Bk sister maureen hongkong caneda anubhavgatha

बी के सिस्टर मौरीन – अनुभवगाथा

मैंने एक कैथोलिक परिवार में जन्म लिया और पालना भी पायी लेकिन मैं कैथोलिक संस्कार स्वीकार नहीं कर पायी। मुझे उस धर्म के सिद्धान्त उतने समझ में नहीं आये और न ही मेरी उन में रुचि रही। जब मैं 11 साल की थी तब मैंने अपने पिता जी से कहा कि मैं कैथोलिक स्कूल में पढ़ने नहीं जाऊँगी। पिता जी ने पूछा, क्यों? मैंने कहा, मुझे पसन्द नहीं है। मैंने चर्च में जाना भी बन्द कर दिया। मुझे परमात्मा में विश्वास ही नहीं था। यह मुख्य कारण समझो या समस्या समझो कि मुझे न क्रिश्चियन धर्म में रुचि रही और न चर्च आदि धार्मिक स्थानों पर जाने की रुचि रही। 

मुझे परमात्मा पर विश्वास इसलिए नहीं था कि उसने ऐसा दुःखमय संसार क्यों रचा है? अगर परमात्मा होता तो ऐसे संसार को रच ही नहीं सकता। क्रिश्चियन लोग कहते हैं कि परमात्मा ने अच्छी और सम्पूर्ण दुनिया रची थी और मनुष्यों को आज़ादी दी थी कि वे जैसे चाहें रहें। मैं यही कहती थी कि अगर परमात्मा ने ही हमें और इस संसार को रचा है तो उसने ऐसी बड़ी ग़लती क्यों की है कि कोई सुखी है तो कोई दुःखी, कोई अमीर है तो कोई ग़रीब, कोई हंसता है तो कोई रोता है? यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी। मुझे यह दुविधा भी हो रही थी कि परमात्मा ही कैसे सुख और दुःख दोनों दे सकता है! परमात्मा अपने ही बच्चों के साथ ऐसा पक्षपात कैसे कर सकता है! इन बातों ने मुझे नास्तिक बना दिया था। इस तरह से, बचपन से ही मैं किसी धर्म की नहीं थी, न मुझे परमात्मा पर कोई विश्वास था। फिर मैंने मिस्टर टॉम से शादी की, जो मलेशिया से था लेकिन चीनी मूल का था और बौद्ध धर्म का था। वह बुद्ध के मन्दिर जाया करता था। बौद्धभिक्षु अथवा बौद्ध संन्यासी बनने का उसका उद्देश्य था लेकिन बन नहीं पाया। शादी के बाद हम दोनों दो साल के लिए भारत आये। एक साल तक हम भारत में घूमते रहे। हम बौद्धगया गये, धर्मशाला गये। वहाँ जाकर बौद्ध धर्म के बारे में अध्ययन करने की कोशिश की। साथ-साथ हम बुद्ध का अनुसरण करने लगे। हम शाकाहारी भी बन गये, बौद्ध धर्म का मेडिटेशन भी करते रहे। हमारा आपस में बहुत मोह था। बौद्ध धर्म के अनुसार निर्मोही बन रहना पड़ता है। हम दोनों बहुत छोटे अर्थात् युवा होने के कारण हमें आपस में बहुत आसक्ति थी। मैं 19 साल की थी और टॉम 24 साल का था। बौद्धभिक्षु (Monk) बनने के लिए हम बहुत छोटे थे। फिर भी हम बनने का प्रयत्न कर रहे थे। दो साल के बाद हम ऑस्ट्रेलिया लौट आये। हमने सोचा कि वहाँ के बौद्धाश्रम पर जायेंगे और कुछ दिन वहाँ रहकर देखेंगे, अगर ठीक लगा तो रहेंगे, नहीं तो फिर सोचेंगे। हमने बहुत-से बौद्धाश्रमों का संदर्शन किया। बहुत से आश्रम वाले शाकाहार का अनुसरण नहीं करते थे। तो हमें उनका आचरण अच्छा नहीं लगा क्योंकि जब बुद्ध ने अहिंसा, प्रेम, दया को बहुत महत्त्व दिया है तो ये भिक्षु मांसाहार कैसे खा सकते हैं? फिर हम उस बौद्धाश्रम को ढूँढ़ने लगे जिस में शाकाहारी रहते हैं। हमें पता