मेरा जन्म ग्याना के एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ। मेरे दादा-परदादा भारत के थे। मेरे पिता जी और माता जी का जन्म ग्याना में हुआ था। लौकिक में हमारा बड़ा परिवार है, हम सात बहनें और दो भाई हैं। घर में तो हिन्दू धर्म के अनुसार पूजा-पाठ होता था, माता-पिता वह सब हम से भी करवाते थे लेकिन उन्होंने हमें हिन्दी सिखाने की कोशिश नहीं की। हमें अच्छे धार्मिक और नैतिक संस्कार दिये। ख़ासकर मेरे दादा जी और दादी जी ने हमें बहुत प्यार से पाला, हिन्दू संस्कृति की बातें सिखायीं।
जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गयी, मेरे मन में परमात्मा के प्रति झुकाव बढ़ता गया, उसको ढूँढ़ने का कौतूहल जाग्रत हुआ। माता-पिता ने, धार्मिक भावना वाले होते हुए भी, हम बच्चों पर किसी तरह का बन्धन नहीं डाला। हमें उन्होंने बहुत प्यार और आदर से पाला। ख़ासकर, हमारे दादा जी हमें भारत के बारे में, भारत की रस्म-रिवाज़ों के बारे में, भारत के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के बारे में सुनाते थे और उन्हें जीवन में समाने की प्रेरणा देते थे। बचपन से ही मेरे जीवन की नींव धार्मिकता और नैतिकता से भर गयी। मैं श्रीकृष्ण की भक्तिन थी। उसके प्रति मेरा बहुत प्यार था। हमेशा मैं पर्स में उसका छोटा-सा चित्र रखा करती थी। श्रीकृष्ण के स्वप्न भी आते थे। इन स्वप्नों में बहुत सुन्दर-सुन्दर दृश्य देखती थी।
विद्यार्थी जीवन में भी परीक्षा में अच्छे मार्क्स लेने के लिए या कोई कार्य की सफलता के लिए या जब कोई संकट आता था तो मैं श्रीकृष्ण से ही प्रार्थना करती थी कि मेरा मार्गदर्शन करो, मुझे इस संकट से पार करो। बचपन में मुझे गीत गाने का और चित्र निकालने का बहुत शौक था। विद्यार्थी जीवन के फ्री समय में, मैं प्राकृतिक सौन्दर्य की, श्रीलक्ष्मी, श्रीनारायण इत्यादि देवताओं की पेंटिंग बनाने में लग जाती थी। माँ-बाप ने कभी हम बहनों की शादी के लिए जबरदस्ती नहीं की। यह हमारे लिए एक बड़ा सौभाग्य था।
परमात्मा के लिए मेरी तलाश जारी थी। इसी दौरान सन् 1975 में मैंने ब्रह्माकुमारियों के बारे में अख़बार में एक लेख पढ़ा। उसमें जयन्ती बहन ने लिखा था कि कैसे आत्मा का श्रृंगार करें! उस समय मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की थी। अभी-अभी ही नौकरी ली थी और आगे की पढ़ाई के लिए कैनेडा जाने का सोच रही थी। जयन्ती बहन के उस लेख को पढ़ने के कुछ महीनों के बाद मार्च, 1976 में मैंने ब्रह्माकुमारियों से सम्पर्क किया। उस दिन से लेकर आज तक मैंने एक दिन भी ईश्वरीय ज्ञान का अध्ययन करना नहीं छोड़ा।
जब मैं ज्ञान सुनने के लिए सेन्टर पर गयी, उन्होंने जो भी समझाया उसने मुझे बहुत आकर्षित किया। मैं ज्ञान में चल पड़ी। ज्ञान में आने से कुछ दिन पहले मुझे एक स्वप्न आया था। सपने में मैंने श्रीलक्ष्मी को देखा, जो आकाश से उतरी थी। उसका रूप बहुत सुन्दर था। वह धरती पर चलने लगी तो मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगी। उसने पीछे मुड़कर देखा तो मैंने उससे प्रश्न पूछा। मैंने जितने भी प्रश्न पूछे, उसने मुस्कराते हुए उन सब के उत्तर दिये। उसके बाद वह अदृश्य हो गयी। इसके कुछ दिनों के बाद ही मैं ज्ञान में आयी।
