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ब्र.कु.सिस्टर हलिना  – अनुभवगाथा

सन् 1979 में बहन हलीना को कैनेडा में ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुआ। आपका जन्म पोलैण्ड के एक सम्प्रदायबद्ध क्रिश्चियन परिवार में हुआ और पढ़ाई कैनेडा में हुई। विद्यार्थी जीवन से ही आप समाज सेवा में रुचि रखने वाली थीं। जिसके लिए आप एक मार्गदर्शक की तलाश में भी थीं। वर्तमान समय आप ईश्वरीय सेवार्थ पोलैण्ड में रहती हैं। भारत तथा भारतवासियों के प्रति आप बहुत सम्मानपूर्ण भाव रखती हैं। भारत को वे सबसे प्राचीन देश मानती हैं। 

मुझे भारत के प्रति बहुत प्यार है

मेरा जन्म एक कम्युनिस्ट देश पोलैण्ड में हुआ। मेरी शिक्षा भी वहीं हुई। सत्रह साल की उम्र में मैं पश्चिमी देशों की यात्रा पर निकली। कैनेडा में 10 साल रही। वहीं मैंने अपनी आगे की पढ़ाई की, नौकरी भी की और पश्चिमी सभ्यता को जानने की कोशिश की। वहाँ की प्रजातन्त्र प्रणाली तथा उनकी सम्पत्ति और समृद्धि के बारे में अध्ययन किया। दस साल तक कैनेडा में रहने के बाद मुझे यह अनुभव हुआ कि आम लोगों की जो मान्यता है कि धन-सम्पत्ति ही सुख-शान्ति का साधन है, यह ग़लत है। 

पोलैण्ड छोड़ने से और पश्चिमी देशों में रहने से जीवन में मुझे कोई सन्तुष्टता नहीं मिली। क्योंकि भले ही पश्चिमी देशों में स्वतन्त्रता बहुत है, सम्पत्ति बहुत है लेकिन वहाँ भ्रष्टाचार, अनैतिकता और अपराध बहुत हैं। फ्रीडम होते हुए भी वहाँ के लोग उसका सदुपयोग नहीं करते। उसका उपयोग नशीली चीज़ों का सेवन करने में, ग़लत खाने-पीने में कर रहे हैं। धन-सम्पत्ति को वे ग़लत कार्यों में इस्तेमाल करते हैं।

मेरे मन में जो प्रश्न थे उनके लिए उत्तर, न कम्युनिस्ट देशों से मिले और न पश्चिमी स्वतन्त्र प्रजातन्त्र देशों से। संसार की स्थिति और गति देखकर ये प्रश्न मेरे मन में बार-बार सिर उठाते थे। मेरा पहला प्रश्न था कि मैं कैसे सन्तुष्ट रहूं अर्थात् कैसे मेरी सारी मनोकामनायें पूर्ण हों? मैं यह भी समझती थी कि सन्तुष्टता मूल्यों से सम्बन्धित है। मैंने सम्प्रदायबद्ध क्रिश्चियन कुटुम्ब में जन्म लिया था। यह भी अच्छा ही हुआ क्योंकि उस जीवन से मैंने कुछ मूल्यों को जाना और उससे जीवन का फाउण्डेशन पड़ा। पश्चिमी देशों के धनवान समाज में धर्म पूरा नष्ट हो चुका है। चर्च ख़ाली हैं, वहाँ लोग जाते ही नहीं। मेरा दूसरा प्रश्न था कि नीतिपरायण तथा सदाचार पूर्ण जीवन कैसे जीऊँ और जीवन के सभी क्षेत्रों में कैसे सफलता पाऊँ? तीसरा बड़ा प्रश्न मेरा यह था कि कैसे मैं संसार की सहायता करूँ? 

