Dadi sandeshi ji

 दादी सन्देशी  – अनुभवगाथा

आप सन्देशपुत्री बनकर वतन के अनेक सन्देश लाती थीं। इसलिए अलौकिक नाम मिला, ‘सन्देशी’। लौकिक में आप मातेश्वरी जी की मौसेरी बहन थीं। आप सुन्दर गाती थीं और नृत्य भी करती थीं इसलिए वावा से आपको अव्यक्त नाम मिला ‘रमणीक मोहिनी’। आप बाबा के साथ खेलपाल करती थीं इसलिए बाबा आपको बिंद्रबाला भी कहते थे। आप बहुत ही रहमदिल, स्नेही, नम्रचित्त, सादगीपूर्ण तथा एक बल एक भरोसे वाली थीं। दादी शान्तामणि लौकिक में आपकी बड़ी बहन थीं। यज्ञ के प्रारंभ में आपका सारा ही परिवार एक धक से तन, मन, धन सहित सर्वप्रथम समर्पित हुआ। आप लंबे समय तक यज्ञ में रहकर सन् 1965 में ईश्वरीय सेवार्थ कोलकाता गई। पटना, मुज़फ्फरपुर, नेपाल आदि स्थानों पर सेवा करते सन् 1978 से भुवनेश्वर सेवाकेन्द्र पर सेवारत रही। आपने सतगुरुवार, 1 नवंबर, 2007 को पुरानी देह का त्याग कर बापदादा की गोद ली। 

दादी सन्देशी जी ने अपने लौकिक-अलौकिक जीवन का अनुभव इस प्रकार सुनाया:

सिंध-हैदराबाद के एक प्रभावशाली तथा प्रतिष्ठित सखरानी परिवार में मेरा जन्म हुआ। दादा जी का नाम था प्रताप सखरानी जो बहुत ही भद्र, सरल और आस्तिक थे। पिताजी का नाम था रीझूमल सखरानी और माताजी का नाम था सती सखरानी। लौकिक माता-पिता का जीवन बहुत सुखमय था और उनको देख सब कहते थे कि ये तो जैसे कि श्रीलक्ष्मी और श्रीनारायण की जोड़ी है। मेरा जन्म 25 दिसंबर, 1925, शुक्रवार के दिन माता-पिता की चौथी कन्या के रूप में हुआ। हम पाँच बहनें और एक भाई थे। भाई सबसे बड़े थे, उनका नाम था जगूमल सखरानी। बहनों के नाम थे- देवी, कला, लीला (दादी शान्तामणि), लक्ष्मी (दादी सन्देशी) और भगवती (अलौकिक नाम ज्योति)। भाई की शादी जसू नाम की एक कन्या से हुई। भाई के दो पुत्र थे-राम और गगन। पिताजी कठोर परिश्रमी और बुद्धिमान थे। उनका व्यवसायिक केन्द्र श्रीलंका में था, जो बहुत सफल था इसलिए लौकिक परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। हैदराबाद शहर के एक भव्य मकान में हम सब रहते थे। खान-पान, पोशाक, चलन सब ऊँचे खानदान और ऊँचे वंश की परंपरा के अनुकूल था। घर में काम करने के लिए नौकर-चाकर होते हुए भी सती माता सभी बच्चों को हर कार्य करने की शिक्षा देती थीं। मेरी एक मौसी थी जिसका नाम था रोचा (रुक्मिणी)। उनके पतिदेव का नाम था पोकरदास। उनका सोने-चाँदी का व्यापार था लेकिन व्यापार में घाटा होने के कारण मौसा जी का अचानक हृदयाघात में देहांत हो गया। रोचा मौसी की तीन बच्चियाँ थीं। बड़ी बच्ची पार्वती जिसकी शादी हो चुकी थी, फिर थी राधे और फिर थी गोपी। पति की मृत्यु के बाद रोचा मौसी उन दोनों बच्चियों को लेकर हैदराबाद आ गई और अपने मायके में रहने लगी। मेरी दूसरी मौसी का नाम था ध्यानी, वह भी अपने पति की मृत्यु के बाद हैदराबाद आकर अपने मायके में रही।

‘ओम मण्डली’ से परिचय और जुड़ाव

मेरी माताजी अपनी इन दोनों बहनों से मिलने और दुख के समय सांत्वना देने और प्रार्थना करने मायके उन्हों के घर में जाया करती थीं और जपसाहेब और सुखमणि आदि धर्म की किताबें पढ़कर सुनाया करती थीं। माताजी का रोज़ आने-जाने का रास्ता दादा लेखराज के घर के सामने से पड़ता था। दादा लेखराज की लौकिक पत्नी जसोदा माता घर की खिड़की से माताजी को रोज़ आते-जाते देखती थीं। एक दिन जसोदा माता ने उनसे रोज़ आने-जाने का कारण पूछा। माताज़ी ने कहा, हमारी दोनों बहनों के पति गुज़र गये हैं, वे बहुत दुखी हैं, हम सब मिलकर शान्ति के लिए सत्संग करते हैं। जसोदा माता ने कहा, दादा (दादा लेखराज जो बाद में ब्रह्मा बाबा के नाम से जाने गये) अपने घर में बहुत अच्छा सत्संग करते हैं। पहले आप आओ, सुनो और देखो, अच्छा लगे तो अपनी दोनों बहनों को भी लेकर आना। दूसरे दिन माताजी, दादा जी के घर गई और सत्संग सुनने के पश्चात् उन्हें बहुत शान्ति का अनुभव हुआ। फिर अगले दिन तीनों बहनों ने मिलकर दादा के घर सत्संग का लाभ लिया। सत्संग के प्रारंभ तथा अंत में ओम ध्वनि की जाती थी। उस दिन सत्संग में गीता के दूसरे अध्याय के ऊपर विशेष चर्चा हुई जिसका भावार्थ यह निकला कि आत्मा अजर, अमर और अविनाशी है। शरीर त्याग करने पर भी आत्मा नहीं मरती। आत्मा पुराने शरीर को छोड़, नया शरीर धारण कर अपना पार्ट बजाती रहती है और इस सृष्टि-नाटक में जन्म-मरण एक खेल सदृश है। यह अति सरल, सरस, ज्ञानपूर्ण और हृदयस्पर्शी व्याख्या सुनकर सभी के मन में खुशी की लहर आई। सभी ने अपने आपको शरीर से भिन्न एक अलौकिक सत्ता के रूप में अनुभव किया। रोचा मौसी की सूरत में प्रसन्नता की झलक देखकर उनकी कन्यायें राधे (जो ज्ञान में आने पर सभी की अति प्रिय ‘जगदम्बा सरस्वती’ के नाम से जानी गई) और गोपी भी सत्संग में आने लगी। ईश्वरीय ज्ञान का अनोखा अनुभव प्राप्त कर गोपी एक साल तक दिव्य साक्षात्कार करती रही। उसने ओम राधे (मम्मा) को श्री राधा के रूप में और ओम बाबा (ब्रह्मा बाबा) को श्रीकृष्ण के रूप में देखा। ध्यानावस्था में वह उनके साथ रास भी करती थीं। सृष्टि-नाटक की पूर्व निश्चित व्यवस्था के अनुसार छोटी आयु में टायफाइड से गोपी का देहांत हुआ। हैदराबाद के इतिहास में पहली बार यह हुआ कि गोपी की शव शोभायात्रा में, बाबा के इशारे पर सत्संग की सभी माताओं और कन्याओं ने भाग लिया तथा अग्नि संस्कार स्वयं ओम राधे ने किया।

