मोहिनी बहन जी अमेरिका देश में ब्रह्माकुमारीज़ ईश्वरीय विश्व विद्यालय की अध्यक्षा है, अमेरिका एवं करेबियन देशों की प्रादेशिक संयोजिका है तथा यू.एन. में ई.वि.वि. की प्रतिनिधि है। आप ईश्वरीय वि.वि. की वरिष्ठ राजयोग शिक्षिका हैं। सन् 1956 से इस संस्था से जुड़ी हुई है। वर्तमान समय ये अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में रहती हैं। सन् 1962 में इन्होंने अपना जीवन ईश्वरीय सेवार्थ समर्पित किया। सन् 1974 तक इन्होंने दिल्ली साऊथ एक्टेन्शन में सेवायें की। सन् 1978 में न्यूयॉर्क में ईश्वरीय सेवाकेन्द्र खोलने के निमित्त बनीं।
बाबा का व्यक्तित्व दिव्य, भव्य और शालीनतापूर्ण था
मेरा लौकिक जन्म करांची में हुआ था। जब भारत का विभाजन हुआ उस समय मैं चार वर्ष की थी। उस समय हम सब परिवार वाले करांची से दिल्ली आये। मेरी लौकिक पढ़ाई दिल्ली में ही हुई। हरेक परिवार में कुछ मान्यतायें होती हैं। ऐसे ही हमारे परिवार में भी एक मान्यता थी कि घर की लड़कियों को अच्छी तरह से शिक्षा देनी चाहिए, पढ़ाई पढ़ानी चाहिए। इसका एक कारण भी था। हमारे खानदान में एक बहन थी, उसका विवाह एक धनवान परिवार में हुआ। उनका व्यापार था लेकिन एक बार व्यापार में कुछ निचाई-ऊँचाई आयी तो उनका जीवन कठिनाई में आ गया। तब से हमारे घर में दादा, नाना आदि जो बुज़ुर्ग थे, उनको यह विचार आया कि हम अपनी लड़कियों को इतना पढ़ायें ताकि आगे जीवन में कुछ भी हो, वे स्वतंत्र रूप से जीवनयापन कर सकें, आर्थिक रूप से अपने पाँव पर खुद खड़ी रह सकें।
मैं स्कूल में तो पढ़ती थी लेकिन मुझे अन्दर से यह भावना रहती थी कि मेरा साधारण जीवन नहीं होना चाहिए। परिवार में जो धार्मिक क्रिया विधियाँ चलती थीं जैसे प्रार्थना, पूजा आदि करना, गुरुओं के आश्रमों पर जाना वो तो सबके साथ मैं करती थी लेकिन व्यक्तिगत रूप से धर्म के प्रति या भक्ति के प्रति खास रुचि नहीं थी, हाँ, नैतिक मूल्यों पर बहुत ध्यान था। सच बोलना, ईमानदार बनकर रहना, यह अच्छा लगता था लेकिन चारों तरफ़ का वातारण देखती तो मुझे कहीं से भी इन मूल्यों के लिए प्रोत्साहन नहीं मिलता था। इसलिए मन में यह होता था कि हमें ऐसी शक्ति मिले या ऐसा आध्यात्मिक ज्ञान मिले जिससे हम नैतिक मूल्यों के साथ जीवन व्यतीत कर सकें। विद्यार्थी जीवन से ही में स्कूल की पुस्तकों के अलावा आध्यात्मिक पुस्तकें भी पढ़ती थी जैसे कि स्वामी विवेकानन्द जी और स्वामी रामतीर्थ जी की किताबें ।
वैसे हमारे परिवार का सम्बन्ध ईश्वरीय विश्व विद्यालय से सन् 1936 से ही है। जब यह संस्था सिन्ध में आरम्भ हुई, तब लगभग सब सिन्धी परिवार वहां गये थे। हमारे पिताजी भी, सब परिवार वालों के साथ ओम मंडली में गये थे। जब अन्य परिवारों में औरतें ईश्वर समर्पित होने लगीं तो डर के मारे हमारे परिवार वालों का भी जाना बन्द करवा दिया गया। फिर भी मेरी मौसी और उनके युगल यज्ञ में उस समय ही समर्पित हो गये थे। मौसी को गोपी दादी कहते थे और उनके युगल को स्वामी जी कहते थे। फिर चौदह साल तक ओम मंडली से हमारे परिवार का कुछ सम्बन्ध नहीं रहा।