संसार में फैली हुई दरिद्रता तथा संकट को कैसे मिटायें? मैं अच्छी तरह जानती थी कि लोग भूख और गरीबी से कितने परेशान हैं! मैं कैसे भी करके उनकी मदद करना चाहती थी। मैं चाहती थी कि डॉक्टर बनकर थर्ड वर्ल्ड कंट्रीज (अविकसित देशों) में जाकर उनकी सेवा करूँ। धीरे-धीरे मेरे भाव और विश्वास बदलने लगे। मेरे इन प्रश्नों का उत्तर, न मेरे जन्मस्थान से मिला और न ही पश्चिमी देश कैनेडा से मिला। मैं दोनों स्थानों में ढूंढ रही थी कि ऐसा कोई व्यक्ति मुझे मिले जो इस विषय में मेरा मार्गदर्शन करे, जिसका जीवन शुद्ध हो, स्थिर हो, आदर्श हो। पुस्तकों द्वारा, अनेक व्यक्तियों से मुलाक़ात द्वारा ऐसे व्यक्ति को मैं ढूँढ रही थी। 

इस खोज के दौरान, एक दिन मैं ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के सम्पर्क में आयी। जिस व्यक्ति से मेरी मुलाक़ात हुई, वह इस विश्वविद्यालय में अध्ययन करता था, उस व्यक्ति ने मुझे आकर्षित किया। वो मेरा मित्र था। यहाँ जाने के दो महीने के अन्दर मैंने उसमें बहुत बड़ा परिवर्तन देखा। सच में मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि एक व्यक्ति दो महीने के अन्दर इतना परिवर्तित कैसे हो सकता है! वह एकदम शान्त, शीतल रहता था। उसकी विचारधारा, उसकी दृष्टि-वृत्ति सब बदल गयी थी। इसको अन्य लोगों ने भी नोट किया था। सन् 1979 में, मैं भी ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय गयी, उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करने लगी। शिक्षायें तो मुझे अच्छी लगीं लेकिन मुझे ज़्यादा प्रभावित नहीं कर पायीं। दो-तीन महीने के बाद सुनने में आया कि इस संस्था की कुछ वरिष्ठ बहनें आने वाली हैं। उनको देखने मैं उस कार्यक्रम में गयी। उस कार्यक्रम में दादी जानकी और जयन्ती बहन आयी हुई थीं। जब उनको देखा, उनके प्रवचन सुने तो मुझे अपने बचपन में सुनी बाईबल की वो बात सच लगी कि किसी व्यक्ति ने कुछ साधना की है, तो आप इसको कैसे समझेंगे? उनकी प्राप्तियों से, उनकी धारणाओं से अर्थात् उनके प्रैक्टिकल जीवन से। दादी जानकी और जयन्ती बहन ने अपने प्रवचन में जो भी कहा, उसमें अर्थ था, कुछ वजन था। इससे ज़्यादा महत्त्व की बात थी उनकी सन्तुलित मानसिक स्थिति। मैंने उनमें प्रैक्टिकल साधना की प्रत्यक्ष प्राप्ति देखी। इसने मेरी अन्तर्दृष्टि पूर्णतः खोल दी। क्योंकि मैं जीवन में पहली बार, इस धरती पर, आध्यात्मिकता को जीवन में प्रैक्टिकल रूप में धारण करने वाले महान् व्यक्तियों को सम्मुख देख रही थी। उन दोनों में मैंने तीन विशेष बातें देखींएक, वे महिला होते हुए भी सम्पूर्ण स्वतन्त्र थीं, सच्ची स्वतन्त्रता पायी थी। दूसरा, मुझे यह भी अनुभव हो रहा था कि वे जीवन में सत्य और आध्यात्मिकता को साथ लेकर चल रहे हैं। तीसरा, मुझे यह भी अनुभव हो रहा था कि उनमें अथाह आध्यात्मिक शक्ति है। वे बहुत सुखी लोग हैं। पश्चिमी देशों में, जब मैं किसी सत्संग में जाती थी, वहाँ के रीति-रिवाज़ ही अलग होते थे। वहाँ प्रार्थना करनी पड़ती थी, गुरुओं के चरण छूने पड़ते थे। गुरु ऊँचे आसन पर बैठा रहता था, सुनने वाले नीचे बैठे रहते थे। गुरु एकदम ऊँच और शिष्य एकदम नीचे। यह भेदभाव मुझे नज़र आता था। लेकिन यहाँ इन दो महिलाओं की आध्यात्मिक शक्ति, खुशी और स्वतन्त्रता- यह सन्देश देती थीं कि ‘आप भी हमारे जैसे बन सकते हैं।’ यह सन्देश मेरे मन में बहुत गहराई तक उतरा। 