सारा परिवार समर्पित हुआ

हमारे परिवार में गुरुप्रथा चलती थी। पिताजी बड़े गुरुभक्त थे। मकान में एक विशेष कोठरी को गुरुघर कहा जाता था। रोज़ शाम को पिताजी के निर्देशानुसार सभी बच्चे उस कमरे में प्रार्थना करते थे और प्रार्थना के पश्चात् माँ प्रतिदिन ‘गुरुमुखी ग्रंथ’, ‘जप साहेब’, ‘सुखमणि’ आदि धर्म पुस्तकें पढ़कर समझाती थीं। आयु में छोटी होते हुए भी हम इस घरेलू सत्संग से बहुत प्रेम रखती थी और आनन्द तथा शान्ति का अनोखा अनुभव करती थी।

ब्रह्मा बाबा के साथ मेरे पिताजी का बहुत अच्छा संबंध था। हैदराबाद में सत्संग की शुरूआत के बाद, कुछ समय के लिए ब्रह्मा बाबा, अपने लौकिक परिवार के साथ, एकांतवास के लिए कश्मीर चले गये। वहाँ से ब्रह्मा बाबा ज्ञानयुक्त पत्र ओम मण्डली में भेजते रहे। सत्संग में आने वाली मातायें और कन्यायें उन्हें पढ़कर बहुत अलौकिक सुख प्राप्त करती थीं। अपने परिवार के सदस्यों को ब्रह्मा बाबा कश्मीर में भी ज्ञान की शिक्षा देते थे। उन्हीं दिनों हमारे पिताजी ने भी पहलगाम जाने की तैयारी की और ब्रह्मा बाबा के कश्मीर निवास का पता भी अपने साथ ले लिया। कश्मीर पहुँचने के बाद ब्रह्मा बाबा से मिलने की प्रेरणा आई और चल भी पड़े। ब्रह्मा बाबा के निवास-स्थान की ओर जाते समय उन्हें रास्ते में निर्मलशान्ता दादी मिली और उनसे पूछा, ‘बेटी, पहलगाम का रास्ता किधर जाता है?’ फट से दादी निर्मलशान्ता ने कहा, ‘पहलगाम का रास्ता तो मालूम नहीं पर परमधाम का रास्ता बता सकती हूँ।’ उस समय निर्मलशान्ता दादी जी की उम्र छोटी ही थी। वे छोटी बच्ची के मुख से ऐसी नई बातें सुनकर आश्चर्यचकित हो गए और हँसते हुए बोले, ‘अच्छा बेटी, ठीक है, अब हमें उस परमधाम का रास्ता ही बता दीजिए।’ उसके बाद दादी जी ने पिताजी को ब्रह्मा बाबा से मिलवाया। ब्रह्मा बाबा हँसते हुए बोले, ‘बेटा, मैं तीन दिनों से तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ, तुम अब तक कहाँ थे?’ पिताजी को ब्रह्मा बाबा द्वारा ‘बेटा’ संबोधन सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ क्योंकि वे दोनों ही समान उम्र के थे। वास्तव में ब्रह्मा बाबा के तन में अवतरित परमात्मा शिव ने उन्हें ‘बेटा’ कहकर संबोधित किया था। तत्पश्चात् ब्रह्मा बाबा ने कहा, ‘बेटे, तुमको परमधाम का पता चाहिए ना!’ पिताजी ने ‘हाँ’ कहा। उसके बाद बाबा उनको दृष्टि देने लगे और पिताजी एकदम ध्यानस्थ होकर एक दिव्य धाम का साक्षात्कार करने लगे। इस घटना के बाद पिताजी के साथ-साथ हमारे सारे परिवार की दिशा ही पूर्णतः बदल गई। तन-मन-धन सहित हमारा संपूर्ण परिवार ‘ओम मण्डली’ में समर्पित हो गया। पिताजी ने अपने मन को व्यापार से पूरी तरह हटा लिया और सत्संग में लगनशील हो गए।

ईश्वरीय जीवन का आधार: दृढ़ निश्चय

ईश्वरीय ज्ञान सुनने के बाद ईश्वर के ऊपर अटूट निश्चय और असीम प्रेम चाहिए। मन समर्पित होना चाहिए। आज की तरह, पहले कोई साप्ताहिक पाठ्यक्रम, ईश्वरीय किताबें, पत्राचार पाठ्यक्रम या अन्य कोई साधन नहीं थे। करांची में ब्रह्मा बाबा कहते थे, बच्चों, अब तुम ईश्वरीय ज्ञान का दूध पीते हो, भविष्य में जो बच्चे आयेंगे, वे मक्खन खायेंगे’, हकीकत में ऐसा ही हुआ।

साक्षात्कार का पार्ट

बाबा और ईश्वरीय ज्ञान में निश्चय का दूसरा आधार था, ‘ध्यान’ यानि कि ‘योग’। मैंने अनेक बार आत्मा और परमात्मा के दिव्य स्वरूप का साक्षात्कार किया। ध्यानावस्था (ट्रांस) में सतयुगी दैवी दुनिया के भिन्न-भिन्न दृश्य, देवी-देवताओं की पोशाक, सजावट, हीरों के महल, मनमोहक राजदरबार, सुन्दर-सुन्दर बाग-बगीचे आदि का साक्षात्कार किया। यह साक्षात्कार का पार्ट कई घंटों तक तथा कई दिनों तक भी चलता था। उन सब दृश्यों का वर्णन किया जाये तो कई किताबें बन जायें। बाद में क्लास में ये सारे अनुभव सुनाये जाते थे जिसके ऊपर सब विचार सागर मंथन करते थे और बाबा के प्रति निश्चय दृढ़ करते थे। एक बार बाबा ने क्लास में कहा, बच्चों, दूसरी दीवाली नहीं आयेगी, जो पुरुषार्थ करना है सो अब कर लो।’ बाबा के ये महावाक्य सुनकर मैं दृढ़ निश्चय के साथ पुरानी कलियुगी दुनिया को संपूर्ण भूल गई और सोचने लगी कि बाबा के सिवाय इस दुनिया में कुछ भी काम का नहीं है। इस घटना से मेरा निश्चय दुगुना हुआ क्योंकि ठीक समय पर बाबा ने ठीक महावाक्य उच्चारण कर हमारे पुरुषार्थ की गति को तीव्र कर दिया।

