इसे सुनाऊँगी तो यह जल्दी समझेगा। दिल की बात दादी जगदीश भाई को बुलाकर कर लेती थी।
जब मधुबन में (1993 में) राजाओं का प्रोग्राम होने वाला था, दादी की तबीयत ठीक नहीं थी पर मधुबन जाने की दिल थी। तब जगदीश भाई ने अपने साथ प्लेन के द्वारा मधुबन ले जाने का साहस दिखाया। दादी ने कार्यक्रम भी देखा और बीमारी की हालत में बाबा से भी मिली। फिर एक मास ग्लोबल हॉस्पिटल में ट्रीटमेंट भी चली। फिर 23 नवंबर 1993 में 89 वर्ष की आयु में वहीं हॉस्पिटल में ही शरीर का त्याग कर बाप दादा की गोद में समा गई। मेरे जीवन का तो आधार थी दादी। भले ही आयु और तबीयत को देखते हुए उनका जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी परंतु फिर भी खालीपन महसूस हुआ। गुलजार दादी का साथ होने के कारण हमें बहुत अकेलापन तो नहीं लगा पर ऑलराउण्डर दादी के होते जो हम निश्चिन्त रहते थे, वो निश्चिंतता चली गई। दादी ऑलराउण्डर के होते हमें ऐसा लगता था कि हम बच्चे हैं और मौज में रह रहे हैं।
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