Dadi dhyani anubhavgatha

 दादी ध्यानी  – अनुभवगाथा

आपने भी यज्ञ में बहुत विशेष पार्ट बजाया। आपका लौकिक नाम ‘लक्ष्मी देवी’ था। ध्यान में जाने के कारण आपका नाम ध्यानी पड़ा। कल्पवृक्ष की जड़ में विराजमान आठ रत्नों में आप भी शामिल हैं। बहुत मीठे स्वभाव की होने के कारण प्यारे बाबा ने आपका नाम ‘मिश्री’ रख दिया था। आप लौकिक में मम्मा की सगी मौसी थीं। आप सदा एकरस, अचल अडोल रह, बहुत प्यार से सबकी पालना करती थीं। दिल्ली, अमृतसर, कानपुर आदि स्थानों पर ईश्वरीय सेवा करने के पश्चात्, आपने लंबे समय तक अंबाला में सेवायें दी। आप तबीयत के कारण सन् 1979 में मधुबनवासी बन गये थे। दशहरे के दिन पुराना शरीर त्याग आप वतनवासी बनीं। 

अंबाला छावनी के ब्र.कु.शामलाल नरूला, ध्यानी दादी के बारे में अपने अनुभव इस प्रकार सुनाते हैं

सन् 1970 की बात है। मैं एक अध्यापिका विद्या माता के कहने पर सब्जी मण्डी, अंबाला छावनी स्थित ब्रह्माकुमारी आश्रम में गया। ध्यानी दादी से सारा ज्ञान समझा। प्रदर्शनी एवं सात दिन का कोर्स समझने के उपरांत ध्यानी दादी के साथ मैं बरामदे में पड़े बेंच पर बैठ गया। ध्यानी दादी ने पूछा, कैसा लगा यह ईश्वरीय ज्ञान? मेरा उत्तर था, दादी, मुझे जँचा नहीं, जैसे कि सारा कल्प ही पाँच हजार वर्ष का है आदि-आदि।

अविनाशी ज्ञान का बीज नाश नहीं

भले ही मैंने ध्यानी दादी को कह दिया कि मुझे यह ज्ञान जँचा नहीं परंतु ध्यानी दादी का भोला-भाला, निश्छल, प्रभावशाली व्यक्तित्व कई दिनों तक मेरे मन को प्रभावित करता रहा। इसे इत्तफाक ही समझा जाये कि काफी समय पश्चात् मैं दोबारा जब एक मित्र के साथ आश्रम गया तो ध्यानी दादी ने उसी बेंच पर बैठे हुए, उसी भोले अंदाज से कहा, मैंने कहा था ना कि आप दोबारा आयेंगे, आ गये ना, मुझे पता था कि अविनाशी ज्ञान का बीज नाश नहीं होता।

व्यक्तित्व में अपनापन

बाद में ध्यानी दादी के साथ इतना स्नेह जुड़ गया कि घर की, सर्विस की, निजी जिंदगी की, प्रत्येक समस्या उनको सुनाये बिना मन को चैन नहीं आता था। ध्यानी दादी ने कभी भी अपने प्रति हमारे विश्वास को कम नहीं होने दिया। वे हँसते-हँसते हमारे सभी दुख-दर्द सुनकर अपने में समा लेती थीं। जब कभी हम किसी विषय में दुविधा एवं असमंजस की स्थिति में होते तो उनका एक ही महावाक्य हमें राह दिखा देता था तथा हम भटकन से बाहर निकल आते थे। इतना अपनापन था उनके व्यक्तित्व में।

जीवन था खुली पुस्तक

उनका व्यवहार छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी के साथ एक समान वात्सल्यपूर्ण था। आज तक उनके प्रति किसी के मुख से कभी कोई गिला-शिकवा, शिकायत नहीं सुनी। सभी उनको आज तक आदर की दृष्टि से याद करते हैं। उनका स्वभाव बहुत ही सरल था। किसी प्रकार का कोई छल-कपट नहीं। वे खुली पुस्तक की तरह अपने जीवन को सबके सामने रख देती थीं। मन के सभी दरवाजे-खिड़कियाँ खोलकर अंतःकरण के दर्शन करवा देती थीं। एक बार मैंने उनसे अकेले में पूछा, दादी, हम तो अपने घर-बाहर की सभी छोटी-बड़ी बातें आपको बता देते हैं। आपने निजी जीवन के बारे में कभी कुछ नहीं बताया। उन्होंने बड़े भोले अंदाज से कहा, आपने कभी पूछा नहीं, पूछो, क्या पूछते हो। मैंने उनसे उनके जीवन के वे निजी प्रश्न पूछे जिनके लिए मैं आज महसूस करता हूँ कि बड़ों से ऐसी बातें पूछना अभद्रता है। मेरे प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने जो दिग्दर्शन करवाया, वह इस प्रकार था-

