मेरा लौकिक नाम है, रीटा डेनिस लॉरेन्स। रीटा मेरी दादी माँ का नाम है। मेरी लौकिक फैमिली ब्रिटिश राज्य में कारोबार में शामिल थी। मेरे पिता जी हमें सुनाया करते थे कि हम वर्तमान ब्रिटिश महारानी के सम्बन्धी हैं। हमारा परिवार गाँव में रहता था। हमारी काफी ज़मीन थी, बहुत बड़ा मकान था। कृषि ज़मीन के साथ जंगल भी था। मैं बचपन के 3-4 सालों तक वहाँ रही, जो शहर से बहुत दूर था। मेरे पिता जी युनिवर्सिटी में रिसर्च का काम करते थे। जब मैं पाँच साल की थी तब मुझे फ्रांस भेजा गया। मेरी माँ फ्रेंच है। मेरी दादी माँ के रिश्तेदार और उनकी सहेलियाँ सब भारत के कलकत्ता में थे क्योंकि उस समय भारत में ब्रिटिश राजधानी कलकत्ता थी। मेरे दादा जी एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। नाना जी रसायनज्ञ (Chemist) थे। भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ी हूँ बाक़ी मेरे दो छोटे भाई हैं। मेरी कुछ पढ़ाई इंग्लैण्ड में हुई और कुछ फ्रांस में हुई। आप जानते होंगे कि कैथोलिक्स तथा प्रोटेस्टन्टों में बहुत दुश्मनी होती है। इन बातों को देख मुझे लगता था कि क्रिश्चियन धर्म ठीक नहीं है। दोनों एक ही धर्म के होकर आपस में लड़ते हैं, दुश्मनी करते हैं! इसलिए मेरा धर्मों में विश्वास कम हो गया था लेकिन परमात्मा के प्रति बहुत विश्वास तथा प्यार था। छोटेपन से ही मैं धर्म के बारे में बोलती थी कि धर्म में यह होना चाहिए, वह होना चाहिए। धर्मों के बारे में पुस्तकें भी बहुत पढ़ती थी। बचपन से ही मैं अकेली रही हूँ। जब गाँव में थी उस समय भी खेतों में अकेली घूमा करती थी; या तो संगीत बजाया करती थी या पुस्तकें पढ़ा करती थी। मैं रेजिडेंशियल स्कूल में पढ़ती थी। मेरी एक सहेली थी जिसका पिता ब्रिटिश सरकार में एक बड़ा व्यापारी था। वे जब भारत जाते थे तो भारत के वस्त्र, खिलौने आदि लेकर आते थे। मैं उन भारतीय वस्त्रों को पहनती थी तथा पगड़ी पहनकर कहती थी कि मैं भारतीय राजकुमार हूँ। मैं अपने को राजकुमारी नहीं, राजकुमार कहती थी। अभी तक भी मेरे में पुरुषों के ही संस्कार हैं। बचपन से ही मेरे में स्त्री संस्कार बहुत कम थे। मेरे जो भी खेल थे, लड़कों वाले ही थे। जब मैं 12 साल की थी तो मेरे पिता जी ने कहा कि लड़कों को (मेरे दो भाइयों को) अच्छे प्राइवेट स्कूल में पढ़ायेंगे और तुमको सरकारी स्कूल में पढ़ायेंगे। मैंने पूछा, क्यों? मैं क्यों सरकारी स्कूल में? पिता जी ने कहा, तुम तो लड़की हो, अच्छे स्कूल में पढ़कर क्या करोगी? उस समय से ही मुझे पता पड़ा कि समाज लड़कियों को दबाता है, उनको हीन दृष्टि से देखता है। तब से मैं महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment) के लिए सक्रिय हो गयी। महिला के प्रति समाज की नीची दृष्टि होने के कारण, मैं शादी भी करना नहीं चाहती थी। मैं समझती थी कि स्त्रियों को दबाने की पद्धति ठीक नहीं है, पुरुष-स्त्री में असमानता दिखाना ग़लत है। मैं कहती थी, वर्तमान सामाजिक पद्धतियाँ, बड़ों की मान्यतायें ठीक नहीं हैं। शारीरिक रूप से स्त्री, पुरुष से कम बलशाली हो सकती है लेकिन मानसिक रूप से, नैतिक रूप से किसी प्रकार की कमी उस में नहीं है। इसलिए मैंने हमेशा अपने को सबसे अलग ही रखा। उस समय की शिक्षा का पाठ्यक्रम भी मुझे अच्छा नहीं लगता था क्योंकि मुझे महसूस होता था कि यह शिक्षा मनुष्य का सर्वांगीण विकास करने वाली नहीं है। उन दिनों से ही मैं सोचती थी कि आध्यात्मिकता क्या है, आत्मा क्या है, परमात्मा का अस्तित्व कैसा है, समय की आयु कितनी है इत्यादि। डार्विन के विकासवाद को मैं नहीं मानती थी, मैं कहती थी कि यह सही सिद्धान्त नहीं है। जब मैं तेरह साल की थी तो मेरे जीवन में एक घटना घटी। एक बार मैं अपनी माता जी के साथ जा रही थी। उन दिनों इंग्लैण्ड