देहरादून से ब्रह्माकुमारी प्रेमलता बहन जी अपना अनुभव सुनाती हैं कि 14 वर्ष की आयु में (1954) मैं हिन्दू नव संवत्सर पर पहली नवरात्रि के दिन लौकिक माँ के साथ शीतला देवी के दर्शन करने गयी थी, जहाँ नानीजी से भेंट हुई और उन्होंने बताया कि माउण्ट आबू से देवियाँ आयी हुई हैं। वे आपके घर के पास ही ठहरी हुई हैं। उनके भी दर्शन करने जाओ। अतः माताजी और मैं, नानी के साथ सेवाकेन्द्र पर गये। उस समय क्लास चल रहा था। मुरली तो कुछ समझ में नहीं आयी परन्तु वहाँ के शान्त और पवित्र वातावरण ने मन को आकर्षित अवश्य कर लिया। मेरी माताजी को तो वहाँ जाने पर बहुत ही साक्षात्कार होने लगे। इसलिए वह बहुत जल्दी ही निश्चयबुद्धि बन नित्य क्लास में जाने लगी। एक दिन दादी निर्मलशान्ताजी अमृतसर आयी तो लौकिक माँ ने बताया कि ब्रह्मा बाबा की बेटी आयी हैं, आप उनसे ज़रूर मिलो। उत्सुकतावश मैं सेन्टर पर गयी। दादी निर्मलशान्ताजी यथा नाम तथा गुणमूर्त देख मुझे बहुत ही खुशी हुई। ज्ञान चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि जीवन का सच्चा सुख ईश्वर से ही प्राप्त हो सकता है।
प्रथम बार प्यारे साकार बाबा से दिल्ली राजौरी गार्डेन में मिलने का सौभाग्य मिला। मैंने जैसे ही बाबा को देखा, बहुत देर तक अपलक निहारती रही और मुझे इतनी स्पष्ट स्मृति आने लगी कि जैसे इसी जीवन में मैंने बाबा को कई बार देखा हुआ है, जबकि बाबा से मेरी यह प्रथम भेंट थी।
बाबा बहुत स्नेह से बोले कि ये कल्प पूर्व की ही नहीं लेकिन इसी कल्प में यज्ञ से गयी हुई आत्मा है, फिर से यज्ञ में आ गयी है। उसी समय यह वरदान दिया कि “यह धार्मिक क्षेत्र के लोगों की सेवा कर बाप का नाम बाला करेगी।” उस समय तो मेरी अल्प बुद्धि ने इन बातों का रहस्य नहीं समझा परन्तु उसके बाद तो एक ही संकल्प, एक ही लगन मुझे ईश्वरीय सेवा के प्रति लग गयी। इसी लक्ष्य पर बुद्धि टिक गयी। शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थ होने के कारण लौकिक-अलौकिक परिवार के सभी लोग कहते थे कि यज्ञ के त्याग और तपस्या के जीवन में चलना कठिन होगा परन्तु मुझे तो बस एक ही धुन थी कि बाबा के पास जाना है, सेवा में जीवन बिताना है।
इस बीच बाबा के बहुत रूहानी स्नेह भरे पत्र आते रहे और बाबा के वरदान याद दिलाते रहते कि तुम्हें क्या करना है! मेरी इस तीव्र लगन को देखते हुए मुझे लौकिक परिवार से छुट्टी मिल गयी और सन् 1956 में पहली बार मधुबन गयी और सदा के लिए भगवान ने मुझे अपनी शरण में ले लिया।