जब ओम मंडली आबू आयी तो सन् 1951 में ये लोग दिल्ली में हमारे घर आये थे। वहाँ सेवा करने के लिए कुछ सहयोग चाहिए था। उस समय मैं लगभग 11 वर्ष की थी। मैंने पहली बार ब्रह्माकुमारी बहनों को देखा। हम सबको बताया गया था कि आप किसी को ब्रह्माकुमारियों से नहीं मिलना है। बहनें घर पर आती थीं, जाती थीं, घर के बड़े उनसे मिलते थे, बाक़ी छोटों को उनसे मिलने नहीं देते थे। फिर भी मेरे मन में उत्सुकता रहती थी कि इन बहनों से मिलना चाहिए, बातें करनी चाहिए। सब बड़ी दादियों, जैसे मनोहर दादी, गंगे दादी, बड़ी दीदी, दादी गुलज़ार आदि हमारे घर पर आती थीं। उनकी वेषभूषा तो बेशक साधारण थी लेकिन जब उनको देखती थी तो लगता था कि ये अन्य लोगों से भिन्न हैं, उनकी अलौकिकता मुझे बहुत आकर्षित करती थी। उनका हर्षित चेहरा, उनकी सादगी और सफ़ाई ये सारी बातें मुझे मंत्रमुग्ध करती थीं, दूर से ही उनकी बातें सुनती थी। उस समय मुझे इतना पता था कि एक बाबा हैं, जिनको ब्रह्मा बाबा कहते हैं।
सन् 1956 में मेरी कॉलेज की शिक्षा पूरी हुई। मुझे विश्वविद्यालय में जाना था, इसी बीच में थोड़ी छुट्टियाँ थीं। उस समय मेरे मन में आया कि आध्यात्मिक शिक्षा लेनी चाहिए। तब मुझे पता चला कि हमारे घर के नज़दीक ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की शाखा खुली है। एक दिन मैं वहाँ गयी। बहनों ने कहा कि आप रोज़ आओ, अपनी माता जी को लेकर आओ, अपने सम्बन्धियों को भी ले कर आओ। मैंने तो जाना शुरू किया लेकिन उस समय मन में यह नहीं था कि मैं भी उन जैसा जीवन व्यतीत करूँ। अच्छा तो लगता था लेकिन उन जैसे सफ़ेद कपड़े पहन कर साध्वी बनने का मेरा लक्ष्य नहीं था। जब प्रातः काल उठकर बैठती थी तो लगता था कि अन्दर कुछ हो रहा है, कोई मुझे खींच रहा है। मैं सोचती थी कि मुझे आगे पढ़ाई करनी है। फिर भी मैं सेवाकेन्द्र पर जाती थी लेकिन रुचि से नहीं, वैसे ही जाती थी; फिर मैंने बाबा से सम्पर्क स्थापित करना शुरू कर दिया।
एक बार मैंने बहनों से पूछा कि क्या हम बाबा को पत्र लिख सकते हैं? बहनों ने कहा कि हाँ, लिख सकते हैं और बाबा उसका उत्तर भी देते हैं। मेरे लौकिक पिताजी शरीर छोड़ चुके थे तो मैंने बाबा को पत्र में लिखा कि आपकी बच्ची बनना है तो क्या-क्या शर्तें हैं? इसके उत्तर में बाबा ने बहुत अच्छा पत्र लिखा कि अगर रोज़ प्रातः क्लास में आओगी, ज्ञान सुनोगी तो आपका बाबा से सम्पर्क बनेगा। मैंने सोचा कि थोड़े समय के लिए प्रातः क्लास में जाकर थोड़ा सुनूँ, थोड़ा सीखें। उन दिनों कोई साप्ताहिक कोर्स आदि नहीं था। साधारण तरीके से सेन्टर पर मुझे ज्ञान समझा दिया गया था। सेन्टर पर जाते मुझे एक महीना ही हुआ था कि साकार बाबा का दिल्ली में आना हुआ। पत्रों से तो हमारा सम्पर्क बाबा से था ही। मैंने बहनों से कहा कि मैं बाबा से मिलना चाहती हूँ। बाबा ने मुझे शाम पाँच बजे का समय दिया। तब तक मैंने कॉलेज जाना शुरू कर दिया था।
मैंने इतिहास और राज्यशास्त्र विषय लिये थे। मैं चाहती थी कि दुनिया के बारे में थोड़ा-सा पता चले । उस दिन कॉलेज के बाद मैं बाबा के पास गयी। बाबा मेरे साथ 15-20 मिनट बैठे रहे। मेरे साथ बाबा ने बहुत व्यवहारिक बातें कीं जैसे कि आप क्या पढ़ती हैं, उसमें क्या पढ़ाते हैं। इतिहास में क्या बताते हैं, आपके क्या-क्या शौक हैं आदि। बाबा ने मेरे साथ बहुत प्यार से बात की। बाबा की पर्सनालिटी जो थी, उसको देखकर लगता था कि वे अन्दर-बाहर एकदम स्पष्ट और स्वच्छ हैं। बाबा का व्यक्तित्व तो दिव्य और भव्य लगा ही लेकिन बाबा का व्यवहार, बच्चों को टोली खिलाना, उनसे बातें करना, ये सारे बहुत रॉयल रहे। लौकिक में भी मैं परिवार वालों के साथ अन्य आश्रमों में जाती थी लेकिन गुरु आदि से दूर-दूर रहती थी। घर वाले कहते थे कि उनके पैर छूओ, प्रणाम करो, उनके पास बैठो लेकिन मैं कहती थी, नहीं, जब वे प्रवचन देंगे तो सुनूंगी। उनके नज़दीक जाने की इच्छा नहीं होती थी। जब मैंने ब्रह्मा बाबा को देखा तो मुझे ऐसे फीलिंग होने लगी कि यही सही गाइड (मार्गदर्शक) हैं। ये जो शिक्षा दे रहे हैं, मुझे इसी तरह की शिक्षा चाहिए जिससे मैं अपना जीवन बना सकूँ।