उस समय (सन् 1973) के नोट्स अब भी मेरे पास मौजूद हैं। उन्होंने बताया कि उनका जन्म सिंध, हैदराबाद में हुआ था। उस समय अपनी आयु 68 वर्ष बताई। उन्होंने बताया कि वे तीन बहनें एवं तीन भाई थे। उनकी माता का नाम मीमी जी था। लौकिक पिता जी जिनका नाम फतेहचन्द था, अमृतसर में सर्विस करते थे। ध्यानी दादी ने बताया कि उनके बड़े भाई का नाम साधूराम था, वे भी सर्विस करते थे। दूसरे भाई होतचन्द जी थे जिन्हें वे प्यार से होतू कहते थे। तीसरे भाई का नाम हासाराम था। उनकी एक बहन रोचा थी जो मातेश्वरी (मम्मा) की माता जी थी, जो उस समय जीवित थीं। उनकी एक बहन का नाम पार्वती था। ज्ञान में आने से पूर्व उन्हें गुरुग्रंथ साहिब की वाणी तथा भगवद्गीता में विशेष रुचि थी। वे ठाकुरों की सेवा कर बहुत आनन्दित हुआ करती थीं। ध्यानी दादी ने बताया कि उनकी 16-17 वर्ष की आयु में शादी हो गई थी। उनके दो जेठ व दो देवर थे। उनके पति का नाम परमानन्द था जो व्यापार किया करते थे। शादी के चार वर्ष पश्चात् उन्होंने शरीर छोड़ दिया था।

हैदराबाद-सिन्ध में उनका घर बाबा के घर के पड़ोस में था, बाबा को उस समय दादा लेखराज जी कलकत्ता वाले कहा जाता था। ध्यानी दादी ने बताया कि उन्हें एक दिन प्रातः काल बड़ी अजीब-सी आवाजें आई जैसे उन्हें कोई बुला रहा हो। रात्रि को उन्हें विष्णु का साक्षात्कार हुआ तो उन्हें लगा कि वही बुला रहे हैं। अगले दिन वैसे ही बुलाने की आवाजें फिर आई। उसी शाम को उनके पास दो मातायें आईं जिन्होंने बताया कि पड़ोस में सत्संग होता है, गीता सुनाई जाती है, अलौकिक दृश्य होता है। वहाँ जाने पर ज्ञान का ऐसा ‘इंजेक्शन’ लगा कि मैं बाबा की ही हो गई। कर्म, अकर्म, विकर्म की गहन गति का ज्ञान हो गया। उस समय का गीत ‘तेरी गठरी में लागा चोर, मानव जाग जरा’ गाकर ध्यानी दादी ऐसे मग्न हो गई मानो उनकी आत्मा कहीं शिवबाबा के पास ही घूम रही हो। ध्यानी दादी ने बताया कि मातेश्वरी (राधा) को ज्ञान में ले जाने वाली वह ही थीं।

फिर यह साक्षात्कार का पार्ट, ध्यान में जाना, रास करना आदि तीन वर्ष तक चलता रहा। उसी दौरान पवित्रता पर हंगामे आदि हुए। ध्यानी दादी ने बताया कि जब ये हंगामे हो रहे थे तो बाबा ने उन्हें गेटकीपर की ड्यूटी दे रखी थी। वहाँ के मुसलमान लोग उन्हें खुदा दोस्त कहा करते थे। विभाजन के बाद वे माउंट आबू आ गये। ध्यानी दादी ने बताया कि माउंट आबू आने के पश्चात् वे तीन वर्ष दिल्ली रहीं। तत्पश्चात् वे अढाई वर्ष अमृतसर, कुंज बहन के साथ रही। एक मास वे कानपुर भी रहीं। ये सब बताने के बाद ध्यानी दादी ने मुझसे पूछा कि कोई और प्रश्न बाकी हो तो पूछ लो, आज खुली छुट्टी है। मैंने कहा, दादी, जैसे स्थूल की गीता में कृष्ण जी, अर्जुन को विराट रूप दिखाते हैं, ऐसे आपने मुझे अपने दिल का एक-एक कोना दिखा दिया है, मेरा अब कोई प्रश्न नहीं। मेरी जिज्ञासा शांत हो गई है।