में भारतीय बहुत थे क्योंकि भारत आज़ाद होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को वहाँ व्यापार करने के लिए बहुत छूट दी थी। वहाँ एक इंडियन रेस्टोरेन्ट था। वहाँ हमने जाकर भारतीय खाना खाया। वहाँ एक कपड़े की दुकान भी थी, जिसमें साड़ियाँ आदि इंडियन ड्रेस होती थी। मैंने माता जी से कहा कि मुझे साड़ी चाहिए, मैं पहनूंगी। उसने पूछा, क्यों? मैंने कहा, मुझे अच्छा लगता है, उसे पहनने की इच्छा हो रही है। फिर मैंने ड्रेस खरीदी और पहनने लगी। बहुत लोग एतराज़ करने लगे, यह क्या है? ऐसे ड्रेस क्यों पहन रही है? मैं कहती थी, आप नहीं जानते हो, ये ड्रेस बहुत अच्छी हैं, इसलिए आप चुप रहो। बचपन से ही मैं बहुत स्ट्रांग (कड़क) थी, इसलिए वे चुप हो जाते थे। मैं सिलाई भी बहुत अच्छी करती थी। कपड़े ख़रीदती थी और अपनी पसन्द अनुसार इंडियन ड्रेस बनाकर पहनती थी। इंडियन ड्रेस मैं रोज़ नहीं पहनती थी, विशेष दिनों में, छुट्टियों में पहनती थी। इंग्लिश ड्रेस जो शरीर को आधा ढकती हैं, मुझे पसन्द नहीं थी। शरीर को पूरा ढकने वाली इंडियन ड्रेस ही मुझे पसन्द थीं। सन् 1967-68 की बात है, मैं युनिवर्सिटी में पढ़ती थी, उस समय एक बार बीमार पड़ गयी, बिस्तर पर लेटी हुई थी। अचानक ध्यान में चली गयी। ध्यान में यह देखा कि मैं एक दूसरे शरीर में चली गयी थी। वो था एक भारतीय देवी का शरीर। जैसे देवी मंदिर में बैठी रहती है, उसको लम्बे-लम्बे बाल, चमकती हुई आँखें, मुस्कराता हुआ चेहरा; वैसे मैं भी उसी रूप में एक मन्दिर में बैठी हुई थी। इस अनुभव से मैं बहुत ही खुश हो गयी। मुझे यह भी विश्वास हो गया कि वास्तव में मैं यही हूँ। उस समय मेरी उम्र 17 साल की होगी। उन दिनों में ही मैं बहुत सोचती थी कि जीवन का अर्थ क्या है? समाज में इतना भ्रष्टाचार क्यों है? बड़े-बड़े स्थानों पर रहने वाले, समाज में बड़े प्रसिद्ध रहने वाले लोग इतना पाप कार्य, नीच कार्य क्यों करते हैं? मुझे आत्मा का ज्ञान तो पूरा नहीं था लेकिन इतना जानती थी कि मैं यह शरीर नहीं हूँ, हमारा पुनर्जन्म होता है क्योंकि ध्यान में मैंने अपने आपको देवी के शरीर में देखा था। इसलिए पुनर्जन्म में मुझे पूरा विश्वास था। एक बार मैं उत्तर अफ्रीका गयी। वहाँ बर्बर नामक आदिवासी लोग रहते हैं, जिनका शरीर नीला होता है। वह प्रदेश नशीली वस्तुओं तथा विविध कलायुक्त टाइल्स के लिए प्रसिद्ध है। एक दिन मैं पाँच मंज़िल के एक भवन में जाकर टाइल्स की कलाकारी देख रही थी। देखते-देखते वहीं मैं ध्यान में चली गयी। ध्यान में देखा कि एक बड़ा राजमहल था, वहाँ तरह-तरह के सुन्दर वस्त्रों में अनेक महिलायें थीं, वहाँ मैं एक रानी के शरीर में थी जो खूब गहनों से सजी हुई थी। राजमहल के सामने बहुत बड़ा बगीचा था। इन दो अनुभवों से मैं समझ गयी कि वास्तव में मैं यूरोप की नहीं हूँ, पूर्वी देश की हूँ इसलिए समय प्रति समय मैं अपने को ईस्टर्न बॉडी (पूर्वी देश वालों के शरीर) में देख रही हूँ। कुछ दिनों तक वहाँ रहकर, सहेलियों के साथ लन्दन लौटी। उस समय मैं बीबीसी (British Broadcasting Corporation) में काम करती थी। उसके बाद सी.बी.सी. (Canadian Broadcasting Corporation) में तीन साल काम किया। बीबीसी में समाचार कक्ष में थी और सीबीसी में दूरदर्शन विभाग में थी। यह थी सन् 1971-72 की बात। उन दिनों भारत से बहुत गुरु लन्दन आते थे। उनमें से महर्षि महेश योगी का बहुत नाम हो रहा था। मेरा भी योग सीखने का मन हो रहा था लेकिन महेश योगी सिखाने के लिए बहुत पैसे लेते थे। मैं मानती थी कि सत्य कोई बाज़ार में बिकने वाली चीज़ नहीं है। सत्य सब के लिए होता है और शाश्वत होता है, उसको बेचा नहीं जाता। तो मैंने समझा कि वह योग कोई सच्चा नहीं होगा, तब तो उसका व्यापार किया जा रहा है।