इस विश्वविद्यालय की नियमित विद्यार्थी बनने के लिए इससे ही मुझे प्रेरणा और शक्ति मिली। इसके बाद मैंने निर्णय किया कि मुझे इस ज्ञान का अध्ययन करना है और प्रयोग करना है। जब ज्ञान का अध्ययन करना आरम्भ किया, तब मैं एक बैंक में नौकरी करती थी, साथ-साथ युनिवर्सिटी में लौकिक पढ़ाई भी करती थी। एक साल तक ईश्वरीय ज्ञान का अध्ययन करने के बाद, मुझे इस ज्ञान से जीवन के अनेक प्रश्नों के प्रैक्टिकल उत्तर तथा अनुभव मिले। एक साल में मेरे जीवन में पूर्ण रूप से तीव्र परिवर्तन आ गया। मेरी अन्तरात्मा ने अनुभव किया कि एक साल की अवधि में बहुत कुछ प्राप्त किया है। मैंने जीवन को उत्थान के प्रति अग्रसर होते हुए देखा। जिन प्रश्नों के उत्तर मैं खोज रही थी, वो उत्तर मुझे मिल गये थे। आख़िर मैंने, जिस देश में जन्म लिया था, उस देश में लौटने का निर्णय लिया। मैंने सोचा कि यह मेरा नैतिक कर्त्तव्य है, मेरी सामाजिक ज़िम्मेवारी है कि जिस समाज से मैंने पालना ली है, सभ्यता सीखी है, उस समाज की, उस देश की जनता की सेवा करूँ। मेरे देश की भाषा जानने वाला कोई भी व्यक्ति इस विश्वविद्यालय में नहीं था, इसलिए मैंने अपने देश लौटकर वहाँ परमात्मा का सन्देश देने की सेवा करने का फैसला लिया।

प्रश्नः आप को कैसे विश्वास हुआ कि परमात्मा का अवतरण हुआ है?

उत्तरः मैंने पहले ही बताया है कि मैंने एक धार्मिक तथा कैथोलिक क्रिश्चियन परिवार में जन्म लिया था। मेरे माता-पिता हमेशा मेरे से कहते थे कि परमात्मा है, उस पर पूर्ण विश्वास रहना चाहिए। जब किशोर अवस्था में मैं पश्चिमी समाज के सम्पर्क में आयी, तो मैंने देखा कि वहाँ भी परमात्मा के बारे में विभिन्न भ्रान्तियाँ, मान्यतायें हैं। हरेक व्यक्ति परमात्मा के बारे में अलग-अलग बातें बताता था, तो मैं, सच में, उलझ गयी थी कि परमात्मा कौन है! मुझे याद है, जब मैं 19 साल की थी तब मैंने निर्णय लिया कि मुझे परमात्मा के बारे में सोचना नहीं चाहिए, उसके अस्तित्व पर विश्वास रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। आख़िर मैं इस निर्णय पर पहुंची कि इस सृष्टि में एक ऐसी पॉवरफुल फोर्स (उच्च शक्ति) है, जो परिपक्व है, दिव्यशक्तियों का, सर्वोच्च प्रज्ञा का, सर्वोपरि स्नेह का स्रोत है। उस समय किसी ने मुझ से यह प्रश्न पूछा था कि तुम परमात्मा पर विश्वास रखती हो? मैंने उत्तर दिया था, नहीं, क्योंकि मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है।

क्रिश्चियनिटी ने मुझे एक अच्छी पृष्ठभूमि तथा समर्थन तो दिया था लेकिन वास्तविक तथा सम्पूर्ण उत्तर नहीं दिया। जब मैं इस युनिवर्सिटी में आयी, यहाँ पहले मुझे आत्मा का ज्ञान दिया गया। आत्मा के ज्ञान से मुझे मेरे बारे में भी उत्तर मिला कि मैं क्यों इतनी कमज़ोर हूँ (मानसिक रूप से) और कई लोग क्यों इतने क्रूर (निर्दयी) हैं। मुझे इस प्रश्न का भी उत्तर मिला कि विश्व में क्यों इतने सारे संघर्ष, कलह-क्लेश हैं।

मुझे याद है, बचपन में ही मैं सोचा करती थी कि क्यों हमें हर वस्तु खरीदनी चाहिए? जिसके पास जो वस्तु है, उसको दूसरों को देनी चाहिए। हमें आपस में बाँटकर जीना चाहिए। ऐसे क्यों नहीं हम करते? लेकिन इसके लिए मुझे कोई योग्य उत्तर नहीं मिला था। बड़ी होने के बाद देखा कि हरेक व्यक्ति पैसे कमाने के लिए ही काम कर रहा है। पश्चिमी देशों में तो मैंने देखा कि हर काम का केन्द्रबिन्दु धन ही है। आत्मा के ज्ञान ने मुझे अपने अन्तर्-भवन का निर्माण करने का, अन्तर्-शक्तियों की प्राप्ति करने का मार्ग दर्शाया।