मेरा यह परम सौभाग्य था कि मुझे कुछ समय बाबा के साथ मधुबन में रहने का अवसर मिला जिसमें प्यारे बाबा ने तन-मन की पालना कर एक नया जीवन दिया। अस्वस्थता मेरे लिए वरदान बन गयी। एक बार 18 घंटे बेहोश हो गयी। डॉक्टर के जवाब देकर चले जाने के बाद, बाबा ने स्वयं मुझे रात्रि 2 बजे तक योग-दान देकर नया जीवन दिया। जब मैं होश में आयी तो मैंने देखा कि बाबा मेरी पलंग के पास कुर्सी पर बैठे हुए मुझे दृष्टि दे रहे हैं। एक बार तो मुझे लगा कि मैं स्वप्न देख रही हूँ परन्तु जब बहुत देर तक बाबा से दृष्टि लेते हुए मैं पूर्ण होश में आयी तो देखा कि सचमुच साकार बाबा सामने बैठे थे और उनके पीछे सन्देशी दादीजी खड़ी थीं। बाबा ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ रखा और बोले, “बच्ची, पुराना हिसाब-किताब पूरा हुआ, अब नया जीवन आरम्भ हुआ।” उस समय तो मुझे इस बात का पूरा अर्थ समझ में नहीं आया परन्तु बाद में इस सारे घटनाक्रम की समझ आयी; प्यारे बाबा ने जब डॉक्टर की बात सुनी कि होश में आने की सम्भावना कम है और इसे मुंबई ले जाओ। तब बाबा ने कहा, बाबा आज बच्ची को आयु का वरदान देगा और बाबा ने मेरे कमरे में ही आकर योग-दान द्वारा नया जीवन दिया। यह कमाल है प्यारे बाबा की! क्या ये विचार कभी उठ सकता है कि कैसे ब्रह्मा-तन में स्वयं भगवान आया है? भगवान के चमत्कार क़दम-क़दम पर उन्हें दिखायी देते हैं जो उनके सान्निध्य में जीवन बिताते हैं।
लोग कहते हैं कि भगवान ज्ञान का सागर है परन्तु कभी किसी ने देखा नहीं जबकि हम ऐसी सौभाग्यशाली आत्मायें हैं जिन्होंने ब्रह्मा-तन से उस ज्ञान सागर की लहरों का स्पर्श पाया है। परमात्मा प्रेम के सागर हैं, सुना सबने है परन्तु भगवान के थोड़े-से बच्चों ने उस प्रेम सागर को ब्रह्मा-तन में बहते देखा है। प्रभु-पालना का अनुभव यह लेखनी लिखने में सक्षम नहीं है। बीमारी के बाद शारीरिक दृष्टि से मैं इतनी कमज़ोर हो गयी थी कि अपना कार्य भी स्वयं नहीं कर सकती थी। तब प्यारे बाबा ने माता बन अपने हाथों से खिलाया, पिलाया और दृष्टि देकर इतना शक्तिशाली बना दिया कि कोई कभी सोच भी न सके कि यह शरीर इतना अस्वस्थ रहा होगा। शान्ति के सागर बाबा के सामने जाते ही सब संकल्प शान्त हो जाते थे। बाबा नित्य अमृतवेले लगभग 2 बजे उठकर योग में बैठ जाते थे। उस समय ऐसा अनुभव होता था जैसे कोई ज्योति का पुँज हो। कमरे का वातावरण इतना अलौकिक और शक्तिशाली हो जाता था कि बिना किसी प्रयास के योग लग जाता था। बाबा उस समय लिखते भी थे और फिर बाद में सुनाते थे कि बच्ची, आज फलाने बच्चे को बाबा सकाश दे रहे थे। बाबा के चेहरे से दिव्य किरणें निकलकर सारे कमरे को अव्यक्त सुगन्ध से भरपूर कर देती थीं। वह कैसा प्यारा नज़ारा था जो इन आँखों ने देखा, उसका वर्णन मैं नहीं कर सकती।
बाबा अपने पास बैठाकर सिखाते थे कि कैसे आत्माओं की सेवा करनी है, उनकी समस्याओं का समाधान करना है, धार्मिक लोगों के पास कितनी श्रद्धायुक्त स्थिति से जाना होता है। जिस कार्य को हम मुश्किल समझते थे, बाबा उसके लिए भी हमें प्रोत्साहित करते थे कि बच्चे मेहनत से कार्य करते चलो। ‘क्या होगा’, इस प्रश्न के पीछे अपनी बुद्धि मत लगाओ। आप अपना पार्ट बजाते चलो, जो होना होगा सो होगा। बाबा के चेहरे पर ऐसा रूहानी नूर था कि उनको देख लेने से ही सब ठीक हो जाते थे। बाबा को देखकर आँखें कभी तृप्त नहीं होती थीं, बस यही इच्छा रहती थी कि हर पल बाबा को देखते ही रहें।