मेरी हस्तरेखा के अनुसार मेरी उम्र पच्चीस साल की थी। इसलिए मैं बहुत सादा जीवन जीया करती थी। मुझे विश्वास भी था कि मेरी आयु छोटी है। आश्चर्य की बात यह है कि मेरी तनख्वाह बहुत थी। सीबीसी में मुझे बहुत अच्छे पैसे मिलते थे। मैं सोच रही थी कि मेरे पास इतने सारे पैसे हैं, इनको किसी चैरिटेबल संस्था में दान करना चाहिए। वैसे सोचते-सोचते मैंने भगवान से कहा, हे गॉड, मैं जो हूँ, जैसी हूँ, आपकी हूँ। मेरे पास न सोना है, न चाँदी, जो हूँ आपकी हूँ। बाइबल में यह वाक्य है। जब मैंने यह बात कही तो मुझे लगा कि किसी ने मेरी बात सुन ली और स्वीकार कर ली। मैं सोचने लगी कि यह कौन है, कैसा है जिसने मुझे स्वीकार किया! मुझे उसको जानना है। मैं मन में कहने लगी कि आप कौन हो, कैसे हो, मुझे वैसे ही जानना है। तब मुझे अपने से लगभग चार फीट की दूरी पर एक छोटा-सा ज्योतिर्बिन्दु दिखायी पड़ा। मैं उसको देख रही थी। फिर मन में आ रहा था कि यह ज्योतिर्बिन्दु है या सूरज की रोशनी का प्रतिबिम्ब! कमरे के बीच में आकर वह बहुत ही चमक रहा था। देखने में बहुत सुन्दर लगता था और मुझे आकर्षित भी कर रहा था। मुझे लग रहा था कि वह मुझे देख-देख हँस रहा है। देखने में एक छोटा-सा प्रकाश का बिन्दु लेकिन मुझे लग रहा था कि वह कह रहा है कि मैं आया हूँ। मुझे यह अनुभव हो रहा था कि यह कोई वस्तु नहीं है, कोई व्यक्ति है परन्तु शरीर नहीं है। उससे चुम्बकीय लहरें तथा आनन्द की लहरें निकल रही थीं। वो लहरें बहुत शक्तिशाली थीं, उस बिन्दु को देख-देखकर मैं बहुत खुश हो रही थी। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या है! एक छोटा-सा प्रकाश का कण है लेकिन बहुत शक्तिशाली प्रकम्पनों के क्षेत्र वाला है! मैंने उससे कहा कि एक पादरी को भेजो जो मुझे इसका विवरण दे सके। उतने में दीवार की तरफ़ से एक व्यक्ति निकला। वो व्यक्ति बहुत ऊँचा था, लगभग बीस फीट। उसके लम्बे-लम्बे काले बाल थे, धीरे-धीरे ऊपर से उतर रहा था। वो भी मुझे शक्तिशाली नज़र से देख रहा था। उस व्यक्ति ने सफ़ेद वस्त्र पहने थे। वह देखने में इंडियन लगता था। मैंने सोचा, यह होगा मेरा आध्यात्मिक शिक्षक। लम्बे बाल और इंडियन चेहरा होने के कारण मैंने समझा कि यह कोई मेरा इण्डो-अमेरिकन टीचर होगा। वह व्यक्ति भी बहुत चमक रहा था और उससे भी आनन्द के प्रकम्पन फैल रहे थे। उसकी आँखें बहुत शक्तिशाली थीं। मैं सोचने लगी कि मेरे साथ कुछ हो रहा है तथा कुछ और भी होने वाला है। इतने में वह व्यक्ति कुछ देर के लिए अदृश्य हो गया। इस घटना पर मैं बहुत सोचने लगी।
इस घटना से पहले, पूरे एक साल तक मेरे दिमाग में एक आवाज़ आती रही कि हैलो, तुमको योगा टीचर बनना है। मैं आस-पास देखती थी लेकिन कोई नज़र नहीं आता था। मैं तो कमरे में अकेली रहती थी। फिर वही आवाज़ आती थी कि तुमको योगा टीचर बनना है। मैंने कहा, ठीक है लेकिन योगा क्या है? उसको मैं कहाँ से सीखें? एक साल से मैं योग के बारे में बहुत सोचा करती थी, उसके बारे में जानने की कोशिश कर रही थी। पूरे साल, रोज़ रात को मेरे सामने एक काग़ज़ आता था जो पूरा का पूरा लिखा हुआ रहता था। वह लिपि इंग्लिश नहीं थी, कोई दूसरी थी जिसको मैं नहीं जानती थी। मैं बहुत कोशिश करती थी उसको पढ़ने की क्योंकि मुझे लगता था कि यह मेरे लिए अति आवश्यक सूचना है। लेकिन उसको समझ नहीं पा रही थी। यह सब हो रहा था नींद में। जब मैं जागती थी तो वह काग़ज़ गायब हो जाता था। एक दिन वही लिखत इंग्लिश में बदल गयी। मुझे बहुत खुशी हुई और उसको पढ़ने की कोशिश की, फिर भी समझ में नहीं आयी। इन सब बातों को समझने के लिए प्रयत्न भी कर रही थी और मेडिटेशन के बारे में लोगों से पूछ भी रही थी। इसी दौरान मैंने हठयोग भी सीख लिया। किसी ने कहा कि मेडिटेशन सीखना है तो बुद्धिस्ट बनो। मैंने कहा, नहीं, मुझे