बाबा की पालना- राजकुमारी जैसी

हैदराबाद के एक स्थानीय विद्यालय में हमारी शिक्षा आरंभ हुई। हम केवल पाँचवीं कक्षा तक ही पढ़ी थीं, आगे की शिक्षा ईश्वरीय विश्व विद्यालय में अर्थात् बाबा द्वारा खोले गए रूहानी बोर्डिंग में हुई। बोर्डिंग में मेरे जैसी छोटी-छोटी करीब 60 कन्यायें थीं। उनकी देखभाल के लिए पाँच बड़ी दादियाँ नियुक्त थीं। बारह-बारह कन्याओं के पाँच ग्रुप बने थे। दादियों के नाम थे- दादी प्रकाशमणि, दादी चन्द्रमणि, दादी शान्तामणि, दादी मिट्ठू और दादी कला। स्नान के लिए जाते समय हम को साथ में ब्रश, पेस्ट या पोशाक आदि लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। स्नानागार में सब कुछ पहले से ही उपयुक्त स्थान पर रखा रहता था। बाबा ने हम कन्याओं के लिए क्या नहीं किया। बाबा की हर शिक्षा दैवी संस्कार संपन्न थी। बाबा का जीवन दर्शन था, ‘कर्म के आधार से शिक्षा देना।’ बाबा ने हम बच्चों को राजसी पोशाक में सदा रखा। देखने वाले सोचते थे कि ये या तो परी हैं या राजकुमारी हैं। शरीर पर मखमल की सफेद पोशाक, सिर में ओम का रिबन और कमर में ओम वाली बेल्ट। ड्रेस की क्रीज़ ऐसी होती थी जैसे सरल रेखा। सारे दिन में तीन बार ड्रेस बदलते थे। रात को सोने से पहले हम सब की शैय्या तैयार हो जाती थी। रात को रोज़ बेडशीट बदली जाती थी। मच्छरदानी भी लगती थी। हमारे शैय्या पर जाते ही मच्छरदानी गिरा दी जाती थी। उसके बाद ‘सो जा राजकुमारी’ गीत का रिकार्ड बजता था। हम सभी बेड पर योगासन मुद्रा में बैठकर बाबा को गुडनाइट करने की तैयारी में रहते थे, तभी बाबा-मम्मा चक्कर लगाने आते थे। बाबा मच्छरदानी की चेकिंग भी करते थे। कन्याओं को योग-मुद्रा में देख बाबा, मम्मा को कहते थे, ‘देखो मम्मा, मंदिर में मूर्तियाँ कैसे शोभायमान हैं।’ उसके बाद बाबा-मम्मा गुडनाइट करके विदाई लेते थे।

व्यायाम

हम सभी कन्यायें सुबह 4.30 बजे उठकर 5 बजे तक भ्रमण के लिए तैयार हो जाते थे। उसी समय व्यायाम के साथ-साथ ‘शान्ति समाधि’ भी सिखाई जाती थी। ड्रिल क्लास भी रोज़ होता था। व्यायाम के साथ-साथ रिंग-बाल, बैडमिंटन आदि खेल भी रोज़ सिखाये जाते थे। बाबा-मम्मा भी सबके साथ खेलते थे। हार-जीत दोनों में मजा आता था। हम कन्याओं के उत्तम स्वास्थ्य के लक्ष्य से बाबा ये सब कराते थे।

भोजन

बाबा, हम बच्चों को रोज़ पिस्ता, बादाम, मक्खन, मधु और देशी घी से बनी हुई मीठी रोटी खिलाते थे। शान्त और योगयुक्त वातावरण में सभी का भोजन संपन्न होता था। पहले बच्चे भोजन करते थे और अंत में बाबा-मम्मा करते थे। बाबा के त्याग और निर्मानता की बातें याद आने से आँखों में आनन्द के अश्रु आ जाते हैं।

अलौकिक नामकरण

यज्ञ में समर्पित होने के कुछ दिनों के बाद बाबा ने अलौकिक नामों की एक लिस्ट अव्यक्त वतन से भेजी थी। बच्चों की विशेषता के अनुसार बच्चों का नामकरण किया गया था। मैं ध्यान में जाकर संदेश लाने के निमित्त थी इसलिए मेरा नाम बाबा ने ‘सन्देशी’ रखा। हम छोटी-छोटी कन्याओं की एक रास मंडली थी। साक्षात्कार के बाद हम कन्यायें भिन्न-भिन्न आध्यात्मिक स्वरूपों जैसे स्वास्तिका, अर्धचन्द्रमा, सितारे, ओम आदि के रूप में खड़े होकर रास करते थे। रास इतनी मनमोहक होती थी कि देखने वाले खुशी से विभोर हो जाते थे। मैं अच्छा गाती भी थी और सुंदर नृत्य भी करती थी। गीत और नाच जितना ज्ञानपूर्ण था, उतना ही रमणीक भी था। इसलिए बाबा ने बहुत प्यार से मेरा एक अन्य नाम भी रखा था, ‘रमणीक मोहिनी।’ यज्ञ में सबसे ज़्यादा दिन मैं साकार बाबा के साथ रही। मैंने निराकार को साकार में और साकार को निराकार में देखा। दोनों बाबा मेरे लिए सदा एक रहे हैं। बाबा के साथ ज्ञान-योग, खान-पान, खेल-कूद आदि का पार्ट मैंने बहुत ही सुन्दर रूप में निभाया। मैं खेल में सदा बाबा की प्रतिद्वन्द्वी रहती थी और पारदर्शिता भी दिखाती थी। इसलिए बाबा अनेक बार बोलते थे, ‘बच्ची, तुम भगवान को बहलाने वाली आत्मा हो।’ यदि मैं कभी खेल में जीत जाती थी तो बाबा हँसकर कहते थे कि बच्ची, तुम लक्की लाल हो जो भगवान को हरा दिया। मेरी इस विशेषता को सामने रख बाबा ने मुझे एक तीसरा विशेष नाम दिया, बिंद्रबाला।’

सांस्कृतिक कार्यक्रम

बाबा जितने गम्भीर थे, उतने ही रमणीक भी थे। बाबा का दिया हुआ ज्ञान भी अति रमणीक है। मैं रोज़-रोज़ ध्यान में जाती थी और सूक्ष्म वतन में रासलीला के भिन्न-भिन्न रमणीक दृश्य देखकर आती थी, फिर वर्णन भी करती थी। उसके पश्चात् बाबा-मम्मा अन्य बच्चियों के द्वारा वैसा ही रास रचवाते थे। इस कार्यक्रम में वेशभूषा भी देवताई होती थी और प्रदर्शन भी बहुत चित्ताकर्षक होता था।

ओम ध्वनि

मेरे जीवन की एक बड़ी विशेषता रही ‘ओम ध्वनि’। अलौकिक जीवन का पहला पाठ रहा, ‘ओम ध्वनि।’ बाबा के इशारे पर मैं पहले ओम ध्वनि करती थी फिर थोड़े समय के बाद इसके प्रभाव से दूसरे सब ध्यानस्थ हो जाते थे और रास भी करते थे।