मधुबन में यादगार मुलाकात

सन् 1979 में वे यहाँ से मधुबन चली गई थीं। जाते समय वे मिलकर नहीं गई थीं जिस कारण मन में संकल्प चलते थे। सन् 1981 में जब मैं पहली बार मधुबन गया तो मैं अकेला ही गया था। मेरे साथ कोई ब्राह्मणी या सहयात्री नहीं था। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि मधुबन में दाखिल होते ही आज के हिस्ट्री हॉल के सामने एक कमरे की दहलीज पर ध्यानी दादी बैठी हुई थी। मैंने उन्हें ओमशान्ति की। उन्होंने मेरा नाम आदि पूछा। मैंने उन्हें बताया कि मैं अंबाला कैंट से आया हूँ। उन्होंने सबकी राजी-खुशी तो पूछी लेकिन मुझे लगा कि उनमें अब अपनापन नहीं रहा (परन्तु यह मेरी गलतफहमी थी)। याददाश्त कम तथा दृष्टि कमजोर हो जाने के कारण वे मुझे पहचान नहीं पाई थीं। मेरा बिस्तर नीचे तहखाने के हॉल में पट पर लगवाया गया था। जब मैं स्नानादि करके वापस हॉल में पहुँचा तो वहाँ न मेरा बिस्तर था, न अटैची थी। मैंने घबरा कर समझा कि शायद चोरी हो गया है परंतु हुआ यूँ कि मेरे आ जाने के उपरांत ध्यानी दादी ने किसी से पूछा कि यह (मैं) कौन था? ध्यानी दादी मुझे ‘हस्पताल वाला’ कहकर संबोधित किया करती थीं, जब किसी ने बताया कि यह वही अंबाला छावनी का हस्पताल वाला भाई है तो ध्यानी दादी को सब याद आया। उन्होंने ही फिर मेरी अटैची, बिस्तरा तहखाने के हॉल से उठवाकर ऊपर हवाई जहाज वाले कमरे में लगवा दिया था जहाँ केवल तीन बड़ी-बड़ी चारपाइयाँ थीं जिनमें से दो पर भण्डारे में काम करने वाले भाई सोते थे। फिर तो ध्यानी दादी से रोज वहीं कमरे की दहलीज पर मुलाकात होती। वे मेरे से सारे दिन का हालचाल पूछती। मेरे रहने-सहने, खाने आदि का समाचार लेती तथा ऐसे मुझे गाइड करती जैसे कोई लौकिक माँ अपने बेटे को छोटी-छोटी बातें समझाती है। वहाँ मधुबन में रहते मुझे ख्याल आया कि यहाँ ध्यानी दादी अपनी दैनिक आवश्यकता के लिए कहीं पैसे आदि से तंग न हो। मैंने 200 रुपये निकालकर ध्यानी दादी को देने चाहे। वह फौरन बोली, अरे, मैं इनका क्या करूंगी, कहाँ संभालती फिरूँगी। आप इनको यज्ञ में दे दो, मुझे तो यहाँ किसी चीज की आवश्यकता नहीं। मैंने कहा, दादी, मैंने जो यज्ञ में देना था, दे दिया है। जब वापस आना था तो ध्यानी दादी ने मुझे टोली की तीन-चार डिब्बियाँ दी तथा कहा कि यह वाली ट्रेन में बैठकर भोजन खाने के बाद खोलना, यह वाली चाय के समय खोलना, यह वाली कल प्रातः खोलकर खाना। मेरे मेन गेट के बाहर निकलने तक वे एकटक मुझे निहारती रहीं। उस दृष्टि की छाप आज तक मेरे मानसपटल पर अंकित है। ट्रेन में बैठकर जब दादी के आदेशानुसार टोली की डिब्बी खोलकर कभी नमकीन कभी मीठा खाता था तो ऐसा लगता था जैसे ध्यानी दादी मेरे साथ बैठकर अपने हाथों से मेरे मुँह में टोली डाल रही हो।

ब्र.कु.अमीरचंद भाई, ध्यानी दादी के बारे में अपना अनुभव इस प्रकार सुनाते हैं –

ध्यानी दादी की विशेषता थी कि खुली आँखों से ध्यान में जाती थीं। सन् 1959 में जब मैं ज्ञान में आया उस समय ध्यानी दादी अंबाला कैंट में सेवारत थीं। दादी का योग इतना पावरफुल होता था कि लोगों को अनुभूति होती थी। दादी खुद ध्यान में जाती थी तो वातावरण इतना शक्तिशाली बन जाता कि सारी क्लास ध्यान में चली जाती थी। मनोहर दादी उस समय करनाल में थी। वे अक्सर ध्यानी दादी को क्लास के भाई-बहनों को अनुभूति कराने के लिए अंबाला से करनाल बुलाया करती थीं।

पहले स्थूल फिर सूक्ष्म पालना

दादी जी में पालना का संस्कार जबर्दस्त था। दादी जी डायरेक्ट ज्ञान-योग की पालना नहीं देती थीं, पहले स्थूल पालना देती थीं। जब निश्चयबुद्धि हो जाते थे तो ज्ञान-योग से पक्का करती थीं। यही कारण था कि अंबाला कैंट में परिवार के परिवार ही क्लास में आते थे।

बच्चों पर विशेष ध्यान

वे जितनी स्वीट थीं, उतनी स्ट्रिक्ट भी थीं। दादी प्रकाशमणि जी सुनाया करती थीं कि जब शुरू के दिनों में बाबा ने सबको चिट्ठी लेकर आने को कहा तो ध्यानी दादी की गेट पर ड्यूटी लगाई। ध्यानी दादी बहुत प्यार से बात करती लेकिन बाबा के आदेश पालन में पक्की इतनी कि चिट्ठी के बिना किसी को अंदर नहीं आने देती थीं। उनके नियम-कायदों में पक्की होने के कारण ही अंबाला में जितने भी युगल निकले, वे पूर्ण रूप से मर्यादाओं में चलने वाले थे। माताओं को भी दादी सिखाती कि बच्चों को हफ्ते में एक दिन आश्रम पर ले आना है। उन्हें ट्रेनिंग देती कि बच्चों की रूहानी पालना कैसे करनी है। वे उन्हें कहती कि अगर आप बच्चों को पैसे देंगी तो वे बाहर का खायेंगे, इसकी बजाय, स्वयं बनाकर उनके बैग में कोई न कोई खाने की चीज़ डाल दो। सुबह नाश्ते से पहले जो मुरली आपने सेन्टर पर सुनी, वह बच्चों को सुनाओ।