बुद्धिस्ट नहीं बनना है। किसी ने कहा, राजयोग सबसे श्रेष्ठ है, उसको सीखो । किसी ने कहा राजयोग बहुत कठिन होता है। फिर भी मैंने सोचा कि मुझे राजयोग सीखना है। पातंजलि राजयोग की एक पुस्तक ले आयी और उसको पढ़ा। वो भी मुझे पसन्द नहीं आया। एक दिन आफ़िस में कोई मेरी टेबल पर एक छोटी-सी पर्ची रखकर गया। उसमें ये शब्द छपे हुए थे, ‘राजयोग’, ‘फोन नम्बर’ तथा ‘फ्री’। जब मैंने ‘फ्री’ शब्द देखा तो लगा कि यह राजयोग सच्चा है। उसी दिन एक बड़ी ख़बर आयी कि एक विमान का अपहरण हो गया। लोगों में बहुत हलचल थी। आफ़िस के सब लोग शराब पीने गये थे, मैं अकेली बैठी थी। मुझे हेलिकॉप्टर भेजना था, रिपोर्टरों को भेजना था, सब बहुत जल्दी-जल्दी करना था। उस समय कम्प्यूटर, वीडियो कैमरा आदि नहीं थे, सब समाचार प्राप्त करना और भेजना टेलैक्स मशीन से होता था। इस पर्ची को मैंने अपने टेलीफोन के नीचे रखा। ऑफिस का काम पूरा होने के बाद, मैंने उस पर्ची में छपे फोन नंबर पर फोन किया और पूछा, क्या आप राजयोग सिखाते हैं? उन्होंने कहा, हाँ। क्या यह फ्री है? उन्होंने कहा, हाँ, फ्री है। मैंने पूछा, मैं कब आऊँ? उत्तर आया, आज ही आओ। लेकिन उस दिन विमान अपहरण के कारण आगे भी 4-5 दिनों तक राजयोग सीखने जाना ही नहीं हुआ, बहुत व्यस्त रही। उसके बाद मैं सेन्टर ढूँढ़ने निकली। वहाँ का राजयोग सेन्टर ऐसे स्थान पर था, जहाँ छोटे-छोटे एक ही जैसे मकान थे। वह आइरिश प्रदेश था जहाँ मैं कभी नहीं गयी थी। मकान ढूँढ़ने में देर हो गयी। उन्होंने जो समय दिया था, उस समय पर नहीं पहुँच पायी। वहाँ के सब रास्ते भी एक जैसे होने के कारण आश्रम ढूँढ़ने में मुझे मुश्किल हो रही थी। वे थे रेलवे कर्मचारियों के क्वार्टर्स। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं कहाँ ढूँढूँ? उतने में मुझे अगरबत्ती की सुगन्ध आयी। उसका मैंने अनुसरण किया सा दरवाज़ा था जिस पर लिखा था, ‘ज्योति निवास’। ब्रह्माकुमारीज़ का कोई बोर्ड या कोई संकेत नहीं था। दरवाज़ा खटखटाया तो एक छोटी-सी, पतली-सी कुमारी ने दरवाज़ा खोला। मैंने उससे पूछा, क्या आप राजयोग सिखायेंगी? उसने कहा, हाँ, फिर अन्दर ले गयी, एक छोटा-सा कमरा था। उसमें एक दरी बिछायी हुई थी, और कोई फर्नीचर नहीं था। एक बड़ा चित्र था जिसमें एक लाल अण्डा, तीन सफ़ेद किरणें, जिनके ऊपर लिखा था शान्ति, पवित्रता, समृद्धि और एक राक्षस का हाथ और दुनिया । वह चित्र देखकर मैं सोचने लगी कि यह क्या है! वह बहन मुझे छोड़कर चली गयी, आधे घंटे तक आयी नहीं। पट पर बैठकर मैं वह चित्र देख रही थी। दूसरी तरफ़ एक और बहुत बड़ा चित्र था, विष्णु चतुर्भुज का। उसको देखकर मुझे लगा कि शायद मैं ग़लत स्थान पर आ गयी। लेकिन वायब्रेशन्स बहुत अच्छे लग रहे थे। उन चित्रों को देखना छोड़ दिया और वायब्रेशन्स के बारे में सोचने लगी कि ये कहाँ से आ रहे हैं, कैसे आ रहे हैं! उतने में वो बहन आयी और मेरे से पूछा कि आप किसलिए आयी हैं, क्या जानने के लिए आयी हैं? मैंने कहा, मेडिटेशन सीखने के लिए आयी हूँ। उसने पूछा, मेडिटेशन आप क्यों सीखना चाहती हैं? मैंने कहा, पता नहीं क्यों लेकिन मुझे मेडिटेशन सीखने की इच्छा हो रही है। मैं रेडी हूँ, आप मुझे सिखाओ। उन्होंने पूछा, आप भगवान को मानती हैं? मैंने कहा, भगवान को मानना या न मानना, यह तो व्यक्तिगत मामला है, इस का और मेडिटेशन का क्या सम्बन्ध है? मेडिटेशन सिखाने के लिए वह बहन तैयार ही नहीं थी। उसने कहा, पहले आप यह बताओ कि आप भगवान पर विश्वास करती हैं या नहीं? तो मैं साइलेन्स में चली गयी। क्या उत्तर दूँ, इस सोच में डूब गयी। फिर पाँच मिनट के बाद मैंने कहा, हाँ, भगवान को मानती हूँ। जैसे ही मैंने ‘हाँ’ कहा, ऐसा लगा जैसे कि मैंने स्विच ऑन कर दिया। उस बहन ने पूरे पचपन मिनटों में आत्मा का पूरा पाठ सुना