पड़ा कि वहाँ से 500 मील दूर पर एक आश्रम है, तो हमने वहाँ जाने की योजना बनायी। निकलने से एक सप्ताह पहले टॉम (मेरे पति) ने अपनी जॉब (नौकरी) छोड़ी और मैंने अपनी जॉब से छुट्टी ली। उन्हीं दिनों हमें ब्रह्माकुमारियों का परिचय मिला। सन् 1977 जनवरी माह में सिडनी में हमने सात दिनों का कोर्स लिया। कोर्स पूरा करने के अगले दिन ही हम सिडनी से निकले अपने प्लॉन अनुसार उस आश्रम के लिए। हम कार से जा रहे थे। रास्ते में हम ईश्वरीय ज्ञान के बारे में सोचते रहे। फिर हम दोनों ने निश्चय किया कि हम ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे और ब्रह्माकुमारियों के मेडिटेशन का अभ्यास करते रहेंगे। हमें इस बात का अनुभव हुआ था कि अगर हम ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे तो आध्यात्मिक साधना करने में हम एक-दूसरे के बहुत सहयोगी होंगे और समीप रहेंगे। हम दोनों आपस में आध्यात्मिक सम्बन्ध भी चाहते थे और ब्रह्मचर्य जीवन भी हमें अच्छा लगता था। रोज़ अमृतवेले चार बजे उठकर मेडिटेशन भी करते थे। उस आश्रम पहुँचने तक राजयोग और ईश्वरीय ज्ञान के साथ हमारा समायोजन हो चुका था। जब हम उस आश्रम में पहुँचे तो अन्दर जाने का मन नहीं कर रहा था। फिर हम ऐसे ही वहाँ से लौटे और ब्रह्माकुमारी सेन्टर पर आ गये। रोज़ अमृतवेले का और रात्रि का मेडिटेशन करना, मुरली क्लास में जाना आरम्भ किया। जब मैं कोर्स कर रही थी उस समय तो मैं नास्तिक ही थी। लेकिन जब मुझे दूसरा पाठ परमात्मा के बारे में देने लगे, उस में बहनों ने कहा कि परमात्मा इस सृष्टि को नहीं रचता, सृष्टि अनादि और अविनाशी है। परमात्मा किसी को दुःख नहीं देता, वह सुखकर्त्ता और दुःखहर्त्ता है। उसको याद करने से ही आत्मा में सुख, शान्ति पवित्रता की शक्ति भरेगी। जब मैं मेडिटेशन करने लगी तो मुझे शान्ति और आनन्द का अनुभव होने लगा। इस अनुभव ने मुझे सोचने के लिए मज़बूर किया कि ये चीजें मेरे में कहाँ से आ रही हैं? कहीं बाहर से, किसी अन्य से आ रही हैं। तो वे परमात्मा से आ रही हैं। मेडिटेशन में मुझे बहुत मीठे और सुखद अनुभव होने लगे तो मुझे विश्वास होने लगा कि परमात्मा है। जब सुबह सेन्टर पर मुरली सुनती थी तो उसमें आने वाले शब्द, संबोधन, जानकारी इत्यादि सुनकर मुझे परमात्मा की महानता (Greatness of God) के बारे में, मानवता (Humanity) के बारे में आश्चर्य होने लगा। मुरली ने मुझे बहुत ही आकर्षित किया।

मेडिटेशन में पूरे एक साल तक बाबा ने मुझे प्रियतम के प्यार का विशेष अनुभव कराया क्योंकि मेरी युवा अवस्था थी, पति भी था और हम दोनों पवित्रता की पालना भी करते थे। इसलिए बाबा ने मेरे से बहुत प्रसन्न होकर मुझे विशेष प्यार का अनुभव कराया होगा। परमात्मा के साथ मैंने प्रियतम (Beloved) के बहुत गहन प्यार का अनुभव किया। इस परमात्म-प्यार ने, परमात्म-आकर्षण ने मुझे और किसी तरफ़ आकर्षित होने से सुरक्षित रखा। मैंने यह भी अनुभव किया कि परमात्मा का व्यक्तित्व बहुत ही निराला है, विचित्र है और अनोखा है, जो और किसी का नहीं है। 