जब मैंने परमात्मा के बारे में ज्ञान सुना, ओह! वह तो विचित्र अनुभव था। जब मैंने पहली बार मेडिटेशन किया, उसमें परमात्मा के साथ जब सम्पर्क जुटा, वह अनुभव तो बहुत अनोखा था। मेडिटेशन का पाठ पूरा कर मैं अपने निवास स्थान पर गयी। कोर्स देने वाली बहन ने कहा था कि अभी आप अपने कमरे में भी मेडिटेशन कर सकती हो। कमरे में जाकर मैं नीचे बैठ गयी। कमरे में अकेली थी। अपने आप से प्रश्न पूछना शुरू किया कि मेडिटेशन क्या है? उत्तर मिला, परमात्मा के साथ सम्पर्क स्थापित करना। परमात्मा कौन है? तो परमात्मा का जो वर्णन उन्होंने दिया था कि वह सर्वशक्तिवान है, वह परम आत्मा है, वह सर्व गुणों का सागर है, ये विचार मन में आये। मैंने सीधा परमात्मा से प्रश्न पूछा, अगर तुम्हारा अस्तित्व है तो मुझे बताओ कि मैं कैसे तुम्हारे साथ सम्पर्क स्थापित करूँ? उसके पश्चात् ऊपर से प्रेम की शक्तिशाली किरणें मेरे ऊपर गिरने लगीं। वह बहुत शक्तिशाली अनुभव था। इन शक्तिशाली प्रेम के प्रकम्पनों को कौन भेज रहा है! उस अनुभव में मैंने स्पष्ट जान लिया कि यह प्रेम के सागर परमात्मा का प्रेम है। यह प्रेम कोई मनुष्यों से नहीं आ सकता। कोई भी मनुष्य इस तरह के प्यार का अनुभव नहीं करा सकता। जीवन में अनेक लोगों के, अनेक तरह के प्रेम मैं अनुभव कर चुकी थी लेकिन मेडिटेशन में मुझे प्रेम का जो अनुभव हुआ, वो अनोखा प्रेम था। एक पल में मैंने समझ लिया कि यह परमात्मा का ही सर्वोच्च प्रेम है, किसी मनुष्य का नहीं। यह परमात्म-प्यार, एक ही समय मुझे स्वतन्त्र भी कर रहा था तथा शक्तिशाली भी बना रहा था। उस प्रेम में मुझे यह भी अनुभव हो रहा था कि परमात्मा मुझे शक्तियाँ प्रदान कर रहा है, ईश्वरीय सेवा के लिए तैयार कर रहा है। इस अनुभव के बाद मुझे परमात्मा के अस्तित्व के बारे में इतना स्पष्ट और शक्तिशाली विश्वास बैठ गया कि परमात्मा है, वह हमारा पिता तथा दाता है। 

ज्ञान में चलते दो महीने होने तक मैंने दूसरों को भी यह ज्ञान देना, मेडिटेशन सिखाना शुरू कर दिया था। तब मैं कैनेडा में ही थी। दो साल कैनेडा में रहने के बाद मैं अपनी पितृभूमि पोलैण्ड लौट आयी। उस समय पोलैण्ड, एक बड़े परिवर्तन के कगार पर खड़ा था। वहाँ बहुत भारी राजकीय परिवर्तन होने वाला था। प्रजा अपने हकों के लिए लड़ रही थी। हज़ारों लोग देश छोड़कर जा चुके थे और जा भी रहे थे। ऐसी स्थिति में, दस सालों के बाद मैं उस देश को लौट रही थी। मैं बहुत ही शक्तिशाली सन्देश और सपनों के साथ लौट रही थी। इससे पहले मैंने ब्रह्माकुमारियों के मुख्यालय और अन्य देशों के कुछ सेवाकेन्द्रों का भ्रमण किया और वरिष्ठ बहन-भाइयों से मिली। दादियों ने मुझे लौकिक माँ से भी ज़्यादा प्यार दिया, पालना दी। पोलैण्ड जाने से पहले मैं अव्यक्त बापदादा से दो बार मुलाक़ात कर चुकी थी।

प्रश्नः पहली बार जब आप अव्यक्त बापदादा से मिली, उस समय का क्या अनुभव था?