दिया, वो भी पूरी रफ़्तार से। मुझे लगा कि ज़िन्दगी में आज पहली बार मैं एक बुद्धिमान महिला (First intelligent women) से मिली। क्योंकि सालों से मैं जिन बातों के बारे में सोच रही थी, उन सब बातों को इन्होंने मुझे बता दिया। आत्मा क्या है, मन क्या है, बुद्धि क्या है, संस्कार क्या है, मन और शरीर का क्या सम्बन्ध है, पुनर्जन्म कैसे होता है, आत्मा शरीर में कैसे आती है, शरीर से कैसे जाती है इन सब बातों को उन्होंने बिना रुके लगातार, बड़ी रफ़्तार से सुनाया था। मैं सोच रही थी कि मैं अपने को ही बहुत बुद्धिमान समझ बैठी थी, यह तो मेरे से भी बहुत बुद्धिमान है! उस लेडी को देख मुझे बहुत खुशी हो रही थी। वो थी जयन्ती बहन। फिर उन्होंने कहा कि अभी मेडिटेशन करना है। मेडिटेशन में वो मुझे देखने लगीं और मैं उनको देखने लगी। थोड़े समय के बाद उन्होंने कहा, कल आना। अगले दिन उसी समय मैं वहाँ पहुँची। उस दिन उन्होंने परमात्मा के बारे में बताया। उन्होंने कहा, परमात्मा का नाम बाबा है। मैंने कहा, यह नाम परमात्मा का नहीं हो सकता क्योंकि उन दिनों एक कार्टून की पुस्तक निकली थी, जिसमें ‘बाबा’ एक हाथी का नाम था। मैंने कहा, भगवान कहाँ, एक हाथी कहाँ! गॉड का नाम ‘बाबा’ नहीं हो सकता। फिर उन्होंने कहा, गॉड का नाम शिव है। मैंने कहा, हाँ, शिव ठीक है। उसके बाद उन्होंने कहा, गॉड आ गया है (God has come)। मैंने कहा, प्लीज़ एक मिनट ठहरिये। एक बड़ी बात आप कह रही हैं, प्लीज़ धीरे-धीरे बोलिये क्योंकि, यहाँ आने से पहले, मेरे मन में बार-बार यह संकल्प आता था कि थोड़े समय के अन्दर भगवान मेरे पास आने वाला है। लेकिन मुझे बड़ी चिन्ता हो रही थी क्योंकि मुझे बताया गया था कि परमात्मा गुप्त वेष में आता है। तो उसको कैसे पहचानें! उसको मैं पहचानूँगी या नहीं? जब उन्होंने कहा कि भगवान आ गया है तो मैं हैरान हो गयी इसलिए मैंने कहा, थोड़ा रुकिये। फिर उन्होंने कहा, परमात्मा सर्वव्यापी नहीं है। मैंने कहा, वो कौन मूर्ख है, जो समझता है कि परमात्मा सर्वव्यापी है! परमात्मा सर्वव्यापी हो ही नहीं सकता। मेरी बात सुनकर जयन्ती बहन को बहुत आश्चर्य हुआ। फिर उन्होंने परमात्मा के बारे में बताया। करेक्ट 55 मिनट में इस पाठ को भी पूरा किया। फिर वे मुझे देखने लगीं और कहने लगीं कि अभी मेडिटेशन करना है। मेडिटेशन करना शुरू किया तो मैं लाइट ही लाइट की दुनिया में चली गयी। अनुभव हो रहा था कि मैं आत्मा लाइट स्वरूप हूँ, प्रकाश स्वरूप हूँ, शान्त स्वरूप हूँ। मेडिटेशन के बाद उन्होंने कहा कि कल आपको एक योगी से मिलाऊँगी। मैं सोचने लगी कि क्या मुझे योगी से मिलायेंगी! मुझे बहुत ख़ुशी भी हो रही थी और आश्चर्य भी हो रहा था कि मैं योगी से मिलने वाली हूँ। योगी तो बहुत बड़ी हस्ती होती है ना! अगले दिन का पाठ था सृष्टिचक्र के विषय पर। मुझे दूसरे कमरे में लेकर गयीं। वहाँ दादी जानकी जी योग में बैठी थीं। ये वही थीं जो उस दिन मेरे कमरे में दीवार से उतरी थीं। मैंने तुरन्त पहचान लिया, यह अमेरिकन-इंडियन वुमन नहीं है, यह तो इंडियन वुमन (भारतीय महिला) है। मुझे पता ही नहीं पड़ा कि मैं उनके सामने जाकर कब बैठ गयी थी। दादी जानकी जी मुझे दृष्टि दे रही थीं, उनसे बहुत पॉवर आ रही थी। दादी जी के मस्तक से एक फुटबॉल जितना प्रकाश का गोला निकलते हुए मुझे दिखायी पड़ा। वो प्रकाश का गोला बहुत तेज़ था और जैसे कि वह उड़ रहा था। दादी से मेरे अन्दर एक बहुत पॉवरफुल एनर्जी प्रवाहित हुई। मुझे समझ में नहीं आया कि यह क्या हो रहा है! वो मुझे देख रही थीं और मैं उनसे दृष्टि ले रही थी। थोड़े समय के बाद उनसे ही दूसरा एक प्रकाश का गोला निकला। वो भी उड़ रहा था, उसने मेरे में प्रवेश किया। मुझे अनुभव हो रहा था कि मैं जो थी, अभी वो नहीं हूँ, मैं दूसरी बन गयी हूँ, जैसे