चार सालों तक राजयोग मेडिटेशन का अभ्यास करने के बाद सन् 1981 में, मैं हाँगकाँग गयी। मेरा पति टॉम इससे पहले ही मलेशिया चला गया था। क्वालालम्पुर में उसका भाई था। मुझे भी वहाँ जाना था पर मुझे तीन महीने के लिए हाँगकाँग सेवा करने के लिए कहा गया था। हाँगकाँग में सेवा शुरू हुई, बहुत अच्छी तरह से सेवा होने लगी तो मुझे लगा कि दूसरी टीचर आने तक मेरा यहाँ रहना अच्छा रहेगा तो मैं वहीं रुक गयी। बीस सालों तक वहाँ कोई टीचर आयी ही नहीं, मैं ही रह गयी। मैं रह गयी हाँगकाँग और टॉम रह गया मलेशिया। फिर साल में एक-दो बार कभी वह आता था, कभी मैं जाती थी। हाँगकाँग में ईश्वरीय सेवा करना उतना सहज नहीं है क्योंकि वहाँ अति, अति में भी अति विलासी जीवन है, भौतिकवाद है। वहाँ सब-कुछ पैसा ही है। दूसरा कारण यह भी है कि वह एक छोटा-सा टापू है और वहाँ एक-दूसरे के मित्र बनना बहुत ही मुश्किल है। लेकिन मैंने ग्लोबल कोऑपरेशन और मिलियन मिनट्स प्रोग्राम द्वारा सेवा का आरम्भ किया। इसके अलावा वहाँ सिन्धी समुदाय वाले बहुत हैं, लगभग तीस हज़ार सिन्धी हैं। उन लोगों ने राजयोग का बहुत फायदा लिया। वहाँ से मैं फिलीपीन्स भी जाती थी। वहाँ तीन महीने रही भी। वहाँ भी बाबा की सेवा की। 

 

प्रश्नः आप ब्रह्माकुमारियों के सम्पर्क में कैसे आईं? 

उत्तरः मैं सिडनी में इम्प्लाइमेंट ऑफिस में नौकरी करती थी। बेरोज़गारों को रोज़गार के बारे में सूचना और मार्गदर्शन देना मेरा काम था। एक दिन मेरे पास एक व्यक्ति आया कोई जॉब की जानकारी जानने, जो मधुबन होकर गया था। उसने मेरी सहेली को राजयोग मेडिटेशन की पर्ची दी, मुझे नहीं दी क्योंकि मैं बहुत देहाभिमानी और बहुत फैशनेबल दिखायी पड़ती थी। मुझे देखकर उसे लगा होगा कि इसको राजयोग में कोई रुचि नहीं होगी। मेरी सहेली वह पर्ची लेकर मेरे पास आयी क्योंकि वह जानती थी कि मैं बुद्धिस्ट मेडिटेशन करती हूँ इसलिए राजयोग मेडिटेशन के प्रति भी उत्सुक होऊंगी। उन्हीं दिनों मेरा पति टॉम कहता था कि जिस आश्रम पर हम जाने वाले हैं, वह हमें पसन्द नहीं आया तो भारत जायेंगे और कोई गुरु करेंगे। अगले दिन ही हम दोनों उस पर्ची के साथ सिडनी सेन्टर पर कोर्स करने गये। हमने कोई दुनियावी लोगों जैसे जीने के लिए शादी नहीं की थी। उस युवा अवस्था में ही हम दोनों सत्य को ढूँढ़ रहे थे, जीवन के लक्ष्य को जानना चाहते थे। हमने आपस में बात भी की थी कि हम नौकरी छोड़ देंगे, समाज के लिए कुछ सेवा करेंगे और आध्यात्मिक जीवन जीयेंगे। 

 

प्रश्नः बापदादा के साथ आप की पहली मुलाक़ात का क्या अनुभव था? 