उपराम, न्यारी-प्यारी अवस्था

शरीर छोड़ने के कुछ महीनों पहले जब उनकी तबीयत ठीक नहीं रहती थी तो दादी प्रकाशमणि जी ने उन्हें अंबाला कैंट से पांडव भवन बुला लिया। पांडव भवन में ट्रेनिंग सेक्शन में मैं उनके कमरे में मिलने गया तो देखा कि दादी बाबा की याद में बैठी हैं। दादी के चेहरे पर बहुत चमक थी। मैंने पूछा कि आप कैसे हैं? दादी ने तुरंत कहा, भाई, मैं तो तैयार बैठी हूँ, बाबा जब बुलाये। अपने अंतिम समय का, शरीर छोड़ने का कोई इतना खुशी से इंतजार करे, ऐसा मैंने ध्यानी दादी को ही देखा। उनकी योग की साधना ऐसी थी कि वे यहाँ ही जीवनमुक्त स्थिति का अनुभव करती थी। अंतिम दिनों में मैने उन्हें एकदम उपराम, न्यारी-प्यारी अवस्था में देखा।

अंबाला छावनी शाखा की निमित्त संचालिका बहन कृष्णा जी ने ध्यानी दादी के विषय में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये –

माँ जैसी पालना

सन् 1974 में जब मैं मधुबन से अंबाला छावनी शारीरिक इलाज करवाने आई, उस समय सेवाकेन्द्र पर ध्यानी दादी थी। मैं सन् 1978-79 तक लगभग चार-पाँच वर्ष उनके सान्निध्य में रही। मेरा शरीर ठीक नहीं था। ध्यानी दादी ने मुझे माँ की तरह पालना दी। इसलिए हम उन्हें प्यार से ध्यानी नानी कहते थे क्योंकि वह नानी की तरह हमारी छोटी-छोटी बातों एवं आवश्यकताओं का ध्यान रखती थी। उनमें नम्रता, निर्मानता के गुण कूट-कूट कर भरे हुए थे। यदि कोई जिज्ञासु रूठ जाता तो वे उसके घर जाकर उसे मना लेती थी। वे अपने जीवन के प्रत्येक कार्य में परमात्मा का हाथ व साथ पकड़े रहती थीं। सप्ताह के प्रत्येक दिवस को उन्होंने परमात्मा के साथ जोड़ रखा था।

दादी दिनों का महत्त्व बताती थी

इतवार के दिन वे कहती, हर क्षण बाबा पर एतबार करो। इतवार को रविवार कहते तो कहती थी कि रवि (सूर्य) के सान्निध्य में सूर्य की तरह चमको। सोमवार वाले दिन कहती, बाबा के अंग-संग रह सारा दिन सोमरस पिओ। मंगलवार वाले दिन कहती, मंगल मिलन मनाओ, प्रभु गुण गाओ। बुधवार वाले दिन कहती, बुद्धि प्रदान करने वाली माँ सरस्वती को याद करो। सतगुरुवार को कहती, आज मेरे सतगुरु का दिन है, सच्चे दिल, शुभभावना, शुद्धता से भोग बनाओ और सतगुरु को खिला कर खाओ। वे स्वयं अपने हाथ से सतगुरुवार का भोग बनाती व भोग लगाती। सलेमानी (सोहन हलवा) बनाती व खिलाती। शुक्रवार को सभी को कहती, बार-बार बाबा का शुक्रिया करो और रात को शुक्रिया कर बाबा की गोद में सो जाओ। शनिवार वाले दिन कहती, सभी बाबा के सामने बैठ योग करो और शनि तथा राहू-केतु को दूर भगाओ। योग अभ्यास करो, पापों का नाश करो।

हर चीज़ से बाबा का नाम जोड़ती थीं

इस प्रकार बाबा को याद करने एवं करवाने की वे कोई-न-कोई युक्ति निकाल लेती थीं। पापड़ भूनते हुए कहती, पापड़ परमात्मा का, पानी परमेश्वर का, रोटी राम की, सब्जी सांवल शाह की, रजाई राम की, तलाई त्रिलोकीनाथ की, बिछौना बाबा का। वे हर चीज़ के साथ बाबा का नाम जोड़ लेती थीं जैसे बाबा उनके रोम-रोम में बसता हो।