उत्तरः सन् 1980 में मैं पहली बार बापदादा से मिली। मुझे कहा गया था कि परमात्मा मनुष्य-तन में आता है, तुम उनसे जो कुछ पूछना चाहो, पूछ सकती हो। क्रिश्चियन धर्म परमात्मा को धर्मराज के रूप में ही ज़्यादा देखता है। कहा जाता है कि परमात्मा सज़ा देता है। वह केवल यही जाँच करता है कि तुमने कितने पाप किये हैं और कितने पुण्य किये हैं। उनके साहित्य में कहीं भी नहीं आता है कि परमात्मा ज्ञानदाता है, प्यार का सागर है। जब बाबा से मिलने का दिन आया तो मैं मिलने की तैयारी कर रही थी। मैं बाबा से क्या चाहूँ? बाबा से मैं क्या पूछ सकती हूँ? जब मैं बाबा के सामने खड़ी हो गयी तो मैंने सोचा था कि परमात्मा मेरी जाँच करेगा। वह मुझे बतायेगा कि तुम्हारे में ये कमियाँ हैं, तुम ये सारी ग़लतियाँ कर बैठी हो। लेकिन जब मैं बाबा के सामने खड़ी हो गयी, तो बाबा ने मुझे बहुत मीठी तथा शक्तिशाली दृष्टि दी। उसके बाद बाबा ने मुझ से पूछा,

“बच्ची, कौन-सा गीत गा रही हो?”

यह प्रश्न मेरे लिए बहुत आश्चर्यकारक था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि परमात्मा मेरी प्रशंसा करेगा। बाबा को क्या उत्तर दूँ, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था। बाबा ने 2-3 बार यही प्रश्न पूछा लेकिन मैं उत्तर नहीं दे पा रही थी।

फिर बाबा ने ही उत्तर दिया,

“आप ख़ुशी का गीत गा रही हो कि मैंने अपने सच्चे पिता को पा लिया, जो मुझे कल्प-कल्प जानता है और मेरे से मधुर मिलन करता है।”

मैंने समझा कि यह परमात्मा केवल प्रेम और करुणा का सागर है। यह सकारात्मकता की बहुत शक्तिशाली ऊर्जा है। यह परमात्मा कोई धर्मराज तथा सज़ा देने वाला नहीं है, यह तो प्यार का और दया का सागर है। कुछ दिन मधुबन में रहकर मैं कैनेडा लौट गयी।

मैं नियमित रूप से मेडिटेशन का अभ्यास करती रही क्योंकि अभ्यास किये बगैर हम कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। यह ज्ञान मिलने के बाद और राजयोग मेडिटेशन सीखने के बाद मुझे बहुत खुशी प्राप्त हुई। मेरी दिनचर्या, मेरा संग आदि सब बदल गये। बाबा का सन्देश पहुँचाने के लिए मैं अपने आपको तैयार करने लगी। मेरा सन्देश यही था कि जो व्यक्ति सत्य को जानना चाहते हैं, सत्य को पाना चाहते हैं तथा मनःशान्ति पाना चाहते हैं, उनको मैं मदद कर सकती हूँ। उस समय पोलैण्ड में मार्शल लॉ चल रहा था। कोई सार्वजनिक कार्यक्रम, उत्सव, छोटे-से संगठन का भी आयोजन नहीं कर सकते थे। अनेक नेताओं को बन्दी बनाया गया था। ऐसी स्थिति में मैंने पोलैण्ड की राजधानी में मेडिटेशन सिखाना शुरू किया। ऐसी विप्लव भरी परिस्थिति में भी रोज़ लगभग 200 लोग मेडिटेशन सीखने आने लगे। वे अनुभव करने लगे कि इस मेडिटेशन से उनको आन्तरिक शक्तियाँ प्राप्त हो रही हैं। 