उत्तरः जब मैं पहली बार बाबा से मिलने आयी थी, उस समय बहुत कम ही डबल विदेशी भाई-बहनें थे। यह सन् 1977 का दिसम्बर महीना था। मैं उस समय बापदादा को मेडिटेशन हॉल में मिली। मैं बाबा के सामने दाहिने तरफ बैठी थी। बाबा ने मुझे वरदान दिया कि आप हीरो एक्टर हो। बाबा से मिलने मधुबन आते समय मैं प्लेन में तथा ट्रेन में सो नहीं पायी। बाबा से मिलने की बहुत उत्सुकता और कोतूहल था। जब मधुबन पहुँची और जितने भी दिन मधुबन में रही, मैं बहुत ही खुश थी। उस खुशी का वर्णन मैं नहीं कर सकती। दादियाँ, दीदी और मधुबन के भाई-बहनों ने मुझे बहुत प्यार दिया। जब मेरे आस्ट्रेलिया जाने का समय आ गया तो मुझे मुम्बई जाना था। मुझे संकल्प आने लगा कि क्यों मुझे वापिस जाना चाहिए? मैं तो पिता परमात्मा के घर आयी हूँ, मैं वापिस नरक में क्यों जाऊँ? परन्तु अपने देशवासियों की सेवा करने मुझे जाना था। मधुबन छोड़कर जाते समय मुझे बहुत रोना आया और मैं रोयी भी बहुत। 

 

प्रश्नः आप तो नास्तिक थीं परन्तु परमात्मा के अवतरण के बारे में आपको निश्चय कैसे हुआ? 

उत्तरः इस ज्ञान में आने से पहले मैं संसार की हालत से बहुत चिन्तित थी। किसी को मानसिक कष्ट है तो वह मनोचिकित्सक के पास जाता है, फिर भी उसकी समस्या का निवारण नहीं होता। अगर कोई नशीली चीज़ों के आदती हैं, कितना भी इलाज कराओ, उस से वो छूटती नहीं। अगर किसी के सम्बन्धों में समस्यायें हैं, वे भी ठीक नहीं हो रही हैं। वे हर तरह की कोशिश करते हैं, उन से बाहर आने के लिए लेकिन वे आ नहीं पाते। इसलिए मेरे मन में आता था कि इन सब से मुक्त होने के लिए कोई और तरीक़ा होगा। उस तरीके को मैं ढूँढ़ रही थी। इसलिए उस छोटी आयु में ही मैं चैरिटेबल संस्थाओं से जुड़कर सेवा करती थी। मैं पेड़ काटने के खिलाफ तथा जंगली जानवरों को बचाने के आन्दोलन में, खान से यूरेनियम निकालने के विरोध में सक्रिय भाग लेती थी। मैं समझती थी कि सब समस्याओं का उद्गम मनुष्य की सोच पर आधारित है। इसलिए मनुष्य के सोचने की विधि को ठीक कर दें तो अनेक समस्याओं का अन्त सहज ही होगा। मुझे विश्वास था कि अगर व्यक्ति ठीक सोचने लगेगा तो है। वह ठीक बन जायेगा। इसलिए मैं सही सोचने की विधि की खोज में थी। जब मैंने राजयोग मेडिटेशन का कोर्स पूरा किया तो सेन्टर पर आने वाले अनेक व्यक्तियों से मुलाक़ात की जो अनेक बड़ी-बड़ी समस्याओं से गुज़र रहे थे और उन्होंने राजयोग से बहुत-सी मदद पायी थी। मुझे तो कोई ऐसी समस्या नहीं थी लेकिन दूसरों की समस्याओं को देख मुझे आता था कि उनके लिए कुछ करें। जब मैंने राजयोग सीखा और मन को खुशी और शान्ति के अनुभव होने लगे तथा बाबा की मुरली सुनती रही तो निश्चय हुआ कि यह कार्य और यह ज्ञान, परमात्मा के सिवाय और किसी का हो नहीं सकता। यह कार्य करना है तो उसको यहाँ आना ही पड़ेगा। दूसरों की मदद से हमें शाश्वत निवारण नहीं मिल सकता लेकिन खुद की मदद से, ख़ुद के पुरुषार्थ से, अपने श्रेष्ठ कर्मों से, सकारात्मक सोच से किसी भी समस्या का निवारण हो सकता है। इस बात को मैंने राजयोग मेडिटेशन से समझा और अनुभव किया। 

 

प्रश्नः आपको यह निश्चय कैसे हुआ कि ब्रह्मा के तन में ही शिव बाबा प्रवेश करते हैं? 