निश्छल और साफ मन

सन् 1978-79 में उनकी आँखों की दृष्टि बहुत खराब हो गई थी। आँखें बनवाने के लिए उन्हें मुंबई भेजा गया। आँखें ठीक न बनने के कारण वे मधुबन में ही रह गई परंतु उनका दिल हमेशा अंबाला की ही तरफ रहा। सन् 1982-83 में वे पुनः एक बार अंबाला कैंट आई तथा सभी भाई-बहनों को मिलकर गई। उनका मन बच्चों की तरह निश्छल एवं साफ था। जब मन किसी भी कारण से उदास अथवा खिन्न होता तो वे अकेले अथवा छोटे-छोटे बच्चों के साथ लूडो या गिट्टे खेलने लग जाती थीं ऐसी थी हमारी ध्यानी दादी।

प्रसिद्ध आर्किटेक्ट एफ.सी.अग्निहोत्री के बड़े सुपुत्र ओम प्रकाश अग्निहोत्री ने ध्यानी दादी के बारे में अपने संस्मरण इस प्रकार व्यक्त किए –

सादगी और मृदुभाषा

सन् 1957 की बात है, मेरी आयु लगभग 18 वर्ष की थी। उस समय ब्रह्माकुमारी आश्रम हमारे घर में ही होता था। मुझे ध्यानी दादी से बहुत ही घनिष्ठ प्यार था। जब कभी उन्होंने चाय आदि बनानी या पीनी होती थी, मुझे अवश्य ही आवाज लगाकर बुला लेती थीं तथा हम इकट्ठे ही चाय आदि पीते थे। यदि उस समय मैं वहाँ नहीं होता था तो वे मेरा इंतजार किया करती थीं। ध्यानी दादी के समय अंबाला छावनी में लगभग 65-70 युगल ज्ञान में चलते थे। यह एक रिकॉर्ड था कि शुरू-शुरू में जितने युगल यहाँ ज्ञान में चलते थे, इतने कहीं भी नहीं थे जैसा कि पाटन की समर्पित बहन नीलम के माता-पिता, अंबाला की समर्पित बहन आशा के माता-पिता, इंदौर वाले ओमप्रकाश भाई के माता-पिता आदि। ये सभी युगल ध्यानी दादी के ज्ञान, ध्यान, सादगी, मन की सच्चाई-सफाई, मृदु भाषा एवं निश्छल स्नेह के दीवाने थे। ये सभी इस ईश्वरीय ज्ञान में इतने दृढ़ निश्चय वाले थे जैसे कि चूने में लगी ईंट।

दादी-नानी जैसा प्यार

ध्यानी दादी सभी जिज्ञासुओं का बहुत ध्यान रखती थीं। सभी अपने दिल की बात, पारिवारिक समस्यायें आदि ध्यानी दादी को आकर बताया करते थे। उन्होंने कभी किसी की बात इधर-उधर नहीं की, न ही किसी की बात का प्रभाव अपने ऊपर पड़ने दिया। वे अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, साधारण-विशेष सभी के साथ एक जैसा प्यार एवं व्यवहार रखती थीं। उनकी चाल-ढाल, बोल-चाल, व्यवहार में मुझे नानी या दादी के प्यार की भासना आती थी। ध्यानी दादी बहुत थोड़ा बोलती थीं लेकिन जब बोलती तो लगता था कि उनकी मंद-मंद मुसकान के रूप में फूल झर रहे हैं। उनके साथ रहने वाली राधा बहन भी बहुत साफ दिल की थी परंतु वे ध्यानी दादी के विपरीत खुल कर, खिलखिलाकर हँसती थी। ध्यानी दादी में वस्तुओं का संग्रह करने की वृत्ति बिल्कुल नहीं थी। इतने वर्ष एक स्थान पर रहने के बावजूद उनका निजी सामान एक छोटा-सा ट्रंक जिसे शायद संदूक कहना अधिक उचित होगा तथा जयपुरी पतली-सी रजाई सहित छोटा-सा बिस्तरा था जिसमें सारी सर्दी गुजार देती थी। उन्हें खाने की बजाय खिलाने का शौक था। यदि कोई फल आदि लाता था तो वह उसकी मौजूदगी में ही टोली-प्रसाद के रूप में उसे सबको बाँट देती थी। ऐसी प्रेम और शीतलता की मूर्ति ध्यानी दादी को याद कर आज भी मन शांत, स्थिर एवं शीतल हो जाता है। ऐसी महानविभूति को मेरा कोटि-कोटि नमन!