मैं वहाँ कोई प्रचार नहीं करती थी क्योंकि अनुमति नहीं थी। फिर भी आने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही थी। एक दूसरे का अनुभव सुनकर लोग आते रहे। मैं इतना व्यस्त हो गयी कि शुरुआत के कुछ सालों तक माया क्या है, मुझे पता ही नहीं चला। दिन प्रतिदिन उस देश की हालत ख़तरनाक होती जा रही थी। खाने-पीने की चीज़ों को भी सरकार ने अपने हाथ में ले लिया था। फिर भी रोज़ हमारे यहाँ सैंकड़ों लोग मेडिटेशन करने आते थे। बाद में मुझे पता पड़ा कि सुरक्षा बल वाले मुझ पर नज़र रखे हुए थे और वे भी मेडिटेशन सीखने के बहाने उस संगठन में बैठते थे। मैं समझती हूँ कि उन्होंने भी बाबा का ज्ञान समझा होगा, मेडिटेशन किया होगा और कुछ अनुभव भी पाया होगा। सन् 1986 तक वहाँ बाबा के बच्चों का एक बड़ा संगठन तैयार हो गया। फिर इस संगठन को सरकार ने धार्मिक संस्था के रूप में मान्यता दी। अभी वहाँ बाबा की सेवा का आरम्भ हुए पच्चीस साल हो चुके हैं, अभी हम उसके रजत महोत्सव का आयोजन करने वाले हैं।

प्रश्नः आपको राजयोग मेडिटेशन करते हुए 27 साल हो गये, इतने लम्बे समय तक ज्ञानमार्ग में बने रहने का आधार क्या रहा ? 

उत्तरः आधार रहा ब्रह्माकुमारियों का आध्यात्मिक ज्ञान एवं आध्यात्मिक धारणायें। मेरी यह मान्यता है कि आज विश्व को ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के आध्यात्मिक ज्ञान की बहुत आवश्यकता है। इस संस्था में विभिन्न स्वभाव संस्कार के, विभिन्न लक्ष्य से लोग आते हैं। यहाँ राजयोग सीखने इसीलिए आते हैं क्योंकि किसी को पारिवारिक समस्या है या व्यवसायिक समस्या है अथवा मन में शान्ति नहीं है या वह दुनिया की समस्याओं के लिए निवारण पाना चाहता है अथवा अपने देश की मदद करना चाहता है। ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय जो आध्यात्मिक ज्ञान देता है, उससे मुझे जो अनुभव हुआ है, उसके आधार पर मैं कहती हूँ कि यह दुनिया की समस्त समस्याओं का प्रायोगिक समाधान देता है, सब के साथ कैसे व्यवहार करें, कैसे सम्पर्क स्थापित करें – यह विधि बताता है। जो भी चाहे वह इसका प्रयोग और परीक्षण कर अनुभव कर सकता है, निवारण पा सकता है। 

सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान उसी को कहा जाता है जो जीवन की समस्याओं का यथार्थ तथा प्रायोगिक उत्तर और समाधान देता है। यह ईश्वरीय ज्ञान, वही आध्यात्मिक ज्ञान है जो जीवन के हर क्षेत्र का, हर समस्या का कारण और निवारण बताता है। यही बात मुझे इस ज्ञान में आज तक चलाने का कारण बनी। 

दूसरी बात जो मुझे अच्छी लगी, वो है स्व-सशक्तिकरण निर्माण करने वाली यहाँ की प्रायोगिक शिक्षा। यह ज्ञान सिर्फ मानने के लिए नहीं है। विकट परिस्थिति के समय, संकट के समय यह ज्ञान हमारा मार्गदर्शन करता है कि कैसे हम उस परिस्थिति को पार करें और उसका निवारण करें। यहाँ परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ने की जो विधि है, उससे आत्मा की अन्तर-शक्ति सबल हो जाती है। सत्ताईस साल का मेरा अनुभव यही कहता है कि जीवन में किसी भी परिस्थिति के लिए यह आध्यात्मिक ज्ञान योग्य तथा सही निवारण बताता है और आत्मा का सशक्तिकरण करता है। 

आज दुनिया में पारिवारिक सम्बन्धों में मधुरता, प्रेम तथा विश्वास नहीं है। परिवार बिखरे हुए हैं। उसका कारण यही है कि पारिवारिक सम्बन्धों को निभाने का, पारिवारिक कर्तव्यों का पालन करने का ज्ञान उनको नहीं है। ईश्ववरीय ज्ञान प्रैक्टिकल रूप में इन सब विधि-विधानों को सिखाता है। पश्चिमी दुनिया में मनुष्य को पारिवारिक सम्बन्धों को निभाना न आने के कारण, वह परिवार को छोड़ रहा है। लेकिन यह आध्यात्मिक ज्ञान परिवार को छोड़ने के लिए नहीं कहता परन्तु यह सिखाता है कि परिवार में रहकर सबके साथ कैसे आध्यात्मिकता द्वारा सम्बन्ध निभाओ जिससे सम्बन्धों में कटुता, वैचारिक भिन्नता, लड़ाई-झगड़े आदि नहीं होते। 