उत्तरः मुझे ब्रह्मा के बारे में कोई आपत्ति नहीं थी। अगर परमात्मा उनके तन में आये हैं तो ठीक है। मुझे तो परमात्मा का परिचय मिल गया। मेडिटेशन, मैं डाइरेक्ट शिव बाबा से करती थी, मुझे शिव बाबा से शान्ति और शक्ति का अनुभव होता था। कभी कभी मेडिटेशन में ब्रह्मा बाबा आ जाते थे। उनको देखते ऐसा अनुभव होता था कि इन से मेरा कोई अनोखा सम्बन्ध है। धीरे-धीरे ज्ञान में आगे बढ़ते चली, ज्ञान की गहराई में जाती रही तो पता पड़ा कि ब्रह्मा क्या है, उनका क्या पार्ट है, उनके साथ हमारा क्या सम्बन्ध है।

 

प्रश्नः क्या आपको लगता है कि इन ब्रह्माकुमारियों द्वारा विश्व का परिवर्तन होगा यानि स्वर्ग बनेगा? 

उत्तरः शत प्रतिशत। क्योंकि दुनिया के हर धर्म वालों में, हर देश वालों में स्वर्ग की स्मृति है, उसका रूप भले ही एक-दूसरे से भिन्न है। हमें स्मृति किसी वस्तु की तब ही आती है, अगर हमने उसको देखा हो या अनुभव किया हो। दूसरी बात, कोई भी स्थिति हमेशा के लिए नहीं रहती। आज दुनिया में इतना दुःख, अशान्ति, अधर्म, अनीति बढ़ रही है, क्या यह सदाकाल के लिए रहेगी? नहीं, इसका भी अन्त एक दिन होगा ना! अन्त होगा माना फिर आरम्भ भी होगा। आरम्भ किस से होगा? अच्छाई से। क्योंकि सृष्टि का नियम ही है कि अच्छाई से बुराई और बुराई से अच्छाई, सतो से तमो और तमो से सतो। इसलिए निश्चित रूप से धरती पर स्वर्ग आयेगा। 

तीसरी बात, इस ब्रह्माकुमारी संस्था के कार्य के बारे में आप ने पूछा कि क्या ये विश्व का परिवर्तन करेंगे? निश्चित रूप से। क्योंकि इस संस्था की जो शिक्षा प्रणाली है, जीवन पद्धति और नीति-नियम हैं, आचार संहिता और जीवन-सिद्धान्त हैं वे अति उत्कृष्ट हैं। सुबह चार बजे के मेडिटेशन से लेकर रात्रि सोने तक की इनकी जो दिनचर्या है, वह मानव मन के अन्दर दबे हुए, छिपे हुए विकारों पर विजय प्राप्त कराती है। विकारों ने ही मनुष्य को शैतान बनाया है और शैतान मनुष्य ने ही संसार को नरक बनाया है। जब मनुष्य निर्विकारी और सदाचारी बनेगा तो विश्व स्वतः ही स्वर्ग बनेगा। ब्रह्माकुमारियाँ जो राजयोग मेडिटेशन सिखाती हैं उस से नर और नारी के आपसी सम्बन्धों में दिव्यता, पवित्रता और मधुरता स्थापित होती हैं। मैं यह कह सकती हूँ कि मुझे जितना परमात्मा से प्यार है, सम्मान है, उतना ही प्यार और सम्मान इस संस्था से है क्योंकि सर्वोच्च परमात्मा विचित्र रीति से, विचित्र रूप से इस संस्था से जुड़ा हुआ है। यहाँ स्वच्छता, पारदर्शिता, आत्मीयता अपने उच्च स्तर पर हैं क्योंकि मैं यह मानती हूँ कि इस संस्था की प्रथम मान्यता कहो या फाउण्डेशन कहो, वह है पवित्रता। यहाँ पवित्रता की प्रधानता है। इस संस्था के जो वरिष्ठ हैं, उनकी दिव्यता, पवित्रता, कार्यकुशलता ही इसकी साक्षी है कि इस संस्था द्वारा निश्चय ही विश्व परिवर्तन होगा। विश्व में दादी प्रकाशमणि जी, भारत में दादी गुलजार जी और विदेश में दादी जानकी जी इस बात के श्रेष्ठ उदाहरण हैं, साधना के आदर्श हैं। ये विश्व के लिए महान् टीचर्स हैं, महान् नेता हैं। 