ध्यान: बाबा का एक वरदान

ज्ञान मार्ग में ध्यान/ योग एक विशेष विषय है। ध्यान मेरे जीवन में श्रेष्ठ वरदान था। परमपिता के अवतरण और सतयुगी दैवी दुनिया की स्थापना की रूपरेखा ध्यान के माध्यम से ही स्पष्ट होती गई। जब मैं ओम मण्डली में समर्पित हुई तो अनुभव हुआ कि कोई मुझे ऊपर खींच रहा है। जैसे लोहा चुम्बक की तरफ आकर्षित होता है वैसे ही मैं ऊपर की किसी सत्ता की तरफ आकर्षित होती थी। चार-पाँच दिन तक ऐसा अनुभव लगातार होता रहा। मैंने थोड़ा विचलित-सा होकर मीठी मम्मा को सारी बातें बताईं। मम्मा ने भी बाबा को सुनाया। बाबा, मम्मा को समझाते हुए बोले कि सन्देशी बच्ची के द्वारा शायद शिव बाबा को कोई विशेष सेवा करवानी है। उसके बाद एक दिन शाम को मैं अपना सिर मम्मा की गोदी में रखकर बैठी थी। उसी समय ऊपर खिंचाव अनुभव हुआ। मैंने फट से मम्मा को बताया और मम्मा ने उत्तर दिया, ‘बच्ची, डरो मत, बाबा को शायद आपके द्वारा कोई विशेष कार्य कराना है।’ तत्पश्चात् मैं ध्यान में चली गई। अशरीरी अवस्था में सूक्ष्म वतन में पहुँची और जैसे टीवी में भिन्न-भिन्न दृश्य देखते हैं वैसे वहाँ बैठ रासलीला का एक चमत्कारिक दृश्य देखने लगी। उस समय ऊपर बाबा ने कहा, ‘बच्बी, आराम से बैठकर देखो और नीचे जाकर दूसरों को भी सुनाना और खुद भी रास करना।’ ध्यान से वापस आने के बाद मैंने मम्मा को बताया। मम्मा ने बाबा को सुनाया। फिर बाबा ने मेरे सहित पाँच कन्याओं को मिल करके रास करने के लिए कहा और हम सबकी रास देख बाबा-मम्मा बहुत ही खुश हुए। उसके बाद मेरा ध्यान का पार्ट चलता रहा। ध्यान के समय खाना-पीना भूल जाते थे, अनुभव करते थे कि बाबा के साथ जैसे अनेक प्रकार के भोजन और फलों का रस पी रहे हैं। ध्यानावस्था में जो खुशी, आनंद और संतुष्टता मिलती थी, वह अवर्णनीय थी। मैं ध्यान में राजकुमारी बनके आठ-दस दिन तक भी रही। राजकुमारी जैसी राजाई चलन, खानपान आदि मुझमें दिखाई देने लगता था। सृष्टि नाटक के नियमानुसार बाद में बाबा को इस पार्ट को बंद करना पड़ा क्योंकि खेल और रमणीकता में बहुत समय चला जाता था। यह सत्य है कि ध्यान में बहुत उमंग-उल्लास मिलता था लेकिन एक दिन बाबा ने सभी के सामने स्पष्ट कर दिया कि इससे विकर्म विनाश नहीं होंगे, सिर्फ योग से ही आत्मा के विकर्म विनाश होंगे।

राजयोग का विशेष अभ्यास और अनुभूति

यज्ञारंभ के समय में योगभट्ठी द्वारा यज्ञ-वत्सों को योग-शिक्षा दी जाती थी। करांची में मैं तथा कई अन्य सन्देशियाँ ध्यान में जाकर वतन से भट्ठी के कार्यक्रम की रूपरेखा ले आते थे। उस रूपरेखा अनुसार सात या दस कन्याओं को लेकर ग्रुप बनता था और इस प्रकार भिन्न-भिन्न ग्रुप की तपस्या आरंभ होती थी। तपस्या के समय सभी सफेद पोशाक पहनते थे और भोजन में सफेद पदार्थों को ही स्वीकार करते थे। नियमित रूप से रोज़ तपस्या करते थे। तपस्या माना विदेही स्थिति में स्थित होना। उस समय की तपस्या का फल आज सेवा में सफलता का आधार है। बढ़ती उम्र में योगाभ्यास और उसकी अनुभूति बड़ी विचित्र बात लगती है लेकिन उस समय के अभ्यास के कारण योगाभ्यास का पुरुषार्थ करना नहीं पड़ता, योग की स्थिति बनी रहती है। कभी-कभी अनुभव होता है कि सूक्ष्म लोक में शान्ति से बैठी हूँ और कभी अनुभव होता है कि बाबा से शक्ति ले रही हूँ।

कर्मयोगी जीवन

बाबा ने कभी भी कर्म से योग को अलग नहीं किया बल्कि योग द्वारा कर्म में कैसे कुशलता और सफलता मिलती है, वह करके दिखाया। यज्ञ में कन्यायें अलग-अलग नहीं रहती थीं लेकिन सबका कर्तव्य अलग-अलग था। बाबा की शिक्षा अनुसार मैंने कभी भी अनुभव नहीं किया कि फलाना कार्य बड़ा है, फलाना कार्य छोटा है। ईश्वर के घर के सब काम समान भी हैं और महान भी। कन्याओं की कर्त्तव्य तालिका (Duty list) समयानुसार परिवर्तन होती थी। बोर्डिंग जीवन में पहले-पहले मुझे पोशाक प्रेस करने की ड्यूटी मिली थी। प्रेस करने से पहले एक पात्र में स्वच्छ जल लाती थी, पोशाक के चारों तरफ समान रूप से छींटे डालती थी और सजाकर रखती थी। बाद में टेबल तैयार कर फिर आयरन को उसके स्थान पर रखकर गर्म करती थी। प्रेस करते समय आयरन की गर्मी और कपड़े की सुन्दरता पर नज़र रखती थी। सारी पोशाक की प्रेस एक जैसी रहती थी। ‘काम चलाऊ’ शब्द मेरे जीवन में कभी नहीं रहा। एकाग्रता से, शान्ति से और सावधान होकर सेवा करती थी क्योंकि ईश्वर की दी हुई सेवा थी। अपनी सेवा समाप्त होने पर दूसरे सेवासाथियों को सहयोग करती थी। 14 साल की भट्ठी के दौरान बाबा-मम्मा हर प्रकार की कर्मणा सेवा खुद करके हमको सिखाते थे। सिखाने के बाद बच्चों को कार्य संपन्न करने के लिए कहा जाता था। फिर बाबा कभी-कभी बच्चों के पीछे आकर चुपचाप खड़े होकर कार्य की देख-रेख करते थे। कोई ग़लती देखते थे तो बाबा स्वयं उस कार्य को करते और बच्चों को प्यार से कहते, ‘बच्ची, वैसे नहीं ऐसे करो।’ हर कर्मणा सेवा अर्थात् बाथरूम सेवा से शुरू करके जूते-चप्पल मरम्मत करना, बस मरम्मत करना, गाड़ी चलाना, बर्तन मांजना, ब्रह्मा भोजन बनाना, कोर्स कराना, भाषण करना आदि-आदि सेवा बाबा खुद करके बच्चों को सिखाते थे। बाबा ने सबको ऐसे तैयार किया कि किसी की कोई भी प्रकार के कार्य में कोई त्रुटि नहीं रहती थी, यह थी अलौकिक परिवार में सेवा की सफलता।

जीवन शैली में परिवर्तन

लौकिक में, दादा लेखराज हमारे पड़ोसी थे। बाबा के परिवार की चलन बहुत राजसी थी लेकिन बाबा के तन में शिवबाबा की प्रवेशता के बाद बाबा की जीवन-शैली पूर्ण रूप से बदल गई। उनकी कीमती पोशाक खादी के सफेद धोती-कुर्ते में रूपांतरित हो गई। कीमती बिस्तर, साधारण बिस्तर में बदल गया। कीमती पाँवों के जूतों की जगह लकड़ी की खड़ाऊँ उनके पाँवों में दिखाई देने लगी। बाबा का राजसी जीवन साधारण हो गया लेकिन यज्ञ-वत्सों का साधारण जीवन बदलकर राजसी बन गया। लेकिन बाबा सिखाते थे, बच्चों, कम खर्च बालानशीन बनो। ईश्वर को समर्पित एक-एक पैसा अति मूल्यवान है। बाबा के साथ लंबे समय तक रहने के कारण हमने भी अपनी जीवन शैली को बदल लिया। ‘कम खर्च बालानशीन’ को जीवन का व्रत मान लिया।