बाबा ने मुझे कहा, बच्ची, तुम पढ़ाई नहीं छोड़ना। बाबा को ऐसी पढ़ी-लिखी बच्चियाँ चाहिएँ जो विदेशों में सेवा करें। मेरी पढ़ाई भी अंग्रेज़ी में थी। घर वाले भी मुझे पढ़ाना चाहते थे, मैं भी पढ़ना चाहती थी और बाबा ने भी कहा, तो मैं खुशी-खुशी से पढ़ाई करने लगी। बीच-बीच में सेवा भी करती थी। जहाँ भी प्रोग्राम होते थे, नये सेवाकेन्द्र खुलते थे तो वहाँ भाषण करने जाती थी। धीरे-धीरे मेरा ज़्यादा समय ईश्वरीय सेवा में लगने लगा। परिवार वाले भी समझने लगे कि इसका जीवन ईश्वर अर्थ ही रहेगा। मैंने बी.ए. पूरा किया, उसके बाद पत्रकारिता (Journalism) का कोर्स किया।
घर वालों ने कहा कि जीवन में हरेक का अपना-अपना लक्ष्य रहता है, अगर आपके जीवन का लक्ष्य यही है तो हम आपको रोकेंगे नहीं। एक साल मैंने दिल्ली में जर्नालिस्ट के रूप में नौकरी भी की। उनको विश्वास हो गया कि यह अपने पैरों पर खड़ी होकर भी अपना जीवन जी सकती है। फिर वे ज्ञान में आगे बढ़ने के लिए मुझे प्रोत्साहित करने लगे। सन् 1962 में मैंने पढ़ाई पूरी करके सेन्टर पर रहना शुरू कर दिया। बाबा मुझे बड़ी-बड़ी प्लॉन्स (योजनायें) देते थे कि बड़े-बड़े पर्वतीय स्थलों पर जाकर प्रदर्शनी करो। दिल्ली में होने के कारण यज्ञ के लिए किसी मंत्री के पास जाना हो, किसी से कार्य कराना हो तो बाबा मुझे कहते थे।
पहली बार मधुबन, मैं सन् 1958 में आयी थी। उस समय कॉलेज में पढ़ती थी, पहला साल पूरा हुआ था। छुट्टियाँ थीं तो बाबा ने कहा था कि बच्ची, मधुबन आओ। मधुबन में कुछ दिन रहकर मैं वापिस जा रही थी तो विश्वकिशोर भाऊ स्टेशन तक मुझे छोड़ने आये थे। उन्होंने कहा कि देखो, बाबा के कार्य में जब भी कोई विघ्न आये ना, घबराना नहीं। खुश होना चाहिए कि बाबा अब मुझे मदद करेगा। जब कोई कार्य सरल होता है, तब हम बाबा को याद नहीं करते। बाबा को याद नहीं करते तो बाबा मदद कैसे करेंगे? इसलिए जब विघ्न तथा परिस्थितियाँ आती हैं तो कभी घबराना नहीं। एक तरफ़ बाबा ने यह वरदान दिया था कि सफलता आपकी रहेगी और दूसरी तरफ़ भाऊ ने यह युक्ति बता दी। मुझे यह बहुत अच्छा लगा। इस ज्ञानमार्ग में मुझे बाबा से योग लगाना बहुत अच्छा लगता था और ज्ञान में चलने के 3-4 महीने में ही साक्षात्कार होने लगे। ट्रान्स का पार्ट भी मेरा उसी समय से शुरू हो गया। एक तरफ़ पढ़ाई थी, दूसरी तरफ़ सेवा थी और तीसरी तरफ़ यह ट्रान्स का पार्ट था।
बाबा मुझे कई तरह की सेवा देते थे। छोटी उम्र की कुमारी होने के कारण बड़ी दीदी मुझे कहती थीं कि हमेशा अपने को ‘जगत् माता’ समझो तो किसी की भी आपके प्रति अन्य दृष्टि नहीं जायेगी और आप सुरक्षित रहेंगी। ऐसे तो मेरे सामने कोई समस्या नहीं आयी लेकिन कभी-कभी अकेले ही जाना पड़ता था, रात को देर से सेन्टर आना पड़ता था या अचानक मधुबन से बाबा का बुलावा आता था तो तुरन्त बिना रिजर्वेशन जाना पड़ता था। उस समय हमेशा मेरे में यह भावना रहती थी कि मैं ‘जगत् माता’ हूँ। एक बार मधुबन में जर्नालिस्ट आने वाले थे तो बाबा ने फोन किया कि बच्ची, मधुबन आ जाओ। उस समय तुरन्त रिज़र्वेशन नहीं मिलती थी, तो गाड़ी आने पर ही अगर खाली है तो मिल जाती थी। स्टेशन पर जाकर टी.टी.