वायुसेना की सेवाओं में तकनीकी पद से सेवानिवृत्त और 40 वर्षों से ज्ञान में चलने वाले ब्र.कु.मोहनलाल (अंबाला), ध्यानी दादी से ली गई भरपूर पालना के अनुभव को इस प्रकार बयान करते हैं – अठारह जनवरी सन् 1970 को पहली बार सेवाकेन्द्र पर आया तो देखा कि सभी बहनें शान्ति से बैठी हैं, मैं भी बैठ गया। ब्रह्माकुमारी ध्यानी दादी जी ध्यान मुद्रा में लीन थीं। कुछ समय बाद ध्यान से नीचे आई तो कुछ महावाक्य उच्चारण करने लगी। उनके महावाक्यों में अद्भुत आकर्षण था जैसे स्वयं शिवबाबा और ब्रह्मा बाबा बोल रहे हों।

ध्यानी दादी जी का व्यक्तित्व

दादी जी का दिव्यता से भरपूर, मधुर, इच्छारहित, निःस्वार्थ मातृस्नेह से परिपूर्ण व्यवहार देखकर मन गद्गद हो गया। ऐसा लगा जैसे कई जन्मों से बिछुड़ी हुई माँ हमें मिल गई हो। इस निःस्वार्थ माँ जैसे प्यार ने देह के संबंधों को भुला दिया। फिर क्या था, मैं और मेरा बड़ा भाई ठाकुरदास जी, गाँव से आकर सेवाकेन्द्र के पास अलग से रहने लगे और बाबा की सेवा में पूरी तरह से संलग्न हो गये। दादी जी से हम दोनों भाइयों (मोहन व ठाकुर) को घर जैसा प्यार मिला और हम सब कुछ भूल गये। ध्यानी दादी जी गुरुवार का भोग स्वयं ही तैयार करती थीं और अपने ही हाथों से शिवबाबा को स्वीकार करवाती थीं। भोग स्वीकार करवाने के उपरांत शिवबाबा का अलौकिक संदेश सुनाया करती थीं।

पारखी बुद्धि

दादी जी की पारखी बुद्धि की हम प्रशंसा करते हैं। किसी की भी अवस्था थोड़ी-सी भी ढीली देखती थीं तो उसे युक्ति से कहती कि आज आपको भोजन का निमंत्रण है और उसे योग की शक्ति से भरपूर कर देती थीं। कभी भी किसी को बिना टोली, भोग आदि दिये नहीं भेजती थी। दीपावली एवं जन्माष्टमी के अवसर पर दादी जी ध्यान में जाती थीं, रास होती थी। इस आत्मा द्वारा भी अलौकिक फरिश्तों जैसा रास होता था। क्लास के सभी भाई-बहनें रास करते थक जाते थे परंतु ध्यानी दादी कभी नहीं थकती थीं। इतनी वृद्ध अवस्था में ऐसा देखकर आश्चर्य होता था। हम बच्चों को, दादी के द्वारा शिवबाबा ने वो प्यार दिया जो कल्प-कल्प का इतना ऊँचा भाग्य बना दिया। हमारी मीठी, प्यारी,तेजस्वी दादी की हम जितनी महिमा करें, उतनी ही थोड़ी है। साक्षात् शक्ति की अवतार थीं। उनके होने से क्लास का वातावरण ही बदल जाता था।

खुशियों से भर जाती थी झोली

कई बार हम किसी नई आत्मा को सेवास्थान पर लाते थे तो हम अनुभव करते थे और देखते भी थे कि जैसे दादी जी की आँखों में शिवबाबा आ जाता था और नई आत्मा को निहाल कर देता था। वह व्यक्ति दादी जी के चरणों में झुक जाता था। इस प्रकार, हम सब खुशियों से झोली भर कर जाते थे। उनकी पालना की ही कमाल है जो आज तक भी हम उसी निश्चय से अपना जीवन जी रहे हैं। उन्हीं के वरदानों के आधार पर मुझ आत्मा द्वारा अनेक आत्माओं की सेवा हुई। मैं तो अपने आप को प‌द्मापद्म भाग्यशाली समझता हूँ।

जगाधरी (हरियाणा) से ब्र.कु.दलबीर भाई, ध्यानी दादी जी से अपनी प्रथम मुलाकात का वर्णन इस प्रकार करते हैं – 

निराकार शिव पिता ने नवसृष्टि के निर्माण के कार्य में जिन अनेक आदि-रत्नों को चुना, ध्यानी दादी भी उनमें से एक थीं। स्नेह से परिपूर्ण उनकी अलौकिक दृष्टि मात्र से ही अनेक आत्माओं को शान्ति और शक्ति का अनुभव होने लगता था।

ब्रह्मा बाबा का साक्षात्कार

सन् 1972 की बात है, मुझे ज्ञान में आये हुए लगभग एक वर्ष हो गया था। कुछ दिनों के बाद ही मैं अंबाला छावनी स्थित सेवाकेन्द्र पर गया। जैसे ही आश्रम में प्रविष्ट हुआ, देखा, ध्यानी दादी जी सामने चारपाई पर बैठी हुई थी। उन पर जैसे ही दृष्टि पड़ी, मुझे ब्रह्मा बाबा का साक्षात्कार हुआ। मैं कुछ देर शांत खड़ा रहा, फिर दादी ने प्यार से मुझे अपने पास ही बिठा लिया और पूछा, कहाँ से आये हो? मैंने कहा, दादी,मैं गाँव से आया हूँ जो दस किलोमीटर दूर है। दादी ने कहा, हाँ, अच्छा, गाँव से आये हो, देखो, शिवबाबा भी गाँव के अपने भोले-भाले बच्चों को सच्चा पावन हीरा बनाने आये हैं, आप कितने भाग्यशाली हो जो इतनी छोटी-सी आयु में ही प्यारे बाबा को पहचान लिया। स्नेहमयी दादी के साथ पहली मुलाकात से ही ऐसा लगा जैसे कि मैं दादी को बहुत समय से जानता हूं और दादी भी मुझे बहुत समय से जानती हैं। फिर दादी ने कहा, कल रक्षाबंधन है, सवेरे बाबा से पावन राखी बंधवाने आना।