माँगने से मरना भला

बाबा की महान शिक्षाओं से प्रभावित होकर हम अपने लौकिक संसार और संस्कार को भूल गये। हमने कोई भी वस्तु कभी अपने लौकिक माता-पिता से माँगी ही नहीं। बाबा की शिक्षा थी कि ‘बच्चे, माँगने से मरना भला।’ इसके अलावा यह भी हमारी बुद्धि में आ गया कि अगर कभी किससे कोई वस्तु ली तो वही व्यक्ति याद आयेगा और बाबा याद नहीं आयेगा।

मन में परिवर्तन नहीं

यज्ञ का स्थानांतरण करांची से माउंट आबू होने पर कुछ दिनों के लिए यज्ञ में अभाव का बादल रहा। माउंट आबू में पहले-पहले भोजन में सिर्फ बाजरे की रोटी और छाछ मिला और पहनने के लिए मखमल की जगह पर सभी को खादी का वस्त्र मिला। भले भोजन और पोशाक में परिवर्तन आया लेकिन उस समय हमारे मन में कोई परिवर्तन नहीं आया। बोर्डिंग में जैसे खुशी से खाते थे, उस समय भी वैसे ही खाया। छाछ पीने से और ही अनेकों की शारीरिक अस्वस्थता ठीक हो गई। सभी अनुभव करते थे कि स्थान परिवर्तन के कारण सभी के उत्तम स्वास्थ्य के लिए शायद भोजन और पोशाक में बाबा ने परिवर्तन लाया है। ऐसे अभाव के समय पर भी बाबा ने किससे कुछ नहीं माँगा बल्कि सबको देते रहे। धन्य वह दाता, धन्य वह भाग्य विधाता !

लौकिक दुनिया में अलौकिक सेवा

उसके बाद सन् 1951 में शुरू हुई लौकिक दुनिया में अलौकिक सेवा। ईश्वरीय सेवा का प्रचार और प्रसार धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त करने लगा। भारत के विभिन्न स्थानों में सेवाकेन्द्र, उपसेवाकेन्द्र और गीता पाठशालाएँ खुलने लगे। सन् 1951 से सन् 1965 तक मैं मुख्यालय माउंट आबू में साकार बाबा की सेवासाथी बनकर रही। बाबा से मिलने के लिए, बाहर से आने वाली पार्टियों को बाबा से मिलाने का कार्य मेरा ही था। इस ईश्वरीय सेवा द्वारा मानसिक और शारीरिक शक्ति की वृद्धि होती थी। तन-मन सदा निरोगी रहता था। साकार बाबा के साथ मिलन मनाना, अलौकिक अनुभव करना, यहाँ तक कि पार्टियों का विदाई लेने का अनुभव भी बड़ा निराला होता था। मधुबन में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की स्वर्गिक सुगन्धि थी।

चौथे सब्जेक्ट की कमी की पूर्ति

सन् 1965 की बात है, एक दिन बाबा ने कहा, ‘तुमको पास विद् ऑनर्स बनना है इसलिए चारों विषयों (ज्ञान, योग, धारणा और सेवा) में पूरी-पूरी सफलता प्राप्त करना अति ज़रूरी है। बाबा के साथ रहने के कारण तुम्हारे पास ईश्वरीय सेवा के नम्बर कम हैं, तो क्या करना होगा?’ यज्ञ से बाहर जाकर सेवा करने का प्रत्यक्ष अनुभव मुझे नहीं था। मेरी चौथे सब्जेक्ट की कमी को भरने के लिए सर्वज्ञ बाबा ने मुझे कोलकाता भेज दिया। ‘हाँ जी’ के पाठ में हम सदा पक्की थीं इसलिए मधुबन से छुट्टी लेकर कोलकाता चली गई। बच्चों की उन्नति के निमित्त बाबा द्वारा रची गई युक्तियों का मंथन करने से यह अनुभव होता था कि ‘बाबा, आप कितने महान हो! बच्चों की स्वउन्नति के लिए, बच्चों से ज़्यादा आप चिन्तित रहते हो।’

सेवाकेन्द्र संचालन की कला सीखी

कुछ दिन कोलकाता में सेवा करने के बाद पटना जाना हुआ। उस समय वहाँ दादी प्रकाशमणि, दादी निर्मलशान्ता और दादी निर्मलपुष्पा (कुंज दादी) रहते थे। बाबा इन दादियों के पास उस समय बहुत स्नेह भरे  सुन्दर-सुन्दर पत्र भेजते थे जिनको पढ़कर सभी के मन खुश हो जाते थे। पटना में रहकर हमने सेवाकेन्द्र संचालन की कला सीखी। कुछ दिनों बाद मुज़फ्फरपुर सेवाकेन्द्र की संचालिका के रूप में मेरा स्थानान्तरण हो गया। मुज़फ्फरपुर में रहते हुए ही नेपाल (काठमांडू) में भी बाबा का झंडा लहराया। भुवनेश्वर से निमंत्रण-पत्र मिलने पर दादी निर्मलशान्ता ने हमको यहाँ राजधानी में ईश्वरीय सेवा के विस्तार के लिए भेज दिया।

नई-नई अनुभूतियाँ

सन् 1978 में भुवनेश्वर सेवाकेन्द्र की ज़िम्मेवारी मिलते ही, थोड़े दिनों में ही ईश्वरीय सेवा के क्षेत्र में नई-नई अनुभूतियाँ होने लगी। सेवा में सफलता के लिए ऊँची स्थिति की ज़रूरत है। स्थिति ज्ञान-योग से बनती है इसलिए क्लास शुरू होने से पहले शिक्षक और विद्यार्थियों को कम से कम 15 मिनट योग में बैठना आवश्यक है। बुद्धि में यह स्मृति रहे कि मुरली पढ़ाने वाला है शिव बाबा। निमित्त टीचर को ठीक से मुरली पढ़नी चाहिए। अपने मन से कुछ मिलावट नहीं करनी चाहिए। मुरली के हर शब्द में दिव्यता और रमणीकता भरी हुई है। इसलिए विधिपूर्वक मुरली सुनाना है।

बेहद की भावना

सेवा की एक महत्वपूर्ण विधि है, निःस्वार्थ भाव। सेवाकेन्द्र बाबा का, विद्यार्थी भी बाबा के और हम निमित्त मात्र हैं। आज हैं, कल नहीं भी होंगे। सेवा हमारा जीवन है लेकिन सेवाकेन्द्र नहीं। ईश्वरीय शिक्षा हमारा जीवन है लेकिन शिक्षार्थी नहीं। साधना हमारा जीवन है लेकिन साधन नहीं। सेवा बहुत बढ़े, सेवाकेन्द्र भी बहुत खोलें लेकिन साथ-साथ सेवाधारियों के दिल में कोई हद न हो। सेवा भी बढ़े, दिल भी बड़ी हो। सेवा में भले भौगोलिक सीमा हो लेकिन दिल में बेहद की भावना हो।

पवित्रता की अटूट मर्यादा

बाबा ने कहा, ‘बच्ची, पवित्रता सुख-शान्ति को जननी है’, ‘धरत पड़िए धरम न छोड़िए’ और ‘पवित्र बनो-राजयोगी बनो’। बाबा की इन आज्ञाओं से मैं इतनी प्रभावित थी कि दोनों बाबा के सिवाय दुनिया के किसी भी व्यक्ति का संकल्प, स्वप्न में भी कभी नहीं आया। अनेकानेक विद्यार्थी, सेवा-साथी, सहयोगी और वी.आई.पी इसी पवित्रता की झलक से प्रभावित होकर जीवन को महान बनाने के लिए उत्साहित हुए हैं।