ई. से रिज़र्वेशन ली। कम्पार्टमेंट में छह लोगों के लिए सीट या बर्थ होती है ना, उनमें पाँच भाई थे जो अन्य धर्म के थे और एक ही सीट खाली थी जो मुझे मिली थी। मैं जाकर वहाँ बैठ गई। जब ट्रेन चलने लगी तो उनको ख्याल चलने लगा कि यह अकेली बहन है। मैंने यह सोचा कि अभी तक हमने जो सीखा है, उसका प्रयोग और परीक्षण करने का यह समय है। तो मैं खिड़की के पास बैठकर आत्मिक स्थिति का अभ्यास करने लगी कि मैं एक शुद्ध आत्मा हूँ, ये भी आत्मा हैं, सभी परमात्मा की सन्तान हैं। थोड़ी देर के बाद जब टी.टी.ई. टिकट देखने के लिए आया तो उन भाइयों ने उससे कहा कि इस बहन को कोई दूसरा स्थान दे दो। उनके पास जो भोजन था, वह मांसाहार का था, उन्होंने दूसरी जगह जाकर वह भोजन खाया। उसके बाद से मैंने यह महसूस किया कि कोई भी ऐसा वातावरण हो या आपको ऐसा लगे कि कहीं विरोध हो सकता है, तकलीफ़ हो सकती है, उस समय आप अन्दर में एकदम आत्मिक स्थिति का अभ्यास करो, बाबा को याद करो तो वहाँ के वायब्रेशन्स में परिवर्तन आ जाता है। आज तक भी मैं इसका प्रयोग करती हूँ। बाबा कहता है कि सदा शुभभावना और शुभकामना रखो, शुभभावना और शुभकामना भी बिना आत्मिक अभ्यास के रख नहीं सकते। आत्मिक अभ्यास को मैंने अपने जीवन का फाउण्डेशन बनाया है।
इसके बाद बाबा ने मुझे एक बड़े सेवाकेन्द्र के निमित्त बनाया जो देहली के साउथ एक्सटेन्सन में था। उस समय कई तरह की परिस्थितियां आती थीं, कई विरोधी भाव वाले, विकारी भाव वाले आते थे लेकिन जब वे सेन्टर के अन्दर आते थे, उनका भाव ही बदल जाता था। एक बार एक व्यक्ति ने खुद ही अपना अनुभव सुनाया कि मैं इस भाव से आया था लेकिन आपके सेन्टर के वातावरण ने मेरा मन ही बदल दिया। सेवा के लिए बाबा मुझे भारत के अनेक स्थानों पर भेजते थे।
उसके बाद बाबा ने मुझे विदेश सेवा के लिए भेजा। उन दिनों विदशों में सेन्टर तो नहीं थे तो मुझे होटलों में रहना पड़ता था। शुरू से आत्मिक भाव में रहने का, स्वमान में रहने का जैसे बाबा से वरदान तो मिला था लेकिन होटलों का वातावरण तो दूषित होता है। ऐसे वातावरण में हमें बहुत योगयुक्त होकर रहना पड़ता था। एक बार मुझे सिंगापुर जाना पड़ा। वहाँ पर एक सम्मेलन हो रहा था, उसमें स्वामी सच्चिदानन्द जी भी आये हुए थे। वे बाबा को जानते थे। सिंगापुर में स्वामी जी के बहुत शिष्य थे तो उनके पास बहुत फल आते थे। रात को रोज़ वे मेरे लिए काफी सारे फल, सब्जियाँ भेजते थे। वे अपने अनुयायियों को कहते थे कि तुम जाओ ब्रह्माकुमारियों के पास, एक दिन में ही तुमको ज्योति का दर्शन करायेंगे। कहने का मतलब यह है कि मैं जहाँ भी गयी, वहाँ लोगों से सहयोग बहुत मिला।
बाबा के अव्यक्त होने के बाद मेरे से कहा गया कि आप लन्दन जाओ। मेरा लन्दन जाना तो नहीं हुआ लेकिन जर्मनी गयी। एक बार अव्यक्त बापदादा ने मिलते समय, मेरे लिए ये महावाक्य उच्चारे कि ‘जब कोई निमंत्रण आता है, वे लोग अच्छे हैं या नहीं, यह जानने के लिए आप के मन में एक घंटी बजेगी जैसे बाबा की तरफ़ से टेलिफोन आ रहा है। जाने से पहले आप बाबा को मन में फोन करना, बाबा आपको मार्गदर्शन करते रहेंगे।’