गीले और रंगीन कपड़े

अगले दिन सवेरे तीन बजे उठा और तैयार होकर आश्रम पर जाने के लिए पैदल ही चल पड़ा। जैसे ही कुछ दूरी तय की, बरसात शुरू हो गई परंतु मैं हिम्मत करके चलता रहा। आश्रम के नजदीक पहुँच कर मैंने भीगे हुए कपड़ों को निकाला, अच्छी तरह निचोड़ा और फिर पहन लिया। आश्रम में सभी बहन-भाई, क्लास में, पंक्ति में बैठे योग कर रहे थे। एक बहन ने मुझे देखकर पूछा, आप कहाँ से आये हो? आपने ये गीले और रंगीन कपड़े पहन रखे हैं, आपको इतना भी मालूम नहीं कि क्लास में सफेद वस्त्र पहनकर आना होता है। मैं डरकर, चुपचाप सिकुड़कर पीछे बैठ गया परंतु मन में गीले कपड़ों को देखकर ग्लानि महसूस हो रही थी। जैसे ही ममतामयी दादी जी संदली पर बैठ सबको योग दृष्टि देने लगी, कुछ क्षणों के बाद ही मेरे चारों ओर लाल प्रकाश ही प्रकाश फैल गया, असीम शक्ति का अनुभव होने लगा और जरा भी देह का भान नहीं रहा। कब मैं उठकर सबसे पहले दादी जी के सामने जा बैठा और कब दादी ने मुझे राखी बाँधी, मुझे कुछ भी पता नहीं चला। उस समय मैं बहुत ही गहरी शान्ति और शक्ति का अनुभव कर रहा था। चारों ओर लाल प्रकाश अन्त में जब कार्यक्रम पूरा हुआ, सभी मेरी ओर आश्चर्य भरी निगाहों से देख रहे थे, खुश होकर कह भी रहे थे कि आप तो बहुत सौभाग्यशाली हो जो बाबा ने आपको सबसे पहले राखी बाँधी और इतनी शक्तिशाली दृष्टि दी। कई दिनों तक मैं इसी अव्यक्त स्थिति की अनुभूति में खोया रहा।

ध्यानी दादी जी के प्रति पाटन सेवाकेन्द्र (गुजरात) की निमित्त संचालिका ब्र.कु.नीलम बहन अपने उद्‌गार इस प्रकार व्यक्त करती हैं –

मैं जब चार वर्ष की थी तब लौकिक माता-पिता ज्ञान में आए। वे हमें भी साथ में लेकर आश्रम जाते थे। आश्रम पर ध्यानी दादी ने मुझे देखते ही कहा, यह यज्ञ से गई हुई आत्मा है, इसका ध्यान रखना। ध्यानी दादी एकदम योगयुक्त, शांत, धैर्य की मूर्ति और गंभीर थी। उन्हों की दृष्टि से ही आत्मायें बाबा के बच्चे बन जाती थीं। बहुत कम बोलती थी परंतु वाणी इतनी शक्तिशाली थी जो आने वालों पर जादू का काम करती थी। बच्चों से बहुत प्यार करती थी, टोली खिलाती थी। उनका ध्यान का पार्ट था। जब जन्माष्टमी का दिन होता था तब बाबा को भोग लगाते समय उन द्वारा श्रीकृष्ण का पार्ट प्ले होता था। हम उन्हें मक्खन खिलाते थे, उनके साथ रास भी करते थे। वे सभी भाई-बहनों को मम्मा-बाबा जैसी पालना देती थीं। 

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

अनुभवगाथा

Dadi allrounder ji

कुमारियों को दादी ऐसी पालना देती थी कि कोई अपनी लौकिक कुमारी को भी शायद ऐसी पालना ना दे पाए। दादी कहती थी, यह बाबा का यज्ञ है, बाबा ही पालना देने वाला है। जो पालना हमने बाबा से ली

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Bk amirchand bhaiji

चण्डीगढ़ से ब्रह्माकुमार अमीर चन्द जी लिखते हैं कि उनकी पहली मुलाकात साकार बह्या बाबा से जून 1959 में पाण्डव भवन, मधुबन में हुई। करनाल में 1958 के अंत में ब्रह्माकुमारी विद्यालय से जुड़कर उन्होंने शिक्षा को अपनाया। बाबा का

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Bk mahesh bhai pandav bhavan anubhav gatha