भोजन

ज्ञान, ध्यान और तपस्या के साथ-साथ बाबा हर प्रकार के ईश्वरीय नियम-मर्यादायें, यज्ञ के हर विभाग की कार्यप्रणाली सिखाते थे ताकि सब बच्चे ऑलराउण्डर बनें और भविष्य में सेवाकेन्द्रों का हर कार्य खुद कर सकें तथा दूसरों को भी सिखा सके। मेरे पास भोजन बनाने की सुन्दर कला भी थी। भोजन बनाने के लिए मैं कभी किसी पर निर्भर नहीं रही। विद्यार्थियों को शुद्ध, स्वादिष्ट ब्रह्मा भोजन खिलाकर संतुष्ट और शक्तिशाली बनाना मेरे जीवन का महान लक्ष्य रहा। बाबा को भोजन स्वीकार कराते समय मन में बहुत श्रेष्ठ भावना रहती थी। भोग के बर्तन की सफाई का विशेष ध्यान रखती थी। भोग के बर्तन चांदी के होते हुए भी अगर स्वच्छ न हो तो काले-काले दिखते हैं जो बाबा को कभी पसंद नहीं आता था। बर्तन देखकर बाबा जान जाते थे कि बच्चों की कितनी श्रद्धा और भावना है। शुद्धिपूर्वक, विधिपूर्वक और याद सहित भोजन का भोग लगे, यह है महामंत्र। सेवाकेन्द्र में, ईश्वरीय सेवा में व्यस्त होते हुए भी कम से कम एक सब्जी बाबा के भोग के लिए बनाना हम कभी नहीं भूली।

जब शरीर बुज़ुर्ग हो गया तो आवश्यकता की चीज़ें सेवासाथी ही जानते थे और मँगाते थे लेकिन इस अवस्था से पहले हरेक आवश्यक सामग्री मधुबन से मिलती थी। सेवाकेन्द्र की भण्डारी से सिर्फ भोजन, टिकट तथा दवाई आदि के छोटे-मोटे खर्चों के सिवाय एक पाई भी अपने लिए खर्च नहीं करती थी। सेवाकेन्द्र में प्राप्त सौगातों को कभी प्रयोग नहीं करते थे। इन सब चीज़ों को मुख्यालय भेज देते थे या दूसरे सेवाकेन्द्र, अपने सेवा साथी अथवा विद्यार्थियों को दे देते थे। बाबा कहते थे, ‘जिसकी चीजें प्रयोग करेंगे, उसकी स्मृति ज़रूर आयेगी।’

पोशाक और सजावट

वस्त्रों के पुराने होने पर और थोड़ा-बहुत फटने पर हम सिलाई कर लेती थीं। जब ज़्यादा फट जाता था तो दूसरे कपड़े की चत्ती लगा लेते थे। जब पहनने योग्य नहीं रहता तो उसको रजाई या कंबल का कवर बना देते। ज़रूरत पड़ने पर उन्हीं पुराने वस्त्रों से रसोईघर के पर्दे, रसोई का रूमाल या पोंछा लगाने का कपड़ा बनाकर प्रयोग करते। यज्ञ के नियमानुसार जितने जोड़े कपड़े रखने चाहिएं, उतने ही रखते थे। बाबा की आज्ञानुसार शुरू से हमने श्रेष्ठ चलन और उत्तम व्यवहार का संस्कार अपने अंदर भरा क्योंकि बाबा की आज्ञा थी, ‘बच्चो, अगर किसको दुख देंगे तो दुखी होकर मरेंगे।’ कर्म की बात तो दूर रही, लेकिन वाणी से भी कभी किसको आघात नहीं पहुंचाया।

दादी के सदा अंग-संग रही, भुवनेश्वर की गीता बहन उनके बारे में इस प्रकार सुनाती हैं-

चलन और व्यवहार

दूसरों के भले हेतु कार्य और यज्ञ सेवा के लिए दादी जी सदा खुश होती थीं और बाबा को धन्यवाद देती थीं। कभी किसकी ईश्वरीय मर्यादा उल्लंघन की बात कानों में आती थी तो बाबा के उपयुक्त महावाक्यों के माध्यम से उसे निवृत्त करने की शिक्षा देती थीं। वे कभी भी ऊँची आवाज़ या कोई अपशब्द पसन्द नहीं करती थीं। लड़ाई और झगड़े को वे दूर से ही नमस्कार करती थीं। कोई वस्तु या धन किससे माँगना जैसे कि उनकी जन्मपत्री में विधाता ने नहीं लिखा था। कितना भी बड़ा सेवा का कार्यक्रम सामने हो लेकिन धन के बारे में दादी जी सदा कहती थीं कि ‘जिसका कार्य उसको चिन्ता।’ वह सदा अपने को निमित्त समझते हुए हर कार्य संपादित करती थीं।

धन का सदुपयोग

सेवाकेन्द्र में दादी जी के पास दिन-भर में अनेक जिज्ञासु और विद्यार्थी आते थे। सेवासाथी और सेवाधारी भी आते थे। भाषण करना पड़ता था, क्लास भी कराना पड़ता था और टेलिफोन में भी बातें करनी पड़ती थीं। यह सब कार्यक्रम होते हुए भी दादी जी सारे दिन में धन कम खर्च करती थीं और सभी को संतुष्ट भी करती थीं। जहाँ दो मीठे शब्द बहुत हैं, वहाँ एक घंटा भाषण करने की क्या ज़रूरत है? जहाँ एक इशारा काफी है, वहाँ ऊँची आवाज़ में बातचीत करना अनुचित है। दादी जी का अनुभव था कि उत्कल निवासी भाई-बहनें बहुत गरीब हैं। उनके कठिन मेहनत से प्राप्त हुए सत धन का वे सही उपयोग करती थीं। दादी जी की रेल यात्रा तीसरे दर्जे में होती थी। रेल में तीसरा दर्जा बंद होने के बाद दूसरे दर्जे में यात्रा करती। बढ़ती हुई उम्र और पाँव टूटने के कारण दादी जी ने जब विमान यात्रा शुरू की तब टिकट खर्च में रियायत मिलती थी।