जब मैं न्यूयार्क में थी, तब एक निमंत्रण मिला। उन्होंने कहा कि बहुत बड़ा प्रोग्राम है, आप आइये। जिस प्रकार वे कह रहे थे कि बहुत बड़ा प्रोग्राम है, मन में मुझे शंका हो रही थी कि वैसा है नहीं। जब उनके सिद्धान्त और हमारे सिद्धान्त नहीं मिलते हैं तो हम क्यों उस में भाग लें? ऐसे हमेशा मैं सोचती थी। सबने कहा कि यह बहुत अच्छा मौका है, आपको जाना चाहिए। दोपहर का समय था। जाने की तैयारी करने से पहले मैं थोड़ा विश्राम कर रही थी। उस समय मुझे अन्दर बहुत स्पष्ट रूप से ऐसा अनुभव हो रहा था कि बाबा कह रहे हैं कि बच्ची, सबको भेज दो सेवा करने के लिए लेकिन तुम मत जाओ। मैं सोचने लगी कि मैं सबको ऐसे कैसे कहूँ, आप जाओ, मैं नहीं आऊँगी? वे कहेंगे कि बहनजी ने प्रोग्राम बदल दिया। फिर मैंने ऐसे कहा कि आप सब थोड़ा पहले चले जाना। अगर आपको उचित लगे तो मुझे फोन कर देना, मैं आ जाऊँगी। जब वे लोग वहाँ गये तो वहाँ पैसे की बातें, राजनीति की बातें चल रही थीं। तो अपने भाई-बहनों ने फोन किया कि आप नहीं आइये, हम लोग यहाँ हैं, हम सन्देश दे देंगे। इस तरह से, बाबा की तरफ़ से मुझे इशारे मिलने के बहुत अनुभव हैं।
कई देशों में मैं गयी जहाँ भिन्न-भिन्न धर्म, रंग, रूप, जाति और मान्यतायें हैं। क़रीब दो साल हो चुके थे मुझे विदेश गये हुए। ग्याना में 55% भारत मूल के हैं, बाक़ी 45% छह रेस (प्रजाति) मिक्स हैं। मुझे ऐसा लगा कि बाबा की तरफ़ से प्रेरणा मिल रही है कि वहाँ जाकर सेवा करो। पहले तो सबने कहा कि नहीं, आपको वहाँ नहीं जाना चाहिए, वहाँ डर है। लेकिन मैंने कहा, मैं जाऊँगी क्योंकि बाबा की तरफ़ से इशारा मिला है; मैं जाऊँगी ही। जब वहाँ गयी तो रेडियो, टेलीवीज़न, पेपरों में राजयोग का बहुत प्रचार होने लगा। ऐसे प्रचार होता था कि छोटी-छोटी बहनें आयी हुई हैं, राजयोग के बारे में बहुत अच्छा सिखा रही हैं। लेकिन वहाँ के जो धार्मिक नेतायें, पंडित आदि थे, उनको अच्छा नहीं लग रहा था। वहाँ की सरकार में एक क़ानून था कि पंडितों की कौन्सिल (महासभा) को बाहर से आयी हुई कोई भी संस्था पसन्द नहीं है, तो सरकार कह सकती है कि आप अपना कार्यकलाप बन्द करो। जब ये पंडित आदि राष्ट्रपति के पास गये तो राष्ट्रपति की तरफ़ से हमें फोन आया। हमने कहा, अगर आप कहें तो हम उनसे बात करेंगे। राष्ट्रपति ने उन महासभा वालों से कहा कि वो बहनें तो तैयार हैं, आप से बात करने के लिए। फिर महासभा वालों ने कहा कि वे हमारी कौन्सिल में आयें। तब तक सरकार के बड़े-बड़े व्यक्तियों के साथ और मंत्रियों के साथ हमारी पहचान अच्छी हो गयी थी तो उन्होंने कहा, वे तो बहनें हैं, आप के पास कैसे आयें, आप ही उनके पास जाइये, आराम से बात कीजिये। हमने भी कहा, हमारा बड़ा सेवाकेन्द्र है, हम आप सब के लिए भोजन भी बनायेंगे, आप सब आइये। हमने देखा, उस महासभा में मुख्य आठ लोग थे। उनको डर था कि इन लोगों के कारण हमारे पूजा, यज्ञ-हवन आदि धार्मिक कार्यों में बाधा आयेगी। हमने उनसे कहा, आपकी ये जो धार्मिक विधियाँ हैं, ये हम सिखाते नहीं। हमारे कारण आप की आमदनी कम होने की बात ही नहीं, तो आप क्यों विरोध करते हैं? इसके अलावा, उनके शास्त्राधारित कई प्रश्न थे, जिनको वे पूछने लगे। उनके प्रश्नों का मैं बाबा की याद में रहकर उत्तर देती गयी। तो आठ में से सात पंडित सन्तुष्ट हो गये और संस्था के प्रति उनका स्नेह भाव उत्पन्न होने लगा। उनमें से एक जो मुख्य था, वह समझ रहा था कि ये लोग ब्रह्माकुमारियों से प्रभावित हो रहे हैं लेकिन मुझे तो इनके प्रति विरोध की भावना रखनी ही है। उन्होंने राष्ट्रपति को रिपोर्ट दी कि भले ही ये लोग यहाँ रहें लेकिन भक्ति के बारे में कुछ नहीं बतायें। हमने कहा, हम तो भक्ति के बारे में नहीं बतायेंगे परन्तु लोग पूछते हैं तो उत्तर देना ही पड़ता है। सरकार की तरफ़ से हमें बहुत प्रोत्साहन मिलता रहा।
प्रश्नः ईश्वरीय ज्ञानमार्ग में आपको क्या अच्छा लगा?