जैसे ही मैंने पहली बार सेन्टर में पाँव रखा, मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि यह मेरा ही स्थान है, मैं यहाँ की हूँ। मुझे वहाँ बहुत शान्ति और ख़ुशी का अनुभव होने लगा। जब वहाँ दो ब्रह्माकुमारी बहनों को देखा तो मुझे लगा कि ये भी अपने हैं, इनको मैंने पहले कहीं देखा हुआ है। मैंने कोर्स पूरा किया। कोर्स पूरा होते ही रोज़ मुरली क्लास में जाने लगी। मुरली मेरी समझ में पूरी नहीं आती थी, फिर भी कभी मुरली मिस नहीं करती थी, रोज़ सेन्टर पर आती थी। मुरली के द्वारा ही मुझे सारे प्रश्नों के उत्तर मिलने लगे। ज्ञान समझ में आने लगा।
मैं बहुत शर्मीले स्वभाव की थी। पर आश्रम पर बहनें मुझे कोर्स कराने, भाषण करने की प्रेरणा देने लगीं। क्लास में भाई-बहनों के सामने अनुभव सुनाने के लिए कहने लगीं। इस प्रकार, बहनों ने मेरे में हिम्मत और उमंग-उत्साह भरकर मेरे शर्मीले स्वभाव को भगा दिया। कई बार बहनें बाहर जाती थीं तो मुझे ही वहाँ की ज़िम्मेवारियाँ उठानी पड़ती थी। इससे मेरे में रूहानी शक्ति बढ़ती गयी, आध्यात्मिक प्रगति करने का बल मिलता रहा। भारत के बारे में मुझे बहुत कौतूहल था तथा भारत के बारे में अन्दर ही अन्दर सम्मानभाव भरा हुआ था। जब इन बहनों को (मोहिनी बहन और हेमलता बहन) को देखा, तो उनके स्नेह, प्रेरणादायी व्यवहार ने उनके प्रति बहुत सम्मान बढ़ा दिया, साथ-साथ भारत के प्रति और गौरव बढ़ा। मैंने तो भारत में जन्म नहीं लिया था, फिर भी मुझे भारत के प्रति बहुत आकर्षण था और पूज्य भावना थी क्योंकि भारत हमारे पूर्वजों की भूमि थी।
प्रश्नः आप तो श्रीकृष्ण को मानने वाली थी। जब आपको कहा गया कि परमात्मा शिव है, श्रीकृष्ण नहीं है, तो आपको परमात्मा के अवतरण पर कैसे निश्चय हुआ?
उत्तरः ज्ञान में आने के बाद कुछ दिनों तक मैं भक्ति तथा राजयोग मेडिटेशन दोनों करती रही। सुबह उठते ही घर में श्रीकृष्ण की पूजा करती थी और सेन्टर में आकर ज्योतिर्बिन्दु शिव बाबा के साथ मेडिटेशन करती थी। मेरे दादा जी शिव के पूजारी थे और मैं श्रीकृष्ण की क्योंकि मुझे श्रीकृष्ण से बहुत प्यार था। दादा जी कहते थे कि तुमको जिस पर विश्वास है, उसकी आराधना करो लेकिन दिल से करो। कभी-कभी मैं भी शिव की, जिसको भक्तिमार्ग में शंकर समझते हैं, पूजा करती थी। क्योंकि घर में हमें कहा गया था कि धन चाहिए तो लक्ष्मी की, विद्या चाहिए तो सरस्वती की, रक्षा चाहिए तो शिव (शंकर) की पूजा करनी चाहिए। मैं शिव की विरोधी नहीं थी लेकिन मेरा लगाव श्रीकृष्ण से था। जैसे-जैसे मुरली सुनती गयी, ज्ञान समझती गयी वैसे-वैसे शिव बाबा के अवतरण पर निश्चय होता गया। इसके अलावा, ज्ञान में आने के बाद एक स्वप्न आया जो शिव बाबा के ऊपर निश्चय के लिए कारण बना। उस स्वप्न में मैं एक अन्धकार वाले स्थान पर खड़ी थी। दूर से एक ज्योति धीरे-धीरे मेरी तरफ आने लगी, मैं वहाँ से भागने लगी। तो उस प्रकाश में से धीरे-धीरे ब्रह्मा बाबा दिखायी देने लगे। वे पद्मासन में बैठे हुए थे। फिर ब्रह्मा बाबा की भृकुटि के बीच से वह प्रकाश की किरण बाहर निकलने लगी। उस समय मुझे एक आवाज़ सुनायी दी कि यह ज्योतिर्बिन्दु ही मैं परमात्मा हूँ। तुम मेरी बच्ची हो, मैं तुम्हारा पारलौकिक बाप हूँ। मैं परमात्मा शिव हूँ, तुम आत्मा मेरी सन्तान हो। इन बातों और दृश्यों से मुझे परमात्मा के अवतरण पर निश्चय हो गया। इसके बाद ज्ञान की किसी बात पर मुझे संशय नहीं आया और मैं इस मार्ग पर आगे बढ़ती गयी।
प्रश्नः आप कब से ईश्वरीय सेवा करने लगीं?