ब्रह्माकुमार महेश भाईजी, पाण्डव भवन, आबू से, अपने अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि कैसे बचपन से ही आत्म-कल्याण की तीव्र इच्छा उन्हें साकार बाबा की ओर खींच लाई। सन् 1962 में ब्रह्माकुमारी संस्था से जुड़े और 1965 में

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Bk puri bhai bangluru anubhavgatha

पुरी भाई, बेंगलूरु से, 1958 में पहली बार ब्रह्माकुमारी ज्ञान में आए। उन्हें शिव बाबा के दिव्य अनुभव का साक्षात्कार हुआ, जिसने उनकी जीवनशैली बदल दी। शुरुआत में परिवार के विरोध के बावजूद, उनकी पत्नी भी इस ज्ञान में आई।

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Bk krishna didi ambala anubhavgatha

अम्बाला कैण्ट की ब्रह्माकुमारी कृष्णा बहन जी ने अपने अनुभव में बताया कि जब वह 1950 में ज्ञान में आयीं, तब उन्हें लौकिक परिवार से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी। अमृतसर में बाबा से मिलने के बाद, उन्होंने एक

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Bk gayatri didi - newyork anubhavgatha

गायत्री दीदी की प्रेरणादायक यात्रा दक्षिण अमेरिका से लेकर भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ तक फैली है। ज्ञान के मार्ग पर उन्हें बाबा का अटूट प्यार मिला, जिसने उन्हें यू.एन. में भारत की आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक बना दिया। उनकी

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Bk sister denise anubhavgatha

सिस्टर डेनिस का जीवन अनुभव प्रेरणा से भरा है। ब्रिटिश व्यवसायी परिवार से जन्मी, उन्होंने प्रारंभिक जीवन में ही महिला सशक्तिकरण के विचारों को आत्मसात किया और आगे भारतीय संस्कृति और ब्रह्माकुमारी संस्थान से जुड़ीं। ध्यान और योग के माध्यम

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Bk geeta didi los angeles anubhavgatha

जानिए ब्र.कु. गीता बहन के प्रेरणादायक जीवन की कहानी। कैसे उन्होंने ब्रह्माकुमारी संस्थान से जुड़कर विदेशों में ईश्वरीय सेवा की और भारतीय संस्कृति के संस्कारों को आगे बढ़ाया।

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Dadi pushpshanta ji

आपका लौकिक नाम गुड्डी मेहतानी था, बाबा से अलौकिक नाम मिला ‘पुष्पशान्ता’। बाबा आपको प्यार से गुड्डू कहते थे। आप सिन्ध के नामीगिरामी परिवार से थीं। आपने अनेक बंधनों का सामना कर, एक धक से सब कुछ त्याग कर स्वयं

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Dadi atmamohini ji

दादी आत्ममोहिनी जी, जो दादी पुष्पशांता की लौकिक में छोटी बहन थी, भारत के विभिन्न स्थानों पर सेवायें करने के पश्चात् कुछ समय कानपुर में रहीं। जब दादी पुष्पशांता को उनके लौकिक रिश्तेदारों द्वारा कोलाबा का सेवाकेन्द्र दिया गया तब

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Bk raj didi amritsar anubhavgatha

राज बहन बताती हैं कि उस समय उनकी उम्र केवल 13 वर्ष थी, और ज्ञान की समझ उतनी गहरी नहीं थी। उनके घर में बाबा और मम्मा के चित्र लगे थे, जिन्हें देखकर उन्हें इतना रुहानी आकर्षण होता था कि

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Bk suresh pal bhai shimla anubhavgatha

ब्रह्माकुमार सुरेश पाल भाई जी, शिमला से, 1963 में पहली बार दिल्ली के विजय नगर सेवाकेन्द्र पर पहुंचे और बाबा के चित्र के दर्शन से उनके जीवन की तलाश पूर्ण हुई। 1965 में जब वे पहली बार मधुबन गए, तो

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Bk kamlesh didi bhatinda anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी कमलेश बहन जी, भटिण्डा, पंजाब से, अपने साकार बाबा के साथ के अनमोल अनुभव साझा करती हैं। 1954 में पहली बार बाबा से मिलने पर उन्होंने बाबा की रूहानी शक्ति का अनुभव किया, जिससे उनका जीवन हमेशा के लिए

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Bk vedanti didi

नैरोबी, अफ्रीका से ब्रह्माकुमारी ‘वेदान्ती बहन जी’ लिखती हैं कि 1965 में पहली बार मधुबन आयीं और बाबा से मिलीं। बाबा ने उन्हें पावन बनकर विश्व की सेवा करने का वरदान दिया। बाबा ने वेदान्ती बहन को सफेद पोशाक पहनने

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Bk kailash didi gujrati anubhavgatha

गाँधी नगर, गुजरात से कैलाश दीदी ने अपने अनुभव साझा किए हैं कि उनकी जन्मपत्री में लिखा था कि वे 25 वर्ष की आयु में मर जाएँगी। 1962 में बाबा के पास जाने पर बाबा ने कहा कि योगबल से

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