उत्तरः ईश्वरीय ज्ञान में कुछ बातें बहुत सहज और सरल लगीं तथा एकदम अच्छी लगीं जैसे परमात्मा का परिचय। विशेष रूप से श्रीकृष्ण से मेरा बहुत प्यार था, बहुत ही प्यार था। जैसे ही मैंने सुना ‘परमात्मा एक है, निराकार है, सर्व आत्माओं का पिता है’ तो यह बात मेरे मन में लगी। दूसरी बात, अगर मैं ईश्वर की सन्तान हूँ, तो मेरे में अंश मात्र भी उनके गुण ज़रूर होंगे। अगर मैं राजयोग का अभ्यास करूँगी तो उनके गुण मेरे में फुल (पूर्ण) हो जायेंगे। अगर मेरे में 1% हैं तो 10% हो जायेंगे, 10% हैं तो 100% हो जायेंगे।
जब मैं योग में पहली-पहली बार बैठी तो उन्होंने अभ्यास कराया कि आप शान्त स्वरूप हैं, परमात्मा शान्ति के सागर हैं; आप आनन्द स्वरूप हैं, परमात्मा आनन्द के सागर हैं; इस बात ने मुझे इतना निश्चयबुद्धि बनाया कि मुझ में परमात्मा के सौ प्रतिशत गुण थे लेकिन अब नहीं रहे, तो मुझे बाबा से वो पूरा वर्सा लेना है।
तीसरी बात, परमात्मा के साथ का अविनाशी सम्बन्ध मुझे बहुत अच्छा लगा। लौकिक में मेरे मन में बहुत विचार चलता था कि सम्बन्धों में क्यों दुःख होता है? सम्बन्ध क्यों बने हैं? सम्बन्ध होते हैं सुख के लिए। फिर मित्र आपस में क्यों लड़ते हैं? भाई-बहनों के बीच झगड़ा हो जाता है, माता-पिता का बच्चों से भी हो जाता है। सम्बन्धों में झगड़े और दुःख जो थे ना, ये मुझे समझ में नहीं आते थे। सोचती थी कि इन्सान सम्बन्ध क्यों बनाता है अगर सुख नहीं दे सकता तो? जब मुझे यह ज्ञान मिला, समझ मिली कि परमात्मा से मुझ आत्मा का अविनाशी सम्बन्ध है और वह दुःखहर्त्ता तथा सुखकर्ता है। उसके साथ सम्बन्ध जोड़ने से सुख ही मिलता रहेगा और दुःख दूर होता जायेगा। अगर उससे मुझे सुख ही मिलता रहेगा तो अन्य मनुष्यों के साथ व्यवहार में भी मैं उस सुख का ही प्रयोग करूँगी।
चौथी बात मुझे यह अच्छी लगी कि यह जीवन एक माननीय जीवन (reverent life) है। लौकिक में भी मैं मानती थी कि यह जीवन अनमोल और माननीय है लेकिन कैसे माननीय है यह पता नहीं था। जब यहाँ आयी तो बताया गया कि हम देवता घराने के हैं, हमारे पूर्वज देवी-देवता हैं। दिव्यता और पवित्रता ही हमारा अनादि और आदि स्वरूप है। यह मुझे बहुत अच्छा लगा। यह ज्ञान जानने के बाद, जब मैं आँखें बन्द करती थी तो एक छोटी-सी देवी दिखायी पड़ती थी और वो देवी मैं ही हूँ; यह भावना अपने प्रति प्रकट होती थी। आज तक भी, जब भी मैं बैठती हूँ तब मुझे यही लगता है कि मैं एक देवी हूँ या एक हल्का, लाइट स्वरूप का फरिश्ता हूँ। उस समय ही मुझे पक्का हो गया था कि मुझे यह बनना है।
सबसे बड़ी बात यह है कि जब से मैंने योगाभ्यास शुरू किया तब से मेरे में एकाग्रता की मात्रा इतनी बढ़ गयी कि कोई बात सुन ली, देख ली या पढ़ ली तो भूलती नहीं थी। ज्ञान मिलने से पहले पढ़ाई में 60% माक्स मिलते थे, राजयोग सीखने के बाद 80-85% माक्स आने लगे । योगाभ्यास से स्मरण शक्ति बढ़ गयी। उस समय मुझे ऐसा लगता था कि मेरी बुद्धि रिफ़ाइन हो गयी। मुझे अनुभव होता था कि ज्ञान मिलने के बाद मेरी जो सोच चल रही है, बुद्धि जैसे काम कर रही, पहले ऐसा था ही नहीं। योगाभ्यास करने से मेरे में बहुत-सी कलायें विकसित हुई। इस बात पर हमेशा मुझे जगदीश भाई की बात याद आती है। वे कहते थे कि योगी के अन्दर योग्यतायें बढ़नी चाहिएँ। मैं तो यही कहती हूँ कि आज जो भी हम कर रहे हैं या अभी तक कर पाये हैं, यह सिर्फ लौकिक पढ़ाई की वजह से नहीं बल्कि राजयोग की वजह से ही है।
प्रश्नः ज्ञानमार्ग में आपके इतना आगे बढ़ने का क्या आधार रहा?