उत्तरः ईश्वरीय सेवा तो समर्पित होने से पहले से ही करने लगी थी। जब मैं जॉब (नौकरी) करती थी, तब से ही बहनें मुझे बहुत-सी ईश्वरीय सेवाओं में व्यस्त रखती थीं। लेकिन सन् 1976 के अगस्त महीने में बहनों ने मुझे कहा कि आप सेन्टर पर क्यों नहीं रहती हो? मैंने कहा, ठीक है, मैं सेन्टर पर रहूँगी लेकिन एक शर्त पर। उन्होंने पूछा, क्या शर्त है? मैंने कहा, मुझे अमृतवेले चार बजे के योग के लिए नहीं उठाना। शुरू-शुरू में अमृतवेले उठना मुझे बहुत कठिन कार्य लगा। बहनों ने माना और मैं सेन्टर पर रहने लगी। मैं लौकिक पढ़ाई करते समय रात देर तक जागती थी और सुबह देर तक सोती थी। इसलिए मुझे अमृतवेले उठना पहले-पहले बहुत कठिन लगा। जब मैं सेन्टर पर रहने लगी तो सुबह मुरली क्लास शुरू होने से पहले क्लास के भाई-बहनों को योग कराने लगी। धीरे-धीरे मुझे ही लगने लगा कि अमृतवेले उठना चाहिए, मेडिटेशन करना चाहिए। पहली बार सुबह चार बजे उठकर योग किया तो वह बहुत विचित्र और शक्तिशाली अनुभव था। उस अनुभव ने मुझे अमृतवेले के योग में मज़बूत बना दिया। मैंने यह भी अनुभव किया कि जिस दिन मैं अमृतवेले का योग करती थी, उस दिन की दिनचर्या और सेवा में सफलता बहुत सहज होती थी, अवस्था बहुत लाइट और शक्तिशाली होती थी। यह अन्तर जब समझा तो मैंने अमृतवेले का योग अनिवार्य बना दिया। अमृतवेले के योग से मुझे बहुत लाभ हुआ। जैसे कि दिन-प्रतिदिन मैं बाबा की समीपता का अनुभव करने लगी। बाबा के साथ अलग-अलग सम्बन्धों के अनुभव होने लगे। कई बार मैं कुछ भी कोशिश नहीं करती थी, सिर्फ बैठ जाती थी तो एक क्षण में मैं अपने आपको ज्योतिलोक में पाती थी, कभी बाबा के साथ वार्तालाप करने लगती थी। बाबा मेरे साथ चिटचैट भी करते थे तो योग में बहुत मजा आने लगा।
प्रश्नः आप ईश्वरीय सेवाओं में किस तरह सहयोगी रही?