 

प्रश्नः भारतवासियों से आप कुछ कहना चाहेंगी? 

उत्तरः भारत प्राचीन भूमि है। भारत, विश्व में एक सुप्रसिद्ध स्थान है। समस्त विश्व के आध्यात्मिक क्षेत्र में भारत का अपना विशेष स्थान है। भले ही, नागरिक प्रगति में, आधुनिकता में उतना विकसित देश न हो लेकिन सत्य, धर्म, दर्शन में भारत ने बहुत कुछ सोचा है, खोज किया है। सच में, मैं भारत को बहुत प्यार करती हूँ। बौद्ध धर्म की होने के कारण मेरे लिए तो भारत महान् है क्योंकि बौद्ध धर्म के मूल उपदेश भारत से मिले हैं। इसलिए भारतवासियों को यह समझना चाहिए कि भारत के पास बड़ी भारी आध्यात्मिक सम्पत्ति है। लेकिन मैंने देखा, बहुत-से भारतीय आध्यात्मिकता में रुचि नहीं दिखाते, आँखें बन्द करके पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण कर रहे हैं। भारतीय सभ्यता, पारिवारिक मूल्यों में इतनी सुन्दरता और श्रेष्ठता है जो हम और किसी देश या धर्म की सभ्यता तथा संस्कृति में नहीं पा सकते। आज संसार में हम देखते हैं कि कितना स्वार्थ और हिंसा है! लेकिन भारतीय जीवन-प्रणाली में प्रेम, दया, सद्भावना, सहयोग, सहजीवन, आध्यात्मिकता को पाते हैं। मैं विश्वास करती हूँ कि भविष्य में भारत आध्यात्मिक क्षेत्र में विश्व का पथ प्रदर्शक तथा प्रधान बनेगा। भारत ने सूचना प्रौद्योगिकी में महत्तर प्रगति की है लेकिन भारतवासी सब भाई-बहनों से मेरा नम्र निवेदन है कि वैज्ञानिक प्रगति के साथ आध्यात्मिक प्रगति भी अपने अन्दर करें तो यह न सिर्फ़ भारत के लिए बल्कि समस्त संसार के लिए लाभदायक और कल्याणप्रद होगा। भारत से ही विश्व का उद्धार होगा। 

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

Bk puri bhai bangluru anubhavgatha

पुरी भाई, बेंगलूरु से, 1958 में पहली बार ब्रह्माकुमारी ज्ञान में आए। उन्हें शिव बाबा के दिव्य अनुभव का साक्षात्कार हुआ, जिसने उनकी जीवनशैली बदल दी। शुरुआत में परिवार के विरोध के बावजूद, उनकी पत्नी भी इस ज्ञान में आई।

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Experience with dadi prakashmani ji

आपका प्रकाश तो विश्व के चारों कोनों में फैला हुआ है। बाबा के अव्यक्त होने के पश्चात् 1969 से आपने जिस प्रकार यज्ञ की वृद्धि की, मातृ स्नेह से सबकी पालना की, यज्ञ का प्रशासन जिस कुशलता के साथ संभाला,