उत्तरः आज्ञाकारिता। मेरा मुख्य अनुभव यही रहा है कि आज्ञाकारी रहकर, सोच-समझ से चलने वाले आगे चलकर बड़ों के विश्वासपात्र बन जाते हैं। बड़ी दादी जी का मेरे पर बहुत विश्वास रहा। इसी अनुभव ने मुझे विदेश की सेवा में बहुत मदद की। मैं जब भी विदेश से भारत आती थी, दादी जी का वो विश्वास ही फिर से विदेश सेवा में वापिस जाने की प्रेरणा देता था। ग्याना गये एक साल हो चुका था, ग्याना मधुबन से बहुत दूर है, क़रीब 16,000 मील दूर। मुझे लगा कि ग्याना में और किसी को सेवा के लिए भेजना चाहिए। मैंने दादी जी से कहा कि दादी जी, ग्याना में और किसी को भेज दें तो अच्छा रहेगा। दादी जी ने कहा, अगर आप ऐसे समझते हैं तो आप ही कहो, किस को भेजना है? अगले दिन मैंने दादी जी से कहा, दादी जी, मुझे ऐसा लग रहा है कि वर्तमान समय वहाँ जो सेवा चल रही है, उसको उस स्तर पर लाने के बाद वहाँ और किसी को भेजेंगे तो ठीक नहीं रहेगा। इसलिए मैं समझती हूँ कि और एक साल मैं ही वहाँ रहूँ। यह बात सुनकर दादी जी मुस्कराने लगीं और कहा, आप जैसे सोचो। दादी जी ने, वहाँ किसको भेजना है, यह ज़िम्मेवारी मेरे ऊपर ही छोड़ दी और कहा कि आप ही बताओ, किस को भेजना है। दादी जी के इस विश्वास तथा प्यार ने मुझे सोचने के लिए मजबूर किया और मैंने यह निर्णय लिया कि और एक साल मैं ही वहाँ रहूं।
शुरू-शुरू में जब अमेरिका में सेवा के लिए गयी तो लोगों ने कहा कि यहाँ ऐसे-ऐसे लोग हैं, आप क्या सेवा करेंगी? मैंने कहा, बाबा ने भेजा है और दादियों का विश्वास है। मैं सोचती ही नहीं हूँ कि क्या करें, कैसे करें! जब बाबा ने तथा बड़ों ने भेजा है तो वो कार्य हो ही जाना है। इसलिए मैं यह कहती हूँ कि पहले आज्ञाकारी बनो। आज्ञाकारी बन अपनी समझ से कार्य करो। कई समझते हैं कि आज्ञाकारी बनने से हमारा क्या महत्त्व रह गया? मैं कहती हूँ कि बड़ों की बात पहले सुनो, उसके बाद वे ही पूछेंगे कि इस बात के लिए आपका क्या विचार है। बड़े यह कार्य आपको ही करने के लिए कह रहे हैं तो इसका अर्थ है कि उनको विश्वास है कि आप कर सकते हैं। आप भी उतने ही विश्वास से स्वीकार करो और करो तो उनके आशीर्वाद और आपकी मेहनत से वो हो ही जायेगा।
प्रश्नः आप कॉलेज जीवन में ही ज्ञान में आ गयीं तो आप में उसी समय बहुत-से परिवर्तन आ गये होंगे और आपकी सहेलियों या प्राध्यापकों आदि ने कुछ कहा तो होगा?