उत्तरः ज्ञान में आने के चार सालों के बाद सन् 1979 में मैं भारत आयी। उस समय मैं भारत में चार महीने रही। उस समय के अनुभवों को मैं जीवन में भूल नहीं सकती। बहुत विचित्र अनुभव हुए। उसके बाद मैं घर वापिस गयी। सन् 1980 में बार्बाडोस गयी। वहाँ कुछ दिन रही। इन चार-पाँच वर्षों के दौरान मैं लौकिक नौकरी भी करती थी और बाबा की सेवा में भी पूर्ण रीति से भाग लेती थी जैसे प्रदर्शनियों में जाना, भाषण आदि करना, गणमान्य व्यक्तियों से मिलना इत्यादि। बार्बाडोस में जितने दिन मैं सेन्टर पर रही, वे दिन मेरे लिए ट्रेनिंग के दिन रहे। वहाँ मैंने बहुत कुछ सीखा। योग का फाउण्डेशन बहुत मज़बूत हुआ। उस अवधि में मुझे बाबा ने यह अनुभव कराया कि परमात्मा ही मेरे जीवन का सहारा है, आधार है, समर्थक है, पोषक है। मैं जीवन में घर के बाहर अकेली कभी नहीं रही थी। वह मेरा पहला अनुभव था कि मैं अपने लौकिक वालों से दूर रही। इस अनुभव ने मुझे जीवन में हिम्मत, साहस और स्वावलंबन सिखाया। यह मेरे जीवन में बहुत बड़े महत्व का समय था, टर्निंग प्वाइंट (संक्रान्ति काल) था। सेवा का क्षेत्र बहुत अच्छा रहा। आरम्भ में बहुत विरोध था। बाद में सब बहुत-बहुत सहयोगी रहे। मीडिया से बहुत मदद मिलती रही।
प्रश्नः शुरुआत में किस तरह का विरोध वहाँ होता रहा?
उत्तरः बार्बाडोस क्रिश्चियन देश है। मेडिटेशन सीखना माना वहाँ के लोग समझते थे कि यह भारत की पद्धति है। ये लोग हमारे देश में भारत का प्रचार करने आये हैं। क्रिश्चियन धर्म की बातों के अलावा वहाँ और किसी भी बात के प्रचार का विरोध करते हैं। लेकिन मीडिया के लोगों ने हमें बहुत सहयोग तथा समर्थन दिया, उन्होंने मीडिया द्वारा प्रचार किया। रेडियो और अख़बारों में ‘थॉट फॉर टुडे’ (आज का सुविचार), और ‘जस्ट ए मोमेन्ट’ (एक पल) रोज़ प्रसारित और प्रकाशित होते थे। लोग ब्रह्माकुमारियों को जानने लगे। टीवी और रेडियो वाले अपने यहाँ भेंटवार्ता के लिए बुलाते रहे। लोग जानने लगे कि ब्रह्माकुमारियों के विचार श्रेष्ठ हैं, उनका मेडिटेशन दैनिक जीवन के लिए ज़रूरी है। फिर लोग फोन आदि करते रहे, हमारे पास आते रहे। सेवा चल पड़ी। बहुत लोग सम्बन्ध-सम्पर्क में आ गये।
उन्हीं दिनों मैं जमैका भी जाया करती थी। वहाँ भी सन् 1980 में सेन्टर खुल गया। तब तक आठ साल हो गये थे बार्बाडोस आये हुए। फिर सन् 1989 में मैं कैनेडा गयी। कैनेडा बहुत अच्छी जगह है। बहुत शान्त और लोकोपकारी लोगों का स्थान है। वहाँ के लोग शान्ति और सद्भावना को बहुत महत्त्व देते हैं। उनमें अपने ही कुछ धार्मिक विश्वास हैं लेकिन विशाल मनोभावना वाले हैं। दस सालों से मैं वहाँ के लोगों को देख रही हूँ, वे आध्यात्मिकता और मेडिटेशन के बारे में बहुत आसक्त हैं। उनकी भारत के बारे में बहुत अच्छी भावना है, पूज्य भावना है। वे भारत के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।
सेन्टर पर नियमित रूप में आने वाले और हर रविवार आने वाले बाबा के लगभग सौ बच्चे हैं और सम्बन्ध सम्पर्क में रहते हुए राजयोग का अभ्यास करने वाले भी लगभग सौ बच्चे हैं। कुल दो सौ राजयोगी हैं।
बाहर वालों के साथ भी हम बहुत सेवा करते हैं जैसे सर्वधर्म सम्मेलन आदि। वे अपने कार्यक्रमों में हम को बुलाते हैं और हम उन को बुलाते हैं। ब्रह्माकुमारियों को वहाँ के अन्य धर्म वाले बहुत सम्मान की नज़र से देखते हैं। मैं बाहर स्कूलों में भी जाती हूँ, वहाँ स्टूडेण्ट्स को मेडिटेशन सिखाती हूँ। वहाँ हमारे टीवी कार्यक्रम, रेडियो कार्यक्रम भी होते हैं।
प्रश्नः इस ईश्वरीय शिक्षा के चार विषयों में आपका पसन्दीदा विषय कौन-सा है?