मेरे तन-मन को शक्तिशाली बनाकर बाबा ने मुझे सेवा के लिए सन् 1958 में पूना में दादी जानकी जी के पास भेज दिया, जहाँ रहकर सेवा के साथ दादी जी का त्यागी, तपस्वी स्वरूप नज़दीक से अनुभव कर बहुत कुछ सीखने को मिला। दादीजी ने बहुत ही स्नेह से मुझे रूहानी सेवा के योग्य बनाया। उसके पश्चात् बाबा ने मुझे सन् 1960 में अम्बाला सेवाकेन्द्र में सेवार्थ भेज दिया। दो वर्ष वहाँ सेवा की। एक दिन प्यारे बाबा का पत्र आया। बाबा ने लिखा, ‘बच्ची, देहरादून जाकर सेन्टर खोलो।’ बाबा को देहरादून बहुत पसंद था। बाबा बताया करते थे कि मैं एक मास तक देहरादून में, एक संत जिनका नाम लक्ष्मणदास सोनी टोपीवाला था, के पास रहा था। बाबा की अलौकिक प्रेरणा को प्राप्त कर सन् 1962 में देहरादून सेवाकेन्द्र का आरम्भ किया गया। देहरादून में सेवाकेन्द्र खोलने के पीछे क्या राज़ समाया हुआ था, यह तो कुछ समय के बाद ही खुला। बाबा का वरद् हस्त मेरे सिर पर था। धीरे-धीरे बाबा ने जिस सेवा के लिए मुझे तैयार किया था, वहाँ पहुंचा दिया। वहाँ पर रहकर धार्मिक लोगों की सेवा करने का सुनहरा अवसर मुझे प्रदान किया।
हम जो स्वप्न में भी नहीं सोच सकते थे, वह बाबा करा लेते थे। एक बार बाबा से मैंने पूछा, ‘बाबा, हम बहुत ही रूहानी स्नेह से, मेहनत से, सच्ची लगन से सब आत्माओं को परमात्मा का सन्देश देते हैं परन्तु लोग फिर भी हमें गालियाँ ही निकालते हैं।’ बाबा पहले तो मुस्कराते हुए मेरी बात सुनते रहे, बाद में बड़े प्यार से कहा, ‘बच्ची, तुम शान्ति से शान्ति स्थापना के कार्य में लगी रहो, समय आयेगा, लोग तुम्हें पहचानेंगे।’ कैसी भी परिस्थिति हो बाबा सदा निश्चिन्त, बेफिकर बादशाह बन चलते थे। हम समझते थे कि यह समस्या बहुत बड़ी है परन्तु बाबा सदैव साक्षी अवस्था में रह बड़ी से बड़ी समस्या का बहुत थोड़े शब्दों में समाधान कर देते थे। बाबा बहुत ही उदारचित्त और राजाओं जैसी शालीनता से व्यवहार करते थे।
एक बार यज्ञ के धोबी से बाबा ने पूछा, ‘बच्चे, किसी चीज़ की दरकार हो तो बताना, कपड़े आदि हैं?’ उसने बहुत ही संकोच से कहा, ‘हाँ बाबा, सिल रहे हैं।’ बाबा ने कहा, ‘बच्चे आओ, बाबा के बहुत सिले हुए कपड़े रखे हुए हैं।’ यह कहते हुए बाबा उसको अपने साथ कमरे में ले आये और अपनी कपड़ों की आलमारी खोलकर बोले, ‘बच्चे, जितने चाहिए इनमें से ले लो, बाबा का सो बच्चों का।’ वह बेचारा तो संकोच से कहे, ‘नहीं बाबा, मेरे कपड़े सिल रहे हैं, मिल जायेंगे।’ परन्तु बाबा ने अपने हाथ से कुछ कपड़े उठाकर उसको दे दिये। ऐसे थे ग़रीब निवाज़ बाबा! बाबा के हर कदम से शिक्षा मिलती थी।
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