धन का सही हिसाब

यज्ञ में धन का सही हिसाब रखने के लिए बाबा पहले ऊपर से सन्देश भेजते थे। दादी जी अनुभव में सुनाते थे कि जैसे कर्म की गहन गति है, वैसे धन की भी गहन गति है। एक तरफ अपना भाग्य बनाने वाले विद्यार्थी, दूसरी तरफ भाग्यविधाता निराकार बाप और बीच में सेवाकेन्द्र की निमित्त बहन। बाबा पहले से ही निमित्त बहनों को बता देते थे कि बच्ची, सच्चे दिल पर साहेब राज़ी, इसलिए प्राप्त धन को सही खर्च करना और खर्च का सही हिसाब रखने का काम निमित्त बहन का है। यह याद रहे कि कमाई और खर्च का सही हिसाब मानव जीवन को सुन्दर बनाने में मदद करता है। दादी जी कहते थे कि ईश्वरीय परिवार में आपस में पैसे की लेन-देन करना अथवा उधार देना वा लेना श्रीमत के विरुद्ध है, इसलिए कभी किसी को खुश करने के लिए या किसी से प्रशंसा पाने के लिए ईश्वरीय धन उधार देना या लेना नहीं है। दादी जी सुनाते थे कि मधुबन का ख्याल रखना उनके जीवन का व्रत था। इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य किसी से माँगकर मधुबन भेजें। सेवाकेन्द्र पर चार रोटी की ज़रूरत होते हुए भी वे तीन बाबा के लिए रखती थीं। खुशी की बात यह थी कि दादी जी बाबा के लिए जितना करती थीं, उससे कईं गुणा अधिक बाबा उनको दे देते थे। दादी जी जब मुज़फ्फरपुर में रहते थे तब आम की ऋतु में एक विद्यार्थी कुछ आम लेकर सेवाकेन्द्र पर आया। उन दिनों में मधुबन में आम नहीं मिलते थे। भाई को दादी जी ने कहा, बाबा को खिलाये बिना हम कैसे खायेंगे? भाई ने कहा, इतने थोड़े-से आम मधुबन कैसे भेजेंगे? यह तो लज्जा की बात है। अगले दिन, मधुबन के लिए बहुत सारे आम लाया, उन्हें मधुबन भेजा गया। उस भाई को, इस श्रेष्ठ भावना के फल रूप कई अधिक गुणा बाबा ने दिया। दादी जी ने जब भुवनेश्वर सेवाकेन्द्र की ज़िम्मेवारी ली, तब राजधानी के हिसाब से सेवाकेन्द्र का मकान बहुत छोटा था। सेवाकेन्द्र की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं थी। विद्यार्थी भी कम थे। उस समय दादी जी बोलते थे कि यह है परीक्षा की घड़ी। सेवा को उन्नति के लिए दादी जी को धन की आवश्यकता थी लेकिन आये कहाँ से? उनके पास साधना का एक महामंत्र था, वह था ‘हिम्मते बच्चे, मददे बाप।’ कुछ दिनों के तीव्र पुरुषार्थ के बाद बाबा के इस महामंत्र ने दादी जी को सफलता का हार पहनाया। धीरे-धीरे विद्यार्थियों की वृद्धि हुई, बड़ा मकान भी मिला, राज्य सरकार से ज़मीन भी मिली आदि-आदि।

सत् धन सदा सुखकारी

सरकारी ज़मीन मिलने के बाद अपना मकान बनाने के लिए दादी जी के कंधों पर एक नई ज़िम्मेवारी आई। उन्होंने ना सरकारी अनुदान लिया, ना किससे चन्दा माँगा, ना मधुबन से पैसा लिया और ना ही किसी सेवाकेन्द्र से लिया। उड़ीसा के हर कोने से बाबा के बच्चों के स्वतः सहयोग से “ओम निवास” बन गया और दादी प्रकाशमणि जी के कर-कमलों से उ‌द्घाटन हुआ। आवश्यकतानुसार बाबा ने विद्यार्थियों के माध्यम से सबकुछ करवाया। धन के लिए दादी जी ने ना तो कभी किसको स्पष्ट कहा, न किसको कष्ट दिया। दादी जी धन के बारे में सभी को कहती थी कि उपयुक्त परिश्रम कर ईमानदारी से जितनी धन की कमाई होती है, उसमें संतुष्ट रहो और उसका कुछ हिस्सा ईश्वरीय सेवा में लगाओ। वह यह भी कहती थीं कि असत् धन कभी किस सत् कार्य में नहीं लगता। अगर कहीं लगता है तो उपयुक्त सुफल नहीं मिलता। सत् धन का अधिकारी सदा सुखी रहता है।

शिवरात्रि पर बाबा के गले में 21 गिन्नियों का हार

एक बार मुज़फ्फरपुर से पार्टी लेकर दादी जी मधुबन आई थीं। बाबा उनको देखते ही बोले कि बच्ची, तुम बड़ी लक्की हो। अगली शिवरात्रि पर बाबा को 21 गिन्नी का हार पहनाना। उस समय दादी जी इस महावाक्य का अर्थ नहीं समझ पाई क्योंकि मुज़फ्फरपुर की सेवा इतनी फलीभूत नहीं हुई थी तो 21 गिन्नी का हार कहाँ से मिले जो बाबा को पहनाये। जो हो, बाबा की इस बात को दादी जी बाबा की स्वभाव सुलभ मज़ेदार बातचीत समझ भूल गईं। आश्चर्य की बात थी कि मधुबन से मुज़फ्फरपुर वापस आने के कुछ दिनों के बाद एक माता ने दादी जी को एक सोने की गिन्नी दी। दादी जी ने गिन्नी को ऐसे ही रख दिया। थोड़े दिनों के बाद और दो माताओं ने दो गिन्नियां दीं। धीरे-धीरे और भी कुछ-कुछ मिलता रहा। शिवरात्रि से पहले दादी जी ने जब भंडारी खोली तो 21 गिन्नियां पाई और जल्दी-जल्दी उसको एक मखमल के कपड़े में रख एक हार बनाया। शिवरात्रि के अवसर पर दादी जी मधुबन आईं और बाबा को वह हार पहनाया।

वेस्ट को बेस्ट

बाबा ने वेस्ट वस्तुओं को सफल करना बच्चों को सिखाया। उदाहरण के तौर पर, प्राप्त पत्रों के लिफाफों को बाबा नष्ट न करके काटकर पर्चियाँ बनाते थे जो सब्ज़ी की लिस्ट बनाने जैसे बहुत से कार्यों में काम आती थी। दादी जी भी यही काम अंत तक करती थीं। दादी जी पुराने फटे कपड़ों को पोछा कपड़े के रूप में, गेहूँ से निकाले गये छोटे-छोटे दानों को चिड़िया के दाने के रूप में, सब्ज़ी के छिलकों को गाय के खाद्य के रूप में और छेने के पानी को कढ़ी तैयार करने में प्रयोग करती थीं। दादी जी सुनाती थीं कि बाबा कहा करते थे कि बच्चे, तुम वेस्ट को बेस्ट न बना सके तो संगमयुग पर पतितों को पावन कैसे बनायेंगे?

जो करेगा, सो पाएगा

बाबा सब कुछ कर सकते थे लेकिन बाबा ने स्पष्ट रूप में बताया कि बच्चे, जो करेगा, सो पायेगा। ऐसा नहीं कि बाप पाठ पढ़ेगा और बच्चा इम्तिहान पास करेगा। बाबा पुरुषार्थी नहीं है, वह हमारा परमशिक्षक है, उसके दिये हुए ज्ञान को बच्चे पढ़कर, जीवन में प्रयोग कर उससे सफलता प्राप्त करेंगे। यह याद रहे कि अब सबका अंतिम जन्म है और इस जन्म में बच्चों को विगत 63 जन्मों के विकर्मों को विनाश करना है। विगत विकर्मों का फल, हो सकता है कि दुख-अशान्ति के रूप में या अभाव अथवा शारीरिक व्याधि के रूप में अपने सामने खड़ा हो जाये। यह सब हिसाब-किताब बच्चों को ही चुक्तू करना पड़ेगा और इन सबको चुक्तू करने का साधन है योग साधना। परिस्थिति कितनी भी भयानक या दर्दनाक हो लेकिन बच्चों की योग समाधि की श्रेष्ठ स्थिति के द्वारा पहाड़ भी राई बन जायेगा। ऐसी परिस्थिति में दूसरों को दुख लगता होगा लेकिन हिसाब-किताब चुक्तू करने वाला व्यक्ति अतीन्द्रिय खुशी में झूलता रहेगा। यही है योग-तपस्या का फल।