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Bk trupta didi firozpur - anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी तृप्ता बहन जी, फिरोजपुर सिटी, पंजाब से, अपने साकार बाबा के साथ अनुभव साझा करती हैं। बचपन से श्रीकृष्ण की भक्ति करने वाली तृप्ता बहन को सफ़ेद पोशधारी बाबा ने ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ का संदेश दिया। साक्षात्कार में बाबा ने

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Bk gurumukh dada anubhavgatha

गुरुमुख दादा 50 साल की उम्र में ब्रह्माकुमारी ज्ञान में आए। सहारनपुर में रेलवे में नौकरी करते हुए, उन्होंने अपनी दुःखी बहन के माध्यम से ब्रह्माकुमारी आश्रम से परिचय पाया। बाबा की दृष्टि और बहनों के ज्ञान से प्रेरित होकर,

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Dadi allrounder ji

कुमारियों को दादी ऐसी पालना देती थी कि कोई अपनी लौकिक कुमारी को भी शायद ऐसी पालना ना दे पाए। दादी कहती थी, यह बाबा का यज्ञ है, बाबा ही पालना देने वाला है। जो पालना हमने बाबा से ली

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Dadi situ ji anubhav gatha

हमारी पालना ब्रह्मा बाबा ने बचपन से ऐसी की जो मैं फलक से कह सकती हूँ कि ऐसी किसी राजकुमारी की भी पालना नहीं हुई होगी। एक बार बाबा ने हमको कहा, आप लोगों को अपने हाथ से नये जूते

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Bk sutish didi gaziabad - anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी सुतीश बहन जी, गाजियाबाद से, अपने आध्यात्मिक अनुभव साझा करती हैं। उनका जन्म 1936 में पाकिस्तान के लायलपुर में हुआ था और वे बचपन से ही भगवान की प्राप्ति की तड़प रखती थीं। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद, उनका परिवार

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Bk pushpa mata ambala

अम्बाला कैंट से पुष्पा माता लिखती हैं कि 1959 में ज्ञान प्राप्त किया और चार बच्चों सहित परिवार को भी ज्ञान में ले आयी। महात्मा जी के कहने पर आबू से आयी सफ़ेद पोशधारी बहनों का आत्मा, परमात्मा का ज्ञान

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Bk pushpa didi haryana anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी पुष्पा बहन जी ने 1958 में करनाल सेवाकेन्द्र पर साकार ब्रह्मा बाबा से पहली बार मिलन का अनुभव किया। बाबा के सानिध्य में उन्होंने जीवन की सबसे प्यारी चीज़ पाई और फिर उसे खो देने का अहसास किया। बाबा

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Bk sudhesh didi germany anubhavgatha

जर्मनी की ब्रह्माकुमारी सुदेश बहन जी ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि 1957 में दिल्ली के राजौरी गार्डन सेंटर से ज्ञान प्राप्त किया। उन्हें समाज सेवा का शौक था। एक दिन उनकी मौसी ने उन्हें ब्रह्माकुमारी आश्रम जाने

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Dadi manohar indra ji

पहले दिल्ली फिर पंजाब में अपनी सेवायें दी, करनाल में रहकर अनेक विघ्नों को पार करते हुए एक बल एक भरोसे के आधार पर आपने अनेक सेवाकेन्द्रों की स्थापना की। अनेक कन्यायें आपकी पालना से आज कई सेवाकेन्द्र संभाल रही

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Dadi bhoori ji

दादी भूरी, यज्ञ की आदिकर्मी, आबू में अतिथियों को रिसीव करने और यज्ञ की खरीदारी का कार्य करती थीं। उनकी निष्ठा और मेहनत से वे सभी के दिलों में बस गईं। 2 जुलाई, 2010 को दादी ने बाबा की गोदी

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Bk suresh pal bhai shimla anubhavgatha

ब्रह्माकुमार सुरेश पाल भाई जी, शिमला से, 1963 में पहली बार दिल्ली के विजय नगर सेवाकेन्द्र पर पहुंचे और बाबा के चित्र के दर्शन से उनके जीवन की तलाश पूर्ण हुई। 1965 में जब वे पहली बार मधुबन गए, तो

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