मेरी सारी पहचान ही बदल गयी है, दूसरा जन्म हो गया है। इसके बाद मैं अपने निवास स्थान पर चली गयी। मैं समझ गयी कि ये ही मेरे लोग हैं। अगले दिन भी मैं उनके पास गयी लेकिन सफ़ेद साड़ी पहनकर। वे लोग मुझे देखकर हँसने लगे कि ये क्या है! शायद मैंने उन वस्त्रों को ठीक ढंग से नहीं पहना होगा, इसलिए उनको हँसी आ गयी होगी। फिर उन्होंने दूसरी साड़ी दी। दो दिन के बाद फिर मैं गयी तो वहाँ पर कोई नहीं था, दादी जी कहीं गयी हुई थीं। मैं अकेली वहाँ बैठी थी। फिर से वहाँ वही आवाज़ आयी कि ‘आइ एम ऑफरिंग यू पॉवर, वॉट यू वांटेड’ (मैं तुमको वो शक्ति प्रदान करना चाहता हूँ, जो तुम चाहते थे)। मैं इधर-उधर देखने लगी, वहाँ कोई नहीं था। दूसरी बार भी वही आवाज़, वे ही शब्द सुनायी पड़े। मैं सोचने लगी कि ये कौन है जो मुझे शक्ति प्रदान करना चाहता है? यहाँ तो कोई नहीं है। तीसरी बार भी वही आवाज़ थोड़ी ज़ोर से आयी कि मैं तुमको शक्ति प्रदान करना चाहता हूँ। मैंने कहा, ठीक है। मुझे कुछ खोना तो नहीं है, मैं तैयार हूँ। उस दिन से मैं ब्रह्माकुमारी बन गयी। उस दिन से जो भी ईश्वरीय नियम हैं तामसिक खान पान त्यागना, शाकाहार को स्वीकार करना, रोज़ मुरली क्लास में आना, अमृतवेले योग करना आदि का अनुसरण करना शुरू किया। मुरली क्लास में मैंने देखा, दादी जानकी जी मुरली पढ़ रही थीं। वो मुरली वही थी, जो मेरे स्वप्न में लम्बा सा काग़ज़ आता था जिस भाषा को मैं पहचान नहीं पा रही थी। जयन्ती बहन मुरली का अनुवाद करके बताती थी, मैं उसको नोट करती थी। एक दिन मुझे तीन लाइन की इंग्लिश मुरली मिली। मैं सोच में पड़ गयी कि उनको तीन पेज की मुरली मिलती है, हम इंग्लिश वालों को तीन लाइन की मुरली मिलती है, यह कैसे हो सकता है! भगवान के कौन-से वाक्य मूल्यवान नहीं हैं जिनको इन्होंने छोड़कर हमें सिर्फ तीन लाइन में दिया है! मुझे खूब रोना आया। मैंने दादी जी से कहा, दादी, मुझे हिन्दी समझ में नहीं आती, अंग्रेज़ी में देखा तो इतनी छोटी मुरली! मुझे तो पूरी मुरली सुननी है। दादी ने कहा, अच्छा, तुम हिन्दी सीखो तो मैं साथ-साथ हिन्दी भी सीखने लगी। उसके बाद उसी साल सन् 1974 में लगभग छह महीने के अन्दर मैं मधुबन आयी। हवाई जहाज से उतरकर जब पहली बार मैंने भारत की भूमि का स्पर्श किया तो मुझे ऐसा शक्तिशाली अनुभव हुआ कि मेरा घर आ गया, मैं अपने घर पहुँच गयी। लौकिक में ही बहुत समय से मैं इंडिया आना चाहती थी लेकिन अकेले आने की हिम्मत नहीं थी। भारत की मिट्टी की खुशबू, वायुमण्डल ऐसा अनुभव होने लगा कि मैं अपने मूलस्थान पर पहुँच गयी। मधुबन आने के बाद मैं जगदीश भाई, बृजमोहन भाई, निर्वैर भाई और आशा बहन आदि, जो अंग्रेजी जानते थे, उनसे मिली। बड़ी दीदी को खिलौने बहुत अच्छे लगते थे। जब उन्होंने मुझे देखा तो मुझे विदेश का एक चैतन्य खिलौना समझा। हर दो दिनों में अव्यक्त बापदादा हिस्ट्री हॉल में या बाबा के कमरे में आते थे। उस समय मेडिटेशन हॉल बना नहीं था। पहली बार जब मैं बापदादा से मिली तो साथ में जयन्ती बहन थी। मुरली के बाद मुझे बाबा को अर्पित किया गया। बाबा ने कहा, यह है जयन्ती (जयन्ती बहन को) और यह है विजयन्ती (मेरे को कहा)। बापदादा ने मुझे ‘विजयन्ती’ नाम दिया। मैं तो बापदादा के बहुत नज़दीक बैठी थी। गुलज़ार दादी के तन में बापदादा को प्रवेश करते हुए सूक्ष्म रूप में मैंने देखा। फिर मैंने तीन महीने भारत की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान मद्रास, हैदराबाद, लुधियाना, अमृतसर, देहली तथा मुंबई गयी थी। बीच-बीच में मधुबन भी आती थी। तीन महीने के बाद मधुबन आयी और बाबा से मिलकर वापिस लन्दन गयी। मधुबन आते समय सीबीसी वाले तीन महीने की छुट्टी नहीं दे रहे थे तो मैंने नौकरी के लिए इस्तीफा दे दिया था। जब वापिस गयी, तो मैंने