ईश्वर के वचन अटल

दादी जी की अन्य एक विशेष अनुभूति थी कि मनुष्य के वचन पानी की लकीर हैं लेकिन ईश्वर के वचन सदा ही अटल हैं। समर्पण के समय बाबा ने कहा था कि बच्चे, तुम मेरी शरण में आ जाओ तो मैं तुम्हारी सभी जिम्मेवारियाँ निभाऊँगा। इसलिए बाबा कहते थे, शारीरिक व्याधि वास्तव में दुखदायी नहीं है बल्कि योग की नई-नई साधना और अनुभव करने का एक मुख्य साधन है। दादी जी ने बहुत समय ट्रांस में बिताया। इसलिए योगाभ्यास में कमी रह गई होगी तो बाबा ने निरंतर योगाभ्यास के लिए उनको अंतिम सुअवसर दिया। अगर बाबा ने दादी जी को व्याधि से ठीक कर दिया होता तो दादी जी की योग में मार्क्स नहीं बढ़ पाते। इसलिए ड्रामा कल्याणकारी है।

सतगुरुवार, 1 नवंबर 2007 दोपहर 1.50 बजे दादी ने अपनी स्थूल देह-त्याग दी। दोपहर 1.30 बजे दादी ने भोजन किया। चेहरे से कोई तकलीफ दिखाई नहीं दे रही थी। भोजन करने के बाद हमने दादी से कहा कि दादी बाबा बोलो। दादी ने पाँच बार ‘बाबा’ बोला। फिर दोपहर 1.50 बजे स्थूल शरीर को छोड़ अव्यक्त वतनवासी बन बाबा की गोद में समा गईं।

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

अनुभवगाथा

Bk erica didi - germany anubhavgatha

एरिका बहन का सफर दिल छू लेने वाला है। क्रिश्चियन धर्म से ईश्वरीय ज्ञान तक, उनके जीवन में आध्यात्मिक बदलाव, बाबा के साथ अटूट रिश्ता और भारत के प्रति उनके गहरे प्रेम को जानें। राजयोग से मिली शांति ने उनके

Read More »
Bk sundari didi pune

सुन्दरी बहन, पूना, मीरा सोसाइटी से, 1960 में पाण्डव भवन पहुंचीं और बाबा से पहली मुलाकात में आत्मिक अनुभव किया। बाबा के सान्निध्य में उन्हें अशरीरी स्थिति और शीतलता का अनुभव हुआ। बाबा ने उनसे स्वर्ग के वर्सा की बात

Read More »
Dada chandrahas ji

चन्द्रहास, जिन्हें माधौ के नाम से भी जाना जाता था, का नाम प्यारे बाबा ने रखा। साकार मुरलियों में उनकी आवाज़ बापदादा से पहले सुनाई देती थी। ज्ञान-रत्नों को जमा करने का उन्हें विशेष शौक था। बचपन में कई कठिनाइयों

Read More »
Bk jayanti didi anubhavgatha

लन्दन से ब्रह्माकुमारी ‘जयन्ती बहन जी’ बताती हैं कि सन् 1957 में पहली बार बाबा से मिलीं, तब उनकी आयु 8 वर्ष थी। बाबा ने मीठी दृष्टि से देखा। 1966 में दादी जानकी के साथ मधुबन आयीं, बाबा ने कहा,

Read More »
Dadi situ ji anubhav gatha

हमारी पालना ब्रह्मा बाबा ने बचपन से ऐसी की जो मैं फलक से कह सकती हूँ कि ऐसी किसी राजकुमारी की भी पालना नहीं हुई होगी। एक बार बाबा ने हमको कहा, आप लोगों को अपने हाथ से नये जूते

Read More »
Dadi bhoori ji

दादी भूरी, यज्ञ की आदिकर्मी, आबू में अतिथियों को रिसीव करने और यज्ञ की खरीदारी का कार्य करती थीं। उनकी निष्ठा और मेहनत से वे सभी के दिलों में बस गईं। 2 जुलाई, 2010 को दादी ने बाबा की गोदी

Read More »
Bk janak didi sonipat anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी जनक बहन जी, सोनीपत, हरियाणा से, जब पहली बार ब्रह्मा बाबा से मिलीं, तो बाबा के मस्तक पर चमकती लाइट और श्रीकृष्ण के साक्षात्कार ने उनके जीवन में एक नया मोड़ लाया। बाबा की शक्ति ने उन्हें परीक्षाओं के

Read More »
Bk hemlata didi hyderabad anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी हेमलता बहन ने 1968 में ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त किया और तब से अपने जीवन के दो मुख्य लक्ष्यों को पूरा होते देखा—अच्छी शिक्षा प्राप्त करना और जीवन को सच्चरित्र बनाए रखना। मेडिकल की पढ़ाई के दौरान उन्हें ज्ञान और

Read More »
Bk prabha didi bharuch anubhavgatha

प्रभा बहन जी, भरूच, गुजरात से, सन् 1965 में मथुरा में ब्रह्माकुमारी ज्ञान प्राप्त किया। उनके पिताजी के सिगरेट छोड़ने के बाद, पूरा परिवार इस ज्ञान में आ गया। बाबा से पहली मुलाकात में ही प्रभा बहन को बाबा का

Read More »
Bk sudhesh didi germany anubhavgatha

जर्मनी की ब्रह्माकुमारी सुदेश बहन जी ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि 1957 में दिल्ली के राजौरी गार्डन सेंटर से ज्ञान प्राप्त किया। उन्हें समाज सेवा का शौक था। एक दिन उनकी मौसी ने उन्हें ब्रह्माकुमारी आश्रम जाने

Read More »
Bk pushpa didi nagpur anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी पुष्पा बहन जी, नागपुर, महाराष्ट्र से, अपने अनुभव साझा करती हैं कि 1956 में करनाल में सेवा आरम्भ हुई। बाबा से मिलने के पहले उन्होंने समर्पित सेवा की इच्छा व्यक्त की। देहली में बाबा से मिलने पर बाबा ने

Read More »
Bk sudarshan didi gudgaon - anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी सुदर्शन बहन जी, गुड़गाँव से, 1960 में पहली बार साकार बाबा से मिलीं। बाबा के दिव्य व्यक्तित्व ने उन्हें प्रभावित किया, बाद उनके जीवन में स्थायी परिवर्तन आया। बाबा ने उन्हें गोपी के रूप में श्रीकृष्ण के साथ झूला

Read More »
Bk sudha didi burhanpur anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी सुधा बहन जी, बुरहानपुर से, अपने अनुभव में बताती हैं कि सन् 1952 में उन्हें यह ज्ञान प्राप्त हुआ। 1953 में बाबा से मिलकर उन्हें शिव बाबा का साक्षात्कार हुआ। बाबा की गोद में बैठकर उन्होंने सर्व संबंधों का

Read More »
Bk sheela didi guvahati

शीला बहन जी, गुवाहाटी, असम से, मीठे मधुबन में बाबा से मिलकर गहरी स्नेह और अपनत्व का अनुभव करती हैं। बाबा ने उन्हें उनके नाम से पुकारा और गद्दी पर बिठाकर गोद में लिया, जिससे शीला बहन को अनूठी आत्मीयता

Read More »
Bk kamlesh didi bhatinda anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी कमलेश बहन जी, भटिण्डा, पंजाब से, अपने साकार बाबा के साथ के अनमोल अनुभव साझा करती हैं। 1954 में पहली बार बाबा से मिलने पर उन्होंने बाबा की रूहानी शक्ति का अनुभव किया, जिससे उनका जीवन हमेशा के लिए

Read More »