उत्तरः मुझे मेडिटेशन बहुत अच्छा लगता है, आइ लव मेडिटेशन। मुझे शान्ति बहुत अच्छी लगती है। मैं गहन शान्ति में रहना, इस स्थूल दुनिया से पार, परलोक में रहना बहुत पसन्द करती हूँ। राजयोग मेडिटेशन आत्मा को शान्ति के लोक में ले जाता है, आत्मा को शान्ति में डुबो देता है। बचपन में भी मैं एकान्त में बैठती थी। छुट्टी के समय सब बच्चे स्कूल में खेलपाल में व्यस्त रहते थे तो मैं एकान्त में जाकर शान्ति में बैठी रहती थी। घर में भी मैं ज़्यादातर शान्ति में बैठा करती थी। मेडिटेशन के साथ-साथ मैं धारणा को भी बहुत महत्त्व देती हूँ। अन्य आत्माओं के साथ कैसे व्यवहार करें, जीवन मूल्यों को कैसे अपनायें, जीवन के प्रति आदर भावना कैसे रखें, ऐसी बातों को धारणा ही सिखाती है। इसलिए मैं धारणा के विषय को भी बहुत पसन्द करती हूँ। बाक़ी सेवा तो ब्राह्मण जीवन में एक सहज और अनिवार्य प्रवृत्ति है। उसको भी मैं ख़ुशी-खुशी से करती हूँ। ज्ञान तो इन सब विषयों का फाउण्डेशन है ही।
प्रश्नः बाबा के साथ के सर्व सम्बन्धों में आपका पसन्द का सम्बन्ध कौन-सा है?
उत्तरः पिता, माता और मित्र। लौकिक जीवन में भी इन तीनों के साथ हमारे रिश्ते बहुत गहरे होते हैं। भगवान के साथ अगर हम मात-पिता का सम्बन्ध निभाते हैं तो हमारी हर बात पर उनका हक रहता है। हम उन्हें हक से हर बात बता सकते हैं और उनसे आशीर्वाद पा सकते हैं। मित्र के सम्बन्ध से हम उनसे राय ले सकते हैं, काम करा सकते हैं, सदा साथ रह सकते हैं, वार्तालाप कर सकते हैं। इन तीनों से प्रेम के प्रकम्पन मिलते हैं, साथ देने का भरोसा मिलता है।
प्रश्नः सुनने में आता है कि डबल विदेशी भाई-बहनों को साकार बाबा के साथ बहुत अनुभव होते हैं, क्या आपको भी हुए हैं?