राजयोग मेडिटेशन के अभ्यास से हमारे में आध्यात्मिक शक्ति, अलौकिक प्रेम विकसित होते हैं और दूसरों को भी सहयोग करने की परोपकारी भावना आती है। इस ईश्वरीय विश्वविद्यालय के विद्यार्थी, जो नियमित रूप से आध्यात्मिक ज्ञान तथा राजयोग का अभ्यास करते हैं, वे धीरे-धीरे आत्मनिर्भर, निडर, स्वतन्त्र, नैतिक तथा आन्तरिक रूप से शक्तिशाली बनते जाते हैं।

प्रश्नः परमात्मा के साथ आपको कौन-सा सम्बन्ध बहुत अच्छा लगता है?

उत्तरः वर्तमान समय मुझे परमात्मा के साथ शिक्षक का सम्बन्ध बहुत अच्छा लगता है क्योंकि परमात्मा परम पिता भी है और परम शिक्षक भी है। उसके पास असीम ज्ञान है। उसका यह है? ज्ञान, रोज़ ज्ञान-मुरलियों से मिलता है। उसका श्रवण तथा चिन्तन करने से मुझे बहुत ही ख़ुशी और ताक़त मिलती है। परमात्मा मेरा शिक्षक है, यह स्मृति मेरे में अथाह नशा और नाज़ भरती है।

प्रश्नः आप मेडिटेशन कैसे करती हैं और क्या-क्या अनुभव करती हैं?

उत्तरः अमृतवेले का योग मेरा विशेष होता है। मैं स्थिर और सचेत होकर मेडिटेशन में बैठती हूँ। मेडिटेशन में मैं बाबा से अनेक संकेतों तथा प्रेरणाओं को पाती हूँ। मेडिटेशन में जब मैं बाबा के ऊपर मन एकाग्र करती हूँ तो बाबा से मुझे बहुत प्रेरणायें मिलती हैं। बाबा मुझे आदेश देते हैं कि तुमको फलानी बात को परिवर्तन करना, इसको इस तरह से प्रस्तुत करना है। मेडिटेशन में बहुत-से लोग तरह-तरह के संकल्प करते हैं इसलिए उनको बाबा से प्रेरणायें या संकेत नहीं मिलते। अगर मन जाग्रत है और बुद्धि की लाइन स्पष्ट और स्वच्छ है तो बाबा से हमें अद्भुत अनुभव तथा मार्गदर्शन मिलेंगे। यह मेरा प्रैक्टिकल नित्य का अनुभव है।

प्रश्नः भारत के प्रति आपकी क्या भावना है?

उत्तरः मैं 27 सालों से भारत आ रही हूँ, कई बार साल में दो-दो बार भी आना पड़ा है। मुझे भारत के प्रति बहुत प्यार है। भारत प्राचीन देश है। भारतवासी परमात्म-प्यारे लोग हैं इसलिए परमात्मा भी भारत में ही अवतरण लेता है। भारत के लोग बहुत सुन्दर और अच्छे हैं। उनके हृदय विशाल हैं, शीतल हैं। उनमें सेवाभाव तथा परोपकारी भाव बहुत होता है। आपका प्रेममय हृदय है परन्तु मैं उसके साथ-साथ चाहती हूं कि आपमें शक्तिशाली आध्यात्मिक अभिलाषा भी हो भगवान के ज्ञान तथा शिक्षाओं को समझने की और उसकी धारणा करने की। हम सबको सृष्टि के शाश्वत नियमों को जानने की ज़रूरत है। वे शाश्वत नियम हैं आध्यात्मिक नियम। आध्यात्मिक नियम आपको जीवन के ध्येय तक पहुँचने का रास्ता बताते हैं तथा मदद भी करते हैं। आध्यात्मिक नियम, आध्यात्मिक ज्ञान से प्राप्त होते हैं। वह आध्यात्मिक ज्ञान परमात्मा से ही प्राप्त होता है।

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