दादी जानकी से कहा कि मुझे भी समर्पित होकर सेन्टर पर रहना है। दादी ने कहा, नहीं, यह नहीं हो सकता। मैंने पूछा, क्यों नहीं हो सकता? दादी ने उत्तर दिया कि विदेशी लोग समर्पित होकर सेन्टर पर नहीं रह सकेंगे। मैंने कहा, आप रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं रह सकती? मैं रहकर दिखाऊँगी। फिर भी दादी जी मानी नहीं। मैंने एक युक्ति रची। उस समय लन्दन में रमेश भाई, उषा बहन, दादी रतनमोहिनी जी तथा न्यूयार्क से मोहिनी बहन आये थे। मोहिनी बहन को जर्मनी से निमंत्रण आया था। यह मौका देखकर मैंने दादी से कहा कि दादी जी, आपकी संस्था में मैं एक ही व्यक्ति हूँ जो जर्मन जानती हूँ। इसलिए आपको मुझे भेजना पड़ेगा। फिर दादी ने मुझे और सूरत की लता बहन को जर्मनी भेजा। जर्मनी में लता बहन के साथ एक साल रही। मुझे मधुबन आना था तो वहाँ से आ गयी। फिर मैं मधुबन से दादी जानकी के साथ लन्दन गयी और 4-5 माह उनके साथ रही। सेवा के लिए दूसरा निमंत्रण मिला कैनेडा से। यह भी मोहिनी बहन को ही मिला था। वहाँ चन्द्रा बहन को जाना था। वहाँ भी फ्रेंच भाषा चलती थी और मुझे फ्रेंच भाषा आती थी तो दादी ने मुझे उनके साथ भी जाने के लिए कहा। कैनेडा में बहुत बर्फ गिरती है, बहुत ठंड होती है। जब हम दोनों गयीं तो चन्द्रा बहन बीमार पड़ गयी तो उनको मॉरिशिस भेजा गया। फिर मेरे पास चन्दु बहन आयी। हम दोनों ने वहाँ तीन साल सेवा की। हर साल मैं बाबा से मिलने मधुबन आती थी। कैनेडा में सेन्टर के लिए जगह नहीं मिल रही थी क्योंकि उस समय कैनेडा में रंगभेद बहुत था। काले और गोरे एक ही स्थान पर रह नहीं सकते थे। इसलिए हमें मकान नहीं मिल रहा था। ग्याना की एक बहन ने एक फ्लैट ख़रीद करके दिया लेकिन वह शहर से लगभग 50 मील दूर था। वहाँ सेवा भी नहीं हो रही थी और हमारे पास पैसा भी ख़त्म हो गया था। क्या करें? हमने एक प्लॉन बनाया कि एक कार लेंगे, सारे अमेरिका का टूअर करेंगे। उस समय देहली में ‘मानव दिव्यीकरण’ सम्मेलन होने वाला था। हमने यह भी सोचा कि उस सम्मेलन के लिए अमेरिका से गणमान्य व्यक्तियों को ले जायेंगे। जयन्ती बहन का एक रिश्तेदार था रमेश नाम का, उनसे कहा कि हमें एक गाड़ी चाहिए। उन्होंने लाइसेन्स पूछा। मैंने फिर एक हफ़्ते के अन्दर ड्राइविंग सीखी और लाइसेन्स भी लिया। तो उन्होंने एक पुरानी बड़ी कार ख़रीद करके दी। उस कार को स्टार्ट करने के लिए दूसरी गाड़ी से धक्का लगाना पड़ता था। अमेरिका टूअर पर जाने के लिए सारी तैयारियाँ हो गयीं और हम निकल पड़े। उस समय क्रिसमस के दिन चल रहे थे। जब हम निकल पड़े तो बहुत बारिश पड़ना, बिजली गिरना और आँधी-तूफ़ान चलना शुरू हो गया। अमेरिका के उत्तर भाग की तरफ़ हम 500 कि.मी. चले गये। वहाँ बार्डर आता है। वहाँ हमें रोक दिया गया। छह घंटे तक हमें रुकना पड़ा क्योंकि हमारे पास न्यूयार्क जाने के लिए वीज़ा नहीं था। वहाँ से न्यूयार्क 500 मील पर था। रात हो चुकी थी। वह पहाड़ी इलाका था। हम बाबा की याद में गाड़ी में बैठे हुए थे। हमें अनुभव हो रहा था कि बाबा हमारे पास आये हैं। उतने में मौसम भी बदल गया, आँधी-तूफ़ान, बिजली-बरसात बन्द हो गये। हम निकल पड़े। मैं अकेली ही ड्राइविंग करती थी। दादी को मैंने फोन किया कि अभी क्या करें? उन्होंने कहा, आगे बढ़ो। चन्दु बहन तो डाइविंग नहीं जानती थी। अमेरिका का यह टूअर लगभग एक महीने तक चला। इस दौरान हमने अनेक शहरों में बाबा की सेवा करने की कोशिश की, जैसे न्यूयार्क, अट्लान्टा, फिल्डेल्फिया आदि। यह सन् 1977 की बात है। इस टूअर में हमने बहुत-से अनुभव किये। हम रेगिस्तान से जा रहे थे। सर्दी के दिन तो थे ही। मैं सुबह दो बजे से गाड़ी चलाना शुरू करती थी तो सारा दिन और रात तक ड्राइविंग करती थी। उस दिन मुझे बहुत थकावट हो गयी। मैंने चन्दु बहन को