उत्तरः विद्यार्थी जीवन में ज्ञान पाने के बाद वेष-भूषा में, खान-पान में, कार्य-व्यवहार में बदलाव तो आता ही है। पहले रंग-बिरंगे वस्त्र पहनना, तरह-तरह से बाल बनाना, कैंटीन में खाना-पीना, बैठना आदि तो सहज ही चलता था। उस समय कॉलेज में हलचल तो हुई क्योंकि मैं हर कार्यक्रम में भाग लेती थी, जैसे कि ड्रामा में, खेल में, आर्ट में। कॉलेजों में मंत्रालय बनाते हैं ना जैसे खेलकूद, प्रशासन, कल्बर आदि वैसे मेरे पास हेल्थ की मिनिस्ट्री थी। उन दिनों मैं एक्सरसाइज में, खेलकूद में बहुत विश्वास करती थी। सुबह प्रार्थना आदि कराना भी मेरे को देते थे। वैसे बचपन से ही मुझे स्कूलों में अवार्ड मिलते थे कि यह सबके साथ मिलकर चलती है, अनुशासित है।
मेरे ज्ञान में आने के बाद, सहेलियाँ नोट करती थीं कि इसको क्या हो रहा है, क्यों नहीं हमारे साथ सिनेमा देखने आती है। मेरी राज्यशास्त्र की प्रोफ़ेसर भी मेरे बारे में बहुत सोचती थी। एक दिन शाम को पौने पाँच बजे कॉलेज पूरा होने के बाद मैं बाहर आयी, तब वह मुझे बुलाकर कहने लगी कि आज तुमको मैं अपनी गाड़ी में ले चलूँगी। उसका घर हमारे घर से थोड़ा आगे था। मैंने कहा, ठीक है, मुझे रास्ते में छोड़ देना। रास्ते में उसने कहा कि आप इतनी सिम्पल क्यों हो रही हैं? आप इतनी शान्त क्यों रहती हैं? मैं हर बात में कॉलेज में बहुत एक्टिव (चुस्त, क्रियाशील) थी, बाद में भी रही लेकिन कई बातों में भाग लेना कम कर दिया। पूछने लगी कि आपको घर में कोई समस्या है? कोई दुःख या तकलीफ़ है? क्या मैं आपको मदद कर सकती हूँ? आप इस तरह से क्यों हो? मैंने बताया कि मुझे जीवन में एक महान् लक्ष्य मिला है, उसने मुझे यह सादा जीवन बिताने की प्रेरणा दी है। वैसे तो मैं पहले से ही सादगी को पसन्द करती थी। मैं मानती थी कि सादगी ही शालीनता (simplicity is royalty) है। वह बहुत ही फ़िकर करने लगी मेरे प्रति। उसने सोचा कि शायद घर में इसको कोई समस्या होगी। बाद में, एक बार हमने कश्मीर की तरफ़ पहलगाँव में चित्रप्रदर्शनी लगायी थी। वह प्रोफ़ेसर भी घूमने वहाँ आयी हुई थी। उसने मेरे को सफ़ेद साड़ी में देखा तो बोली, क्या करती हो तुम? मैंने कहा, आप पहले चित्रप्रदर्शनी देखो, बाद में हम बात करते हैं। मैंने किसी और को बोला कि इनको चित्र समझाओ। बाद में मैंने उनको कहा कि मुझे परमात्मा की तरफ़ से यह ज्ञान मिला है और मुझे ऐसा लगता है कि परमात्मा कहता है कि तुम अपने जीवन को इस सेवा में लगाओ। मेरा ऐसा मन बना हुआ है। उसने कहा कि चलो, मुझे गौरव है कि आपने जीवन में एक मिशन बनाया है।
जिस कॉलेज में मैंने पढ़ाई की है, उस कॉलेज के प्रोफ़ेसर और प्रिन्सिपल्स अभी तक भी मेरा बहुत सम्मान करते हैं। उनका कोई बड़ा कार्यक्रम होता है और मैं दिल्ली में होती हूं तो मुझे बुलाकर बहुत ऑनर (सम्मान) करते हैं कि हमारे कॉलेज की एक स्टूडेन्ट, एक कन्या इस तरह के आध्यात्मिक जीवन में गयी और उस संस्था में एक लीडर के रूप में है।
प्रश्नः मम्मा के बारे में थोड़ा बताइये।
उत्तरः मम्मा से मेरा बहुत प्यार था। मम्मा कहती थीं मोहिनी, तुम सतोगुणी पुरुषार्थी हो। मैंने मम्मा से पूछा था कि क्यों? मैं बहुत-सी बातों में रुचि नहीं रखती थी जैसे कि फालतू बातें करना या बैठकर गप्पे मारना, किसी के बारे में बोलना या सुनना। ऐसे समय पर उस जगह पर मैं बैठ नहीं सकती थी, उठकर चली जाती थी। मैं किसी के बारे में बात भी नहीं करती थी और किसी की बातों में हस्तक्षेप भी नहीं करती थी। अगर कोई मेरी आलोचना भी करते थे तो भी मुझे कोई फ़रक नहीं पड़ता था। मुझे लगता है कि शायद मम्मा ने ये सारी बातें नोट की होंगी। इन कारणों से मम्मा के मैं बहुत नज़दीक थी।
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