उत्तरः मैं जब भी साकार बाबा का चित्र देखती हूँ, मुझे यह अनुभव होता है कि ब्रह्मा बाबा की आँखें मुझे कुछ कह रही हैं। ख़ास तौर पर, जब मैं जमैका में अकेली थी, उस समय मुझे अनुभव होता था कि बाबा मेरे आस-पास है, मेरे आगे-पीछे है। मेरी रक्षा कर रहा है। ऐसा भी अनुभव होता था कि बाबा रोज़ मुझे अमृतवेले उठाता है और योग कराता है। अमृतवेले का योग बहुत शक्तिशाली होता था। जब बार्बाडोस में थी, उस समय भी साकार बाबा की बहुत रक्षा पायी। एक दिन मुझे बहुत डर लग रहा था। मैं अकेली थी सेन्टर पर। मेरा पहला-पहला अनुभव था घर छोड़कर अकेले रहने का। तब मैं बाबा के कमरे में जाकर बैठ गयी। मुझे ऐसा अनुभव होने लगा कि साकार बाबा आकर मेरे पास खड़े हो गये हैं और कहने लगे, बच्ची, क्यों डर रही हो? तुम्हारे साथ बापदादा हैं ना! तुम सर्वशक्तिवान के साथ हो, डरने की कोई बात नहीं। इस प्रकार, ब्रह्मा बाबा के तन द्वारा शिव बाबा ने बहुत सारे अनुभव कराये हैं।
प्रश्नः आप पहली बार अव्यक्त बापदादा से कब मिलीं ?
उत्तरः सन् 1979 में। जब मैं बाबा के सामने खड़ी हुई तो बाबा ने सबसे पहले यही पूछा कि आप का क्या लक्ष्य है, आगे आप क्या करना चाहती हो? मैंने तुरन्त बापदादा को उत्तर दिया कि बाबा, मैं लौकिक और अलौकिक सेवा करना चाहती हूँ। क्योंकि मैं लौकिक नौकरी छोड़ना नहीं चाहती थी। बाबा ने कहा, ठीक है, बहुत अच्छा है। एक समय आयेगा कि लौकिक सेवा से अलौकिक सेवा ज़्यादा मूल्यवान लगेगी, तब आप ही लौकिक सेवा छोड़ देगी। आगे चलकर ऐसा ही हुआ। लेकिन मुझे बाबा के नयनों को देखने में बहुत मजा आता है। जब भी मैं अव्यक्त बापदादा से व्यक्तिगत रूप में मिलती हूँ, मैं बाबा की आँखें ही देखती रहती हूँ। उन आँखों में अजीब-सी कशिश होती है, अनगिनत राज़ छिपे रहते हैं। मन को ऐसा अजीब-सा, सुन्दर-सा अनुभव होता है कि उसका वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकती।
प्रश्नः आपके पूर्वज भारत में किस स्थान से वहाँ आये थे?
उत्तरः वे उत्तर प्रदेश से आये थे लेकिन उत्तर प्रदेश में किस स्थान से, मुझे पता नहीं है। बस, मुझे इतना याद है कि हम भारत के उत्तर प्रदेश से आये हुए हैं। मेरे दादा जी ने वेदों और शास्त्रों का अध्ययन किया हुआ था। वे हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेज़ी बहुत अच्छी बोलते थे और प्रवचन भी करते थे। वे भारत के अनेक धार्मिक स्थानों की यात्रा भी कर चुके थे।
प्रश्नः भारत की कुमारियों के लिए आप क्या कहना चाहती हैं?
उत्तरः मैं अपनी छोटी बहनों को यही कहना चाहती हूँ कि आज दुनिया में बहुत से आकर्षण हैं, सांसारिक सुख-सुविधायें हैं। युवाओं के मन में एक तरह का युद्ध चलता रहता है कि किस तरफ जाऊँ, आध्यात्मिकता की तरफ या भौतिकता की तरफ? अगर आप पढ़ाई कर रही हैं तो ऐसा नहीं समझना कि मैं पढ़ाई पूरी करके ज्ञानमार्ग में चलूँ। ऐसा नहीं करना, दोनों पढ़ाई साथ-साथ करो। लौकिक और अलौकिक पढ़ाई में सन्तुलन रखकर चलते चलो। अगर आप नौकरी भी करना चाहती हैं तो भी आपका ज़्यादा लगाव आध्यात्मिकता की तरफ ही रहे। अपना ज़्यादा समय ईश्वरीय सेवा, ईश्वरीय परिवार और बहनों के साथ ही बीते। अगर आप समर्पित होना चाहती हैं तो लौकिक तृष्णाओं को मत रखो। एक बाप के ही बल और भरोसे पर चलने का अभ्यास करो क्योंकि यह सबसे श्रेष्ठ जीवन है।
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