बोला, आप धीरे-धीरे चलाते रहो, 15-20 मिनट मैं थोड़ा रेस्ट लेती हूँ। मैं पीछे की सीट पर सो गयी। उस समय बर्फ भी गिर रही थी। गाड़ी जब एक पुल के पास आयी तो गाड़ी के पहिये बर्फ पर फिसलने लगे, पहिये स्किड होने लगे। जब स्किड होता है तब कैसे गाड़ी को नियंत्रण किया जाता है, यह चन्दु बहन को पता नहीं था। उसने तो इसी टूअर में ड्राइविंग सीखी थी। उतने में मैं भी जाग गयी। हम दोनों ने देखा कि बाबा ने आकर स्टियरिंग पकड़ कर गाड़ी फिसलने से रोक दी। इन आँखों से ही हम बापदादा को देख रहे थे। गाड़ी रुकी और बाहर उतरकर देखा तो जहाँ हमारी गाड़ी फिसल रही थी, उससे दो इंच आगे लगभग 20 फीट गहरा खड्डा था। हमें महसूस हुआ कि बाबा ने हमें बचा लिया। इस तरह से इस टूअर में बाबा की मदद का बहुत अनुभव हुआ। फिर सुबह आठ बजे तक हम न्यूयार्क पहुँच गये। मैं तो काफ़ी थक गयी थी। वहाँ के गुजराती और सिन्धी परिवार वालों के साथ एक-दो दिन रहकर बाबा का सन्देश देते आगे बढ़ते चले। क्रिसमस का समय होने के कारण हमारे कार्यक्रम में कोई आते नहीं थे, इसलिए हमें दूसरे स्थान पर जाना पड़ा। हम पूर्व दिशा में गये। हमें कैसे भी करके अमेरिका में बाबा की सेवा करनी थी। इसलिए कभी किसी पहचान वालों के घर में, कभी गुरुद्वारे में, कभी हिन्दुओं के मंदिरों में रहते थे। आखिर हमने वहाँ एक फ्लैट खरीद लिया सेवास्थान स्थापित करने के लिए। मैं अमेरिका में सन् 1977 से सन् 2000 तक रही। सैनफ्रान्सिस्को में पाँच साल रही। लॉस ऐन्जेलिस में सन् 1982 से 2000 तक बारह साल रही।
प्रश्नः पहली बार जब आपने ईश्वरीय सेवा करना शुरू किया, उस समय का क्या अनुभव था ? उत्तरः सबसे पहले मैंने जर्मनी में सेवा करना शुरू किया। उस समय वहाँ के लोग हमें नफ़रत की नज़र से देखते थे। हमारी बातें सुनने के लिए तैयार नहीं थे। हमें तो नशा था कि भगवान आया हुआ है, हम विश्व को स्वर्ग बना रहे हैं, बेचारे इन लोगों को कुछ पता ही नहीं है। जब हम रोड पर जाते थे तो लोग हमारे से दूर होकर जाते थे। एअरपोर्ट में बैठे रहते थे तो हमारे पास कोई नहीं बैठता था। हमें कोई अलग पंथ वाले समझते थे। हमारे साथ वहाँ के लोग बात तक नहीं करते थे। मैं और लता बहन मिलकर वहाँ अपने लिए मुरली पढ़ते थे, बाबा के लिए भोग बनाते थे और योग करते थे, और कोई काम नहीं था।
प्रश्नः ईश्वरीय ज्ञान पाने के बाद, इस जीवन के नियम-मर्यादाओं को स्वीकार करने में, उन पर चलने में आपको मुश्किल नहीं हुई?
उत्तरः नहीं। क्योंकि मैं पश्चिमी जीवन से पहले ही तंग थी, वो जीवन मुझे स्वीकार्य नहीं हो रहा था। यह जीवन मुझे अच्छा लगा और इसमें मुझे सहज और आराम का अनुभव हुआ इसलिए मैंने तुरन्त उस जीवन-पद्धति को छोड़, ईश्वरीय जीवन पद्धति को अपनाया। मुझे ईश्वरीय ज्ञान, योग, धारणा, सेवा, ब्रह्माकुमारी बहनें, ब्रह्माकुमारियों की जीवन-पद्धति सब अच्छे और सच्चे लगे।
प्रश्नः भारतवासियों के लिए आपका क्या सन्देश है?
उत्तरः भारतवासियों के लिए मैं यह कहना चाहती हूँ कि वे अपनी पुरानी अवधारणाओं को, अन्धश्रद्धाओं को छोड़ दें। आपके सामने जो सत्य खड़ा है, उसको देखो तथा स्वीकार करो। थोड़े समय तक अपनी पूर्वावधारणाओं को थोड़ा किनारे रखकर, ईश्वरीय ज्ञान सुनें, समझें। परमात्मा भारत में ही आया हुआ है, भारत को ही स्वर्ग बना रहा है, उसको समझो। ईश्वरीय ज्ञान समझने से आपका भाग्य खुल सकता है, इस सुअवसर को गँवायें नहीं। आपके राज्य का क्या हाल है? त्रिमूर्ति शक्तियाँ (मन की शक्ति, बुद्धि की शक्ति और संस्कार की शक्ति) ठीक हैं? मन अपनी मनमत पर चलावे, बुद्धि अपनी निर्णय शक्ति की हलचल करे, संस्कार आत्मा को भी नाच नचाने वाले हो जायें तो इसको क्या कहेंगे? एक राज्य, एक धर्म नहीं कहेंगे ना!
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